Friday 5 September 2014

नागार्जुन

ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है..
ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द
ॐ प्रण‌व‌, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें
ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌गार्, ॐ घोष‌णाएं
ॐ भाष‌ण‌...
ॐ प्रव‌च‌न‌...
ॐ हुंकार, ॐ फ‌टकार्, ॐ शीत्कार
ॐ फुस‌फुस‌, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार
ॐ आस्फाल‌न‌, ॐ इंगित, ॐ इशारे
ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे

ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ
ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं
ॐ प‌त्थ‌र प‌र की दूब, ख‌रगोश के सींग
ॐ न‌म‌क-तेल-ह‌ल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, क‌नेर के पात
ॐ डाय‌न की चीख‌, औघ‌ड़ की अट‌प‌ट बात
ॐ कोय‌ला-इस्पात-पेट्रोल‌
ॐ ह‌मी ह‌म ठोस‌, बाकी स‌ब फूटे ढोल‌

ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः
ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ क‌विः
ॐ क्रांतिः क्रांतिः स‌र्व‌ग्वंक्रांतिः
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः स‌र्व‌ग्यं शांतिः
ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः स‌र्व‌ग्वं भ्रांतिः
ॐ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ
ॐ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ

ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌ना द‌ल, ॐ
ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण, राष्ट्रीक‌रण
ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण
ॐ ऎत‌राज़‌, आक्षेप, अनुशास‌न
ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न
ॐ ट्रिब्यून‌ल‌, ॐ आश्वास‌न
ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌
ॐ छ‌ल‌-छंद‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़
ॐ ब‌क‌वास‌, ॐ उद‌घाट‌न‌
ॐ मारण मोह‌न उच्चाट‌न‌

ॐ काली काली काली म‌हाकाली म‌हकाली
ॐ मार मार मार वार न जाय खाली
ॐ अप‌नी खुश‌हाली
ॐ दुश्म‌नों की पामाली
ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ॐ अपोजीश‌न के मुंड ब‌ने तेरे ग‌ले का हार
ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ
ॐ ह‌म च‌बायेंगे तिल‌क और गाँधी की टाँग
ॐ बूढे की आँख, छोक‌री का काज‌ल
ॐ तुल‌सीद‌ल, बिल्व‌प‌त्र, च‌न्द‌न, रोली, अक्ष‌त, गंगाज‌ल
ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून‌, म‌र्क‌ट का फोता
ॐ ह‌मेशा ह‌मेशा राज क‌रेगा मेरा पोता
ॐ छूः छूः फूः फूः फ‌ट फिट फुट
ॐ श‌त्रुओं की छाती अर लोहा कुट
ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ ब‌ज‌रंग‌ब‌ली
ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की न‌ली

आदरबाज़ी / स्वयं प्रकाश

- हमें तो आप माफ ही करो भैया!
- क्यों अंकल? क्या हो गया? आपको प्रॉपर रिगार्ड नहीं मिला क्या?
- उल्टी बात है भैया। जरा ज्यादा और जल्दी ही प्रॉपर रिगार्ड मिल गया। आदर देने के मामले में अपने देश के लोग बहुत उदारवादी हैं। कितना ही कमीना आदमी हो, खूनी हो, मुजरिम हो, बस विशेष वस्त्र पहन ले, फिर देखो क्या प्रॉपर रिगार्ड मिलता है उसे! और यही क्यों, आदमी कोई भी हो, कनपटी पर दस-बीस सफेद बाल आते ही उसे देखने की दुनिया की नजर बदल जाती है। आप अध्यापक हों या प्रबंधक, चाहे मोची या नाई ही क्यों न हों-एक दिन आप अचानक आदरणीय बन जाते हैं। लोग आपसे आप-आप करके बात करने लगते हैं लडकियाँ आपको देखकर सीने पर अपना दुपट्टा व्यवस्थित करना छोड देती हैं। सप्पू-गप्पू-निक्की-बबली टाइप आपका बचपन का नाम कान में पडे तो आप ऐसे चौंक जाते हैं जैसे भूत देख लिया हो! जब कोई खामखाँ आफ नाम के आगे 'जी' लगाता है-मसलन पडौसन दादी या आफ मामा जी-तो लगता है जैसे आप किसी पारले-जी के भाईबन्द बन गये हैं।
- अंकल, दूसरों की नजर में आदरणीय बनने में क्या बुराई है?
- और खुद की नजर में? देखो, मेरे साथ क्या होने लगा है! मेरे खुद के प्रति मेरा रवैया आत्मविश्वासपूर्ण से सन्देहपूर्ण होता जा रहा है। पहले पत्थरों पर भी पैर फैलाकर लेट जाता तो थोडी देर में खर्राटे लेने लगता था। अब रात भर पडा रहता हूँ और फिर भी नींद पूरी नहीं हो पाती। साला कोई ढंग का सपना भी नहीं आता। नहाता हूँ तो लगता है कि त्वचा गीली हुई ही नहीं-मानो कोई अदृश्य बरसाती पहनकर नहाया होऊँ! हाजत दिन भर महसूस होती है, पेट एक बार भी पूरी तरह साफ नहीं होता। मेकअप किट में मॉइश्चराइजर और परफ्यूम की जगह आइड्रॉप, आयोडेक्स और एण्टासिड आ बिराजे हैं। अखबारों में छपे 'आँवले के गुण' और 'प्राकृतिक चिकित्सा के लाभ' टाइप के लेख ध्यान खींचने लगे हैं। एक दिन तो मैंने खुद को भविष्यफल पढते रंग हाथों पकड लिया! जबकि भविष्य ससुरे में अब बचा क्या है! बताओ! क्या इसी को ग्रेसफुली बूढा होना कहते हैं?
- आप इतना सोचते क्यों हैं? क्यों नहीं टाल देते?
- टाल तो देता ही हूँ। पहले रूस-अमरीका के बारे में सोचता था। विश्वयुद्ध और विश्वशांति के बारे में सोचता था। समाजवाद और रंगभेद के बारे में सोचता था। और तो और बियाफ्रा और रोडेशिया के बारे में सोचता था जिनसे देखा जाय तो मेरा क्या लेना-देना था? अब नहीं सोचता! पर अपने बारे में कैसे न सोचूँ?
- आप कोई लाफ्टर क्लब जॉइन कर लीजिए। देखिए, बगीचे में सीनियर सिटिजन कैसे हँसते हैं सुबह-सुबह!
- तुम उसे हँसना कहते हो? मुझे तो उसे सुनकर रोना आता है। सही बात तो यह है कि अगर हँसी न आये तो हँसने का नाटक करने की बजाय चुप ही रहना चाहिए। उम्र के साथ लोगों की आपसे अपेक्षाएँ भी बदल जाती हैं। जीवन भर आप छतफाडू ठहाके लगाते रहे। लेकिन अब आपसे अपेक्षा की जाती है कि आप शालीनता से हँसे। थोडा-सा फिस्स। लगभग बेआवाज। बेहतर हो कि हँसें ही नहीं, सिर्फ चौडा-सा मुस्कुरा दें। उसी में गंभीरता वाली छवि बनी रहेगी। वरना छिछोरे लगेंगे।
- अंकल मैं आपको कुछ जोक बुक्स ला दूँ? या एसएमएस...
- जोक्स? लतीफे? चुटकुले? बूढा आदमी और लतीफा? क्यों मज़ाक करते हो यार!
- क्यों अंकल?
- देखो लतीफे का क्या है, मजा आये तो किसी को सुनाने का मन करता है। मैं किसको सुनाऊँगा? बहू को? दामाद को? अच्छा लगेगा? उम्ररसीदा आदमी अपने यहाँ जोक नहीं, संस्मरण सुनाते हैं। बेशक उसमें हास्य का भी कुछ समावेश हो सकता है, लेकिन बत्तमीजी बिल्कुल नहीं। किस्से में कोई नॉनवेज लफ्ज, बात या इशारा नहीं होना चाहिए। ऐसा लगना चाहिए जैसे तुम जीवन भर परम वैष्णव रहे। न कभी किसी को गाली दी न कभी किसी को गलत नजर से देखा, संसर्ग करना तो बहुत दूर की बात है। हमारे समाज को ऐसे ही बूढे पसन्द हैं। धार्मिक प्रकृति के। उदासीन सम्प्रदाय के। जीवन की नदिया से बाहर-तट पर तौलिया लपेटकर बैठे हुए।
- और कोई बूढा रसिक हुआ तो? कभी-कभी...
- तो क्या! मोहल्ले भर की गालियाँ खाएगा। टाइम पर रोटी भी नहीं मिलेगी। और तो और, खुद की नजरों में भी इज्जत गिर जाएगी।...परसों क्या हुआ पता है? मैं बाथरूम में नहा रहा था।
अचानक पाया कि गुनगुना रहा हूँ। और क्या गुनगुना रहा हूँ? तो 'भींगे होंठ तेरेऽऽ!' सोचो! कोई सुन लेता तो क्या सोचता? कैसी गंदी-गंदी लाइनें हैं आगे! या मेरे साथ, कोई रात गुजार! छिः! अच्छा हुआ मैं जल्दी से चुप हो गया। किसी ने सुना नहीं।
- ऐसी बात नहीं है अंकल! बूढों को गाते देखना भी अच्छा लगता है।
- हाँ, लेकिन कौन सा गाना? एक अधबूढे-गंजे-पोपले- मुरझाये आदमी या औरत के मुँह से रोमांटिक गाना सुनकर कुछ अजीब-सा नहीं लगेगा? जैसे हंगल और ललिता पँवार ने सुर्ख लाल रंग की जीन्स या स्लेक्स पहन ली हो! हाँ, कोई सोबर गाना हो तो फिर भी ठीक है। बेहतर तो बल्कि यह होगा कि वह कोई भजन हो। आरती हो। संकीर्तन हो। प्रार्थना हो। अरदास हो। उसमें गिडगिडाने का भाव जरूर होना चाहिए। भक्तिरस का आविष्कार बुढापे के लिए ही हुआ है।
- ऐसी बात नहीं है अंकल! कई लोग गजल भी गाते हैं।
...हाँ, गाते हैं। पर वही की वही गजलें कब तक गायें? नयी गजलें बनती कहाँ हैं? न कोई लिखता है न कोई गाता है! अब गजल वगैरह में किसे दिलचस्पी है? आजकल तो गाने बनते हैं नाचने के लिए, थिरकने के लिए, डिस्को के लिए, डीजे के लिए, नॉनस्टॉप गरबा के लिए, शादियों के लिए, रिंगटोन और आइपॉड के लिए। तो इससे तो बेहतर है चुप ही रहो। बँधी मुट्ठी लाख की। लोगों को कहने दो चाचा जी अपने टाइम में बहुत अच्छा गाते थे। 'अपने टाइम में' को अण्डरलाइन करो और समझो, बुरा मत मानो, समझो।
...भाई, मुझे तो यह पूरा षड्यंत्र लगता है जिसके तहत अच्छे-खासे काम धंधे से लगे आदमी या औरत को सब मिलकर जईफी में धकेलते हैं। मानो कहते हों-चलो मंच छोडो। बहुत हो गया। अब दूसरों को आने दो। औरतें तो फिर भी कह देती हैं, "आण्टी मत कहो न प्लीज!" चेहरे पर चार-चार घंटे ककडी-टमाटर-मसूर की दाल-मुल्तानी मिट्टी थोप सकती हैं, मर्द बेचारे क्या करें!
लेकिन दिल छोटा करने की बात नहीं। बुजुर्गों को खामखाँ कई कन्सेशन भी मिल जाते हैं। भरी बस या ट्रेन में तुम और तुम्हारे श्यामकेशी मित्र खडे रह जाएँगे, मुझे कोई भी अपने पास बैठा लेगा - "आइये अंकल! आप यहाँ आ जाइये।" किसी भी सुन्दर कन्या की तरफ देखो, वह नजरें नहीं चुराएगी, उल्टे गप्पे लडाना चालू कर देगी। उसकी नजर में मैं हार्मलेस हो चुका हूँ। दावत में सबसे पहले प्लेट मुझे पकडाई जाएगी और सामान वगैरह उठाने में मेरी बारी आई भी तो आखीर में आएगी।
धीरे-धीरे इन कन्सेशन्स की आदत पड जाएगी और काम करने की बची-खुची आदत भी छूटती जाएगी। फिर में रह-रहकर जवानों से ईर्ष्या करूँगा और हर नयी चीज को घटिया और स्तरहीन कहूँगा। जितना स्वस्थ रहने की सोचूँगा उतने नये-नये और अनपेक्षित कष्ट देह में पैदा होते जाएँगे। जितना भविष्य के बारे में सोचने की कोशिश करूँगा, उतना ही भूत हॉण्ट करेगा और शायद अंत में मैं भी भगवानों-डिप्टी भगवानों की शरण में चला जाऊँगा।
ज़िन्दगी का जलवा बस इतनी ही देर का है। सबको यहीं से होकर गुजरना है।

अक्खी मुंबई / राकेश श्रीमाल

एक और धीरूभाई, जो मुंबई में रहता है
शहरों के उपन्यास शहर के प्रतिनायकत्व से जूझते हुए शुरू होते हैं. मध्यवर्ग की आकांक्षा और सीमा के बीच वह हर जगह दृश्य होता है. उसकी विराटता और उसका सामर्थ्य किसी नायक से कम नहीं. हिंदी में शहर को केन्द्र बनाकर लिखे गए उपन्यास गिनती के हैं. यशस्वी कवि, पत्रकार, संपादक राकेश श्रीमाल ने ‘अक्खी मुंबई’ लिखना शुरू किया है. इसमें उनके संगी साथी भी हैं, उनका जीवन और जीवन–संघर्ष भी. हिंदी को एक बेहतरीन आख्यान मिले इसी उम्मीद में ‘समालोचन’ इस सातत्य का सहभागी बन रहा है.
 इसे पूरा होते हुए आप यहीं देख – पढ़ सकते हैं.
उस वक्‍त का चारकोप कैसा था, यह इस शताब्‍दी में मुंबई आए लोग अंदाज नहीं लगा सकते. उसी चारकोप की एक खोली (स्‍वतंत्र घर) में भाडे से रहती थी ललिता अस्‍थाना. यह कहने में मुझे कोई शर्म नहीं कि उस खोली में धीरेन्‍द्र इसलिए रहते थे कि वहां ललिता भाभी रहती थी. वरना धीरेन्‍द्र उस मायालोक में रहते थे कि मुंबई क्‍या, किसी गांव में भी अकेले नहीं रह सकते थे.
लोअर परेल के ब्रिटिश रेल्‍वे अधिकारियों के लिए बीसवी सदी की शुरूआत में बने आवास स्थित अपने कमरे से लोकल पकड कांदिवली स्‍टेशन उतर कर पैदल चारकोप के उसी ललिता भाभी के घर प्रत्‍येक रविवार की दोपहर जाया करता था मैं.
धीरेन्‍द्र अस्‍थाना अपनी शादी के बाद से ही बेघर हो गए थे. यह सच इसलिए है कि उसके बाद के जीवन और घर को संभालने वाली ललिता भाभी ही रही है. ललिता भाभी के घर में धीरेन्‍द्र ने अभी तक तो अपने को महफूज ही माना है.
कांदिवली पश्चिम से वह घर लगभग 6 कि. मी. दूर था. बेस्‍ट की बस का टिकट भी शायद 2 रूपये था. रामनाथ गोयनका के इंडियन एक्‍सप्रेस साम्राज्‍य के हिन्‍दी अखबार जनसत्‍ता में काम करने वाले इस पत्रकार के पास अक्‍सर पैसे ही नहीं होते थे. मुझे पता होता कि ललिता भाभी फिर आज टोकने वाली है कि राकेश एक नया पेंट खरीद लो, एक ही पेंट कब तक पहनते रहोगे.
धीरेन्‍द्र और मेरी दिमागी कसरत का ही परिणाम रहता कि उस तरह की अकेली दोपहरों में ठण्‍डी बियर के साथ मटन खाया जाता और फिल्‍मी गानों और कथानकों पर चर्चा होती रहती.मुंबई में वह समय आज तक का हिन्‍दी-पत्रकारिता के लिए अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण और सक्रिय समय था. साहित्‍य, रंगमंच और कला से जुडी कई बेहतर युवा प्रतिभाएं इस पत्रकारिता से जुडी थी. जो प्रतिदिन प्रेस क्‍लब, फिल्‍मी पार्टियों और दीगर आयोजनों में टकराती रहती थी. निदा फाजली ने ही उन दिनों धीरेन्‍द्र को कथा सम्राट कहना शुरू किया था और संजय मासूम और मैंने धीरू भाई या बाऊजी कहना शुरू किया था. मुंबई की आपाधापी और चकांचौंध ने इस कथा सम्राट को अपनी रचनात्‍मक साहित्यिक जमीन से मिलने का समय ही नहीं दिया. लेकिन फिर भी समय निकालकर धीरू भाई ने अपने सगे ध्‍येय को जारी रखा.
उसी दौरान उन्‍हें इंदू शर्मा कथा सम्‍मान भी मिला. उन्‍होंने जैसे तैसे करके मीरा रोड में अपना घर भी ले लिया. प्रतिदिन दोपहर 3 बजे से लेकर रात को अंतिम ट्रेन पकडते हुए हम दोनों साथ रहा करते. इसी ढलती दोपहर, शाम और फिर तरल होती रातों के समय में ही समूचे मंबई को अपने अपने क्षेत्रों में जिया जाता. मैं रंग शारदा या पृथ्‍वी थिएटर में हो रही नाट्य प्रस्‍तुतियों, जहांगीर या पंडोल आर्ट गैलरी में लगी प्रदर्शनियों, पंडित रामनारायण के सारंगी वादन या अन्‍य शास्‍त्रीय  बैठकों से रूबरू होता रहता. धीरू भाई सबरंग की आवरण कथा, कथा-कविता चयन और 10 मिनिट में 20 बार बजने वाले फोन से जुझते रहते. मुंबई की प्रत्‍येक शाम ने धीरू भाई और मुझे इस बात का कोई दुखद अहसास नहीं होने दिया कि हम वहां लिख नहीं पा रहे थे. कहीं किसी संपादक द्वारा मांगे जाने पर जो भी लिखा जाता, उसी में संतुष्‍ट रहना पडता. मुंबई में रहने और काम करने के लिए किसी भी रचनात्‍मक हिन्‍दी पत्रकार को जो संघर्ष करना पडता है उसमें अपनी रचनात्‍मकता से बिना शर्त समझोता भी अहम है.
फिर भी........
फिर भी धीरू भाई ने 1990 से मुंबई में रहते हुए इसी मुंबई को अपने लिखे शब्‍दों से हराया और बीच के तीन-चार वर्ष दिल्‍ली रहने के बावजूद इसी मुंबई में डटे रहे ओर आज महाराष्‍ट्र राज्‍य हिन्‍दी साहित्‍य अकादमी के छत्रपति शिवाजी राज्‍य पुरस्‍कार के सही मायने में हकदार बने. उन्‍हीं धीरू भाई को कम ओर इसकी वास्‍तविक हकदार ललिता भाभी को इसके लिए फिलहाल इन्‍हीं शब्‍दों से बहुत बहुत बधाई.
जनसत्‍ता के साथ प्रति रविवार निशुल्‍क वितरित होने वाली रविवारीय पत्रिका सबरंग की आवरण कथा का विषय चुनने से लेकर, उसे किससे लिखवाया जाए और किस तरह के शीर्षक के तहत उसे किस शैली में प्रस्‍तुत किया जाए, धीरू भाई की अच्‍छी खासी रचनात्‍मकता इसी मे चली जाती थी और वे इससे संतुष्‍ट भी रहते थे. कभी कोई अच्‍छी आवरण कथा को अंतिम रूप देने के बाद उन्‍हें और साथ ही मुझे भी इतनी आत्‍मीय प्रसन्‍नता होती थी जैसे हमने कोई महान कहानी या कविता लिख ली हो. यहां यह बता देना किसी  रहस्‍य को खोलना  नहीं होगा कि उन दिनों सबरंग के कारण रविवार को जनसत्‍ता बहुत अधिक बिकता था और क्रमश...  इसी के चलते प्रतिदिन भी.
सबरंग 32 पन्‍नों की रविवारीय पत्रिका थी जिसके 8 पन्‍ने रंगीन हुआ करते थे. उन रंगीन पन्‍नों का प्रभार मेरे पास था. साथ ही मैं जनसत्‍ता का प्रतिदिन प्रकाशित होने वाला फीचर पन्‍ना भी देखता था. मसलन स्‍वास्‍थ, महिला विश्‍व, कला संस्‍कृति  इत्‍यादि. प्रति शुक्रवार आठ दिन बाद आने वाले रविवार के लिए पूरी पत्रिका की फाइनल एप्रूव्‍ड प्रेस कॉपी भेजना होती थी. एक्‍सप्रेस टावर से बाहर निकलते हुए शुक्रवार की उस शाम का मतलब हम दोनों के लिए पूरे सप्‍ताह की थकान मिटाना होता. निसन्‍देह औपचारिक ताम-झाम से भरी फाइव स्‍टारों में होने वाली फिल्‍मी पार्टियों से अलग-थलग किसी मित्र के साथ प्रेस क्‍लब या टाउन में ही स्थित किसी शांत बार में. बंबई में चर्च गेट, फोर्ट, फाउंटेन और कोलाबा के इलाके को टाउन कहा जाता है.एयर इंडिया के पास से या भारतीय जनता  पार्टी के राज्‍य मुख्‍यालय के बाहर से टैक्‍सी रोक उसमें बैठते हुए हम अपने को पूरी तरह ढीला छोड देते कि अब फिलहाल कोई भी काम नहीं बचा है. थ्री इडियट्स बनने की विचार प्रक्रिया से एक दशक पूर्व हमारा अनकहा परस्‍पर संवाद होता आल इज वेल.
धीरू भाई कहानी यूं तो एक ड्राफट में ही लिख लेते है लेकिन उसे पहले से जीने लगते है. कभी आपने ही विचारों में तो कभी टूटी-फूटी बातें में. मैरी फर्नांडीस, क्‍या तुम तक मेरी आवाज पहुंचती है'' कहानी लिखे जाने की पूरी जीवंत रचना प्रक्रिया आज भी मेरी स्‍मृति में है. वे इसलिए बडे कथाकार है कि उस शहर की अत्‍यधिक भागम-दौड और असुरक्षित जीवन-व्‍यवस्‍था के दरमियां रहते हुए वे अपने पात्रों का एकाकी जीवन जी लेते थे. वे खुद हर छोटी-छोटी बातों का अर्थ और उन्‍हें देखने की दृष्टि मोटे तौर पर भले ही नहीं जीते हो लेकिन उनके पास उसी अपकड और अदृश्‍य दुनिया में रहते थे.
धीरू भाई को अपने लिखने के लिए एकांत का होना जरूरी होता है. इसलिए वे अखबार से छुटटी ले लेते या बंबई से लगे किसी आसपास के इलाके में चले जाते. यदा कदा जब वे बंबई से बाहर कहीं लंबे जाते तो लगता कि पूरी घर-गृहस्‍थी से मिलने वाली सहज सुरक्षा को अपने साथ ही ले जाने का प्रयास करते. अपने पात्रों के अकेलेपन को रचने वाले इस कथाकार को अकेले होने से बहुत डर लगता है. उन्‍हें उस दौरान अपने साथ किसी का होना हमेशा जरूरी लगता. चाहे वह लोकल से आना-जाना हो या किसी पार्टी में शिरकत करना. आज मेरा यह मानना है कि उस समय अगर वे किसी को प्रेम करते तो उन्‍हें प्रेम के अकेलेपन से भी डर लगता और वे अपने किसी विश्‍वस्‍त को उस निहायत व्‍यक्तिगत मामले के रहस्‍य के भागीदार बना लेते .
अंदाज लगाया जा सकता है कि धीरू भाई निश्‍छलता का ही जीवन जीते रहे. अगर उन्‍हें पता भी रहता कि कोई उन्‍हें ठग रहा है तो वे अपने उस ठगे जाने का आनंद ही लेते और बाद में मूड में रहने पर उसे मित्रों के बीच सुना भी देते.
धीरू भाई गाना गाने के भी शौकीन है. उन्‍हें पुरानी फिल्‍मों के गाने अच्‍छे लगते और यदा कदा वे गाते भी. एक गाना अक्‍सर वे गाते 'दिए जलते हैं, फूल खिलते हैं बडी मुश्किल से मगर दुनिया में, दोस्‍त मिलते हैं ..... इसे गाते हुए वे अक्‍सर भावुक हो जाते. दिल्‍ली में बिताए अपने संघर्ष के दिनों के वे दोस्‍त जो उनके इर्द गिर्द सादतपुर में रहते थे, उन्‍हें याद आने लगते. रामकुमार कृषक से लेकर बलराम, महेश दर्पण, सुरेश सलिल, विरेन्‍द्र जैन, विजय श्रीवास्‍तव और रमाकांतजी  तक. फिर शुरू हो जाते उनकी स्‍मृतियों के किस्‍से. धीरू भाई का दिल्‍ली में जगह-जगह काम करना. काम नहीं रहने की स्थिति में अपने ही मित्रों का उपेक्षा भाव और कडवे अनुभव. इनमें उनके लिए की गई फिक्र और मदद भी शामिल रहती.
धीरू भाई को अभी बहुत कुछ लिखना है. उन्‍होंने जिस तरह का जीवन जिया है उसका प्रत्‍येक मौसम किसी कहानी की तरह ही लगता है. ऐसा बहुत कुछ अभी लिखा जाना है. निसंदेह वे लिखेंगे इसी आज की मुंबई में रहकर ....... यह जानते हुए भी कि यह बीसवी शताब्‍दी के अंतिम दशक जैसी रोमानी मुंबई नहीं है.
एक जमाना था  जब हरिवंश राय  बच्‍चन मंचीय कविता पर छाए रहते थे. कुछ ऐसा ही दौर मुंबई के हास्‍य कवि रामरिख मनहर का रहा है. वे मंचीय कविता के ऐसे पहले कवि सम्‍मेलन संयोजक (सीधी भाषा में ठेकेदार) रहे हैं जिन्‍होंने प‍हली बार मंचीय कवियों की हवाई यात्राएं कराई. इधर साहित्‍य में यह श्रेय या आरोप अशोक वाजपेयी पर जाता है.
रामरिख मनहर टाउन में ही रहते थे. महीने में दो-तीन मर्तबा सबरंग के दफ्तर आ जाया करते थे. धीरू भाई, मैं और मनहर जी एक बार बात कर रहे थे कि इतने घटिया मंचीय कवियों को हवाई यात्राएं मिल जाती है. मनहर जी को लग गया कि उन्‍हें कुछ करना होगा. वे धीरू भाई को हवाई जहाज से जयपुर ले गए और वहां सांगानेर के गोयनका प्राकृतिक चिकित्‍सालय में प्रकृति का आनंद लूटने के लिए उन्‍हें छोड आए. वहां धीरू भाई के लिए सिगरेट और शराब पर प्रतिबंध था. यह धीरू भाई की पहली हवाई यात्रा थी. जिसका डर हवाई जहाज में बैठने से सप्‍ताह भर पहले से धीरू भाई को डराने लगा. अपने इसी सांगानेर प्रवास में धीरू भाई ने दुक्‍खम शरणम गच्‍छामि  कहानी लिखी जो हंस में प्रकाशित होकर काफी चर्चा में रही.
