Wednesday 17 September 2014

लघुपत्रिका के सम्पादक / चन्दन राय

वह जो बने बैठे साहित्य के कुलदेवता
परिचय-निष्ठ, आत्म-निष्ठ, आत्मकेंद्रित साहित्य के द्रोण,
आप जब भी लिखेंगे कविता में नीम-चढ़े यथार्थ
वो कहेंगे आपसे जी आपकी कविता बहुत शोर करती है,
हमें माफ़ कीजिए हम ऐसी भड़काऊ प्रतिरोधी कविताएँ नहीं छापते,
जो बैण्ड बाजे बजाना नहीं जानती ।
आपके निरीह मन में गर निरी भावुकता का शोक घर करता है
तो आपकी कविताएँ क्या खाक कूल्हे मटकाएँगी !
आप गर चाहते हैं की आपकी कविताएँ प्रकाशित की जाएँ
आप पहले जी भर वैचारिक निष्क्रियता की चीनी फाँकिए,
परिचय की प्यालियों में हमारे साथ चुस्कियाँ लगाइए,
क्योंकि परिचय ही इस युग की साहित्यिक-निष्ठा है,
परिचय ही पुरस्कार है और पुरस्कार ही है
हमारे साहित्य-सरोकार का गोद लिया सम्बन्ध
वह हमें सिखाते हैं कि आप सुबह उठते ही
कायरता की कालिख से अपना चेहरा माँजें
अपनी आवाज़ अपने कण्ठ में ठूँस लें
अक्ल से अच्छी क़ीमत पर बेचीं जा सकती है जीभ
ऐसे मौसम में घर से बाहर न निकलें
जब क़लम को ज़िम्मेदारी उठाने का लकवा मारने की संभावना हो
कृपया अच्छाई से कम से कम पाँच फीट की दूरी बनाए रखें
और चूहों से सीखें बिल में दुबक जाना !
तो आइए, कतिपय हम लिखना छोड़ दें
कि आज फिर से उस चौराहे पर दीनू सब्ज़ी वाले के ठेले से
उस हरामी ख़ाकी वर्दी वाले ने हफ़्ता वसूली की थी
मिट्ठन का चाय का खोखा इसलिए तोड़ दिया गया
क्योंकि सरकार ने ये फ़ैसला किया है
वो विकास की उस धुरी पर खड़े हैं जहाँ कुछ निर्दोष मासूमों की लाशों के
सीने पर सोना मढ़ना रक्तचरित्र नहीं अर्थचरित्र है !
दुक्खू ने गर अपनी अपाहिज बेटी महज सौ रूपए में बेच भी दी
तो हमें क्या ? हम ग़रीबों के मसीहा तो नहीं हैं ! न ही है हम न्याय के देवता
कि जहाँ देखे जुल्म हम तान लें अपने धनुष-बाण ??
पर कहो क़लम के देवता ?? यह कैसा कविता-चरित्र होगा ? कैसा कविनामा ?
कि आपके सामने रोटी के मोहताज बच्चे बीन रहे हैं
कीच में सनी गन्दली पन्नियाँ
और आप मदमस्त हो लिख रहें हैं बसन्त पर कविता
ये कैसी कवि-कर्मठता ये कैसी क़लम की बदपरहेजी
कि आप किसी का ख़ून चखकर भी लिखें मीठा
और अपनी कविता के बग़ीचे में बैठे बजाएँ बाँसुरी
वह पराया “अतिरिक्त दुःख” जो तुम्हारी छातियों का मोम बचाए रखता है
वह निरी भावुकता नहीं होती
यह तुम्हारा कैसा साहित्यिक सम्पादन….और कैसा साहित्यिक सरोकार….
और कैसा साहित्य-चरित्र,
जो छाप रही अपने विचारों की आत्मसीमित एकरस सुन्दरता
सब कुछ मनोरम सहज-सहज उदार-उदार विषयविहीन !
