Thursday 6 November 2014

शिकार को निकला शेर / सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

एक शेर एक रोज जंगल में शिकार के लिए निकला। उसके साथ एक गधा और कुछ दूसरे जानवर थे। सब-के-सब यह मत ठहरा कि शिकार का बराबर हिस्‍सा लिया जाएगा। आखिर एक हिरन पकड़ा और मारा गया। जब साथ के जानवर हिस्‍सा लगाने चले, शेर ने धक्‍के मारकर उन्‍हें अलग कर दिया और कुल हिस्‍से छाप बैठा।
उसने गुर्राकर कहा, ''बस, हाथ हटा लो। यह हिस्‍सा मेरा है, क्‍योंकि मैं जंगल का राजा हूँ और यह हिस्‍सा इसलिए मेरा है, क्‍योंकि मैं इसे लेना चाहता हूँ, और यह इसलिए कि मैंने बड़ी मेहनत की है। और एक चौथे हिस्‍से के लिए तुम्‍हें मुझसे लड़ना होगा, अगर तुम इसे लेना चाहोगे।'' खैर, उसके साथी न तो कुछ कह सकते थे, न कर सकते थे; जैसा अकसर होता है, शक्ति सत्‍य पर विजय पाती है, वैसा ही हुआ।

एक चोर की कहानी / श्रीलाल शुक्ल

माघ की रात। तालाब का किनारा। सूखता हुआ पानी। सड़ती हुई काई। कोहरे में सब कुछ ढँका हुआ। तालाब के किनारे बबूल, नीम, आम और जामुन के कई छोटे-बड़े पेड़ों का बाग। सब सर झुकाए खड़े हुए। पेड़ों के बीच की जमीन कुशकास के फैलाव में ढँकी हुई। उसके पार गन्‍ने का खेत। उसका आधा गन्‍ना कटा हुआ। उस पर गन्‍ने की सूखी पत्तियाँ फैली हुईं। उन पर जमती हुई ओस। कटे हुए गन्‍ने की ठूँठियाँ उन्‍हें पत्तियों में ढँकी हुईं। आधे खेत में उगा हुआ गन्‍ना, जिसकी फुनगी पर सफेद फूल आ गए थे। क्‍योंकि वह पुराना हो रहा था।
रात के दो बजे। पास की अमराइयों में चिडि़यों ने पंख फटकारे। कोई चमगादड़ ''कैं कैं'' करता रहा। एक लोमड़ी दूर की झाडि़यों में खाँसती रही। पर रात के सन्‍नाटे के अजगर ने अपनी बर्फीली साँस की एक फुफकार से इन सब ध्‍वनियों को अपने पेट में डाल लिया और रह-रहकर फुफकारता रहा।
तभी, जैसे गन्‍ने के सुनसान घने खेत से अकस्‍मात बनैले सुअरों का कोई झुण्‍ड बाहर निकल आए, बड़े जोर का शोर मचा, ''चोर! चोSSSर। चोSSSर!"
गाँव की ओर से लगभग पच्‍चीस आवाजें हवा में गूँज रही थीं :
''चोर! चोर! चोSSSर। चोSSSर!"
''चारों ओर से घेर लो। जाने न पाए।''
''ठाकुर बाबा के बाग की तरफ गया है…''
''भगंती के खेत की तरफ देखना।''
''हाँ, हाँ गन्‍ने वाला खेत....।''
''चोSSSर। चोSSSर!"
देखते-देखते गाँव वाले ठाकुर के बाग में पहुँच गए। चारों ओर से उन्‍होंने बाग को और उससे मिले हुए गन्‍ने के खेत को घेर लिया। लायटेनों की रोशनी में एक-एक झाड़ी की तलाशी ली जाने लगी। सब बोल रहे थे। कोई भी सुन नहीं रहा था।
तभी एक आदमी ने टॉर्च की रोशनी फेंकनी शुरू की। भगंती के खेत में उसने कुछ गन्‍नों को हिलते देखा। फिर वह धीरे-धीरे खेत के किनारे तक गया। दो-तीन कोमल गन्‍ने जमीन पर झुके पड़े थे। उसी की सीध में कुछ गन्‍ने ऐसे थे जिन पर से पाले की बूँदें नीचे ढुलक गई थीं। टॉर्च की रोशनी में और पौधों के सामने ये कुछ अधिक हरे दिख रहे थे।
टॉर्च की रोशनी को खेत की गहराइयों में फेंकते हुए उस आदमी ने चिल्‍लाकर कहा, ''होशियार भाइयो, होशियार! चोर इसी खेत में छिपा है। चारों ओर से इसे घेर लो। जाने न पाए!"
