Sunday 12 October 2014

'दैनिक जागरण मुर्दाबाद' क्यों है / यशवंत सिंह

ये जो तस्वीर है, इसे अयोध्या में रहने वाले Yugal Kishore Saran Shastri ने अपने फेसबुक वॉल पर 'दैनिक जागरण मुर्दाबाद' लिखते हुए प्रकाशित किया है. सिर्फ तस्वीर और 'दैनिक जागरण मुर्दाबाद' लिखे होने से पूरा माजरा समझ में नहीं आ रहा कि आखिर ये लोग दैनिक जागरण से इतना गुस्सा क्यों हैं. प्रकरण को समझने के लिए मैंने इस तस्वीर को अपने वॉल पर शेयर किया और लिखा कि ....
किस बात पर ये लोग दैनिक जागरण से इतना गुस्सा हैं, पता नहीं लेकिन मुझे अच्छा लग रहा है क्योंकि दैनिक जागरण वालों ने हम भड़ासियों पर फर्जी मुकदमा कर रखा है, इसलिए जागरण विरोध का कोई मौका दिखता है तो उसे छोड़ नहीं पाते हम. ये मत कहना कि आप तो उदात्त हैं, महान हैं, इसलिए बदले की भावना से आप काम नहीं करते.. तो फिर दैनिक जागरण को लेकर ऐसा क्यों... इस पर मेरा जवाब है कि लगातार महान और उदात्त नहीं रहा जा सकता... दम घुटने लगता है.... ऐसे में खुद डिग्रेड कर आम, छोटा, नीच आदमी बन जाता हूं.. तब, महानता और उदात्तता को तेल लेने भेज देता हूं और ईंट का बदला ईंट टाइप का तालिबानी व्यवहार सोचने करने लगता हूं ... मैं ऐसा क्यों हूं... मैं ऐसा क्यों हूं :) :)
मेरे इस स्टेटस पर कई लोगों के कमेंट आए और कुछ एक साथियों ने इनबाक्स मैसेज कर नाम न छापने बताने की शर्त पर पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी. एक साथी ने जो मैसेज भेजा, वो इस प्रकार है-
''बात 2004-05 की है. दैनिक जागरण की प्रतियां जलाने की इस पांच सदस्यीय टीम का नेतृत्व कर रहे युगुल किशोर जी ने कोई आयोजन कराया था लखनऊ में या सम्भवतः आयोजन में अतिथि के तौर पर गए थे. 'तुलसी पथ प्रदर्शक या पथ भ्रष्टक' उक्त आयोजन का विषय था. आयोजन में कथित तौर पर राम की तस्वीर पर जूते की माला पहनाई जाने लगी और तस्वीर को जूते के नीचे कुचला जाने लगा. किसी ने पुलिस को इत्तला कर दी. मुलायम सिंह का शासन था. युगुल किशोर वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह के खासमखास माने जाते थे और शीतला सिंह मुलायम के. लिहाजा पुलिस द्वारा हजरतगंज कोतवाली पर लाए जाने के बाद युगुल किशोर की ठसक में कोई कमी नहीं आई. लेकिन रात होने के बावजूद युगुल छूटे नहीं बल्कि लोग कहते हैं कि पुलिस ने इनकी लॉक-अप में अच्छी-खासी सेवा कर दी. जब कचहरी में पेश किया गया तो वकीलों ने सरेआम हमला बोल दिया. बहरहाल युगुल बाबा चले गए जेल और इधर इस दरम्यान दैनिक जागरण (जो वैसे भी हिन्दूवादी अखबार माना जाता है) ने रोज आधे-आधे पन्ने की खबरें लिखकर युगुल के खिलाफ और भी जबर्दस्त माहौल तैयार कर दिया. अयोध्या-फैजाबाद कस्बे में हर प्रभुत्वशाली व्यक्ति जिस से युगुल को मदद की आस थी, ने उनका साथ छोड़ दिया. युगुल के बढते विरोध की एक वजह यह भी थी कि वह राम की तस्वीर के साथ हुए भौड़ेपन का कोई ठीक-ठीक कारण और लाभ लोगों को नहीं समझा सके. और फिर वह कार्यक्रम तो तुलसी के विरोध में था, तो राम को इतनी गालियां क्यों, बस इसी बात का औचित्य युगुल से हमदर्दी रखने वाले भी नहीं समझा सके. उधर अयोध्या के संतों ने महापंचायत करके युगुल के खिलाफ कई फतवे दे दिए. सुनने में आया कि अयोध्या के महंत नारायण दास शास्त्री ने तो बकाएदा सिर पर ईनाम भी घोषित कर दिया. कुछ महीनों बाद युगुल को यश भारती पुरुस्कार के लिए चुना गया. एक बार फिर उनके खिलाफ लामबन्दी तेज हुई. एक बार फिर दैनिक जागरण इस लामबन्दी का प्रमुख साधन बना. कई टीवी चैनलों पर भी युगुल के पुराने कर्मों को बताते हुए, यश भारती पुरस्कार दिए जाने पर सवाल उठाए गए. इससे पहले कि राज्य सरकार कोई फैसला लेती, अयोध्या के दो लोग हाई कोर्ट से यश भारती दिए जाने पर रोक लगवा आए. इस प्रकार युगुल के दुश्मनों की कतार में दैनिक जागरण भी बना हुआ है. उपरोक्त दोनों घटनाओं के दौरान जागरण के फैजाबाद इंचार्ज रमा शरण अवस्थी रहे. संयोग से आज जब युगुल इस अखबार के खिलाफ दो बच्चियों और दो बाबाओं के साथ आवाज बुलंद कर रहे हैं तो एक बार फिर रमा शरण अवस्थी अपने पुराने पद पर लौट चुके हैं. बीच में वह अमर उजाला चले गए थे. तो कुल मिलाकर दो बच्चियों समेत यह 'पांच सदस्यीय' प्रदर्शन दैनिक जागरण के खिलाफ निजी रंज के कारण है, पत्रकारिता की किसी शुचिता की चिंता के कारण नहीं. यही युगुल किशोर थे जिन्होने अपने अखबार रामजन्मभूमि में अपने शत्रु अयोध्या प्रेस क्लब के अध्यक्ष महेन्द्र त्रिपाठी को मां-बहन की गालियों से लगायत हर वो गाली सरेआम प्रकाशित की थी जिन्हें हम-आप दुश्मन को भी देने में संकोच खाते हैं. यशवंत भाई आपने तो उस अखबार का वो संस्करण पढा ही था. आपको तो विशेषतः भेजा गया था. अब आप खुद तय कर लीजिए कि ऐसी भाषा अखबार में लिखने वाले को पत्रकारिता की शुचिता की कितनी चिंता होगी?''
जो कुछ कमेंट आए, वो इस प्रकार हैं :
Rehan Ashraf Warsi I know, whatever they did with you. It not only panic even unjustified and unforgettable... That incident force me to stop reading anything from Jagran group, even Inqulab also. I'm not a media person nor a political, a laymen. Yoi won't believe, I read and follow you because of inspiration. It's always given spirit to fight.
Chandan Srivastava लाइक कर के अन लाइक कर दिया, क्योंकि तस्वीर पर ध्यान पड़ते ही माजरा समझ में आ गया. दैनिक जागरण की सच्चाई किसी से छिपी नहीं जैसे इन विरोध करने वालों को अयोध्या का बच्चा-बच्चा जानता है
Yashwant Singh चंदन जी पूरा मामला क्या है, लिखिएगा. ये तो समझ में आ रहा है कि संघी मानसिकता वाले जागरण ने जरूर डेमोक्रेटिक और जनपक्षधर किस्म के लोगों के खिलाफ अभियान चलाया होगा, लेकिन उसका कंटेंट क्या था, उसे उपलब्ध कराइए.
