Wednesday 24 September 2014

तुम स्वतंत्र हो / नाजिम हिकमत

तुम प्यार करते हो देश को, सबसे करीबी, सबसे क़ीमती चीज़ के समान लेकिन एक दिन, वे उसे बेच देंगे, उदाहरण के लिए अमेरिका को, साथ में तुम्हें भी, तुम्हारी महान आज़ादी समेत सैनिक अड्डा बन जाने के लिए तुम स्वतंत्र हो... 

तुम खर्च करते हो अपनी आंखों का शऊर, अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,
और गूँधते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफी
मगर ख़ुद एक भी कौर नहीं चख पाते;
तुम स्वतंत्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए तुम स्वतंत्र हो......
जन्म लेते ही तुम्हारे चारों ओर वे गाड़ देते हैं झूठ कातने वाली तकलियाँ
जो जीवनभर के लिए लपेट देती हैं तुम्हें झूठों के जाल में
अपनी महान स्वतंत्रता के साथ सिर पर हाथ धरे
सोचते हो तुम ज़मीर की आज़ादी के लिए तुम स्वतंत्र हो......
तुम्हारा सिर झुका हुआ मानो आधा कटा हो गर्दन से,
लुंज-पुंज लटकती हैं बाँहें, यहाँ-वहाँ भटकते हो तुम
बेरोज़गार रहने की आज़ादी के साथ तुम स्वतंत्र हो......
तुम दावा कर सकते हो कि तुम नहीं हो
महज़ एक औज़ार, एक संख्या या एक कड़ी
बल्कि एक जीता-जागता इंसान, वे फौरन हथकड़ियाँ जड़ देंगे
तुम्हारी कलाइयों पर, गिरफ्तार होने, जेल जाने
या फिर फाँसी चढ़ जाने के लिए तुम स्वतंत्र हो......
नहीं है तुम्हारे जीवन में लोहे, काठ या टाट का भी परदा;
स्वतंत्रता का वरण करने की कोई ज़रूरत नहीं,
तुम तो हो ही स्वतंत्र, मगर तारों की छाँह के नीचे
इस किस्‍म की स्वतंत्रता कचोटती है....