फिर शोर मचा और लोगों ने खेत को चारों ओर से घेर लिया। उस आदमी ने मुँह पर दोनों हाथ लगाकर जोर-से कहा, ''खेत में छिपे रहने से कुछ नहीं होगा। बाहर आ जाओ, नहीं तो गोली मार दी जाएगी।''
वह बार-बार इसी बात को कई प्रकार से आतंक-भरी आवाज में कहता रहा। भीड़ में खड़े एक अधबैसू किसान ने अपने पास वाले साथी से कहा, ''नरैना है बड़ा चाईं। कलकत्‍ता कमाकर जब से लौटा है, बड़ा हुसियार हो गया है।''
उसके साथी ने कहा, ''बड़े-बड़े साहबों से रफ्त-जब्‍त रखता है। कलकत्‍ते में इसके ठाठ हैं। मैं तो देख आया हूँ। लड़का समझदार है।''
''जान कैसे लिया कि चोर खेत में है?"
तभी किसी ने कहा, ''यह चोट्टा खेत से नहीं निकलता तो आग लगा दो खेत में। तभी बाहर जाएगा।''
इस प्रस्‍ताव के समर्थन में कई लोग एक साथ बोलने लगे। किसी ने इसी बीच में दियासलाई भी निकाल ली।
भगंती ने आकर नरायन उर्फ नरैना से हाथ जोड़कर कहा, ''हे नरायन भैया, एक चोर के पीछे हमारा गन्‍ना न जलवाओ। सैकड़ों का नुकसान हो जाएगा। कोई और तरकीब निकालो।''
नरायन ने कहा, ''देखते जाओ भगंती काका, खेत का गन्‍ना जलेगा नहीं, पर कहा यही जाएगा।''
उसने तेजी से चारों ओर घूमकर कुछ लोगों से बातें कीं और खेत के आधे हिस्‍से में गन्‍ने की जो सूखी पत्तियाँ पड़ी थीं। उनके छोटे-छोटे ढरों में आग लगा दी। बहुत-से लोग आग तापने के लिए और भी नजदीक सिमट आए। सब तरह का शोर मचता रहा।
खेत के बीच में गन्‍ने के कुछ पेड़ हिल। नरायन ने उत्‍साह से कहा, ''शाबाश! इसी तरह चले आओ।''
पास खड़े हुए भगंती से उसने कहा, ''चोर आ रहा है। दस-पन्‍द्रह आदमियों को इधर बुला लो।''
चारों ओर से उठने वाली आवाजें शांत हो गईं। लोगों ने गर्दन उठा-उठाकर खेत के बीच में ताकना शुरू कर दिया।
चोर के निकलने का पता लोगों को तब चला जब वह नरायन के पास खड़ा हो गया।
सहसा चोर को अपने पैरों से लिपटा हुआ देख वह उछलकर पीछे खड़ा हो गया जैसे साँप छू लिया हो। एक बार फिर शोर मचा, ''चोर! चोSSSर!"
चोर घुटनों के बल जमीन पर गिर पड़ा।
न जाने आसपास खड़े लोगों को क्‍या हुआ कि तीन-चार आदमी उछलकर चोर के पास गए और उसे लातों-मुक्‍कों से मारना शुरू कर दिया। पर उसे ज्‍यादा मार नहीं खानी पड़ी। मारने वालों के साथ ही नरायन भी उसके पास पहुँच गया। उनको इधर-उधर ढकेलकर वह चोर के पास खड़ा हो गया और बोला, ''भाई लोगो, यह बात बेजा है। हमने वादा किया है कि मारपीट नहीं होगी, यह शरनागत है। इसे मारा न जाएगा।''
एक बुड्ढे ने दूर से कहा, ''चोट्टे को मारा न जाएगा तो क्‍या पूजा जाएगा।''
पर नरायन ने कहा, ''अब चाहे जो हो, इसे पुलिस के हाथों में देकर अपना काम पूरा हो जाएगा। मारपीट से कोई मतलब नहीं।''
लोग चारों ओर से चोर के पास सिमट आए थे। नरायन ने टॉर्च की रोशनी उस पर फेंकते हुए पूछा, ''क्‍यों जी, माल कहाँ है?"