ये कैसी प्रायोजित साहित्यिक चेतना
जहाँ हम अपने-अपने बिलों में मुँह छुपाए
बजा रहे अपनी-अपनी साहित्यिक पीपनी और भज रहे अपने-अपने राम !
आह ! मेरे युग के लघु-पत्रिका के सम्पादको !
मत हाँकों लघु-पत्रिकाओं को अपने पालतू खच्चरों की तरह
बनने दो इन्हे विचारधारओं का लोकतन्त्र
क्योंकि यह वैचारिक संकुचन जितना विस्तृत होगा
उतना ही फैलेगा साहित्य का दिव्य-पुंज
उतनी ही दीर्घायु होगी लघु-पत्रिका ……
क्योंकि साहित्य का उजियारा सिर्फ़ पूरब से नहीं होता !

खबरों के नाम पर अपराधियों का महिमा-मंडन / जगदीश्वर चतुर्वेदी

मीडिया और मानवता के रिश्ते की खोज पर बहुत कुछ लिखा गया है। किंतु मीडिया और अमानवीयता के संबंध की अमूमन अनदेखी की जाती है। मीडिया में खासकर समाचार चैनलों की विशेषता है कि वे चाहें तो जरूरी को गैर-जरूरी और और गैर जरूरी को परमावश्यक बना सकते हैं। समाचार चैनलों में इन दिनों यह खूब हो रहा है। अपराध की खबरों के नाम पर अपराधियों का महिमा-मंडन चल रहा है और निरपराध लोगों पर चैनल अपनी तरफ से खबरों के जरिए मुकदमा चला रहे हैं। स्थिति यह है कि दैनन्दिन अदालती सुनवाई को भी चैनल कवरेज दे रहे हैं। इस तरह की खबरों में खबर की बजाय उत्पीड़न और सामाजिक कष्ट देने का भाव ज्यादा है। इससे मीडिया और व्यक्ति के अन्तस्संबंध से जुड़े अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं। क्या मीडिया को किसी अपराध के बारे में समानान्तर प्रचार अभियान के माध्यम के रुप में हस्तक्षेप करने का हक है ?
किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह मीडिया में जारी प्रचार अभियान का रोज प्रत्युत्तर दे। साथ ही यह भी देखना होगा कि अपराध खबरों की प्रस्तुति के बारे में मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए।
इन दिनों विभिन्न चैनलों से अपराध खबरों का ज्यादा से ज्यादा प्रसारण हो रहा है। यह प्रवृत्ति अभी तक दैनिक अखबारों में थी। किंतु अब टेलीविजन चैनलों ने इसे अपना लिया है। सामान्य तौर पर प्रेस अपराधी तत्वों के महिमामंडन से दूर रहा है। किंतु राजनीतिक और आर्थिक अपराधियों के महिमा-मंडन में लिप्त रहा है।इसके विपरीत समाचार चैनलों की खबरों में वस्तुगत प्रस्तुति के बहानेअपराधियों और अपराध कर्म का महिमा मंडन चल रह है।
चैनलों में दो तरह की प्रवृत्तियां दिखाई दे रही हैं। पहली प्रवृत्ति है तथ्यपरक रिपोर्टिंग की। दूसरी प्रवृत्ति है अपराधकर्म को सस्पेंस और रसीला बनाकर पेश करने की। दूसरी प्रवृत्ति के तहत चैनलों में पुरानी किसी घटना का जीवंत या नाटकीय रूपायन दिखाया जाता है। इस तरह की प्रस्तुतियों में अपराध को व्यापकता प्रदान की जाती है।  पुलिस की सजगता,चुस्ती,मुस्तैदी,निकम्मेपन पर जोर
रहता है।