आशीष सागर ये पूरा व्यापारी और भ्रष्ट अख़बार है मैंने बाँदा इसके कार्यालय में एक साल से जाना ही छोड़ रखा है
Shailendra Singh Yashwant Singh ji मै भी पहले दैनिक जागरण ही पढता था , परन्तु अब सात आठ साल से नहीं , इन लोगो ने बाज़ार को ध्यान में रख कर अपनी गुणवत्ता से समझौता कर लिया , ये खबरों के नहीं व्यापार के खिलाड़ी हो गए , इनकी निष्ठां पाठक या जनता से नहीं वरन धन व् पूंजीपतियों से हो गयी , इतना ही नहीं मैंने महसूस किया नियमित या साप्ताहिक कॉलम लिखने वाले अच्छे लेखक भी इनसे दूर हो गए या इन्होने दूर कर दिया , अब अखबार हमको तो छोड़ सकता नहीं था लिहाजा हमने ही ये अखबार पढ़ना छोड़ दिया ...
Asghar Naqui Warg Vishesh Ka Akhbar Hai
Alok Tripathi kabhi to maan ka ghusa bahar aa hi jata hai......
Avanish Tripathi दैनिक जागरण सबसे अच्छा अखबार है और रहेगा जलने वाले वामपंथियो को जलने दो इससे कुछ बिगडने वाला नही है, गंदी विचार वाले हमेशा अच्छी चीजों पर कीचड़ उछालते है,,,,,जैसे की कुछ लोग इसका समर्थन कर रहे है.
Naveen Kumar ये क्या हो गया दैनिक जागरण के साथ क्या दैनिक जागरण बिकाऊ पेपर है
Wahid Naseem जिनके ७४ % मालिक विदेशी हो वो देश की क्यों सोचे व्यापारी हैं व्यपार कर रहे हैं
Anand Dubey Jo akbar inki badmashiyon par taliyan bajaye vahi achcha akhbar hai
Arun Srivastava यह विश्व का सर्वाधिक शोषक अखबार भी है,,,
Mayank Pandey लेकिन एक दूसरा पहलू भी है इस अखबार का...... मेरे समेत 70 प्रतिशत से ज्यादा पत्रकारों ने पत्रकारिता का ककहरा इसी संस्थान से सीखा है। हो सकता है मैं कुछ ज्यादा पाज़िटिव हो रहा होऊं...... लेकिन दिल के हर कोने में इस अखबार से भावनात्मक लगाव है। जय हो....
Ashwani Sharma sach kadua hota h.us par kaljug bhi to chal raha h.lekin sach ki hamesha jeet hoti h.
 Wahid Naseem मयंक भाई मेरा इस अखबार से कोई निजी झगड़ा नहीं है। जब इस संस्था का जागरण ७ चैनल लेन की प्लॅनिंग हुई थी तब में और राकेश डांग उस पहली मीटिंग का हिस्सा थे। मगर जागरण ७ ही अब IBN7 है यह तो आप जानते ही हैं। IBN और CBN दोनों अमेरिका की बड़ी मीडिया कम्पनी है। जिन्हे वहा का एक चर्च ८०० बिलयन डॉलर सालाना दान देता है। नेटवर्क १८ इन्ही दोनों कम्पनियों का मालिकाना अधिकार में है और बाकि कुछ प्रतिसत हिसा मुकेश का है। जागरण भी अब इनकी ही जागीर है , जिन का काम भारत में अब सिर्फ लॉबिंग करना ही एक मात्र उद्स्य प्रतीत होता है। मेरा मान ना यह भी है की कोई विदेशी भारत में भारत के हित में लॉबिंग करेगा या अपने मुल्क के?