अपने अनुभवों, देखे गए खूंखारतम दृश्‍यों और बेहद निजी सुकून देने वाली घटनाओं को इसी व्‍योम में खोजकर उसे शब्‍दों में ढालते हुए उस कथाकार को डर नहीं लगता था लेकिन हवा में गोता खाते हुए हवाई जहाज में बैठना उन्‍हें डराता था. पता नहीं इतनी हवाई यात्रा कर चुके धीरू भाई का वह डर अभी तक बचा है या नहीं.
यही रामरिख मनहर मुझसे अपनी आत्‍म कथा लिखाने की बेहद इच्‍छा रखते थे. उनके इस भ्रम को बनाए रखने के लिए मैंने एकाधिक बार उनके साथ बैठकर नोट्स भी बनाए. मुझे जल्‍दी ही लग गया था कि यह पंद्रह-बीस वर्षों की मंचीय कविता के लगातार घटिया होते हुए और कारोबारी बनने की प्रक्रिया का ही लेखा-जोखा रहेगा. मेरे मन ने यह करने से मना किया और मैंने अपने स्‍तर पर इस काम से बिदा ले ली.
विजयदान देथा रामरिख मनहर के अच्‍छे दोस्‍त थे. देथा जी जब भी मुंबई आते मनहर जी उन्‍हें सबरंग के दफ्तर जरूर ले आते. दो विरोधाभासी जीवन चरित्र हमारे सामने होते अपनी अटूट मित्रता के साथ.
यही रामरिख मनहर थे जिनके कारण ही सुभाष काबरा, श्‍याम ज्‍वालामुखी, प्रकाश पपलू और आसकरण अटल जैसे कवियों को अपने लिए बना-बनाया बडा बाजार मिल गया. मनहरजी ने जितना ताउम्र नहीं कमाया होगा, उतना अब ये कवि प्रत्‍येक वर्ष बना लेते हैं.
रामरिख मनहर जानते थे कि मुंबई में बहुत बडी संख्‍या में उत्‍तर भारतीय लोग रहते हैं. उन्‍हें अपनी संस्‍कृति और अपने लायक कविता सुनना अच्‍छा लगता है. उन्‍होंने उनके रसास्‍वादन को ध्‍यान में रखकर ही अपनी कविताएं और गीत लिखे. कवि सम्‍मेलनों के आयोजकों को तनाव मुक्‍त करने के लिए कवियों को आमंत्रित करना और उन्‍हें भुगतान करने तक का ठेका मनहर जी ले लेते थे. आयोजक मुक्‍त हो जाते थे और मनहरजी का मोल-तोल शुरू हो जाता  था. लेकिन इसमें उन्‍होंने कई सारे उभरते कवियों को सहारा दिया और उन्‍हें मंच और राशि उपलब्‍ध कराई.
मनहर जी बखूबी जानते थे कि यह साहित्‍य नहीं है. वे अच्‍छे साहित्‍य का और अच्‍छे लेखकों का सम्‍मान करते थे. उन्‍हें पता था कि मंचीय कविता उनका धंधा है जिसकी वजह से वे मुंबई में सम्‍मानपूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं.
रामरिख मनहर के ठहाकों और धीरू भाई और मेरी अद़श्‍य गंभीरता के बीच मंचीय बनाम साहित्यिक पर कभी बहस नहीं होती थी. दोनों को पता था कि कोई भी गलत नहीं है. मनहर जी शब्‍दों को ठहाकों के समकक्ष रख देख पाते थे और हम उन्‍हें अपने जीवन के इर्द-गिर्द खोजते रहते थे.
मनहर जी का मेट्रो टॉकीज के सामने 'ललित बार' प्रिय ठिकाना था. हमें मिलने पर अक्‍सर वहां ले जाते. चर्चगेट स्थित गेलार्ड  रेस्‍टारेंट भी उनकी पसंदीदा जगह थी. यह हम लोगों के लिए भी सुविधाजनक थी कि गेलार्ड से निकलकर सीधे ट्रेन पकड लेते थे. इसी गेलार्ड में गुलशन नंदा, शैलेन्‍द्र, लक्ष्‍मीकांत प्‍यारेलाल और राजकपूर की पूरी टीम अक्‍सर वहां बैठी रहती थी. मुंबई में ऐसे विशेष स्‍थान की अपनी एक विशिष्‍ट संस्‍कृति है जो दशकों से पलपोस कर बढी हुई है.
आज मनहर जी की स्‍मृति में कोई मंचीच कवि सम्‍मेलन नहीं होता. उनके नाम से कोई पुरस्‍कार घोषित होना तो दूर की बात है. मनहर जी के जीवनोपरांत यह भी उनके लिए ठहाके जैसी ही बात है.
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अगर मैं मुंबई को पत्र लिखता तो क्‍या लिखता
शायद ऐसा ही कुछ लिखता -
''अब मैं तुम्‍हारे बिना नहीं रह सकता हूं. मुझे लगता है कि मैं तुम्‍हारा ही अंश हो गया हूं. तुम्‍हारी सारी कामनाओं और तुम्‍हारी निजताओं का तुम जैसा ही भागीदार. तुमने मुझे अपने से अलग आखिर कैसे मान लिया. प्रेम करने के बाद ऐसा कुछ नहीं जो निजी हो सके. हम दोनों की सबसे बडी ओर एकमात्र निजता हमारा प्रेम ही है. इन सबके बाद भी हम एक दूसरे के एकांत और एक दूसरे की निजता का सम्‍मान करते है.''
मुंबई से इसी तरह प्रेम किया जा सकता है. मैंने भी उसे उसके साथ रहते हुए दस वर्ष प्रेम किया. आज जब यह लिख रहा हूं वही प्रेम कुछ अधिक आध्‍यात्मिक बन मन की न मालूम किन पर्तो के बीच उपस्थित है. शायद फिर से अपने मूर्त रूप में साकार होने की सकारात्‍मक उम्‍मीद लिए.
हाजी अली की दरगाह को जाता समुह के बीच से थोडा संकरा रास्‍ता, बांद्रा बैन्‍ड स्‍टेन्‍ड पर अपने थपेडों से शौर मचाती समुद्री लहरें, किनारों पर रखे गए बडे-बडे पत्‍थर, वर्ली स्थित विशालकाय नेहरू सेंटर के आडिटोरियम में जगजीत सिंह की किसी गजल को सजीव करती आवाज, लोअर परेल के अपने कमरे में वुड-फ्लोर पर बिछा मेरा इकलौता बिस्‍तर, जे जे स्‍कूल आफ आटर्स का होस्‍टल, जो बांद्रा (पूर्व) में कला नगर के बाद आता है , .... पता नहीं....... कब किस मौसम में ........ कब किन क्षणों में,  मुंबई से मेरे प्रेम करने की शुरूआत हुई.
कुलाबा में गेट वे आफ इंडिया के रास्‍ते पर पडने वाला मोंडेगर पब बियर पीने की मेरी प्रिय जगह थी. वहां मेरे बैठने के थोडी देर बाद ही बियर मग और ड्राफ्ट बियर से भरा एक जग टेबल पर आ जाता. मैं अपना पेन और डायरी पैड निकालकर अपने मित्रों को पत्र लिखने लगता. यह मुझे बहुत बाद में पता चला कि मुंबई के प्रति मेरा प्रेम ही मुझसे ये पत्र लिखवा रहा है.
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित मेरे पहले कविता-संग्रह 'अन्‍य' की अधिकांश कविताएं मैंने मुंबई में ही लिखी हैं. धीरू भाई जानते थे कि मेरी प्रेम कविताएं किधर से उत्‍प्रेरित हो रही है. पर एक बार भी धीरू भीई ने मुझसे कभी मेरी इस निजता पर बात नहीं की. उनमें इस सहज-स्‍वाभाविक मानवीय रिश्‍ते की कद्र करने की आदत थी. वे किसी की निजता में ताक-झांक करने वाले शायद इस पृथ्‍वी के आखिरी इंसान होंगे. अपने निकटस्‍थ मित्रों से भी वे निजता के मामले में सम्‍मानजनक दूरी बनाए रखते हैं. यही दूरी उन्‍हें अपनी कहानियों के अधिक निकट ले जाती है. आखिर वे भी अपनी कहानियों के सभी पात्रों की निजता एक साथ जानते ही होंगे. उन्‍हें रचते हुए भी वे इसी सम्‍मनित दूरी में रहते हैं.
धीरू भाई प्राय: कविता नहीं लिखते हैं. लेकिन पिछली शताब्‍दी का समूचा आखिरी दशक मुंबई में उन्‍होंने किसी कविता की तरह ही जिया है. बीडी या सिगरेट पीते हुए धीरू भाई का चेहरा इसी कविता की हर बार बदलती जाती इबारत की तरह ही होता है. कम से कम मैंने उसे इसी तरह देखा है.
सबरंग के दफ्तर में मेरे निजतम फोन आने पर सिर्फ 'तुम्‍हारा फोन है' कहकर फोन देकर वे अक्‍सर बाहर निकल जाते.
मुझे किसी की निजता का इतना सम्‍मान करने वाला ऐसा व्‍यक्ति अपने कामकाजी वर्षो में न भोपाल में मिला और न ही दिल्‍ली या अब वर्धा में. धीरू भाई अपनी कान और आंख से उतना ही काम लेते थे जितना उन्‍हें अपनी रूचि का लगता. यह परोक्ष रूप से मैंने उन्‍हीं से सीखा कि दुनिया में बहुत कुछ जो होता रहता है, वह सब  हमारे लिए नहीं है.
मेरे जैसे लडके से उनकी इतनी दोस्‍ती ही इससे रही कि मैं भी अपनी शर्तो, अपनी पसंद-नापसंद और अपने ही देखने के अलग दृष्टिकोण से जीता था. वे समझते थे इन्‍दौर-भोपाल से मुंबई आकर इस लडके के पास एक साथ दो अकेलेपन थे. मुंबई में रहने का अकेलापन और इस लडके के जीवन का निजी अकेलापन. मै जानता था कि वे मन ही मन चाहते थे कि इस लडके के जीवन का अकेलापन कहीं किसी संबध में रिक्‍त हो जाए. मुंबई का अकेलापन धीरू भाई के साथ गुजरने वाली सारी शामें दूर कर देती थी. बर्फ और सोडे मे अपने आप को मिलाता वह तरल पदार्थ जब हमारे मन-मस्तिष्‍क में बैठ जाता तब हम इंद्रधनु‍षी  सपनों के पूरे विश्‍व के एकमात्र वितरक रूपी टायकून हो जाते. यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि दूसरे दिन की सुबह जब मै जागता तो मुझे हमारे संवादों के बारे में कुछ याद नहीं रहता. धीरू भाई को शायद अभी तक वे संवाद थोडे बहुत याद हो.
उनके इस निजता को सम्‍मान देने वाली प्रवृत्ति  ही शायद कभी कभी उनके मन में मेरे प्रति कुछ-कुछ मीठी शंकाए जगा देती होंगी. इसका अंदाजा मुझे भी उनके बातचीत से लग जाता. कभी कभी जब उनकी वह शंका भ्रम होती तब में अपने स्‍तर पर उनकी शंका को आमुल चूल भ्रम होने से बचाए रखता.
धीरू भाई को यह नहीं पता है कि मैंने अब खुद ही अपने बारे में मीठी शंकाए पालना शुरू कर दिया है ..... यह जानते हुए भी कि यह सब शत प्रतिशत भ्रम है. .... अगर मुझे इसी जन्‍म में मुंबई में रहने का फिर अवसर मिले तो इसे मैं अपना पुनर्जन्‍म ही मानूगां. कृष्‍ण ने कहा है - 'हे  अर्जुन, मैंने बहुत सारे जन्‍म बिताए हैं और तुमने भी. किन्‍तु है परन्‍तप, तुम्‍हें वे सब नहीं मालूम, मुझे वे सब मालूम हैं.
धीरू भाई, मेरे एकांत में मुंबई की हंसी खिलखिलाती रहती है. उसे सुनते हुए मैं अपनी बंद आंखो से उसका चुम्‍बन लेता रहता हूं.
न मैं सरल हूं
ओर न ही तुम कठिन
इसलिए हम साथ-साथ चल रहे हैं
नहीं मिल पाने
और दूरी के बावजूद
मैंने तुमसे बहुत कुछ लिया है
पर दिया कुछ नहीं
मेरे पास क्‍या है
जो मैं तुम्‍हें दे पाऊँ
मात्र इन शब्‍दों के ......
मुंबई को फिलवक्‍त इसके अलावा मैं और कुछ दे नहीं सकता. इसे लिखते हुए मुझे मुंबई में अदृश्‍य रूप से घुसपैठ करने का सुकून मिल रहा है. मुंबई के उस काल खंड में भी जब मैं स्‍थायी रूप से मुंबई रहने नहीं आया था.
धीरू भाई जून 1990 में मुंबई आए थे. जनसत्‍ता मुंबई के फीचर ऐडिटर बनकर. शुरू में लगभग चार महीने समूचे मुंबई में उनका कोई मित्र नहीं बन पाया. दिल्‍ली जैसे शुष्‍क, लगातार असुरक्षित होते जाते और बिना रात्रि जीवन के शहर से आकर मुंबई में उनके लिए एक नई दुनिया खुल रही थी. उनके व्‍यक्तित्‍व और चरित्र के हिसाब से उन्‍हें उसे  धीरे धीरे ही आत्‍मसात करना था.
उस कथाकार धीरू भाई को यह मालूम नहीं था कि उन्‍हें मुंबई के शुरूआती महीने अंधेरी (पूर्व) स्थित ओल्‍ड नागरदास रोड पर एक पुरानी चाल के चौथे माले में एक खोली के जिस रसोई मे रहना था, वह चाल लिखने वालों के प्रिय विल्‍सन पेन की फेक्‍टरी के पास है. रसोई का वह छोटा सा कमरा दरअसल उनके ससुराल की खोली का हिस्‍सा था. जिसमें सास, ससुर और अन्‍य परिजन रहते थे. धीरू भाई सुबह जल्‍दी ही एक्‍सप्रेस टावर के लिए निकल जाते. ताकि उनके ससुराल वालों को प्रतिदिन की आवभगत की तकलीफ न दी जाए.
उन शुरूआती चार महीने धीरू भाई शाम को प्रेस से छुटकर सीधे जुहू बीच चले जाते ओर वहां चौपाटी पर से नारियल पानी लेकर केवल उतना ही नारियल पानी पीते जितनी रम उसमें डालना है. वे वहां देर तक बैठे रहते और नारियल पानी के साथ मिलाकर रम को स्‍ट्रा से पीते रहते. फिर खाना कहीं बाहर ही खाकर उस रसोई में तब ही पहुंचते जब उन्‍हें विश्‍वास हो जाता कि ससुराल वाले अब सो गए होंगे. उनके लिए रसोई घर का दरवाजा खुला ही रखा जाता था.