इसके विपरीत अपराध की तथ्यपरक रिपोर्टिंग के नाम पर आजतक,सहारा समय,एनडीटीवी आदि चैनलों में अपराध खबरें सामाजिक प्रभाव के बारे में सोचे बगैर दिखाई जा रही हैं। इन चैनलों से अपराध खबरें इस तरह पेश की जा रही हैं जिससे यह लगे कि अपराध आम जीवन का सामान्य अंग है। खबरों में साधारण और असाधारण अपराध में फ़र्क नहीं किया जा रहा। इन्हें आम खबर के रूप में पेश किया जा रहा है। जबकि अपराधकी खबरें आम खबर की कोटि में नहीं आतीं। सभी अपराध और अपराधी समान नहीं होते। ध्यान रहे किसी अपराधी का महिमा-मंडन उसकी छवि को सुधार देता है। साथ ही अपराध के प्रति आम जनता में अपराध विरोधी चेतना को कुंद कर देता है।
डब्ल्यू.आई.थॉमस ने 'पीत पत्रकारिता का मनोविज्ञान' नामक पुस्तक में अपराध खबर के बारे में लिखा ये पाप और अपराध के सकारात्मक एजेण्ट हैं। नैतिकता की अवस्था,मानसिकता आदि के संदर्भ में समाज इनके अनुकरण पर निर्भर करता है। जनता इनसे खूब प्रभावित होती है।अपराधी का नाम यदि किसी ग्रुप से जुड़ा हो और मीडिया उसका प्रचार कर दे तो उससे अपराधी को मदद मिलती है। इसी तरह किसी अपराधी
गिरोह का सरगना मारा गया और उसकी जगह नए मुखिया की नियुक्ति की खबर से भी अपराधी को बल मिलता है। अपराध खबरों के प्रसारण या प्रकाशन के बारे में मीडिया का तर्क है कि अपराध खबरों को छापकर वह जनता और कानून को सचेत करता है। इस संदर्भ में पहली बात यह है कि शांत और नियमित माहौल में ही अपराध खबरें सचेत करती हैं। अशांत माहौल में असुरक्षा पैदा करती हैं।
आम तौर पर टेलीविजन में जो अपराध खबरें आ रही हैं उनमें अपराधी के व्यवहार को रोमांटिक रूप में पेश किया जा रहा है। इनमें अपराधी ने जो मैथड अपनाया उस पर जोर रहता है। अपराध को नियंत्रित करने वाली मशीनरी की तीखी आलोचना रहती है अथवा उसके निकम्मेपन पर जोर रहता है। मजेदार बात यह है कि अपराध के बारे में बताया जाता है,गिरफ्तारी के बारे में बताया जाता है किंतु दण्ड के बारे में नहीं
बताया जाता।
अपराध खबरों में जब सरकारी मशीनरी पर हमला किया जाएगा तो इससे अपराधी को बल मिलेगा।अपराधी ताकतवर नजर आएगा।अपराध के मैथड बताने से अनुकरण को बल मिलता है। अपराध खबरों के प्रसारण के पीछे यह दर्शन संप्रेषित किया जाता है कि अपराध से कोई लाभ नहीं। इस परिप्रेक्ष्य में पेश की गई खबरों में यह भाव निहित होता है कि 'यह सामान्य बात है और दण्ड मिलेगा ही।' अपराध खबरों के बारे में यह ध्यान रखें कि आनंद या भूलवश किए गए अपराध का प्रसारण नहीं किया जाना चाहिए।साथ ही 'इफेक्ट' और 'इफेक्टिवनेस' के बीच अंतर किया जाना चाहिए। हिंसा और अपराध की खबरों के बारे में सभी एकमत हैं कि इसका तीव्रगति से असर होता है। अपराध खबरों का असर व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होता है। इससे आक्रामकता और प्रतिस्पर्धा में वृध्दि होती है।
