Saturday 20 September 2014

राजस्थान पत्रिका 21 सितंबर 2014 : मीडिया हूं मैं

बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट

सभी देशों की मेहनतकश जनता के हित में, लेखकों को एक लड़ाकू यथार्थवाद को अपनाने के लिए ललकारा जाना चाहिए। केवल एक समझौताविहीन यथार्थवाद, जो सच्‍चाई पर, यानी शोषण-उत्‍पीड़न पर पर्दा डालने के सभी प्रयासों से जूझेगा, केवल वही शोषण और उत्‍पीड़न की कड़ी निन्‍दा कर उनकी कलई खोल सकता है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)


पाब्‍लो नेरूदा

जो किताबें आपको सोचने के लिए जितना ही ज़्यादा मजबूर करती हैं, वे आपके लिए उतनी ही ज़्यादा मददगार साबित होती हैं । सीखने का सबसे मुश्किल तरीका होता है, आरामतलबी से पढ़ना; परन्तु किसी महान चिन्तक की एक महान किताब विचारों के एक ऐसे जहाज की तरह होती है, जो सच्चाई और ख़ूबसूरती से ठसाठस लदा होता है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)


कार्ल सैगन

किताब कितनी अनोखी चीज़ है। यह पेड़ से बनी और लचीले हिस्‍सों वाली एक सपाट सी वस्‍तु है जिस पर रेंगने से बनी गहरी रेखाओं की तरह कुछ अजीबोगरीब छपा होता है। परन्‍तु बस एक नज़र डालने की देर है और आप एक दूसरे व्‍यक्ति के दिमाग में चले जाते हैं, भले ही वह व्‍यक्ति हज़ारों साल पहले ही चल बसा हो। सहस्‍त्राब्दियों के फासले के बावजूद, लेखक आपके मस्तिष्‍क से स्‍पष्‍ट और गुपचुप तरीके से बाते कर रहा होता है, वह सीधे आप से बातें कर रहा होता है। लेखन शायद मनुष्‍य का महानतम आविष्‍कार है जो ऐसे एक दूसरे से अनजान दो भिन्‍न युगों में रहने वाले नागरिकों को एक डोर से बांध देता है। किताबें समय की बेड़ि‍यों को तोड़ देती हैं। किताब एक ज़िन्‍दा सबूत है कि मनुष्‍य जादू करने में सक्षम है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)


कवि बेलिंस्‍की

हमारे युग की कला क्‍या है? न्‍याय की घोषणा, समाज का विश्‍लेषण, परिमाणत: आलोचना। विचारतत्‍व अब कलातत्‍व तक में समा गया है। यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें वह आत्‍मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्‍याप्‍त भावना से नि:सृत होती है, यदि वह पीड़ि‍त ह्रदय से निकली कराह या चरम उल्‍लसित ह्रदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल नहीं या किसी सवाल का जवाब नहीं तो वह निर्जीव है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)



मुक्तिबोध

तो फिर जनता का साहित्‍य क्‍या है? जनता के साहित्‍य से अर्थ है ऐसा साहित्‍य जो जनता के जीवनादर्शों को, प्रतिष्‍ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है। अत: इसमें प्रत्‍येक प्रकार का साहित्‍य सम्मिलित है, बशर्तें कि वह सचमुच उसे मुक्तिपथ पर अग्रसर करे। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)


पॉल रोबसन

प्रत्‍येक कलाकार, प्रत्‍येक वैज्ञानिक, प्रत्‍येक लेखक को अब यह तय करना होगा कि वह कहां खड़ा है। संघर्ष से ऊपर, ओलम्पियन ऊंचाइयों पर खड़ा होने की कोई जगह नहीं होती। कोई तटस्‍थ प्रेक्षक नहीं होता, युद्ध का मोर्चा हर जगह है। सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्‍ठ भाग नहीं है। कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा। स्‍वतन्‍त्रता के लिए संघर्ष, या फिर गुलामी—उसे किसी एक को चुनना ही होगा। मैंने अपना चुनाव कर लिया है। मेरे पास और कोई विकल्‍प नहीं है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)