उस रसोई में रहना धीरू भाई की मजबूरी थी. उन्‍हें बतौर फीचर ऐडीटर उस समय चार हजार रूपए मिलते थे. ललिता भाभी को दिल्‍ली पैसे भेजना और खुद के मुंबई खर्च के बाद कुछ बचता ही नहीं था कि वे कोई खोली किराए पर ले लें ओर अपने घर परिवार को मुंबई ले आए.
यहाँ यह बता देना जरूरी है कि मुंबई में किराए की खोली या फ्लेट लेने के लिए एक साल का किराया एडवांस देना होता है. चारकोप में खोली किराए पर लेने के लिए उन्‍हें पांच हजार रूपए जुटाने में चार महीने लग गए.
मैं उन दिनों इन्‍दौर में था और मध्‍यप्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा के भावी मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले एक नेता के लिए दैनिक अखबार निकालने की योजना को अंतिम रूप दे रहा था. मैंने अपने हिसाब से अखबार की डमी का काम किया और साथ-साथ  कभी कभार उनके भाषण लिखने और अन्‍य चुनाव सामग्री को प्रकाशित करने का काम कर रहा था. अपने वैध-अवैध प्रयासों के बावजूद वे हार गए और मैंने उनसे मिलकर विदा ली और मुंबई की ट्रेन पकड ली.
इसके पहले मैं केवल 2 बार एक-दो दिनों के लिए मुंबई आया था. एक तो इन्‍दौर स्‍कूल आफ फाईन आर्टस के युवा चित्रकारों के ग्रुप, जिसका नाम ब्‍लैक ग्रुप था, की प्रदर्शनी देखने. उस प्रदर्शनी का कैटलाग भी मैंने ही लिखा था. इसके बाद जब मध्‍यप्रदेश संस्‍कृति विभाग ने कथक के जयपुर घराने की शीर्षस्‍थ नृत्‍यांगना दमयंती जोशी को कालिदास सम्‍मान दिया था, तब उस सम्‍मान से पूर्व दादर स्थित उनके घर पर उनसे एक लम्‍बी बातचीत करने, ताकि कलावार्ता का एक समूचा अंक उन पर केन्द्रित किया जा सके. उस समय मैं मध्‍यप्रदेश कला परिषद की मासिक पत्रिका कलावार्ता का संपादक था. बाद में उस सम्‍मान समारोह में ही उन पर केंद्रित अंक का लोकार्पण हुआ था.
लेकिन मुंबई की यह तीसरी यात्रा कितनी लंबी रहेगी, यह मुझे भी नहीं मालूम था. मैंने केवल यह तय किया था कि अब मुझे मुंबई में रहना है. वहां जाकर कहाँ रहना है और क्‍या काम करना है, इन सबसे मैं अनभिज्ञ था.
दादर स्‍टेशन (पूर्व)  में अपने छोटे से बैग के साथ उतरकर मैं वडाला रोड से निकलने वाले मुंबई के पहले सायंकालीन अखबार निर्भय पथिक  के संपादक के केबिन में था, अपने लिए कुछ काम मांगता हुआ. उन दिनों इस अखबार के मालिक भाजपा के राष्‍ट्रीय कोषाध्‍यक्ष हुआ करते थे. उन संपादक जिनका नाम अश्विनी कुमार मिश्र है, ने मेरी रूचि और अनुभव देखते हुए मुझे दो महीने बाद प्रकाशित होने वाले दीपावली विशेषांक, जो लगभग 200 पृष्‍ठों की पत्रिका होती, के प्रभारी का कार्य करने का प्रस्‍ताव रखा. मैं मान गया और शुरूआती कुछ महीने उस अखबार का रिपोर्टर्स रूम मेरी रातों के लिए शयन कक्ष बन गया. मैं अखबारों की फाईलों को गादी-तकिए की तरह इस्‍तेमाल करता और सुबह उठकर वहीं नित्‍यकार्य से फारिग हो जाता.
दीपावली विशेषांक निकाल कर मैं उसी अखबार में रोज के कुछ पृष्‍ठ देखने लगा. उस दौरान पृथ्‍वी थिएटर का सालाना थिएटर फेस्टिवल शुरू होने वाला था. मैंने जनसत्‍ता के संपादक राहुल देव से फोन पर बात की कि क्‍या मुझे जनसत्‍ता के लिए यह फेस्टिवल कवर करने का मौका मिल सकता है. उन्‍होंने मंजूरी दी ओर मैं निर्भय पथिक में काम करते हुए जनसत्‍ता के लिए भी लिखने लगा.
बीच में गोपाल शर्मा की वजह से मुझे किसी फिल्‍मी साप्‍ताहिक पत्रिका में भी काम करने का अवसर मिला. गोपाल शर्मा ही उसके संपादक थे. उनके साथ काम करते हुए मैंने उनके व्‍यक्त्त्वि की बहुआयामी गहराई और उनकी मानवीयता को पहचाना. इस समय तक धीरू भाई से मेरी पहचान केवल जानने के स्‍तर पर थी.
बाद में जनसत्‍ता में आ जाने के बाद कुछ महीने मैं समाचार डेस्‍क पर रहा लेकिन जल्‍दी ही सबरंग पत्रिका और फीचर पृष्‍ठों के साथ मुझे जोड दिया गया. यहीं से मेरी शुरूआत हुई मानसी कहानी के जनक धीरेन्‍द्र अस्‍थाना को पहचानने की और उनसे घनिष्‍ठता बढाने की.
अपने अतीत को शब्‍दों में उतारते हुए मुझे अपने आपको समझने का भी अवसर मिल रहा है. उन सभी मित्रों का साथ, जो मुंबई में रहा, आज मुझे किसी नए अनुभव की तरह महसूस हो रहा है. इस अनुभव को कितना बांट पाउंगा, यह मेरी अल्‍पबुद्धि और कमजोर याददाश्‍त पर ही निर्भर करता है.
मुंबई में रहते हुए वह मुंबई मुझसे हमेशा अलक्षित ही रहा, जिसे मैं अब देख-समझ पा रहा हूं. अभी तक  अपने जीवन के सबसे उद्यमी, सबसे सक्रिय और बेहद खूबसूरत रहे वे दस वर्ष जैसे अपने साथ पंख लगाकर आए थे. मैं अपनी स्‍मृति में अभी भी उड़ रहे उस समय को देख सकता हूं. बल्कि इसे बार-बार देखने की एक बुरी आदत सी मुझसें है.
नितान्‍त अपरिचित और अजनबी शहर. जिसमें रहते हुए मैंने मानवीय रिश्‍तों की उष्‍मा को महसूस किया और अंतत: उसी में जीने लगा. मुंबई में रहने वाले व्‍यक्ति के लिए मुंबई उनके अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रत्‍येक के लिए एक भिन्‍न शहर है. जो जहाँ है और जो भी काम कर रहा है, मुंबई की आपाधापी वाली सम से मिलते हुए ही अपने जीवन की लयकारी  पूरी कर पा रहा है. अगर किसी का जीवन मुंबई की इसी सम से तारतम्‍य नहीं बैठा पाता तो मुंबई उसे अपने साथ नहीं रखता. मुंबई अपने से प्रेम करने के लिए थोड़े समय की मोहलत भी दे देता है. दिल्‍ली, मद्रास और कलकत्‍ता रहने वाले लोगों को भी मुंबई में रहने के लिए मुंबई में रहना सीखना पड़ता है. मुंबई में किस हद तक जाकर रहा जा सकता है यह वहां के रहवासी की इच्‍छा और श्रम के काटों वाली घड़ी ही निर्धारित करती है. इसीलिए मुबई कभी ग्रीनविच मीन टाइम में प्रतिपल बदलते समय को नहीं मानता. मुंबई का अपना अलग समय चलता है. शाम को 7 बजे के बाद मुंबई के दिन की शुरूआत होती है.
धीरू भाई को मुंबई से अपना यही तारतम्‍य बनाते-बनाते कुछ महीने लगे और वे जल्‍दी ही मुंबई के हो गए. अपने शुरूआती महीनों में जुहू चौपाटी की रेत पर बैठकर नारियल पानी में मिला अपना प्रिय तरल पीते हुए धीरू भाई मुंबई के उस समय को नहीं देख पा रहे थे जिसमें उनका काम मुंबई की उत्‍तर भारतीय संस्‍कृति की जीवन्‍त धड़कन बनने वाला था.
मुंबई में रह रहे उत्‍तर भारतीयों के लिए जनसत्‍ता और सबरंग ने यह काम बड़ी तेजी से और जिम्‍मेदारी के साथ निभाया. इसका असली श्रेय निश्चित ही राहुल देव को जाता है जो मुंबई जनसत्‍ता के संपादक थे. पत्रकारों, संवादाताओं, समीक्षकों, स्‍ंतभकारों और गाहे-बगाहै लिखने वाले तमाम लोगो की अच्‍छी खासी टीम उस समय इस अखबार के पास थी. मुंबई में उस दौरान पनपी हिंदी सांस्‍कृतिक चेतना के पीछे कहीं कहीं जनसत्‍ता का प्रोत्‍साहन, स्‍वीकार्य और संरक्षण रहा है. कितने सारे कवि, लेखक, समीक्षक ओर स्‍तंभकार इसी अखबार से प्रस्‍तुत हुई रचनात्‍मक उपस्थिति के बतौर आज भी मौजूद हैं.
मैंने मुंबई में अपने पहले दिन ही मुंबई को शरारती सलाम किया और उसे अपने जीवन का भागीदार बना लिया. मैं जानता था कि मुंबई से बचकर मुंबई में नहीं रहा जा सकता.
मुंबई कभी नहीं सोता. वह हर क्षण अपने जागने और होने की रखवाली करता रहता है. उसके बाशिंदों को भी पता है कि उतनी ही नींद निकालना है जितनी कि जरूरी है. इस जरूरी नींद से अधिक समय मुंबई ही उन्‍हें उपलब्‍ध नहीं कराता. धीरू भाई और मैं शायद ही किसी रात बारह बजे के पहले अपने-अपने घर पहुंच पाते थे. महीने में एकाधबार मैं या  वे ट्रेन में सो जाते थे. ओर वसई या विरार पहंच जाते थे. यह उल्‍लेखनीय है कि धीरू भाई सबरंग में जो अपना स्‍तंभ लिखते थे, उसका नाम विरार दिशा था. इस विरार दिशा को आगे विस्‍तार से याद किया जाएगा.
धीरू भाई आते-जाते लोकल ट्रेन में चल रही जीवन के बहुआयामी क्रिया-कलापों का सूक्ष्‍म अध्‍ययन करते रहते. बाद में शाम को एक मजेदार बात की संक्षिप्‍त परिचयात्‍मक भूमिका के साथ सुनाते रहते. मुझे कई बार लगा था कि धीरू भाई जहां होते है, वहां थोडे ही होते है और उन जगहों पर ज्‍यादा होते हैं जहां वे फिलहाल नहीं है. तब मुझे लगने लगा था कि मुंबई की लाईफ लाइन मानी जाने वाली लोकल ट्रेन उन्‍हें शतप्रतिशत अपने पास ही रखती है. शायद इसलिए कि वे सफर कर रहे हैं. सफर में वे अधिक चौकन्‍ने और थोड़े डर में रहते हैं.
ट्रेन की दिशा से आने वाली हवा की खिड़की उन्‍हें रात को सफर के लिए अपनी प्रिय जगह लगती. जब कभी किसी रोज उस खिड़की पर बैठने का मौका उन्‍हें मिल जाता , वे अतिरिक्‍त प्रसन्‍नता में आ जाते. चर्चगेट से मीरारोड जाते समय रात के अंधेरे में धीरू भाई का यही एकमात्र प्रकृति प्रेम होता.
मैं ऐसे समय ट्रेन में थोडा उधेडबुन में रहता. बहुत बोलता हुआ और घर पहुंचने की हड़बडी में. उस घर पहुंचने की जल्‍दी में, जहां मेरा कोई इंतजार नहीं कर रहा होता. घर की चाभी मेरे पास भी होती , लेकिन वहां मेरे साथ रह रहे मित्र दरवाजा खुला छोड़ अपने अपने कामों में उलझे रहते. कोई अपने बिस्‍तर पर बैठ मच्‍छरदानी के भीतर बीडी पी रहा होता ..... कोई इस हाव-भाव में रहता कि मुझे पता नहीं चल पाए कि उसने आज फिर से पी है. कोई इस तरह से गंभीर हो विचार मग्‍न मिलता जैसे उसे उस फ्लेट की अन्‍य दुनियादारी से कोई मतलब ही नहीं हो. वे मेरे चित्रकार और रंगकर्मी मित्र थे. जो उस वक्‍त अपनी प्रतिभा के बिकने का इंतजार कर रहे थे.
मेरा अपना एक अलग कमरा होता जिसकी चाभी केवल मेरे पास ही होती. उसे खोलकर मैं टीवी चालू कर या टेप में कोई कैसेट लगाकर अपने बिस्‍तर पर गिर सा जाता. तब एक-एक कर सब अंदर आते. मुंबई में अपने अपने संघर्षो की उनकी महागाथा का नया आडियो एपिसोड खुलता रहता. मैं सुनता रहता या फिर डांटता रहता. इस पहले अप्रिय काम के बाद मेरे लिए दूसरा अदृश्‍य काम यह होता कि मैं सो जाता.
क्‍या कोई सोच सकता है कि मुंबई की जमीन पर नींद निकालने वाले व्‍यक्ति सोते हुए अपने आप को अक्‍खी मुंबई  का एकमात्र शहंशाह समझते हैं ....... मैं खुद को यही समझता था.
सुबह जागने के बाद फिर वही बन जाता जो मैं असल में हूं. इतनी बड़ी मुंबई में एक अकेला व्‍यक्ति. कई सारे मित्र , व्‍यावसायिक सम्‍बंध और अनजान पाठकों के बीच नाम से परिचित मात्र एक व्‍यक्ति की तरह. समय-समय पर कुल मिलाकर मुंबई के अधिकांश जीवन में मेरा यह अकेलापन बेहद समर्पित होकर बटाँ भी है. वे सब स्‍मृतियां मेरे मन की सबसे कीमती धरोहर हैं. जीवन के सबसे भावुक और सबसे जिम्‍मेदार पल वे होते हैं जो केवल दो लोग ही जानते हों. मेरे अपने मामले में मैं उन दो लोगों में से एक हूं.