पर उसकी निगाह चोर के शरीर पर अटकी रही। चोर लगभग पाँच फुट ऊँचा, दुबला-पतला आदमी था। नंगे पैर, कमर से घुटनों तक एक मैला-सा अँगोछा बाँधे हुए। जिस्‍म पर एक पुरानी खाकी कमीज थी। कानों पर एक मटमैले कपड़े का टुकड़ा बँधा था। उमर लगभग पचास साल होगी। दाढ़ी बढ़ रही थी। बाल सफेद हो चले थे। जाड़े के मारे वह काँप रहा था और दाँत बज रहे थे। उसका मुँह चौकोर-सा था। आँखों के पास झुर्रियाँ पड़ी थीं। दाँत मजबू थे। मुँह को वह कुछ इस प्रकार खोले हुए था कि लगता था कि मुस्‍कुरा रहा है।
उसे कुछ जवाब ने देते देख कुछ लोग उसे फिर मारने को बढ़े पर नरायन ने उन्‍हें रोक लिया। उसने अपना सवाल दोहराया, ''माल कहाँ है?"
लगा कि उसके चेहरे की मुस्‍कान बढ़ गई है। उसने हाथ जोड़कर खेत की ओर इशारा किया। इस बार नरायन को गुस्‍सा आ गया। अपनी टॉर्च उसकी पीठ पर पटककर उसने डाँटकर कहा, ''माल ले आओ।''
दो आदमी लालटेनें लिए हुए चोर के साथ खेत के अंदर घुसे। पाले और ईख की नुकीली पत्तियों की चोट पर बार-बार वे चोर को गाली देते रहे। थोड़ी देर बाद जब वे बाहर आए तो चोर के हाथ में एक मटमैली पोटली थी। पोटली लाकर उसने नरायन के पैरों के पास रख दी।
नरायन ने कहा, ''खोलो इसे। क्‍या-क्‍या चुरा रक्‍खा है?"
उसने धीरे-धीरे थके हाथों से पोटली खोली। उसमें एक पुरानी गीली धोती, लगभग दो सेर चने और एक पीतल का लोटा था। भीड़ में एक आदमी ने सामने आकर चोर की पीठ पर लात मारी। कुछ गालियाँ दीं और कहा, ''यह सब मेरा माल है।''
लोग चारों ओर से चोर के ऊपर झुक आए थे। वह नरायन के पैरों के पास चने, लोटे और धोती को लिए सर झुकाए बैठा था। सर्दी के मारे उसके दाँत किटकिटा रहे थे और हाथ हिल रहे थे। नरायन ने कहा, ''इसे इसी धोती में बाँध लो और शाने ले चलो।''
दो-तीन लोगों ने चोर की कमर धोती से बाँध ली और उसका दूसरा सिरा पकड़कर चलने को तैयार हो गए।
चोर के खड़े होते ही किसी ने उसके मुँह पर तमाचा मारा और गालियाँ देते हुए कहा, ''अपना पता बता वरना जान ले ली जाएगी।''
चोर जमीन पर सर लटकाकर बैठ गया। कुछ नहीं बोला। तब नरायन ने कहा, ''क्‍यों उसके पीछे पड़े हो भाइयो! चोर भी आदमी ही है। इसे थाने लिए चलते हैं। वहाँ सब कुछ बता देगा।''
किसी ने पीछे से कहा, ''चोर-चोर मौसेरे भाई।''
नरायन ने घूमकर कहा, ''क्‍यों जी, मैं भी चोर हूँ? यह किसकी शामत आई!"
दो-एक लोग हँसने लगे। बात आई-गई हो गई।
वे गाँव के पास आ गए। तब रात के चार बज रहे थे। चोर की कमर धोती से बाँधकर, उसका एक छोर पकड़कर दीना चौकीदार थाने चला। साथ में नरायन और गाँव के दो और आदमी भी चले।
चारों में पहले वाला बुड्ढा किसान रास्‍ता काटने के लिए कहानियाँ सुनाता जा रहा था, ''तो जुधिष्ठिर ने कहा कि बामन ने हमारे राज में सोने की थाली चुराई है। उसे क्‍या दंड दिया जाए? तो बिदुर बोले कि महाराज, बामन को दंड नहीं दिया जाता। तो राजा बोले कि इसने चोरी की है तो दंड तो देना ही पड़ेगा। तब बिदुर ने कहा कि महाराज, इसे राजा बलि के पास इंसाफ के लिए भेज दो। जब राजा बलि ने बामन को देखा तो उसे आसन पर बैठाला।...''
चौकीदार ने बात काटकर कहा, ''चोर को आसन पर बैठाला? यह कैसे?"
बुड्ढा बोला, ''क्‍या चोर, क्‍या साह! आदमी आदमी की बात! राजा ने उसे आसन दिया और पूरा हाल पूछा। पूछा कि आपने चोरी क्‍यों की तो बामन बोला कि चोरी पेट की खातिर की।''
चौकीदार ने पूछा, ''तब?"