प्रेमचन्‍द

जब तक साहित्‍य का काम केवल म‍नबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियां गाकर सुलाना, केवल आंसू बहाकर जी हल्‍का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्‍यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका ग़म दूसरे खाते थे। मगर हम साहित्‍य को केवल मनबहलाव की वस्‍तु नहीं समझते, हमारी कसौटी पर वही साहित्‍य खरा उतरेगा, जिसमें उच्‍च चिन्‍तन हो, स्‍वाधीनता का भाव हो, सौन्‍दर्य का सार हो, सृजन की आत्‍मा हो, जीवन की सच्‍चाइयों का प्रकाश हो– जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं, क्‍योंकि अब और ज्‍यादा सोना मृत्‍यु का लक्षण है :
(लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)

सफदर हाशमी

किताबें करती हैं बातें बीते ज़माने की, दुनिया की,इंसानों की! आज की, कल की, एक-एक पल की, खुशियों की, ग़मों की,फूलों की, बमों की, जीत की, हार की, प्यार की, मार की! क्या तुम नहीं सुनोगे इन किताबों की बातें? किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं! किताबों में चिडियाँ चहचहाती हैं, किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं! किताबों में झरने गुनगुनाते हैं, परियों के किस्से सुनाते हैं! किताबों में रॉकेट का राज है, किताबों में साइंस की आवाज़ है! किताबों का कितना बड़ा संसार है, किताबों में ज्ञान का भंडार है! क्या तुम इस संसार में नहीं जाना चाहोगे? किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं! (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)

मीडिया हूं मैं / दिनेशराय द्विवेदी

जब मीडिया ने इतनी ताकत हासिल कर ली है कि वह कारपोरेट्स के हाथों खेल कर जनता को भ्रमित कर जनतंत्र को मखौल बना दे, तब मीडिया पर विमर्श जरूरी हो गया है। निश्चित रूप से यह विमर्श उस जनघातक मीडिया में तो मुख्य स्थान नहीं ले सकता। वैसी स्थिति में विमर्श के अन्य साधन पैदा होंगे ही। मीडिया पर विमर्श आरंभ हो गया है। पिछले दिनों जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक 'मीडिया हूँ मैं' मिल गयी थी. लेकिन उसे पूरी पढ़े बिना उस पर लिखना मुझे ठीक न लगा। मैं पारिवारिक जिम्मेदारी में व्यस्त हुआ कि उसे अभी तक पूरी नहीं पढ़ सका। पर जितना उसे पढ़ा है लगता है वह भारतीय मीडिया विशेष रूप से हिन्दी मीडिया के बारे में इतना वृहत्कार्य है कि उस में क्या छूटा है यह कह पाना मुश्किल है। इस पुस्तक को प्रत्येक मीडियाकर्मी के पास और पुस्तकालय में होना चाहिए। कल अख्तर खान 'अकेला' ने फोन किया और मेरे पास आए। कोटा के मीडिया आई.ई.सी. फोरम ने स्मारिका प्रकाशित की है। इस स्मारिका में मीडिया विमर्श पर अच्छे आलेख हैं। बाकी तो दोनों को पूरा पढ़ने के बाद ही कहूंगा।

कविता पाठ / चन्दन राय

कभी कभी शब्द ही नहीं, उनमे निहित गहरे अर्थों को भी पढ़ो
ठहरों अमुक्त आह / वाह भर हलन्तों और विसर्गों पर भी
सुनो कवि ने जीवन रचा है अपने शब्दों में जियो एक-एक शब्द कविता
कविता अन्तत: उदारता की प्रतिमूर्ति है परोपकार का प्रतिरूप है
कविता वह अशेष नैतिकता है जिसने बचाए रखी है जड़वत हृदयों में मनुष्यता !
कविता को पढ़ने के लिए चाहिए एक आन्तरिक विनम्रता
वह चाहती है एक प्रेमजनित अनुनय-बोध, और यही एकाग्रता देगी
कविता के आकण्ठ प्रतिपाद्य का पूर्ण आन्तरिक उत्कर्ष !
क्योंकि कविता अहंकार भरी छातियों से स्वतः हाथ खींच लेती है !
कविता पूर्वाग्रह भरे विवेकशून्य मस्तिष्कों की दासी नहीं है
वह चाहती है एक कलाशिष्ट-आलिंगन, एक चिन्तनशील प्रेमपूर्ण प्रज्ञा सामीप्य
कविता हमारे हिये पर माँ के दुलार का नरम हाथ हो सकती है
बशर्ते कविता बहती हो आप में जीवन की अनिवार्यता की तरह !