अब....... बिना दूसरे की प्रतीक्षा किए ......... उसे केवल याद करता हुआ. यह जानता हूं कि किसी का साथ होना उसका असली सानिध्‍य नहीं है. इसे तो स्‍मृति से ही प्राप्‍त किया जा सकता है. ..... शायद ....... कभी मेरे ये शब्‍द मेरी नितांत निजी धरोहर की राह पर भी चल पड़े. इन शब्‍दों को उस अलक्ष्‍य खोह में उतारने के लिए शायद मुझे ही दुआ मांगनी होंगी. आमीन.
निर्भय पथिक में काम करते हुए लगभग 6 महीनों का मुंबई का वह शुरूआती दौर मेरे लिए कुछ ऐसा था गोया मैं किसी एक्‍वेरियम के भीतर अपने आप को छिपाता हुआ मासूमियत से भरी रंग बिरंगी दुनिया को देख रहा हूँ .
उसी में सोता और उसी में जागता-जीता हुआ. जेहन में यह कभी नहीं आया कि अपने लिए सुरक्षित जगह बनाओ या इस शहर का भरपूर व्‍यावसायिक उपभोग धनलौलुप लोगो की तरह किया जाए. आज मुझसे कोई पूछे कि मैं किस तरह का जीवन जीना चाहूँगा तो मेरी यही इच्‍छा होगी कि मुंबई के शुरूआती पहले वर्ष के जीवन जैसा.
मुंबई अपने शुरूआती जीवन में ऐसे सपने दिखाता है जो देश के किसी भी हिस्‍से  में रहते हुए नहीं देखे जा सकते. आपकी सहज-सरल इच्‍छा कब स्‍वप्‍न बन जाती है और फिर जीवन की काया में ढ़लकर आपके साथ सुख-दुख की भागीदार बन जीवन जीने लगती है, यह मुंबई में आपको पता नहीं चलता. निर्भय पथिक में मेरे साथ वही हुआ. इस अखबार की एक उपसंपादक कम रिपोर्टर से मिलने उसकी एक सहेली प्राय: प्रतिदिन आती थी. वह  सेन्‍ट्रल लाइन में रहती थी. हमारी पूरी टीम साथ में लंच लेती थी, तब ही वह अक्‍सर आती. वह लडकी मुंबई की मेरी पहली दोस्‍त बनी. जिसने मुझे मुंबई दिखाने में और साथ में सपने देखने में कोई कसर नहीं रखी. उसके साथ ही मैंने मुंबई के उस चरित्र को पहचाना जो प्रतिपल जीवंत रहता है. उन जगहों को देखा जहॉं मुंबई की आपाधापी से दूर मुंबईकर उस एकांत का सानिध्‍य करते थे जहां वे खुद मन से अकेले नहीं होते थे.
वह लाइट म्‍यूजिक की सिंगर भी थी. यदा-कदा उसके ग्रुप का कहीं किसी आडिटोरियम में परफार्म भी होता रहता था. वह मुझे हमेशा वी आय पी पास देती थी. लेकिन मैं हर बार बदलते किसी उपनगर स्थित आडिटोरियम में जाने के मुंबईया भौगोलिक गणित से अपरिचित रहने के कारण जा नहीं पाता था. उसे 5 घंटे पहले अपनी फाईनल रिहर्सल करने पहुंच जाना होता था.  उस समय वे 5 घंटे उसकी रिहर्सल देखने के लिए मैं निकाल नहीं पाता था. आखिर मुंबई की नौकरी आपको किसी भी कार्य के लिए अतिरिक्‍त समय नहीं देती.
लेकिन वह महालक्ष्‍मी मंदिर के पीछे बडी चट्टान पर मेरे साथ बैठे हुए मुझे अकेले गाना सुनाती थी. समुद्री लहरों की आवाजें और रह-रहकर  उतावला होता पानी का हमारी देह पर  स्‍पर्श, उसके गाने में पार्श्‍व संगीत की तरह मौजूद रहता. मैंने लगभग 2 महीने उस अखबार में उसका लाया उसके घर का बना टिफीन खाया है.
कभी कभी रविवार को जब हम फिल्‍म देखते तो वह फिल्‍म की कहानी पर मासूमियत से अधिक विश्‍वास करते हुए मुझसे सपनीली बातें करती रहती. मैं उसकी बातों में अपने आप को पिघलाता हुआ महसूस करता रहता. साथ ही मुझे  यह भी लगता कि केवल उसके साथ ही मुंबई में रहा जा सकता है.
लेकिन यह मुंबई है. निर्भय पथिक के बाद मेरे कहीं अन्‍यत्र काम करने से हमारा मिलना कम से कम होता गया और कुछ समय बाद तो मिलना ही बंद हो गया. उसको या मुझे इस नहीं मिल पाने पर उस समय शायद कोई ग्‍लानि नहीं हुई होगी. थोडे समय बाद ही उसका अपना अलग जीवन था और मेरा अपना अलग. मुंबई में हमारे मन के सानिध्‍य का यह एक निश्चित काल था. न उससे कम.. न उससे अधिक. यह मुंबई का एक जरूरी हिस्‍सा है. मुंबई अपने भीतर देखो जा रहे लाखों सपनों को अक्‍सर अरब महासागर की उत्‍ताल खाती लहरों के साथ अदृश्‍य दिशा में भेज देता है.
निर्भय पथिक के दीपावली विशेषांक के मुखपृष्‍ठ पर उसी लडकी के चेहरे का एक रंगीन खूबसूरत फोटो मैंने प्रकाशित किया जो बेहद पसंद  किया गया था. यह उसके लिए मेरी तरफ से अप्रत्‍यशित उपहार था. वरना मेरे पास उस वक्‍त इतने पैसे ही नहीं होते थे कि उसके लिए एक रूमाल ही खरीदा जा सकें.
एक बार उसके जन्‍म दिन पर उसे किसी अच्‍छे होटल में ले जाकर खाना खिलाने के पैसे मेरे पास नहीं थे. मैंने जनसत्‍ता में काम कर रहे अपने पुराने पत्रकार मित्र  ऋषिकेश राजोरिया को पटाया और हम तीनों ने बढिया जगह पर लंच लिया.  उसका अच्‍छा खासा बिल मैंने उस पैसे से चुकाया जो ऋषिकेश ने इसी काम के लिए मुझे दिए थे.
उन दिनों मैं ऋषिकेश राजोरिया के साथ कोलाबा स्थित आमदार निवास गृह (एम.एल.ए. होस्‍टल) मैजिस्टिक बिल्डिंग में रहता था. वह कमरा घाटकोपर के भाजपा विधायक प्रकाश मेहता को आवंटित था. हम लोग कमरा नं. 114 में रहते थे और कमरा नं. 214 में भाजपा के ही प्रकाश जावडेकर का कमरा था. उनके यहां जब अधिक मेहमान आ जाते, तो वे उन्‍हें हमारे कमरे में भेज देते थे और हम एक से बढकर एक बहाना बनाकर उन्‍हें वापस रवाना कर देते थे. उस कमरे में हमारे साथ आज के एड फिल्‍म मेकर और सीरियल प्रोड्यूसर भरत पंडित, सबरंग के डिजाइनर शिवा हिरेमठ और गुजरात सरकार के गुर्जरी एम्‍पोरियम में काम कर रहे राजेन्‍द्र जडेजा भी रहते थे. मुझे ऋषिकेश राजेरिया के सहज मानवीय मित्रता सहयोग की वजह से वहां रहने का मौका मिला था.
उस कमरे में रह रहे सभी मित्र मेरे उस लडकी के साथ दोस्‍ती को जानते थे और वे इसका यथा सम्‍मान ही नहीं बल्कि  इसमें हर संभव सहायता करते थे. ऋषिकेश राजोरिया इन दिनों जयपुर में पत्रकारिता कर रहे हैं.
किसी रविवार को चाय पीने के लिए मैं उसे कमरे में आमंत्रित करता था तो सभी मित्र नहा धोकर इस तरह बैठ जाते थे कि मानो वे अपने कमरे में भी हमेशा  ही नहाए धोए रहते हैं. मैं अपने मित्रों की सारी पोलम-पट्टी बाद में उस लडकी को बताता था और यह सब हमारी तात्‍कालिक हंसी का कारण बन जाता था. हमारे मन तब यह नहीं समझ पाते थे कि यह थोडी सी हंसी कितनी कीमती है. कम से कम आज मेरे लिए तो कीमती ही है.
ये शब्‍द भी कहीं कितने भाग्‍यहीन होते हैं, जिनकी वजह से इन्‍हें लिखा जाता है, वह ही  इन्‍हें  पढ़ नहीं पाते हैं. इस तरह शब्‍द मात्र स्‍मरण का निमित्‍त बनकर रह जाते हैं. लेकिन मेरे लिए यह केवल स्‍मरण नहीं है. कभी कभी मैं अपने स्‍तर पर इसे पुन: पुन: जीने लगता हूं. इस तरह से जीना मुझे यह विश्‍वास दिलाता रहता है कि मेरा होना अभी शेष है.
यह न मिल पाने का स्‍थापत्‍य है
जिसे बनाया है
समय ने दुष्‍कर पत्‍थरों से
इसकी एक खिडकी पर
जहां तुम्‍हें खडा होना था
एक शून्‍य टंगा हुआ है
इसके दरवाजे को
ढंक लिया है
हवा के थपेडों ने
कोई नहीं जो आता हो
थोडी देर टहलने के लिए यहाँ
किसी ने इसे देखा तक नहीं
यह ऐसा ही स्थिर रहेगा
हमारे न रहने के बाद भी
मुंबई के साथ मेरा रिश्‍ता मेरी इस कविता की तरह ही है. वे वर्ष किसी स्थिर चित्र की तरह, सुनाई नहीं देने वाली अनहद के साथ, मेरे सामने बदलते रहते हैं. लेकिन यह सब लिखते हुए मुझे एक ही दृश्‍य के आस-पास  अपने को समेटना होता है.
मैं मुंबई  के उस शुरूआती वर्ष में मुंबई को खोज रहा था या मुंबई मुझमें कुछ खोज रही थी, ठीक-ठीक पता नहीं ..... आज लगता है कि ना मैं मुंबई को खोज पाया और मुंबई के समक्ष तो मेरे जैसे गिरते- पड़ते  लोगों की अंतहीन कतार है , उससे मैं कब का छिटक कर अलग हो गया हूं.
अलग जरूर हो गया हूं लेकिन अपनी स्‍मृतियों में और यथासंभव जीने में वही मुंबई मेरी भावनाओं में धड़कता रहता है. इन शब्‍दों में शायद उसका हल्‍का स्‍पंदन महसूस हो सके.
मेजेस्टिक एम एल ए गेस्‍ट हाउस  में रहते हुए  गेट वे आफ इंडिया  की सीढियों पर समुद्री पानी में अपने दोनों पैरों को डालकर मैं अक्‍सर देर रात तक बैठा रहता था. यह सोचता हुआ कि भारत का जो नक्‍शा हम देखते हैं उसमें मुंबई से जुडी समुद्री रेखा जो दिखती है, मैं उसी रेखा पर बैठा हूं . कभी कभी मूर्खतापूर्ण विचार भी कितने भले ओर कितने भोले लगते हैं. लगभग प्रेम की तरह. आदमी के जीवन में अगर इसका भी सुख नहीं होगा तो वह किधर जाएगा.
आधी रात के वक्‍त भी गेट वे आफ इंडिया रौनक से भरा रहता. यह मुंबई दंगों और श्रृंखलाबध्‍द बम विस्‍फोटों के पूर्व का मुंबई था. किसी को किसी से डर नहीं, किसी की प्रायवेसी में कोई ताक-झांक नहीं ........ सब कुछ पारदर्शी ....... जैसे सब को एक साथ ही यह मालूम हो कि वे जो भी कर रहे हैं अपनी-अपनी जगह ठीक ही कर रहे हैं.
कोलाबा  से ससून डाक  जाने वाले रास्‍ते पर रात 9 बजे से आधी रात तक संयमित उच्‍छृंखलता का शासन होता. इसी रास्‍ते पर आते हैं  मोंडेगर  और  लियोपोल्‍ड पब . यह लियोपोल्‍ड पब वही है जहां कसाब ने अपने हथियार से गोलियां बरसाई थी. मुझे लगता है कि उसने यह गोलियां कोलाबा की नाइट-लाइफ कल्‍चर पर चलाई थी. लेकिन मुंबई अपनी चोट को बेहद करीने से जल्‍दी ही अपने भीतर जज्‍ब कर लेती है.
उस समय  ताज कांटिनेंटल  के इर्द गिर्द, गेट वे आफ इंडिया और कोलाबा के मुख्‍य मार्ग पर तमाम देशों की कई संस्‍कृतियों की और केवल अपनी अलग विदेशी भाषा जानने वाली लडकियों और अधेड महिलाएं अपने लिए नाइट पार्टनर ढूंढती थी. निसंदेह शुल्‍क लेकर. मेरे लिए यह स्‍त्री-विमर्श का एक ही जगह पर एकत्र एक विशिष्‍ट वैश्विक चेहरा होता , जिसे कोई पढ नहीं रहा होता. वैसे उसे पढना इतना सरल भी नहीं.
तमाम तरह के अंतरराष्‍ट्रीय ब्रांड के परफ्यूम की खुशबू रात की उस हवा में मिलती रहती. हवा में शामिल वह सुगंध प्रतिदिन मुझे महसूस होती. न मालूम कितने तरह के सौन्‍दर्य  प्रसाधनों की वह मिली जुली सुगंध मुझमें कभी उबकाई पैदा नहीं करती. आर्थिक उदारीकरण के उस शुरूआती दौर में उस निश्चित सुगंध से ही मैं समूचे विश्‍व की इस कभी न खत्‍म होने वाली आदिम आवश्‍यता को एकटक अपने सामने घटित होते देखता रहता.
देर रात तक फुग्‍गे वाले, आईस्‍क्रीम बेचने वाले और तत्‍काल फोटो निकालकर देने वाले लोगो की रोजी-रोटी चलती रहती. उनके अलमस्‍त व्‍यवहार और जीवन से यह अंदाजा ही नहीं लग सकता था कि वे सब अपने अपने प्रदेशों से दूर इस पराई मुंबई को आमची मुंबई समझ अपना संघर्ष कर रहे हैं. दूर दराज के गांव-देहातो में रह रहे उनके परिजन चैन की नींद सोते कि बेटा मुंबई में कमा रहा है और पैसे भेज रहा है.
मुंबई ऐसा निर्वासन देता है कि जल्‍दी ही उसी निर्वासन से प्रेम हो जाता है. तब रहने की, आने जाने की, दिन-रात की , कोई भी तकलीफ नहीं होती...  होता है तो केवल मुंबई में रहने का सुख. अपने आसपास घट रही तमाम गतिविधियों से बेखबर अपने इसी संघर्ष और अंतत: अपने अपने हिसाब से मुंबई को जीत लेने का कोई अलौकिक सुख.

दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था

आकि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परी ख़ाना बना रखा था
जिस की उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था.
(फैज की इस नज़्म के बारे में फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखा था.- 'उर्दू की इश्किया  शाइरी में अब तक इतनी पवित्र, इतनी चुटीली और इतनी दूरदर्शी और विचारात्मक नज़्म वजूद में नहीं आई. नज़्म नहीं है बल्कि जन्नत और दोज़ख़ के एकत्व का राग है. शेक्सपियर, गोएटे, कालीदास और सा‘दी भी इससे ज़्यादा रक़ीब (इश्क में प्रदिद्वन्दी) से क्या कहते,  इश्क  और इन्सानियत के ख़ूबसूरत सम्बन्ध को समझना हो तो ये नज़्म देखिए.')

आलोचना को ईमान, साहस और धीरज की जरूरत है/गणेश पाण्डेय

आलोचना का प्राण है रचना. जैसे कोई प्राण के बिना जीवित नहीं रह सकता, ठीक उसी तरह रचना के बिना आलोचना का जीवन नहीं है. खबरदार, मेरा यह आशय कतई नहीं है कि आलोचना रचना से छोटी है या दूसरे दर्जे की चीज है.ऐसा नहीं है कि आलोचना के बिना रचना के जीवन की संपूर्णता की कल्पना की जा सकती है. मैथ्यू आनार्ल्ड के इस टुकड़ से बात और साफ हो जायेगी कि कविता जीवन की आलोचना है. आलोचना है क्या ? एक खास दृष्टि से चीजों को भेद कर देखना. यही काम एक रचनाकार भी करता है. एक कवि रोज अपने घर के सामने यूकिलिप्टस के लंबे-लंबे वृक्षों की कतार देखता है और रोज इन्हें सिर्फ एक पेड़ समझता है, एक दिन जोर की बारिश होती है और हवाएँ तेज चलती हैं, यूकिलिप्टस के पेड़ ऐसे झूमते हैं जैसे आसमान से बरसी शराब पीकर बेसुध हो गये हों और झूम रहे हों. इतना ही नहीं अपने बरामदे में दरवाजे से टिक कर खड़ा कवि एक खास तरह से जरा-सा झुक कर इस दृश्य को गौर से देखता है और सहसा उसे लगता है कि अरे! यह गोराचिट्टा यूकिलिप्टस तो पूरा अंग्रेज है. कवि कविता लिखता है- छोड़ो भारत. कहना यह चाहता हूँ कि जैसे एक कवि रोज के किसी दृश्य को एक दिन कविता के विशेष दृश्य के रूप में देख लेता है, उसी तरह एक आलोचक भी कई बार किसी साधारण-सी रचना को असाधारण ढ़ंग से देख सकता है. बशर्ते उसमें भी कवि की तरह ईमानदारी और साहस और उतना ही धीरज हो. अन्यथा वह आलोचना को नित्य या क्षणप्रतिक्षण का कार्यक्रम बना देने के लिए स्वतंत्र है.
तीन बातों को लेकर आगे बढ़ता हूँ- ईमानदारी, साहस और धीरज. जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ, आलोचना में ठहराव या कि दुहराव की मुख्य वजहें यही तीन हैं. अब इस ईमानदारी की कमी की वजह के रूप में दो बातें देखता हूँ. एक तो लेखक का कविमुखी हो जाना या रचनाकार के ओहदे से बिल्कुल चिपक जाना. दूसरी बात है, स्वार्थ ओर आने वाले समय की जरूरतों की वजह से रचना का सच न कह पाना. एक रथ की कामना में महारथियों से डरते रहना. रचना और अपने समय के साहित्य का सच कहने का रत्तीभर साहस का न होना. तीसरी बात है, रेल के तत्काल टिकट की तरह अपनी आलोचना को जो आलोचना नहीं बल्कि रिव्यू है, उसके तत्काल किसी पत्रिका में छप जाने का लोभ संवरण न कर पाना ओर इसलिए बड़े अगंभीर ढ़ंग से जिसे कुछ लोग चलताऊ ढ़ंग से भी कहते हैं, लिख मारना. उसमें भी ईमान की जगह संबंधों की मजबूती पर बल देना, आलोचना को कमजोर तो करता ही है, आलोचक को भी कमजोर आलोचक बनाता है. कई मित्रों ने सिर्फ पुस्तक समीक्षाएँ ही लिखी हैं और उनको एकत्रित कर आलोचना की किताब बनाते रहे हैं. एक भी अपने समय की रचनाशीलता का शास्त्रीय विवेचन वाला लेख नहीं मिलेगा. रचना के तत्वों को सामने लाकर अपने समय की रचनाशीलता की पहचान तय करने वाला लेख. मेरा आशय पुराने काव्यशास्त्र के आचार्यों की तरह खण्डन-मण्डन में लगना नहीं है.
हिंदी आलोचना की परंपरा को देखने से बहुत-सी बातें साफ होती हैं. यह अंभीरता या अधैर्य की समस्या के लिए हिंदी की आलोचना परंपरा में गंभीरता और बड़े धैर्य के साथ लिखी गयी आलोचना को खासतौर से रेखांकित किया जाना चाहिए. रामचंद्र शुक्ल यहीं बस्ती के थे (जो पहले मेरा भी जिला हुआ करता था, अब नया बन गया है) जानते थे कि सब धान बाइस पसेरी का नहीं होता है.इसलिए उन्होंने चुनाव किया और जो मूल्यवान थे उन पर बड़ी गंभीरता से लिखा जो आज भी व्यावहारिक समीक्षा का आदर्श है. जायसी हो चाहे तुलसी चाहे सूर. लिखने को तो इस दौर के भी  कुछ आलोचकों ने अपने तिकड़म के हिसाब से चुन कर किसी एक कवि पर बहुत सारा और बहुमत साधारण लिखा है, दूसरों पर भी सब धान बाइस पसेरी के हिसाब से ही लिखा है. यों कुछ बहुत बड़े कहे जाने वाले आज के एक आलोचक ने भी लिख कर नही तो बोल कर वही काम किया है. अब पूर्वाचल से जुड़े नामीगिरामी आलोचक ही जब ऐसा करने लगेंगे तो फिर दूसरे जगहों के बारे में क्या कहा जाय. बोलना कभी गंभीर आलोचना कर्म मान लिया जायेगा, शायद यह बड़े शुक्ल जी को पता नहीं रहा होगा.
बड़े शुक्ल जी पता नहीं आज के आलोचकों की तरह अपनी फौज बना कर रखते और चलते थे या नहीं. सुना है कि मौजूदा समय में कई ‘आशाराम बापू’  हैं जो प्रवचन करते हैं और जहाज से अपनी फौज साथ लेकर चलते हैं. शायद ऐसे ही आज के कुछ बहुत बड़े आलोचक चाहे पूरा जहाज बुक करके अपनी फौज लेकर साथ चलते हों या न चलते हों, पर उन्होंने भी अपने पीछे युवा आलोचकों की एक जमात खड़ी की है. यह इसलिए कह रहा हूँ कि आलोचक वरिष्ठ हो चाहे युवा जैसे ही वह आलोचना के स्वाधीन आसन से गिरेगा, उसका ईमान, उसका स्वाभिमान और साहस सब चूरचूर हो जायेगा. जो आलोचक भीतर से खोखला होगा, वह भरी हुई आलोचना कर ही नहीं सकता है. फिर मैं कहना चाहता हूँ कि जीवन एक रचनाकार की रचना को ही प्रभावित नहीं करता है बल्कि एक आलोचक का जीवन भी उसकी आलोचना को प्रभावित करता है. जैसे कोई राजनेता भ्रष्ट होकर या अनेक घोटालों में शामिल रहते हुए देश और समाज के लिए सचमुच का कोई बड़ा काम नहीं कर सकता है, वैसे ही एक आलोचक भी जीवन में घटिया होकर अच्छी आलोचना नहीं लिख सकता है.
एक आलोचक के घटिया जीवन के उत्कृष्ट नमूने दिये जा सकते हैं. पर यहाँ मकसद किसी आलोचक के सम्मान पर चोट पहुँचाना नहीं है. सवाल यह है कि आलोचक के जीवन में जिस ईमान और धैर्य का संकट है, उसके लिए किया क्या जा सकता है ? कोई ऐसी मशीन या दवा की पुड़िया है कि आलोचक के गले में डाल दिया जाय जो उसके भीतर की आलोचना की बदहजमी को पहले शांत करे और उसके बाद उसके विवेक के भीतर पहुँचकर ऐसे असर करे जो उसे कुछ भी लिखने और पढ़ने से पहले यह देखने की शक्ति दे कि वह सोचे कि इसमें नया क्या है और नये में महत्वपूर्ण क्या है ? दूसरे अपने समय की रचनाशीलता के परिदृश्य के बीच उसकी जरूरत क्या है ? जब तक इसका उचित उत्तर न मिल जाय, एक शब्द न लिखे. क्या किसी आलोचक से इस तरह के आत्मसंयम की उम्मीद की जा सकती है ? एक सवाल और है कि आलोचना क्यों ? किसी कृति के बारे में जो आकलन है, वही सच क्यों ? सच क्या है ? रचना का सच ही क्या आलोचना का सच है ? सवाल यह कि आलोचना के सच को जानने की तनिक भी इच्छा आज के आलोचक के भीतर है ? आलोचना के अंतरंग से उसके अपने अंतरंग से कोई रिश्ता बनता है या उसे अपने समय के केवल बड़े नामीगिरामी आलोचक की आँख से आज की रचना और आलोचना दोनों को देखना है ? जब कोई फतवा जारी होगा अमुक कवि या कविता संग्रह या कविता के बारे में तभी वे उस पर कोई विचार करेंगे अन्यथा नहीं ? आखिर किसी तरह का कोई स्वाधीन आलोचनात्मक विवेक इनके भीतर है या नहीं?
जब एक चोर की हथेली का निशान भी शीशे की गिलास पर पड़ जाता है तो इनकी अपनी छाप इनकी आलोचना पर क्यों नहीं होनी चाहिए ? ये अपने समय की आलोचना के सिर्फ संगतकार बन कर क्यों रहना चाहते हैं ? मैं बात को उदाहरण से आगे बढ़ाना चाहता हूँ. यदि नामीगिरामी आलोचक कुछ कवियों को प्रमोट करे तो इन्हें क्यों नहीं देखना चाहिए कि यह उचित प्रमोशन है या सिर्फ लेनदेन का मामला ? यदि पुलिस ही चोरी करने लगेगी तो चोर को कैसे पकड़ेगी ? आलोचक ही चोरी करने लगेगा अर्थात अपने समय के बहुत कामयाब आलोचकों की नकल करने लगेगा तो वह आलोचना की दुनिया में सच की खोज कैसे करेगा? नकल करने वाले कवियों की पहचान कैसे करेगा ?
यहाँ एक बात साफ कर दूँ कि नकल करना और बात है और प्रभावित होना और बात है और किसी कृति को चुनौती मान कर उससे आगे का काम और बात है. यहाँ तीन बातें हैं. लेकिन जब मेरा आलोचक मित्र इन तीन बातों पर ध्यान नहीं देता है तो औरों से क्या उम्मीद करूँ ? वह तो खुद ही उन्हीं-उन्हीं रास्तों पर गोल-गोल घुमावदार साढ़ियों पर चढ़ कर आलोचना के शीर्ष पर पहुँचना चाहता है. उसे भी इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कौन-कौन प्रमोटी कवि प्रगतिशील कवयित्री  की लोकधर्मी कविताओं की कैसे नकल करते हैं ? वे किसी प्रिय कविता को चुनौती मान कर आगे का काम करते हैं या नहीं?
उसे इस बात से कोई नहीं पड़ता कि आज कैसे कोई कवि किसी पहले के कवि की किसी कविता को चुनौती मान कर आगे की सोचता है ? उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि कैसे पहले के कवि की कोई कविता आज के किसी कवि के लिए चुनौती हो सकती है और वह पहले के कवि की काव्य मनःस्थिति और संवेदना का विकास अपने ढ़ंग से करता है. उदाहरण है. सोचता हूँ कि एक दिन अपने आलोचक मित्र के सामने इस कविता को रख दूँ-
इतनी अच्छी क्यों हो चंदा, तुम अच्छी हो, तुम्हारी रोटी अच्छी है
तुम्हारा अचार अच्छा है, तुम्हारा प्यार अच्छा है
तुम्हारी बोली-बानी, तुम्हारा घर-संसार अच्छा है
तुम्हारी गाय अच्छी है, उसका थन अच्छा है, तुम्हारा सुग्गा अच्छा है,
तुम्हारा मिट्ठू अच्छा है, ओसारे में लालटेन जलाकर विज्ञान पढ़ता है
यह देखकर तुम्हें कितना अच्छा लगता है
तुम गुड़ की चाय अच्छा बनाती हो, बखीर और गुलगुला सब अच्छा बनाती हो
कंडा अच्छा पाथती हो, कंडे की आग में लिट्टी अच्छा लगाती हो
तुम्हारा हाथ अच्छा है, तुम्हारा साथ अच्छा है
कहती हैं सखियां, तुम्हारा आचार-विचार, तुम्हारी हर बात अच्छी है
यह बात कितनी अच्छी है, तुम अपने पति का आदर करती हो
लेकिन यह बात बिल्कुल नहीं अच्छी है कि तुम्हारा पति तुमसे प्रेम नहीं करता है
तुम हो कि बस अच्छी हो, इतनी अच्छी क्यों हो चंदा, चुप क्यों रहती हो
क्यों नहीं कहती अपने पति से, तुम उसे बहुत प्रेम करती हो.

और पूछूँ कि इसे पढ़ कर किसी कविता की याद आ रही है या नहीं? कहीं कोई गूँज सुनायी पड़ रही है या नहीं ?  यह किसी कविता की नकल है या उससे आगे के काव्यानुभव और यथार्थ को पकड़ने की एक छोटी-सी कोशिश ? मैं जानता हूँ कि मेरा मित्र इस तरह की कविताओं को तब तक न देखेगा जब तक आलोचना का कोई ऊपर का अफसर उससे कहेगा नहीं. इस तरह कविताओं को देखने की जब दृष्टि या साहस ही आज के आलोचक के पास नहीं है तो हम उन आलोचकों से कैसे बड़े शुक्ल जी की तरह गंभीर आलोचना की माँग कर सकते हैं. यह उन   आलोचक के साथ ज्यादती होगी. वे कहीं और फंसे हुए हैं. उन्हें उनके हाल पर छोड़िए. उनकी स्थिति उस दूध की जाँच करने वाले इंस्पेक्टर से भी बहुत कम है जो एक मिनट में जान लेता है कि दूध में कितना पानी है और कितना दूध ? जब नीयत में खोट हो, ईमान का सौदा कर लिया जाता हो तो फिर उनसे अच्छी आलोचना की बात बेमानी है.
अच्छी आलोचना के लिए विचार और यथार्थ को जानने और समझने के विवेक साथ बहुपठित होना, तीक्ष्ण अन्वीक्षण बुद्धि और मर्म ग्राहिणी प्रज्ञा की जरूरत पर भी पहले के आचार्यों ने काफी बल दिया है. पश्चिम के आचार्यों का भी कहा हुआ काफी कुछ है. लेकिन इन सूत्रों के बाद भी आखिर आलोचना का पूरा ढ़ाँचा आज फेल क्यों दिख रहा है ? जब पता ही था कि यह-यह रहे तो अच्छा आलोचक बना जा सकता है, तो अच्छे आलोचकों की किल्लत आखिर हुई कैसे ? कौन लोग हैं जिन्होंने फेल किया इन पुराने रास्तों को या इन पर चलने से मना किया या जानबूझ कर इनसे दूर भागे ? या कि उस पर चलने के बावजूद वह प्रभाव नहीं पैदा कर सके, जिसकी जरूरत आज सबसे ज्यादा है ? कहीं ईमान और साहस और धीरज की कमी जैसी छोटी-मोटी व्याधियों ने तो नहीं सब चौपट कर दिया ? यह सोचने की बात है कि इन मुश्किलों से कैसे छुटकारा पायें. कहते हैं कि कभी छोटे-मोटे नट-बोल्ट ढ़ीले हो जाने या रास्ते में कहीं गिर जाने से बड़ी से बड़ी गाड़ी रास्ते में खड़ी हो जाती है. एक पहिया कहीं पंक्चर हो जाने से गाड़ी रुक जाती है. दुर्घटनाएँ तो ड्राइवरों के बेसुध हो कर गाड़ी चलाने पर भी हो जाती हैं. देख लें ठीक से, खराबी कहाँ है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अब पुरानी गाड़ियों को गैराज में रख देने का वक्त आ गया है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि आलोचना में भी नई आमद के इंतजार का वक्त आ गया है ? खबर करें.