(भड़ास4मीडिया से साभार)

केजरीवाल को अकल नहीं, भाग गया कुर्सी छोड़ कर : ओमपुरी

व्यवस्था के खिलाफ अपनी फिल्मों में उन्होंने शुरूआती दौर में जो आक्रोश दिखाया था, आज भी वैसा ही तेवर उनमें मौजूद है। फिल्म अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता ओम पुरी आज भी मानते हैं कि व्यवस्था बदलने के लिए जन आंदोलन बेहद जरुरी है। पर्यावरण जैसे मुद्दों से लेकर वह ‘निर्भया’ जैसे बड़े आंदोलन के हिमायती हैं। 4-5 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर हुए वाइल्ड लाइफ फिल्म फेस्टिवल शिरकत करने ओम पुरी खास तौर पर आए थे। दो दिन के व्यस्त कार्यक्रम के बाद फुरसत पाते ही ओमपुरी ने बातचीत  के लिए वक्त निकाला। इस दौरान उन्होंने साफगोई के साथ बहुत कुछ अपनी कही और कुछ आज के मुद्दों पर बात की।
अभिनेता ओमपुरी से मो. जाकिर हुसैन की हुई बातचीत इस प्रकार है:
तीन अलग-अलग दशकों में यहां के तीन दौरे...अब तक छत्तीसगढ़ को किस तरह बदलता हुआ पाते हैं आप?
मैं तीन दशक में तीन बार यहां आया। 1981 में तो ‘सद्गति’ शूटिंग के लिए हम लोग ट्रेन से आए थे। तब छत्तीसगढ़ के गांव में जाने का मौका मिला था। उसके बाद 2007 में आया तो एयरपोर्ट पर उतरा। इस बार भी एयरपोर्ट से होटल और शहर तक चौड़ी-चौड़ी सड़कें बन चुकी हैं और चारों तरफ  शहर फैल चुका है। कई बड़े होटल बन गए हैं। शहर ने काफी ग्रो किया है। बिल्डिंगें बन गईं और मॉल भी तन गए।
मतलब बिल्डिंग और शॉपिंग मॉल अब तरक्की का पैमाना है..?
नहीं ऐसा नहीं है....मुझे बहुत गर्व नहीं होता इस मॉल कल्चर पर। मॉल तो गरीब आदमी को  चिढ़ाते हैं कि देख..बे...
छत्तीसगढ़ के श्रमिक नेता स्व.शंकर गुहा नियोगी से आप प्रभावित रहे हैं। उन्हें कैसे याद करते हैं?
हां, उनसे वाकिफ था मैं। सोते वक्त उन्हें खिड़की से फायर कर मारा गया। मुझे खबर लगी तो बहुत तकलीफ हुई थी। मजदूरों के लिए बहुत काम किया था उन्होंने। आज उनके संगठन का क्या हाल है, मुझे नहीं पता।
छत्तीसगढ़ में ‘सद्गति’ की शूटिंग का दौर कैसे याद करते हैं आप?
बहुत सी यादें हैं। हमारे डायरेक्टर सत्यजीत रे साहब के साथ मैं, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे , गीता सिद्धार्थ सहित पूरी यूनिट रायपुर में जयस्तंभ चौक के एक होटल में रुके थे। होटल से लगा एक सिनेमा हॉल था, जहां उस वक्त ‘एक दूजे के लिए’ फिल्म लगी हुई थी। रोज सुबह 7 बजे हम लोग महासमुंद के लिए रवाना हो जाते थे। महासमुंद बड़ी शांत जगह है। मुझे याद है एक गांव था जहां हमनें लगातार 20 दिन तक शूटिंग की, बड़े अच्छे से काम हुआ। रोज शूटिंग पूरी कर शाम 7 बजे तक हम लोग होटल लौटते थे। थकान इतनी होती थी कि खाना खाते ही नींद आ जाती थी लेकिन सिनेमा हॉल में चल रही पिक्चर की आवाज मेरे कमरे की दीवारों और खिड़कियों से टकराती रहती थी। एक दिन रे साहब ने छुट्टी दी तो मैनें राज टॉकीज में जाकर वह फिल्म देखी। (इस बातचीत के दौरान मौजूद रहे वरिष्ठ पत्रकार सुदीप ठाकुर ने जब इस दौरान बताया कि बात राज टॉकीज और होटल मयूरा की हो रही है तो ओमपुरी को भी तुरंत याद आ गया और बोल पड़े-हां मयूरा होटल था वो)
छत्तीसगढ़ की लोकेशन पर ‘सद्गति’ फिल्म का आधार क्या था?