खड़हर खड़ा अकेला / जयप्रकाश त्रिपाठी

 तरह-तरह की सार्थक-निरर्थकताएं. कुछ लोग यूं ही जिए जा रहे हैं. कुछ लोग यूं लिखे जा रहे हैं. कुछ लोग बस यूं कुछ-न-कुछ पढ़ते रहते हैं. कुछ लोग यूं ही विश्व पुस्तक मेले तक में पहुंच जाएंगे और जो किताब दिख जाए, खरीद लेंगे. इन निरर्थकताओं में तो भी कुछ-न-कुछ सार्थकता झलकती है. होती भी है.
कुछ लोग ऐसे मिले, जिन्हें कोई रोग-व्याधि नहीं, बस यूं बाबा रामदेव को सराहने में जुटे हुए हैं रात दिन. जैसे चाटुकार और चापलूस अपनी पार्टियों के नेताओं को अनायास सराहते रहते हैं. कुछ लोगों को बेवजह ठिस्स-ठिस्स हंसने की आदत होती है और कइयों को इसी तरह मुस्कुराने की. जैसे कालेज के बड़े बाबू प्रिंसिपल साहब को देखकर दबे होंठ चपरासियों को हंसने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.
एक पत्रकार हैं. उन्हें ट्रैफिक पुलिस वालों के साथ चौराहे पर खड़े होकर वहां से गुजरने वालों की आंखों में आंखों घुसेड़ने की लत है. अपने शहर में एक दरोगा जी हैं. हफ्ते में एक बार जरूर मौका निकालकर कप्तान साहब के मझले बेटे को (जो एसपी का सबसे मुंहलगा है) टॉफी-समोसा खिला आते हैं. अब वह बर्गर-पिज्जा की डिमांड करने लगा है. तब से दरोगा जी भी मोटी मछलियां नाधने लगे हैं.
एक कविजी हैं. पोखर के किनारे उनकी जर्जर कोठी है. उसमें एक खिड़की है. बगल में तख्त डालकर पोखर की तरफ मुंह किए जनाब वहीं दिनरात कवियाते रहते हैं. माथे से टकलू हैं. खिड़की की जाली से ही पता चल जाता है कि कोई महाकाव्य मकान के उस सिरे पर दमक रहा है. जब चिंतन-मनन करते-करते थक जाते हैं, सामने मोहल्ले की सड़क पर निकल आते हैं. आने-जाने वालों को व्यंग्यभरे काव्यात्मक अंदाज में निहारते रहते हैं. नमस्कार करते-कराते रहते हैं. जब वहां से भी थक जाते हैं, आगे नुक्कड़ पर पहुंच जाते हैं. देखते ही जूठन चाय वाला समझ जाता है कि विषखोपड़ा ग्राहकों का भेजा फ्राइ करने आ रही है.
वाकया ही कुछ ऐसा है. चाय की यह दुकान किसी जमाने में पूरे शहर में मशहूर थी. कवि जी ने एक दिन अपने पिछलग्गू नवोदित कवि से कहा कि इस चाय वाले रुपई को कविता करना सिखाओ. लिखने लगा तो फिर यहां मुफ्त की चाय की जुगाड़ बन जाएगी. सो, मिशन सफल रहा. वाकई चाय वाला कवि हो गया. दुकान पर ग्राहक झख मार रहे होते और वह हिसाब-किताब वाली कापी में कविताएं लिखता रहता. वहां दिन रात कविगोष्ठियां होती रहतीं. एक दिन ऐसी नौबत आई कि उसे दुकान बेंच कर भाग खड़ा होना पड़ा था. तब से यह नया चायवाला दुकान थामे हुए है. कवि जी को देखते ही उसे पुराने दुकानदार रुपई के दुर्दिन याद आ जाते हैं.
आखिरकार दुकान बेंचकर भाग खड़ा हुआ बेचारा, अब खड़हर खड़ा अकेला ।
जमाने के सताए हुए कुछ ऐसे लोग भी मिलते रहते हैं, जो आजकल सोशल मीडिया में हींक-छींक रहे हैं. जब देखा कि गुरू यहां तो मामला जोरदार चल निकला है, कलम-डायरी छोड़कर किसी के भी खेत में चरस-गांजा बो दे रहे हैं. जय हो..!

जनवाणी में प्रकाशित


मीडिया संस्थानों को प्रियंका गांधी का कानूनी नोटिस

प्रियंका गांधी वाड्रा ने एक साप्ताहिक अखबार और कुछ अन्य मीडिया संस्थानों को उनके द्वारा प्रकाशित उस खबर के लिए कानूनी नोटिस भेजे हैं जिसमें कहा गया है कि वह और उनके पति अपने बेटे को राहुल गांधी को गोद दे रहे हैं। सूत्रों ने बताया कि प्रियंका ने अपने बेटे की 'मानहानि' के लिए आपराधिक और दिवानी कार्रवाई की चेतावनी दी और कहा है कि वह अपने परिवार के बारे में झूठे आरोपों के खिलाफ कानूनी कदम उठाने को प्रतिबद्ध हैं। अखबार की खबर में कांग्रेस के शीर्ष स्तर पर व्याप्त अटकल के बारे में बताया गया है कि राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका के बेटे रेहान को गोद ले रहे हैं ताकि उसका उपनाम गांधी हो सके।
प्रियंका ने इसे मनगढ़ंत दुर्भावनापूर्ण सोच बताकर खारिज करते हुए नोटिस में कहा है, 'यह कहना कि कोई अभिभावक अपने बच्चे को स्वेच्छा से किसी और को दे देगा मानो कि वह भावहीन वस्तु है, यह अपने आप में बहुत खराब बात है। इसे किसी तरह की वंशवाद की राजनीतिक आकांक्षा के इरादे से जोड़ना तो और भी ज्यादा दुखद है।' प्रियंका ने इस खबर पर भी कड़ी आपत्ति जताई है कि उनके बेटे के स्कूल प्रवेश फॉर्म में उसके अभिभावक का नाम राहुल गांधी है। प्रियंका ने पिछले दिनों कांग्रेस में अपनी बड़ी भूमिका को लेकर चल रही अटकलों को भी पुरजोर तरीके से खारिज किया था। उन्होंने इस तरह की खबरों को निराधार अफवाह बताकर खारिज कर दिया था।