टेलीविजन समाचारों के आने के बाद से समाचार के क्षेत्र में क्रांति आई है।जल्दी और ताजा खबरों की मांग बढ़ी है।फोटो का महत्व बढ़ा है। स्वयं को देखने,सजने,संवरने और ज्यादा से ज्यादा मुखर होने की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। व्यक्तिवाद में वृध्दि हुई है।व्यक्ति की हिस्सेदारी बढ़ी है। किंतु इसके साथ-साथ खबरों को छिपाने या गलत खबर देने की प्रवृत्ति में भी वृध्दि हुई है। खासकर मानवाधिकारों के हनन की खबरों को छिपाने के मामले में टेलीविजन सबसे आगे है।
टेलीविजन खबरों का जिस तरह स्वरूप उभरकर सामने आया है उससे यह बात सिध्द होती है कि टेलीविजन खबरों का प्रेस की तुलना में खबरों को छिपाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है।टेलीविजन को नियंत्रित करना ज्यादा सहज और संभव है।खबरों में निरंतरता जरूरी है।प्रेस आम तौर पर निरंतरता के तत्व का ख्याल रखता है किंतु टेलीविजन ऐसा नहीं करता।बल्कि निरंतरता के तत्व का वह चुनिंदा मामलों में ही ख्याल रखता है। समाचार चैनलों में इन दिनों सनसनीखेज खबर बनाने या फिर खबर छिपाने का चक्र चल रहा है। इसके कारण सबसे ज्यादा उन्हें क्षति पहुँच रही है जो अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। अपने जायज अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।समाचार चैनलों में गैर जरूरी सवालों पर ज्यादा ध्यान देने से ऑडिएंस के अ-राजनीतिकरण की प्रक्रिया को बल मिलता है। चैनल खबरों के इतिहास में नहीं जाते और न सही खबरों का चयन करते हैं। नया दौर खबर का नहीं मनोरंजक खबरों का है।

मेरा लिखा कूड़ा करकट पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं / रवीश कुमार

''सर, असली काम आप लोगों ने किया और फोटो लोग मेरे साथ खींचा रहे हैं। सब कुछ दिखने तक ही है सर।'' क्लास रूम से निकलती भीड़ और दरवाज़े की दहलीज़ पर दबे अरुण कुमार त्रिपाठी से मैं इतना ही कह पाया। वरिष्ठ पत्रकार अरुण जी ने भी इतना ही कहा कि एन्जाय कीजिए। और भी कुछ कहा होगा पर अब ध्यान नहीं। उसके बाद वे अंदर चले गए और बीस पचीस छात्र मेरे साथ साथ बाहर तक आ गए। बारह पंद्रह घंटे तो बीत ही चुके हैं इस बात को लेकिन मुझे कुछ खटक रही है।
मैं कनाट प्लेस में होता या किसी सिनेमा हाल में तो कोई बात नहीं थी। लोग घेर ही लेते हैं और तस्वीरें खींचा लेते हैं। वहां भी अच्छा नहीं लगता मगर अब दांत चियार देता हूं क्लिक होने से पहले। दर्शक और पाठक की इस उदारता से आप यह सीख सकते हैं कि आपकी बात करने के तरीके में क्या खूबी है या क्या कमी। फिर भी संकोच होता है और लगता है कि मेरी निजता या अकेलापन अब घर में ही सुरक्षित है। बाहर नहीं। साथ चलने वाले मित्र भी मेरे कहीं होने की स्थिति को पहचानने और नहीं पहचानने में विभाजित करने लगते हैं। मुझे अच्छा नहीं लगता है। मैं यही चाहूंगा कि मैं चुपचाप लोगों को देखता रहूं, समझता रहूं, और लिखता रहूं। लेकिन टीवी में रहकर और वो भी रोज़ रात घंटा भर दिखकर इस सुविधा का मांग करना ही माध्यम से नाइंसाफी है। टीवी से इतनी शिकायत है तो मुझे किसी और माध्यम में रहना चाहिए। पर क्या करें टीवी ही जानता हूं और शायद कुछ हद तक इश्क जैसा भी है।