देखिए, मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘सद्गति’ गांव को केंद्र में रख कर लिखी थी। उसमें छत्तीसगढ़ की जगह यूपी-बिहार का भी गांव होता तो भी दिक्कत नहीं होती। वो फिल्म तो किसी भी गांव की लोकेशन पर बनाई जा सकती थी। मुझे जहां तक याद आ रहा है, सत्यजीत रे साहब कलकत्ते से अपने किसी परिचित के बुलावे पर यहां लोकेशन देखने आए थे और मुंबई-हावड़ा ट्रेन रूट पर सीधा रास्ता होने की वजह से लोकेशन उन्हे जंच गई थी। बस इतनी सी बात है। मुझे सत्यजीत रे साहब ने ‘आक्रोश’ में देखने के बाद  ‘सद्गति’ के लिए साइन किया था।  फिर इसमें छत्तीसगढ़ के बहुत से कलाकारों ने भी काम किया। मेरी बेटी धनिया का किरदार निभाने वाली ऋचा मिश्रा की आज भी मुझे याद है। छोटी सी बच्ची थी वो..अब तो बड़ी हो गई है।
जंगल और गांव की लोकेशन पर आपने बहुत सी फिल्में की है। यह संयोग था या फिर आपकी पसंद..?
संयोग ही कह सकते हैं क्योंकि उस दौर में तो जैसी फिल्में मिली, हमें करनी ही थी। वैसे निजी तौर पर कुदरत के करीब रहना मुझे ज्यादा पसंद है। कुछ चेहरा-मोहरा भी वैसा ही है कि शुरूआती दौर में फिल्म बनाने वाले भी मुझे लेकर जंगल, गांव या दलित से जुड़े मुद्दे पर ही फिल्म बनाना चाहते थे। इसमें कई बार धोखे भी हुए। 1978 की बात है, एक सज्जन रस्किन बांड की कहानी ‘द लास्ट टाइगर’ पर फिल्म बनाना चाहते थे। मुझे, टॉम आल्टर और एक नए चेहरे नरेश सूरी को उन्होंने लिया। स्क्रिप्ट शायद प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी लिख रहे थे। हमारी 10 लोगों की टीम को वो सज्जन संथाल परगना (आज के झारखंड) में जंगल के अंदर 25 किमी दूर एक गांव में ले गए। वहां दो कमरे के एक कच्चे मकान में उन्होंने मुझे ठहरा दिया। अंदर जाकर देखता हूं तो उपर छत ही नहीं है। नीचे खटिया बिछाने जा रहा हूं तो पास से एक सांप रेंगते हुए आगे बढ़ रहा है। खैर, रात किसी तरह कटी लेकिन, सुबह वो जनाब खुद ही गायब हो गए। दोपहर तक हम लोगों ने इंतजार किया लेकिन जब वो नहीं आए तो हम लोगों ने 25 किमी पैदल सफर तय कर सर्किट हाउस तक पहुंचे और उस पूरी फिल्म के प्रोजेक्ट से ही तौबा कर ली।
फिल्मों की शूटिंग के जरिए जंगलों और गांवों को कितना देख या समझ  पाए?
फिल्में ही क्यों। जब भी मौका मिलता है मैं जंगल और गांव ही जाना पसंद करता हूं। अपने देश के ज्यादातर रिजर्व फारेस्ट में जा चुका हूं। अपने करियर के शुरूआती दौर में 1977 में किसी डाक्यूमेंट्री फिल्म के लिए बस्तर के किसी गांव में भी आया था। एक आदिवासी के झोपड़े के बाहर...चांदनी रात में खुला आसमान..क्या अद्भुत दृश्य था मैं बता नहीं सकता। मुझे लगा यही तो जन्नत है। पत्ते के बने दोने में छक कर महुआ पिया। मुझे तो महुआ चढ़ गया था।
पर्यावरण को बचाने भारतीय फिल्म जगत अपना योगदान कैसे दे सकता है?