''तब क्‍या?" बुड्ढा बोला, ''राजा बलि ने कहा कि राजा युधिष्ठिर को चाहिए कि वे खुद दंड लें। बामन को दंड नहीं होगा। जिस राजा के राज में पेट की खातिर चोरी करनी पड़े वह राजा दो कौड़ी का है। उसे दंड मिलना चाहिए। राजा बलि ने उठकर...।''
चौकीदार जी खोलकर हँसा। बोला, ''वाह रे बाबा, क्‍या इंसाफ बताया है राजा बलि का। राजा विकरमाजीत को मात कर दिया।''
वे हँसते हुए चलते रहे। चोर भी अपनी पोटली को दबाए पँजों के बल उचकता-सा आगे बढ़ता गया।
पूरब की ओर घने काले बादलों के बीच से रोशनी का कुछ-कुछ आभास फूटा। चौकीदार ने धोती का छोर नरायन को देते हुए कहा, ''तुम लोग यहीं महुवे के नीचे रूक जाओ। मैं दिशा मैदान से फारिग हो लूँ।''
साथ के दोनों आदमी भी बोल उठे। बुड्ढे ने कहा, ''ठीक तो है नरायन भैया, यहीं तुम इसे पकड़े बैठे रहो। हम लोग भी निबट आवें।''
वे चले गए। नरायन थोड़ी देर चोर के साथ महुवे के नीचे बैठा रहा। फिर अचानक बोला, ''क्‍यों जी, मुझे पहचानते हो?"
दया की भीख-सी माँगते हुए चोर ने उसकी ओर देखा। कुछ कहा नहीं। नरायन ने फिर धीरे-से कहा, ''हम सचमुच मौसेरे भाई हैं।''
इस बार चोर ने नरायन की ओर देखा। देखता रहा। पर इस सूचना पर नरायन जिस आश्‍चर्य-भरी निगाह की उम्‍मीद कर रहा था, वह उसे नहीं मिली। बढ़ी हुई दाढ़ी वाला एक दुबला-पतला चौकोर चेहरा उससे दया की भीख माँग रहा था। नरायन ने धीरे-से रूक-रूककर कहा, ''कलकत्‍ते के शाह मकसूद का नाम सुना है? उन्‍हीं के गोल का हूँ।''
जैसे किसी को किसी अनजाने जाल में फँसाया जा रहा हो, चोर ने उसी तरह बिंधी हुई निगाह से उसे फिर देखा। नरायन ने फिर कहा, ''कलकत्‍ते के बड़े-बड़े सेठ मेरे नाम से थर्राते हैं। मेरी शक्‍ल देखकर तिजोरियों के ताले खुल जाते हैं, रोशनदान टूट जाते हैं।''
वह कुछ और कहता। लगातार बात करने का लालच उसकी रग-रग में समा गया था। अपनी तारीफ में वह बहुत कुछ कहता। पर चोर की आँखों में न आनंद झलका, न स्‍नेह दिखाई दिया। न उसकी आँखों में प्रशंसा की किरण फूटी, न उनमें आतंक की छाया पड़ी। वह चुपचाप नरायन की ओर देखता रहा।
सहसा नरायन ने गुस्‍से में भरकर उसकी देह को बड़े जोर-से झकझोरा और जल्‍दी-जल्‍दी कहना शुरू किया, ''सुन बे, चोरों की बेइज्‍जती न करा। चोरी ही करनी है तो आदमियों जैसी चोरी कर। कुत्‍ते, बिल्‍ली, बंदरों की तरह रोटी का एक-एक टुकड़ा मत चुरा। सुन रहा है बे?"
मालूम पड़ा कि वह सुन रहा है। उसकी चेहरे पर हैरानी का चढ़ाव-उतार दीख पड़ने लगा था। नरायन ने कहा, ''यह सेर-आध सेर चने और यह लोटा चुराते हुए तुझे शर्म भी नहीं आई? यही करना है तो कलकत्‍ते क्‍यों नहीं आता?"
न जाने क्‍यों, चोर की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसके होंठ इतना फैल गए थे कि लग रहा था, वह हँस पड़ेगा। पर आँसू बहते ही जा रहे थे। वह अपने पेट पर दोनों हाथों से मुक्‍के मारने लगा। आँसुओं का वेग और बढ़ गया।
नरायन ने बात करनी बंद कर दी। कुछ देर रूककर कहा, ''भाग जो। कोई कुछ न कहेगा। जब तू दूर निकल जाएगा तभी मैं शोर मचाऊँगा।"
जब इस पर भी चोर ने कुछ जवाब न दिया तो उसे आश्‍चर्य हुआ। फिर कुछ रूककर उसने कहा, ''बहरा है क्‍या बे?"