अस्सी देशों ने सुना मीनाक्षी का ‘साउंड ऑफ इंडिया शो’

देश की नंवर-1 आरजे मीनाक्षी के साउंड ऑफ इंडिया शो को ब्रिटेन और अमेरिका समेत 80 देशों के स्रोताओं ने सुना। ज्यूरिख में 5 सितंबर को मीनाक्षी ने अपने इस शो को प्रस्तुत किया। इस शो को रूस, लंदन अमेरिका, यूएई और सिंगापुर समेत 80 देशों में प्रसारित किया गया। इस शो में भारत के सभी राज्यों के फोक सांग्स और कल्चर के बारे में बताया गया। इसके साथ ही बॉलीवुड के गाने भी शो के दौरान सुनवाए गए। ये सारी जानकारी खुद मीनाक्षी ने ज्यूरीख से लौटने के बाद दी। स्विटजरलैंड के ज्यूरीख में आयोजित इंटरनेशनल रेडियो फेस्टिवल में हिस्सा लेकर देश की नंबर-1 आरजे मीनाक्षी स्वदेश लौट आई हैं। इंटरनेशनल रेडियो फेस्टिवल (आईआरफ) ने 94.3 माय एफएम की चंडीगढ़ की आरजे मीनाक्षी को देश का नंबर-1 आरजे चुना है। वे 3 सितंबर को ही इस फेस्टिवल में हिस्सा लेने के लिए ज्यूरिख गई थीं। अगले ही दिन वहां वे दुनिया के 70 देशों से आए कई आरजे से मिली। मीनाक्षी 70 देशों से आए आरजे से मिलकर उनके रेडियो के बारे जानकारी हांसिल की और उन्हें भी माय एफएम के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार माय एफएम मनोरंजन के साथ ही देश-दुनिया के बारे में लोगों को अपडेट रखता है। इस दौरान जाने माने आरजे टोनी प्रिंस ने अपनी टीवी डॉक्यूमेंट्री के लिए मीनाक्षी का इंटरव्यू भी लिया। वहीं 6 सितंबर को मीनाक्षी ने ‘चेंजेस फेस ऑफ रेडियो’ विषय पर आयोजित ग्रुप डिस्कशन में भाग लिया। इस डिस्कशन में यही निष्कर्ष निकला कि लोगों को जोड़ने या उनका मनोरंजन करने की जो ताकत रेडियो में है वो किसी और मीडिया में नहीं है। (समाचार4मीडिया से साभार) 