हमारा फिल्म जगत तो फिल्में ही बना सकता है। प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ बनाई थी नक्सल मूवमेंट के बारे में। ऐसे ही पर्यावरण पर भी बड़े पैमाने पर फिल्म बनाई जा सकती है जिसमें शिकारी, फारेस्ट गार्ड, भ्रष्ट नेता, उद्योग जगत और समाज के दूसरे किरदार शामिल किए जा सकते हैं। क्योंकि हमारे जंगल इन्हीं तत्वों के गठजोड़ से बरबाद हो रहे हैं। ऐसी फिल्में जरुर बनाई जानी चाहिए, जिससे समाज में और ज्यादा जागरुकता आए।
लेकिन बड़े बजट की फिल्में तो दूर की बात है। फिलहाल तो पर्यावरण को लेकर जो डाक्यूमेंट्री बनती है, उन्हें दर्शक नसीब ही नहीं होते?
हमारे डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर तो अच्छे मन और बड़े पैशन के साथ डाक्यूमेंट्री बनाते हैं। सच है कि दर्शक इन्हें मिलते नहीं। इसलिए सबसे पहले तो हमारे नेताओं को ऐसी डाक्यूमेंट्री फिल्में दिखानी चाहिए। तब ही ये नेता समझेंगे कि हमारी नीतियों में कहां खराबी है। पर अफसोस कि उनके पास समय ही नहीं होता और वो दूसरी समस्याओं में उलझे रहते हैं। साफ कहूं तो यह पर्यावरण मंत्री की जवाबदारी है कि वो ऐसी फिल्मों को न सिर्फ देखे बल्कि दूरदर्शन के माध्यम से इसे प्रसारित भी करवाए। जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पर्यावरण की वास्तविकता पहुंचे।
जंगलों में शिकार पर कानूनन रोक के बावजूद क्या अब तक हालात नहीं बदले हैं?
अगर हालात सुधरे होते तो आज संसार चंद जैसा शिकारी इतने सालों तक जंगल में जानवरों को अंधाधुंध तरीके से मारता न रहता। संसार चंद कोई टारजन नहीं था। मुमकिन है कि इन जैसे शिकारियों की कारगुजारी में फॉरेस्ट विभाग, कुछ एनजीओ और कुछ नेता भी इन्वाल्व होंगे। मुझे तो बचपन से उन तस्वीरों को देखकर बड़ा गुस्सा आता है, जिसमें ये बड़े-बड़े राजा-महाराजा शेर और दूसरे शिकार पर पैर रख कर बंदूक हाथ में लेकर नजर आते हैं। मैं तो कहता हूं अरे, नामर्दों अगर इतने ही बड़े शिकारी हो तो जाओ ना जंगल में निहत्थे। उसके बाद करो आमने-सामने की लड़ाई।
शहरीकरण तो बढ़ता ही जाएगा। ऐसे में एक आम शहरी अपना पर्यावरण बचाने क्या योगदान दे सकता है?
शहर में रहने वाले सभी लोगों से मुझे कहना है कि लकड़ी का कम से कम इस्तेमाल करो। क्योंकि आखिर लकड़ियां भी तो जंगल से ही आती है। मैं शहरों में देखता हूं आलीशान कोठियों से लेकर आम घरों तक में छत से लेकर टाइल्स तक ढेर सारी लकड़ियां इस्तेमाल होती है। इसे बंद करना होगा। अपने फिल्म वालों को भी मैं कहता हूं कि शूटिंग के दौरान अगर पेड़ की कोई टहनी बाधा बन रही है तो उसे बिना सोचे-समझे काट देते हैं। जबकि इसे बांधा जा सकता है। अभी हमारे मुंबई में एक बड़ा गलत काम हो रहा है। सड़क बनाने के दौरान बड़े-बड़े पेड़  के नीचे की जमीन पूरी की पूरी कांक्रीट से पक्की कर दी जा रही है। आखिर पेड़ की जड़ों तक पानी कैसे पहुंचेगा। कोई इन सरकारों को समझाए। तल्ख़ियां तो बहुत सी है लेकिन एक छोटी सी अपील मैं करना चाहता हूं कि कम से कम आप अपने बच्चों के जन्मदिन पर एक पौधा हर साल लगाकर अच्छी शुरूआत तो कर सकते हैं।
आप खुद भी जन आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं, ऐसे में आज के दौर में पर्यावरण जैसे मुद्दे पर जन आंदोलनों का क्या भविष्य देखते हैं आप?