पर जो पत्रकार बनने वाले हैं उनके बीच घिरे होने से क्या तकलीफ हो गई। हो गई। पत्रकार अगर किसी व्यक्ति से इतना प्रभावित हो सकता है कि वो क्लास रूम छोड़ कर बाहर निकल आए, उसे इतनी भी फिक्र नहीं कि कोई वरिष्ठ पत्रकार अंदर गया है जो उसी के लिए कहीं से आया होगा तो मुझे दिक्कत है। मेरे लिए यह गंभीर मामला है। एक युवा पत्रकार किससे मिलना चाहता है। स्टार से या पत्रकार से। मेरे कहने पर भी लड़के नहीं लौटे। फिर मैं यह समझ कर बात करने लगा कि शायद इनके मन में मेरे किसी काम का गहरा प्रभाव होगा जिसके किसी घेरे से वे कहने के बाद भी निकल नहीं पा रहे हैं। कुछ चेहरे मुझे सवालों के साथ देख रहे थे और यह मुझे ठीक लगा मगर ज्यादातर अति प्रभावित होकर, जो मुझे ठीक नहीं लगा। क्लास रूम से दोनों ही प्रकार के छात्र बाहर आ गए थे। वे मुझसे गंभीर ही सवाल कर रहे थे लेकिन फिर भी मेरा मन अरुण त्रिपाठी के क्लास रूप में होने और इन छात्रों के बाहर होने के बीच कहीं फंसा रहा। क्लास रूम में कुछ पत्रकारों की सांसे तेज़ हो रही थीं जब वे मुझसे सवाल पूछ रहे थे। एक किस्म के प्रदर्शन का भी भाव था। किसी के सवाल में मुझे उधेड़ देने का भी और किसी के सवाल में एक विद्यार्थी की तरह कुछ जानने का भी भाव नज़र आया। मैं उस हाल को एक टीवी सेट की तरह देख रहा था। अलग अलग किरदारों की भूमिका में विद्यार्थी मुझे नाप रहे थे। मैं उनको नाप रहा था। मैं सारे सवालों का जवाब जानता हूं ऐसा भ्रम मुझे कभी नहीं रहा है। मेरे सारे जवाब सही होंगे इस भ्रम से तो मैं और भी दूर हूं।
जिस तरह से मुझे कुछ दिखाई देता है उस तरह से सुनाई भी। बात होती रही। बीच बीच में मेरी कार का माडल का नाम किसी ने लिया, किसी ने भीतर भी घूरा ही होगा, किसी ने कहा ड्राईवर नहीं है, किसी ने उम्र पूछ दिया तो किसी ने कहां के हैं सर। आप सिम्पल रहते हैं। सुबह ही किसी मित्र ने फोन पर कह दिया था कि तुम ब्रांड हो। शाम को इन छात्रों की बातों सुनकर लगा कि मैं डालडा का कोई टिन हूं जिसे दुकान पर लोग घूर घूर कर मुआयना कर रहे हैं। फिर मैं कब मैं रहूंगा। क्या मुझे ब्रांड बने रहने के लिए कुछ नकली भी होना पड़ेगा। ख़ुद को किसी स्लोगन की तरह पेश करना होगा। जो भी मुझे देख रहा है किसी न किसी रैपर के साथ देख रहा है। शायद कोई एक्सपायरी डेट भी पढ़ने की कोशिश करता होगा। मुझे उन छात्रों की यह सहज दिलचस्पी ठीक नहीं लगी। मैं कोई शर्वशक्तिमान बिस्कुट नहीं हूं। यह मैंने क्लास में भी कहा। इतना काफी था पत्रकारिता के छात्रो की तंद्रा या कोई मोहजाल तोड़ने के लिए। पर यह काफी साबित नहीं हुआ।