विज्ञापनों का इमोशनल अत्याचार

भारतीय टीवी चैनलों पर इमोशन से भरपूर विज्ञापनों का चलन देख कर ऐसा लग रहा है कि दुनिया में इमोशनल ऐड का दौरफिर से शुरू हो गया है, और यह विज्ञापन जगत का मूलमंत्र बन गया है। जहां विज्ञापन में ग्राहकों को उत्पाद के लाभकारी या बेहतर होने के बारे में जानकारी देने की जगह, इमोशन (भावना) से ब्रैंड को जोड़ने की कोशिश हो रही है। सभीब्रैंड उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद के साथ विशेष भावनात्मक लगाव महसूस कराने के तहत अपना एक अलग भावनात्मक क्षेत्र तैयार करने में जुटे हैं। कई अन्य उत्पादों के अलावा बैंक खाता खोलने से लेकर ज्वेलरी, सर्च इंजनऔर यहां तक की खाद्य तेल के विज्ञापन में भी यही थ्योरी अपनाई गई है। लेकिन सवाल उठता है कि इसकी सीमा क्या है?
कुछ ब्रैंड विज्ञापनदाताओं का ये मानना है कि विज्ञापन के माध्यम से ग्राहकों के स्वभाव को प्रभावित किया जा सकता है और अपने ब्रैंड के प्रति उनके खरीदने के व्यवहार को भी बदला जा सकता  है। लेकिन लोग कैसे समझ पाएंगे कि भावनात्मक विज्ञापन हमेशा बदलेगा और उपयुक्त भावनात्मक विज्ञापन हमेशा काम करेगा।
रेडीफ्यूजन वाई ऐड आर के नेशनल क्रिएटिव डाइरेक्टर, च्रनीता मान का कहना है कि कुछ भी हो जो दिल की बात करेगा वह हमेशा कायम रहेगा। साथ ही उनका ये भी कहना है किसी आइडिया को किस प्रकार लागू किया जाता है इस पर ध्यान देना भी जरूरी है। उनका कहना है कि हम लोग भारतीय हैं और भावना में जल्दी बह जाते हैं। जो भी चींजे हमारे दिल को छू जाती हैं, बहुत ज्यादा चांस होता है कि उसका तार हमारे बटुए से भी जुड़ जाए। वे कहती हैं कि आज के समय में खरीदार काफी जागरूक हो चुके हैं, लेकिन कम्युनिकेशन का काम ही है कि वह खरीदारों को अपनी भावना से उत्पाद की ओर खींचे, और उत्पाद को भी अंत में ग्राहक के रूप में बदलना होता है। उन्होंने आगे कहा कि भावनाओं को भी अपने वास्तविक काम के प्रति प्रासंगिक होना पड़ता है। ऐसे में नींबू फ्रेश काविज्ञापन हो, जो दर्शकों को अपने होमटाउन के उन पुराने दिनों में ले जाता है जहां बचपन गुजरा है, या फिर फार्चून तेल केलिए ‘घर का खाना’ विज्ञापन हो,  जिसमे कहा जाता है कि ‘मां के हाथ की बनी दाल मेरे लिए हमेशा विशेष होती है’। इनसारी भावनाओं के साथ ग्राहक खुद को जुड़ा महसूस कर सकते हैं क्योंकि उन्हें इसका अनुभव है। मेरे हिसाब से जो भावना दर्शकों को यह महसूस कराती है कि यह विज्ञापन उन्हीं के लिए है, दिखाने के लिए वही सबसे मजबूत भावना है।
जेनो समूह, भारत के प्रबंध निदेशक पैपरी देव के अनुसार जो ब्रैंड सही अर्थों में लंबे समय तक चला है, जो भावनाओं के साथ उनके मूल्यों पर फिट रहा है, उसी को सबसे ज्यादा लाभ हुआ है। उदाहरण के लिए Nike को ही लेते हैं, जो लोगइस ब्रैंड के प्रति आकर्षित हुए हैं वे सालों से इसके बारे में कही जा रही कहानी के साथ खुद को जोड़ सकते हैं।किसी भी ब्रैंड की पहचान उनके ग्राहकों से जुड़ी होती है। विक्रेता सोचते हैं कि ब्रैंड की पहचान उनसे है, लेकिन ये सच नहीं है।