देखिए, जन आंदोलन तो जनता का सबसे बड़ा हथियार है। दिल्ली में जब निभर्या वाला मामला हुआ। नौजवानों में इतना जोश आया कि वो अन्याय के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। सर्दी के मौसम में उन पर ठंडा पानी फेका जा रहा है लेकिन वो हिले नहीं बल्कि सरकार को हिला दिया। नतीजा देखिए, नया कानून बन गया। तो पर्यावरण बचाने के लिए भी ऐसे ही जन आंदोलन की जरुरत है। जैसे गांधी जी और जयप्रकाश नारायण जी ने लोगों को एकजुट कर आंदोलन खड़ा किया, ठीक वैसा ही दबाव हो तो पर्यावरण और प्रदूषण जैसे मुद्दे पर सरकार जरूर जागेगी।
लेकिन जिस अन्ना आंदोलन में आपने मंच साझा किया, आपको नहीं लगता कि वह पूरा का पूरा आंदोलन भटक कर खत्म हो गया?
अन्ना आंदोलन कहां भटका? आखिर केजरीवाल तो अन्ना आंदोलन की ही उपज है। उसे तो जनता ने चीफ मिनिस्टर बनाया। पूरा हिंदुस्तान हिल गया था कि ये ‘आप’ पार्टी है कौन। सबके होश उड़ गए थे कि ‘आप’ तो अब नेशनल पार्टी बन जाएगी। लेकिन उसको (केजरीवाल को) अकल नहीं थी...भाग गया कुर्सी छोड़ कर। उसे बैठना चाहिए था, लड़ता वो जनता के हक के लिए...लेकिन, मुझे नहीं लगता उसका भविष्य उज्ज्वल है।
आपको लगता है कि चर्चित हस्तियों के जीवन पर लिखी गई किताबें बिना विवाद के हाथों-हाथ नहीं बिक सकती?
इस सवाल से मेरा क्या लेना-देना और आप मुझसे यह क्यों पूछ रहे हैं, मैं नहीं समझ पा रहा।
आपकी पत्नी नंदिता पुरी ने आपकी बायोग्राफी लिखी, उस पर खूब बवेला मचा तो किताब चर्चा में आ गई, इसलिए..
(टोकते हुए) मैं उस पर कोई बात नहीं करना चाहता। उस मुद्दे को मैं पीछे छोड़ आया हूं। यहां छत्तीसगढ़ में पर्यावरण पर कार्यक्रम में आया हूं। उससे जुड़ा कोई सवाल हो तो जरुर पूछिए या कुछ और भी..।
छत्तीसगढ़ में फिल्म सिटी की गुंजाइश देखते हैं क्या..?
फिल्म सिटी तो बाद की बात है। पहले आप फिल्में तो बेहतरीन बनाइए। फिल्म सिटी तो और भी कई स्टेट में बनाई गई। उनका क्या हश्र हो रहा है, सबको मालूम है। इसलिए फिल्म सिटी की तो बात ही ना करें।
(भड़ास4मीडिया से साभार)

आज़ाद हिंद फ़ौज के कैप्टन अली का निधन

स्वाधीनता सेनानी और आज़ाद हिंद फ़ौज के कैप्टन अब्बास अली का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. वे 92 साल के थे. उन्होंने शनिवार 11 अक्तूबर को अलीगढ़ के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज में अंतिम सांस ली. कैप्टन अब्बास अली का जन्म तीन जनवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले में हुआ था. 1939 में वे ब्रितानी सेना में भर्ती हुए पर 1945 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आह्वान पर उन्होंने ब्रितानी सेना छोड़ दी और आज़ाद हिंद फौज में शामिल हो गए. बाद में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया, उनका कोर्ट मार्शल हुआ और उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई. 1947 में भारत की आज़ादी के साथ ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया.