Sunday 5 October 2014

वह अकल्पनीय क्षण / जयप्रकाश त्रिपाठी

जब जीवन में कुछ अकल्पनीय होता है, विश्वास कर पाना भी असहज हो जाता है। मुझे पिछले तीन-चार दिनो में अचंभित करने वाले ऐसे कई-एक अनुभव मिले। अचंभा सुखद हो तो लंबे समय के लिए मन पर स्थापित हो जाता है। सामाजिक सरोकारों का अब तो इतना संगठनीकरण, सामुदायीकरण, बाजारीकरण, राजनीतीकरण अथवा सरकारीकरण हो चुका है कि व्यक्तिगत जीवन में आदमीयत का स्वाद अपवाद-सा लगने लगा है। हम प्रायः ऐसा कुछ समूह के साथ साझा करने से बचते हैं, जो हर मनुष्य के निजी हिस्से के लायक हो। असहनीय दुख की घड़ी में ऐसे अनुभव मिलते हैं। मैंने परसो एक ऐसी ही लौ देखी। समाज में ऐसे भी लोग हैं, अब तक विश्वास नहीं कर पा रहा हूं। ऐसी लौ, यानी आदमीयत, जैसाकि सोचा न था कभी। अचानक अभिभूत-सा... (उस सुखद प्रसंग का यहां उल्लेख करना किसी की प्रेरक निजता का असम्मान होगा।)