कई छात्रों के सवाल रूटीन टाइप ही थे। एक ने सही सवाल किया। आपने जो किया सो किया, अब अगर हम कुछ नया करना चाहें तो किस तरफ देख सकते हैं। ये वो सवाल था जो मैं अपने नज़दीक आने वाले किसी छात्र से कहता ही हूं। हम नया क्या कर सकते हैं, दो तीन छात्रों ने इसी के आस-पास सवाल पूछे जो मुझे बहुत पसंद आए। काश वक्त रहता तो घंटों इस पर उनके साथ दिमाग भिड़ाता। इसी तरह जाते जाते एक लड़की ने कहा कि घटना स्थल पर पत्रकार को बचाना चाहिए या शूटिंग करनी चाहिए। टीवी के पत्रकारों से ऐसे सवाल पूछे जाते हैं फिर भी एक पेशेवर के नाते ये ज़रूरी सवाल हैं। मेरे जवाब से शायद वह संतुष्ठ नहीं हुई लेकिन मैं इतना कह कर निकल गया कि इस सवाल पर कई तरह के जवाब हैं। जिसका अलग अलग संदर्भों में कुछ घटनाओं के साथ मूल्यांकन करना चाहिए। ऐसे कुछ सवाल थे जो मुझे भी नए सिरे या फिर से सोचने के लिए मजबूर कर रहे थे। दरअसल नए पत्रकारों के साथ इसी तरह का संवाद होना चाहिए। उन्हें मुझ जैसे दो चार लोगों को स्टार मानने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उन्हें उन लोगों की तलाश करनी चाहिए जो मेरी तरह टीवी पर कुछ भी करते हुए नहीं दिखते हैं बल्कि गंभीर काम करते हैं। इससे उनकी ही जानकारी का दायरा बढ़ेगा। मैं अपने घर, दफ्तर, दोस्तों और हमपेशा लोगों के बीच सामान्य ही होना चाहूंगा। ये आपकी गलती है कि आप मुझे मूर्ति बनाते हैं फिर पूजते हैं फिर किसी दिन खुंदक में आकर तोड़ देते हैं। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मैं यह बात अपने लिए नहीं, आपके लिए लिख रहा हूं। मुझे सही में कोई फर्क नहीं पड़ता सिवाय इस बात के कि आपने मेरे काम में कोई सार्थक गलती निकाली है।
पर क्या मैं अपने पाठकों दर्शकों और सह-पत्रकरों से यह सवाल पूछ सकता हूं कि वो एक पत्रकार में स्टार क्यों देखना चाहते हैं। इसके लिए तो न जाने कितने नाम रोज़ अंडा ब्रेड के ब्रांड के साथ आते ही रहते हैं। ऐसा क्या किया है मैंने कि कोई मेरे साथ क्लास रूम से बाहर निकल जाए। फिर तो मुझे वे सारे सवाल खोखले नज़र आने चाहिए जो छात्रों ने क्लास रूम में पूछे। यह तो नहीं हो सकता कि अंदर आप किसानों और गांवों या हाशिये के लोगों की पत्रकारिता में कम होती जगह पर सवाल पूछे और क्लास रूम से निकलते ही मेरे पीछे पीछे ऐसे दौड़े चले आएं जैसे मैं कर्ज़ फिल्म का टोनी हूं। दरवाज़े पर एक वरिष्ठ पत्रकार फंसा हो और लोग पन्ने बढ़ा दें कि आटोग्राफ दे दें। ठहरकर देखने और मुझे मेरी सीमाओं के साथ समझने की आदत तो होनी ही चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि क्लास रूम में बैठे लोग उन्हीं को पहचानते हैं जो रोज़ रात टीवी में बकवास करते हैं और कभी कभी सरोकार टाइप पर अखबारों में लिख देते हैं।
उस बड़े से हाल में कुछ लड़कियां भी थीं। तीसरी या चौथी कतार में। मुझसे पूछने के लिए समेट ही नहीं पाईं।  