अब कोक का उदाहरण लीजिए, इस ब्रैंड के विज्ञापन में जो एक ही भावना दिखती है वह है खुशी। लेकिन इस ब्रैंड में जो सबसे महत्वपूर्ण बात रही है वह है भावनाओं के साथ लंबे समय तक का जुड़ाव।
एक सामान्य दर्शक से अलग अब भारतीय उपभोक्ताओं का दिमाग खरीदारी को लेकर बदला है। ऐसे में प्रतिस्पर्द्धा से भरे बाजारमें विज्ञापनदाताओं को भी पुराने तरीको से अलग अपने संचार तरीकों में बदलाव करने की जरूरत है। भारतीय ग्राहकों का अगला जेनरेशन काफी जागरूक, पढ़ा लिखा, स्मार्ट  और तकनीकी तथा उपलब्ध मीडिया चैनलों के माध्यम से अन्य जानकारियों से लैस है।
भावनात्मक हेरफेर के कारण फेसबुक के खिलाफ उठे विवाद के अध्ययन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भावनाएं बिल्कुल निजी हैं जिन्हे लोग खुद ही संभालकर रखते हैं, लेकिन यह विज्ञापन के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है कि वह किस प्रकार लोगों के दिमाग के साथ दिल को भी छू सके।
च्रनीता मान का कहना है कि बिना किसी भावनात्मक लाग लपेट के तथ्य के बारे में कहने का तरीका ही हार्ड सेल है। अब अगर कपड़े धोने का पाउडर के गुण बताने की बजाए अगर कंपनी ये कहे कि दाग अच्छे हैं तो वह यहां सीधे- सीधेभावना को जोड़ रही है। यह कहने के बाद अगर ब्रैंड तुरंत उपभोक्ता के दिमाग में चल रहे विचार के बीच उत्पाद के फायदे बता देतो इससे ज्यादा जुड़ाव होता है। ऐसा करते ही अचानक वह उत्पाद आपके जीवन में स्थान पाने लगता है, आप उससे जुड़ावमहसूस करने लगते हैं, आप उस मां को पसंद करने लगते हैं जो कुछ अच्छा करने के लिए अपने बच्चों को कीचड़ में खेलने देतीहै। उन्होंने कहा कि मैं मानती हूं कि हार्ड-सेल एक अल्प अवधि की प्रक्रिया है, आपको परिणाम तब दिखता है जब कोईप्रतियोगी आता है और हार्ड-सेल तरीके से अपना उत्पाद और भी बेहतर तरीके से बेच देता है। लेकिन एक भावनात्मक जुड़ावबिना किसी विशेष प्रयास से ही लोगों के दिमाग में बैठ जाता है। हालांकि कई बार संचार और खासर ई-कॉमर्स के शुरुआती स्टेज में हार्ड-सेल की जरूरत होती है। वहां उपभोक्ता को यह समझाना जरूरी होता है कि आखिर ई-कॉमर्सकाम कैसे करता है, उनकी समस्या को सुलझाना होता है क्योंकि वह नए तरीके के खुदरा बाजार से वाकिफ हो रहे होते हैं।
भावनात्मक बिक्री और हार्ड सेल के बीच की फाइन लाइन के बारे में पूछे जाने पर इंटेक्स टेक्नोलॉजी के मार्केटिंग डाइरेक्टर केशव बंसल कहते हैं कि विज्ञापन में मौजूद भावना का स्तर पता करने का कोई पैमाना नहीं है। फिर भी एक ब्रैंड को अपनेवादे के मुताबिक उत्पाद के साथ न्याय करना ही होता है। लंबे समय तक एक ग्राहक तभी आपके साथ जुड़ा रह सकता हैजब आप अपने वादे को निभाएंगे।
मेरे विचार से यदि ब्रैंड अपने वादे के मुताबिक परिणाम दे सके तो वहां हार्ड- सेल की जरूरत नहीं पड़ेगी। आकर्षक अभियानचला कर कभी भी उपभोक्ताओं को जोड़ा जा सकता है लेकिन अपने ग्राहकों को बनाए रखने के लिए ब्रैंड को भावना के मुताबिकअपने वादों को भी निभाना होता है। उनका कहना है कि किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती है और विज्ञापन के मामलेमें व्यर्थ नाटक कोई बाध्यता नहीं है।
लगातार किसी भावना पर हो रहा हमला मूल्य खत्म होने की वजह बन सकता है। यह कहना है एकसाउरस केसंस्थापक और क्रिएटिव डाइरेक्टर सुरेश एरियात का।उनका कहना है कि यदि कहीं भावनात्मक लगाव है तो वहां हार्ड सेलनहीं होगा। दिखावटी नाटक से लोगों का मन नहीं बदला जा सकता है क्योंकि लोग काफी सतर्क हैं।
जेनो की पैपरी देव का भी यही मत है। जब किसी ब्रैंड में इमोशन फिट नहीं बैठता है तो उस वक्त हार्ड सेल काफीनुकसानदेह होता है।भावनात्मक कहानियों और कार्यक्रमों को एक बड़े दिल के साथ चलाने की आवश्यकता होती है, कभीकभी लगता है कि यदि ब्रैंड ने एक अच्छी छवि बनाई है तो वह उपभोक्ताओं के दिमाग में हमेशा रहती है और खुद उसकेप्रशंसक विज्ञापन करते हैं।
ऐसा अक्सर होता है कि जब उपभोक्ता एक विज्ञापन से बोर हो जाते हैं तो विज्ञापनदाता उसे बदलकर दूसरा विज्ञापन चलाने लगते हैं।
सुरेश एरियात का कहना है कि कई ऐसे सर्किल होते हैं जिनकी चिंता करनी होती है, लेकिन यह खेल एक पूरे सर्किल का होता हैजहां आपको वास्तविक भावना दिखाना होता है जो कि हमेशा एक जैसी ही होती है।
अधिकांश इमोशन वाले विज्ञापन से उपभोक्ताओं से ज्यादा विज्ञापनदाता खुद बोर हो जाते हैं। यदि शोध साबित करता है किउपभोक्ता बोर हो रहे हैं तो यह एक संकेत है कि समस्या को जानने के लिए गहराई में जाने की जरूरत है। ब्रैंड लाइफसाइकिल में ब्रैंड की अवस्था को खोजते रहते की जरूरत होती है।वातावरण में होने वाले बाहरी बदलाव के कारण बाजार केलोगों को भी बदलाव के लिए मजबूर होना पड़ता है।
वहीं मान का विचार इससे भिन्न है वह कहती हैं कि मैं ऐसा नहीं कहूंगी कि हार्ड सेल विज्ञापन या फिर भावनात्मक विज्ञापनएक रुझान है जहां कुछ समय के लिए कोई आता है और फिर अगला उसे वहां से हटा देता है। मेरा मानना है कि दोनों एक साथबने रहते हैं। दोनों संचार की विभिन्न जरूरतों को पूरा करते हैं और यह निर्भर करता है कि आपका ब्रैंड किस अवस्था में है।यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि आखिर विज्ञापनदाता कितनी भावनाएं इस्तेमाल कर सकता है और कितनी ब्रैंड के साथ बनी रह सकती है।
फॉक्सीमोरन के सह संस्थापक प्रतीक गुप्ता का कहना है कि विज्ञापनदाताओं को यह समझने की जरूरत है कि अगर कोई ब्रांड वीडियो से बाहर आता है तो विज्ञापन किस तरह उपभोक्ताओं पर प्रभाव छोड़ेगा। क्या कोई भी ग्राहक उससे जुडा है? अगर है तो फिर सामग्री को इसका साथ देना होगा। ज्यादातर विज्ञापनदाता अधिकाधिक मानव स्वभाव कोसमझने की कोशिश करते हैं। इमोशनल मॉडल साधारण होता है इसलिए उपभोक्ता की बात करता है और उपभोक्ताओं के अनुभवों को जानना विज्ञापन जगत का मुख्य काम सा बन गया है। (समाचार4मीडिया से साभार)