ऐश्वर्य की मियाद/पल्लव

'आखिर ईश्वर है क्या ? मनुष्य के श्रेष्ठतम का प्रकाश ही तो? और यह प्रकाश प्रत्येक मनुष्य के भीतर होता है. लेकिन फूटता तभी है जब किसी को कातर, बेबस, निरुपाय और प्रताड़ित देखता है. मैं भी था ईश्वर. हाँ, मेरी अवधि किन्हीं कारणों से थोड़ी लम्बी खिंच गई रही होगी.'
मिथकों और पौराणिक आख्यानों का क्या रचनात्मक उपयोग हो सकता है? वर्तमान जीवन की विसंगतियों या सीमाओं की व्याख्या के लिए इनका प्रयोग कितना और किस तरह किया जा सकता है? भारतीय साहित्य में महाभारत और रामायण पर आधारित रचनाओं के लेखन का इतिहास पुराना है. इसलिए यह और अधिक चुनौतीपूर्ण है कि कोई समकालीन रचनाकार इन पर आधारित किसी कथा सूत्र को पकड़ कर बड़ी रचना करे. इस बड़ी रचना का आशय असल में तो समकाल की व्याख्या ही होगा तथापि वह रचना युक्ति के लिए किसी पौराणिक आख्यान का सहारा लेता है. आधुनिक जीवन में कलाकार की स्वायत्तता के प्रसंग में 'आषाढ़ का एक दिन' इसका प्रमाण हो सकता है. अभी हाल तक कविता में कुंवर नारायण और उपन्यास में सुरेन्द्र वर्मा ने ऐसा किया है. काशीनाथ सिंह का नया उपन्यास 'उपसंहार' कृष्ण के जीवन के अंतिम दिनों की कहानी है. उपन्यास की कथा पुरानी और बहुश्रुत होने पर भी कुछ अल्प परिचित प्रसंग आए हैं. सबसे मुख्य बात है इनका प्रस्तुतीकरण. एक वाक्य में कहा जा कि जिस तरह मैथिलीशरण गुप्त के महाकाव्य 'साकेत' में भगवान राम से अधिक पुरुषोत्तम राम का चरित्राख्यान है वैसे ही यहां योगीश्वर भगवान श्रीकृष्ण की नहीं वरन एक सामान्य मनुष्य का संघर्ष और पीड़ा की  अभिव्यक्ति हुई है.
उपन्यास कृष्ण की नारायणी सेना के बहादुर योद्धा गोपाल भोज के बयान से प्रारम्भ हुआ है जहाँ वे अठारह दिनों के युद्ध के बाद क्षत-विक्षत लौट आये हैं और तीन दिन के जीवन-मरण संघर्ष के बाद दम तोड़ देते हैं. यहीं घोषणा होती है कि 'महाभारत -विजय के बाद द्वारकाधीश वासुदेव श्रीकृष्ण पहली बार द्वारका पधार रहे हैं. उनके साथ ही हमारी वह अपराजेय नारायणी सेना भी आ रही है,जिससे देवराज इंद्र तक भय खाते हैं.'
द्वारका आ रहे कृष्ण उदास और हतप्रभ हैं और कदाचित वे इस अहसास से घिर गए हैं कि भीषण महायुद्ध में विजय के बावजूद क्या बदल गया? अपनी नारायणी सेना के वीरों की युद्ध में अकाल मृत्यु और नागरिकों का रोष उन्हें कातर बना रहा है. काशीनाथ सिंह लिखते हैं-'द्वारका प्रवेश का यह पहला अवसर है, जब न तो कहीं से जय-जयकार सुनाई पद रहा है,न उनकी आरती उतारी जा रही है, न फूल-मालाएँ बरस रही हैं. उनका रथ तट से राजपथ की ओर जा रहा है और लोग देख भी नहीं रहे हैं.' उपन्यास में आगे कुछ समय बीत जाने पर जब उन्हें युधिष्ठिर के राज्य के समाचार मिलते हैं तो यह कातरता गहरा जाती है. युधिष्ठिर की जनता अकाल से पीड़ित है और वे लोगों को उपदेश कर रहे हैं -'धैर्य धारण करें ,ऐसा मेरे ही राज्य में नहीं,पूरे आर्यावर्त में हो रहा है. ईश्वर हमारी परीक्षा ले रहा है,हम उत्तीर्ण होकर रहेंगे.' ऐसे समाचार पर कृष्ण सोचते-'दुर्योधन क्या बुरा था? राजकाज देखने वाले भीष्म-विदुर थे, प्रजा को कोई शिकायत न थी.'
उपन्यास कृष्ण पर हो और राधा का उल्लेख न हो ऐसा भला कैसे संभव है? उन्हें राधा की याद आती है और वह प्रसंग भी याद आता है. जब राधा दही-माखन लिए कृष्ण से मिलने मथुरा आई थी. राधा यह कह कर जाती है-‘हमारा मन कह रहा है कि यह हमारी अंतिम भेंट है.’ और सचमुच यह भेंट अंतिम ही थी. इधर अब सागर तट पर उदास बैठे कृष्ण जैसे स्वयं से ही कह रहे हैं-'देखो तो ये कब की बातें हैं?/जैसे पिछले कई कई जन्मों की/कितना आसान है यह कहना कि आत्मा वही रहती है सिर्फ देह बदलती है /पुराने वस्त्र की तरह/यहां आत्मा बदलती गई और देह भी.' जब युद्ध से लौटकर उनकी रानियों ने स्वागत किया था-मंगलगान गाए थे तब वह सब उन्हें 'फूहड़ और भद्दा' लग रहा था. ऐसे ही उन्हें अपना बचपन याद आता है और वे सोचते हैं - 'आख़िरी बार 'लल्ला' कब सुना था,कहाँ सुना था,किससे सुना था? वे तंग आ चुके थे वासुदेव,केशव,पुरुषोत्तम,जनार्दन सुनते-सुनते. उन्हें लगता था कि इसके लिए दूसरे नहीं,वे स्वयं जिम्मेदार हैं.'
क्या यह जीवन की अनिवार्य नियति है? एक पराक्रमी पुरुष जिसकी ईश्वर मान कर लोगों ने पूजा तक की. वह भी निरुपाय है नियति के आगे? यदि ऐसा है तो इसका कारण खोजना चाहिए. यहां कृष्ण स्वयं वे कारण खोज रहे हैं- 'इसलिए तो नहीं कि वे दुर्जनों का विनाश करने के लिए उन्हीं  के स्तर पर उतर गए थे? क्या इसलिए तो नहीं कि भीष्म, द्रोणाचार्य जैसे जितने महायोद्धा उनकी चालों-धूर्तताओं से मारे गए थे, सबके सब दुर्जन नहीं थे. क्या इसलिए तो नहीं कि अपने भीतर के ईश्वर को झूठ और कपट से कलुषित कर दिया था?' कृष्ण अपनी शक्तियों का क्षय देख रहे हैं और इसे देखना अत्यंत पीड़ादायक है. वे रोना चाहते हैं और रो नहीं पाते. अपने सबसे विश्वसनीय सेवक दारुक को कहते हैं-'मेरी आँखों में आँसू क्यों नहीं आते?' दारुक का उत्तर है- 'भगवान कहीं रोते हैं ?' कृष्ण फिर कहते हैं-'भगवान होने के लिए पत्थर होना जरूरी है क्या?… लेकिन मैं तो बहुत रोता था गोकुल में ! अब क्या हो गया?' आगे अन्यत्र एक स्थल पर वे दारुक से ही कहते हैं-' इधर लगातार मेरे भीतर कुछ गूँज हो रही है. उथल-पुथल मची हुई है. वह जगे में नहीं, सोए में भी सुनाई देती है. महाभारत शुरू ही जब दोनों पक्षों की सेनाएँ आमने-सामने डट गईं, तो धृतराष्ट्र ने संजय से जानकारी चाही. संजय ने गांधारी वगैरह को बुलवाकर सबके सामने कहा - यतो कृष्णस्ततो धर्म: यतो धर्मस्ततो जय: यानि जहां कृष्ण हैं,वहां धर्म है और जहां धर्म है,वहीं जय है. यह मैंने सुना था. इधर बार-बार यही प्रतिध्वनि मेरे कानों में गूँज रही है कि क्या सचमुच मैंने महाभारत में अठारह दिन धर्माचरण किया था,जिससे विजय मिली?' और यही नहीं उन्हें अपने आसपास घायल और कराहते दुर्योधन -कर्ण -जयद्रथ नजर आते हैं जो उन्हें दोषी ठहरा रहे हैं.
इस निरुपायता में उन्हें अपने वैभवशाली दिनों की याद आती है जब उन्होंने द्वारका बसाने का निश्चय किया था और इस स्थान को देखने आये थे और तब समुद्र अपनी महिमा समेट कर धन्य महसूस कर रहा था, विश्वकर्मा-कुबेर-वायुदेव-सूर्यदेव-इंद्रदेव कौन नहीं हैं जो इस नगरी के निर्माण में सहयोग नहीं करना चाहता था? इंद्र की अमरावती के टक्कर में लोग उसे द्वारावती या द्वारवती भी पुकारते थे. कृष्ण के लिए- सपना. वे चाहते थे ऐसा गणराज्य,जिसमें सारे कुल मिलकर रहें,सब समान रूप से संपन्न और सुखी रहें, ऊँच-नीच,छोटे-बड़े की भावना न रहे,सब सामान सुविधाएं भोगें, सब निर्भय और नि:शंक विचरण करें. इस तरह बनी द्वारका और द्वारकाधीश का हतप्रभ हो जाना विस्मित  करता है. लेकिन कृष्ण सर्वज्ञ हैं वे स्वयं कहते हैं- 'मैं भी था ईश्वर. हाँ, मेरी अवधि किन्हीं कारणों से थोड़ी लम्बी खिंच गई रही होगी.' काशीनाथ सिंह ईश्वर होने की सही व्याख्या करते हैं- 'कृष्ण ने द्वारका में स्थिर होने के बाद से ही ऐसे क्रूर,अहंकारी,बर्बर दानवों के सफाए का लक्ष्य निर्धारित कर लिया और इसके लिए वे आर्यावर्त के दूसरे छोर प्राग्ज्योतिषपुर (असम) तक गए. उनके इस लोकहित के काम ने द्वारका को वैभवशाली बनाया,प्रतिष्ठा दिलाई और उन्हें 'ईश्वर' की गरिमा दी. ऐसी गरिमा कि आर्यावर्त के जिस यज्ञ या स्वयंवर या सभा में कृष्ण न हों, वह जैसे हुआ ही नहीं.'  और अब देखिये वही कृष्ण कह रहे हैं- 'देखो,यह वही समुद्र है,जो मेरे श्यामशिला पर बैठते ही पाँव पखारने के लिए दौड़ पड़ता था, आज कैसा दहाड़ रहा है ! ऐश्वर्य की भी एक मियाद होती है और वह पूरी हो गई. और वह कब पूरी हुई मुझे पता ही नहीं चला.'
उपन्यास में बलराम कृष्ण का विपक्ष रचते हैं. वे ही थे जो कृष्ण को कुछ कह सकते थे,उनके निर्णयों पर आपत्ति कर सकते थे और फिर द्वारका के युवराज भी तो वे ही थे. कृष्ण ने द्वारका को एक गणतंत्र के रूप में विकसित करना चाहा था जहाँ राजा और प्रजा मिलकर निर्णय लें. महाभारत युद्ध से पूर्व उन्होंने 'सुधर्मा-सभा' बुलाई थी जिसमें युद्ध में द्वारका की भागीदारी का निर्णय होना था. और जब बलराम ने इस लड़ाई को कौरवों-पांडवों का घरेलू मामला कह कर द्वारका को बीच में न पड़ने की सलाह दी तब कृष्ण बोले थे- 'नहीं दाऊ, यह उनका घरेलू मामला नहीं है. यह वस्तुत: धर्म-अधर्म का, न्याय -अन्याय का,सत-असत का,प्रकाश-अन्धकार का, ईमानदारी-बेईमानी का मामला है. इतिहास-काल कल हमसे,आपसे,द्वारका से पूछेगा कि जब आर्यावर्त में युद्ध हो था,मार-काट मची थी,आग लगी थी,तब आप कहाँ थे? द्वारका किधर थी? नहीं पूछेगा? और तब क्या जवाब देंगे आप?' इस पर बलराम ने हँसकर जवाब दिया था-'किसी भी बात से सिद्धांत गढ़ लेना पुरानी आदत है तुम्हारी.' लेकिन बलराम युद्ध की भावी विभीषिका जानकर विरोध कर रहे थे और उनका विरोध द्वारका की सेना को युद्ध में भेजने पर था -'सेना दान-दक्षिणा में दी जाने इसकी निजी संपत्ति नहीं है. सेना तब के लिए होती है,जब कोई राष्ट्रीय आपदा हो,सीमा पर संकट हो,द्वारका में प्राकृतिक दुर्घटना हो.!'  इसके बाद वे सभा छोड़कर हिमालय यात्रा पर निकल गए थे. अब जब युद्ध को बीते कई साल हो गए हैं और द्वारका-कृष्ण उस युद्ध की विभीषिका को झेल रहे हैं तब अपने बलदाऊ के साथ एक रात कृष्ण बैठे हैं और अतीत को याद कर रहे हैं. भीम और दुर्योधन के गदा युद्ध को याद करते हुए बलराम कहते हैं कि मैं मारने दौड़ा था लेकिन रूक गया क्योंकि तुम्हारा इशारा देख लिया था.  तब कृष्ण ने कहा -तो मुझे ही मारा होता आपने. बलराम कहते हैं -'किस-किस अधर्म के लिए मारता मैं? एक-दो हों ,तब तो?.... क्या समझते हो,मैं हिमालय धूनी रमाने गया था? तपस्या करने गया था? उस ऊंचाई से वह सारा कुछ देख-सुन रहा था,जो तुम कुरुक्षेत्र में कर रहे थे. तुम अधर्म की नींव पर धर्म की जर्जर इमारत खड़ी कर रहे थे. कहकर गए थे द्वारका से कि यह अधर्म के विरुद्ध धर्मयुद्ध है,धर्म की स्थापना करनी है. किस धर्म को स्थापित किया?न्याय को?ईमानदारी को?भाईचारे को?प्रेम को?किसको? प्रेमयोग का ज्ञान देते घूम रहे हो और दादा को पोते से ,मित्र को मित्र से,गुरु को शिष्य से और भाई को मरवा रहे हो! पूरे आर्यावर्त में घूम कर देखा मैंने, ब्राह्मणों, महिलाओं और बच्चों को छोड़कर कोई नहीं बचा है. इसे किस धर्म की स्थापना कहेंगे ?' अंत में बलराम कहते हैं -'हाँ,इस युद्ध के बाद इतना जरूर हुआ कि जो दबे स्वर में तुम्हें अवतार या ईश्वर कहते थे, वे खुलकर स्तुति-गान करने लगे. और गाने वाले थे ही कौन? वही वेदपाठी ब्राह्मण, तपस्वी, ऋषि-मुनि.' कृष्ण जैसे इस नरसंहार का समाधान जानते हैं- उनका द्वंद्व है दो भाई मथुरा छोड़कर द्वारका बसा सकते थे तो तुम पांच थे. पूरी वसुंधरा थी तुम्हारे पास. 'लेकिन नहीं क्योंकि राजा अंधा था,बेटा- जो भावी नरेश होने का सपना पाले था-बहरा था और मंत्रिपरिषद गूंगी थी. ऐसा राज्य जरासंध के मगध से भी बुरा होता.' तो कृष्ण का निर्णय है युद्ध नहीं रोककर ठीक किया.
निर्णय के बावजूद कृष्ण गहरे द्वंद्व  से निकल नहीं पाते - 'ईश्वर का काम केवल संहार करना है?निरर्थक, निरुद्देश्य, नि:स्वार्थ जनसंहार? मथुरा से लेकर द्वारका तक वे केवल संहार और वध ही करते रहे ,क्या अवतार इसीलिए होता है?' उन्हें मालूम है -'महाभारत में जो मारे गए  आर्यावर्त के गौरव थे.' वे पूछते हैं -''क्या मनुष्य का मनुष्य होना ही काफी नहीं है? फिर उसे वर्णों में क्यों बाँटा गया? द्वारका में तो सब यादव हैं चाहे वे खेती करें,चाहे व्यापार, चाहे लोहे-लकड़ी के काम !' यह निश्चय ही गीता का उपदेश करते भगवान श्री कृष्ण नहीं हैं अपितु जीवन के शाश्वत सवालों से जूझ रहे एक मनुष्य का चित्र है. यह मनुष्य अब अपनी ज़रा से भी लड़ रहा है और तमाम प्रतिकूल परिस्थितियाँ उसे आहत कर रही हैं. उन्हें थोड़ा घूमने पर भी थकान होने लगी है -बुढ़ापा गहरा रहा है -उन्हें नहीं लगता लेकिन पत्नियाँ कहती हैं कि वे कम सुनने लगे हैं. युद्ध को छत्तीस साल हो गए हैं और बुरे बुरे समाचारों के बीच गार्ग्य मुनि बताते हैं-'आपके महल के बाहर गरूड़द्वार पर मैंने कलिकाल को खड़ा देखा है. वह महल के खाली होने का इंतज़ार कर रहा है कि आप इसे छोड़ें और वह इसे दखल करे.' ऐसा कभी नहीं हुआ था लेकिन अब हो रहा था कि समुद्र से निकल कर मगर और घड़ियाल नगर की सड़कों पर आ रहे थे और शिकार कर रहे थे. अग्नि अपना स्वभाव छोड़ रही थी और मार्गों पर रंग बिरंगे चूहे दौड़ रहे थे. नागरिक मदिरापान में उद्यत थे और आकाश में गिद्ध मंडरा रहे थे. उनका गणतंत्र गणों की आपसी कलह और संघर्ष में नष्ट हो  रहा है. उनके पुत्र असंतुष्ट हैं कि पिता ने अपने कर्तव्य का सही निर्वाह नहीं किया.
इससे पहले एक और घटना हुई थी जो कृष्ण को विचलित करती है. अचानक दुर्वासा द्वारका आते हैं और ऐसा उद्योग करते हैं जो मनुष्य जीवन की सामान्य गरिमा के विपरीत था. यह ठीक है कि इसके पीछे उनका उद्देश्य कृष्ण का कल्याण ही था फिर भी यह कृष्ण को गहरा विचलित करता है. वे सोचते हैं -'क्या यह जताने आया था कि देख लो अपनी औकात/ हम हैं जो तुम्हें ईश्वर बना सकते हैं/ तो मटियामेट भी कर सकते हैं.?' द्वारका एक बंद मुट्ठी की तरह थी जो खुल गई-बिखर गई. इस बंद मुट्ठी का खुल जाना त्रास को जन्म देता है. यह त्रास अब हर कहीं है मीठी यादों में और कड़वे वर्तमान में. इन्हीं दिनों में कभी उन्हें वंशी की याद आती है जो नंदगांव छोड़ते समय उन्हें राधा ने दी थी, वे उसे मंगवाते हैं लेकिन जो आता है वह वंशी नहीं -लम्बे बांस के दो फट्टे हैं जो कृष्ण को और अधिक उदास करने वाले हैं . कृष्ण को अब लग रहा है कि पाञ्चजन्य के स्वर से धमकी और धौंस की बू आती थी  वे कहते हैं -'देखो तो कैसे एक पहचान मिट गई और दूसरी बन गई.' मुरलीधर का युद्ध में शंख बजाना अब कितना त्रासदायक चित्र है जिस पर करुणा आती है. और यही वह स्थल है जहां कृष्ण कहते हैं - 'एक समय ऐसा आता है,जब जीने की इच्छा ख़त्म हो जाती है.'
वस्तुत: कृष्ण का उपन्यास मे बन रहा यह चित्र समकालीन मनुष्य का ही चित्र है. इसे समृद्धि के चरम से जोड़ कर समझा जा सकता है.  इतना वैभव और ऐश्वर्य संसार में भला कब रहा होगा ? फिर भी मनुष्यता के सामान्य लक्षण तक दुर्लभ होते जा रहे हैं और व्यक्ति अकेलेपन और अवसाद से घिरा है. उपन्यास एक बड़ी विधा है जिसमें जीवन के यथार्थ का निरूपण करने के साथ ही किसी न किसी दर्शन का होना आवश्यक है. दर्शन वह जो जीवन के काम आ सके. जीवन के शाश्वत सवालों से लड़ने का हौंसला दे सके. मृत्यु ऐसा ही शाश्वत सवाल है जिसका कोई जवाब नहीं. कृष्ण ने भी जन्म लिया है और उनकी मृत्यु भी तय है. दुर्वासा भले अगरिमापूर्ण कौतुक रचकर कृष्ण की मृत्यु को रोकना चाहें वह अटल है. त्रास यह है कि कृष्ण को समूचे यदु वंश का नाश देखना है, पिता और बलदाऊ को अलविदा कहना है. मृत्यु से एन पहले उन्हें फिर राधा की याद आती है -'गोकुल छोड़ने के बाद उन्होंने क्या-क्या नहीं किए? अगर नहीं कर सके तो सिर्फ एक काम ! राधा से किया वादा पूरा नहीं किया.  कि लौटकर आएँगे,मगर नहीं लौट सके. कोई बात नहीं. अब वे द्वारका की चिंता से मुक्त हैं. देर नहीं हुई है. अब भी जा सकते हैं. नन्दगाँव,फिर वहां से बरसाने … 'लेकिन क्या हम नहीं जानते कि बरसाना जीवन में बार बार नहीं मिलता. कृष्ण को भी नहीं.
उपन्यास बहुत अधिक पृष्ठ नहीं घेरता. इधर काशी का अस्सी के बाद काशीनाथ सिंह लगातार कोशिश कर रहे हैं कि वर्णन का पारम्परिक ढंग बदले. वे यहां स्वगत और वर्णन दोनों के लिए कवितानुमा शैली का प्रयोग करते हैं. क्या यह उपन्यास को कविता की तरह सुगम बनाने की कामना है? बहरहाल इस प्रविधि से पाठक को कोई दुराव नहीं. भाषा अब उनके लिए चुनौती नहीं रही. कृष्ण आमफहम जबान बोलते हैं और यदु वंश के मनमौजी नौजवान ठीक वही भाषा बोलते हैं जो उन्हें बोलनी चाहिए. कोई उलझन नहीं और भाव तथा अर्थ निष्पत्ति में कोई बाधा नहीं. काशीनाथ सिंह की किस्सागोई प्रशंसित हुई है और वह यहां भी है. बलदाऊ और दारुक से बातें करते कृष्ण पाठक के भीतर चले जा रहे हैं. उनका दारुण अंत पाठक को समकालीन लगता है. इस नियति से साक्षात्कार करवाना काशीनाथ सिंह की कला का ही कौशल है. भले इसके लिए उन्हें जोखिम उठाने पड़े. और यह ठीक भी है क्योंकि जब मिथकों की पुनर्रचना हो रही है तो क्या वह हमारे समय और समाज के वर्तमान से निरपेक्ष हो सकती है?