लड़के तुरंत सहज हो गए और एक दूसरे से होड़ करते हुए पूछने लगे। अगर इस लेख को कोई युवा पत्रकारिन पढ़ रही है तो मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि उसे इस पेशे में आकर एक दिन इसी तरह के स्पेस में जद्दोज़हद करनी पड़ेगी। किसी प्रेस कांफ्रेंस में अपना सवाल पूछने के लिए और दफ्तर की मीटिंग में कुछ कहने के लिए। उसे भी अपने कंधों को टकराने देना चाहिए। आवाज़ बुलंद कर लेनी चाहिए। बिना इसके ये गढ़ टूटेगा नहीं जो दिखता तो नहीं है मगर होता है। जिस लड़की ने मुझसे यह सवाल किया कि पत्रकार को मौके पर क्या करना चाहिए मैंने देखा कि पूछने से पहले अपने चेहरे पर काफी कुछ समेट कर लाई थी। सांसे थोड़ी तेज़ थीं और लड़कों की भीड़ में जगह बनाते हुए चेहरा थोड़ा सुर्ख। वो गुस्से में थी कि किसी टीवी चैनल ने एक पंचायत में डायन बताकर किसी महिला के वस्त्र उतारने की आधे घंटे की रिपोर्ट दिखाई थी। जल्दबाज़ी में जितना समझ सका वो यह कि उस चैनल ने कथित रूप से तस्वीरों को धुंधला नहीं किया और इतनी देर तक पत्रकार शूटिंग करता रहा तो क्या उसे रोकना नहीं चाहिए था। पुलिस नहीं बुलानी चाहिए थी। इस सवाल का जवाब हां या न में नहीं दिया जा सकता था, वो भी सारी बातों को जाने बगैर। मगर मुझे उसके चेहरे की उत्तेजना पसंद आई। इतने बच्चों के बीच किसी के चेहरे पर पत्रकार दिखा। शायद यही वजह थी कि भीड़ से घिरे होने के बाद भी जाते-जाते उसके सवाल पर कुछ बोलता रहा। उसकी तरफ देखता रहा। वो तब तक दूर बैठ चुकी थी । मैं ज़ोर ज़ोर से उस तक पहुंचने का प्रयास कर रहा था। उसके चेहरे की आग बची रहे बाकी सब भी बच जाएगा।
ऐसे ही कुछ अच्छे लड़के भी मिले। मैं भी उनके साथ कुछ समेट कर बांटने का प्रयास कर रहा था। बहुत ज्यादा किसी आदर्श स्थिति के होने के संदर्भ में सवाल पूछने की बचकानी हरकत के बजाए हम सबको अपने अपने लघुस्तरों पर संघर्ष करते रहना पड़ेगा कि हम पत्रकारिता में आदर्श स्थिति पैदा करते रहें। समंदर न सही तालाब ही। तालाब नहीं तो कुआं ही सही। यह आपका व्यक्तिगत प्रयास है। समाज सवाल करता रहेगा मगर सवाल कंपनी से नहीं करेगा आपसे करेगा। आपकी हालत सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता सी रहेगी जिसे नहीं मालूम कि सरकार क्या करेगी लेकिन उसे सरकार और पार्टी दोनों का बचाव करना है। पत्रकारिता में आदर्श स्थिति कभी नहीं रही है। पर यही लक्ष्य है जिसके लिए न जाने कितने ही पत्रकार संघर्ष कर रहे होंगे जो कभी प्राइम टाइम पर नहीं आते होंगे। इसके लिए ज़रूरी है कि अपने कौशल के निरंतर विकास को ज़रूरी काम मानें। अपने लिखने का सख्त मूल्यांकन करें। लगातार प्रयोग करें। पढ़ाई करते रहें और अपने काम को जितना गंभीरता से लें उससे ज्यादा खुद को भी। यह बात उनके लिए है जिनका जीवन लक बाई चांस नहीं कटता है। जिनका कट जाता है उन्हें मेरा लिखा कूड़ा करकट पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं। ज्यादातर लोगों का जीवन कट ही जाता है। कुलमिलाकर अच्छा लगा। बस मुझे ज्यादा भाव देने की बात खटक गई। आप कह सकते हैं कि मैं अति विनम्रता का प्रदर्शन कर रहा हूं। आप कुछ भी कह सकते हैं जैसे मैं भी कुछ भी कह सकता हूं। मुझे लगा कि यह कहना चाहिए तो कह दिया। ( रवीश कुमार के ब्लाग कस्बा से साभार)