फिर भी चोर ने कुछ नहीं कहा।
नरायन ने उसे बाँधने वाली धोती का छोर उसकी ओर फेंका, उसे ढकेलकर दूर किया और हाथ से उसे भाग जाने का इशारा किया। पर चोर भागा नहीं। थका-सा जमीन पर औंधे मुँह पड़ा रहा।
इतने में दूसरे लोग आते हुए दिखाई पड़े। नरायन ने गंभीरतापूर्वक उठकर चोर को जकउ़ने वाली धोती पकड़ ली। उसे हिला-डुलाकर खड़ा कर दिया। एक-एक करके वे सब लोग आ गए।
सवेरा होते-होते वे थाने पहुँच गए। थाना मुंशी ने देखते ही कहा, ''सबेरे-सबेरे किस का मुँह देखा!"
पर मुँह देखते ही वह फिर बोला, ''अजब जानवर है! चेहरा तो देखो, लगता है हँस पड़ेगा।''
दिन के उजाले में सबने देखा कि उसका चेहरा सचमुच ऐसा ही है। छोटी-छोटी सूजी हुई आँखों और बढ़ी हुई दाढ़ी के बावजूद चौकोर चेहरे मे फैल हुआ मुँह, लगता था, हँसने ही वाला है।
थाना मुंशी ने पूछा, ''क्‍या नाम है?"
चोर ने पहले की तरह हाथ जोड़ दिए। तब उसने उसके मुँह पर दो तमाचे मारकर अपना सवाल दोहराया। चोर का मुँह कुछ और फैल गया। उसने-दो-चार तमाचे फिर मारे।
इस बार उसकी चीख से सब चौंक पड़े। मुँह जितना फैल सकता था, उतना फैलाकर चोर बड़ी जोर-से रोया। लगा, कोई सियार अकेले में चाँद की ओर देखकर बड़ी जोर-से चीख उठा है।
मुंशी ने उदासीन भाव से पूछा, ''माल कहाँ है?"
नरायन ने चने, लोटे और धोती को दिखाकर कहा, ''यह है।''
न जाने क्‍यों सब थके-थके से, चुपचार खड़ रहे। चोर अब सिसक रहा था। सहसा एक सिपाही ने अपनी कोठरी से निकलकर कहा, ''मुंशी जी, यह तो पाँच बार का सजायाफ्ता है। इसके लिए न जेल में जगह है, न बाहर। घूम-फिरकर फिर यहीं आ जाता है।''
मुंशी ने कहा, ''कुछ अधपगला-सा है क्‍या?"
सिपाही ने मुंशी के सवाल का जवाब स्‍वीकार में सिर हिलाकर दिया। फिर पास आकर चोर की पीठ थपथपाते हुए कहा, ''क्‍यों गूँगे, फिर आगए। कितने दिन के लिए जाओगे छह महीने कि साल-भर?"
चोर सिसर रहा था, पर उसकी आँखों में भय, विस्‍मय और जड़ता के भाव समाप्‍त हो चले थे। सिपाही की ओर वह बार-बार हाथ जोड़कर झुकने लगा, जैसे पुराना परिचित हो।
चौकीदार ने साथ के बुड्ढे को कुहनी से हिलाकर कहा, ''साल-भर को जा रहा है। समझ गए बलि महाराज?"
पर कोई भी नहीं हँसा।

मीडिया की साख से मत खेलिए / संतोष भारतीय

अब सार्वजनिक जीवन में भाषा की मर्यादा का कोई मतलब ही नहीं रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव प्रचार अभियान में जिस भाषा-शैली का इस्तेमाल किया, वैसी भाषा-शैली का इस्तेमाल इससे पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया. खासकर, राजनीति में अपने साथियों के चुनाव क्षेत्र में भले ही वे किसी भी पार्टी के राजनेता रहे हों, इस तरह की भाषा-शैली का इस्तेमाल पहले किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया.हमें यह मानना चाहिए कि केंद्र में नई सत्ता के आने के बाद नई भाषा और नई शब्दावली का भी अभ्यस्त हो जाना पड़ेगा. दो बड़े व्यापारिक घराने टेलीविजन चैनलों के माध्यम से लड़ रहे हैं. जी न्यूज के प्रमुख सुभाष चंद्रा और मशहूर उद्योगपति नवीन जिंदल कभी आपस में बहुत गहरे दोस्त हुआ करते थे और दोनों का परिवार दोस्ती की मिसाल माना जाता था. आज दोनों आमने-सामने खड़े हैं. कारणों की तह में जाने का कोई मतलब नहीं है. इन दोनों घरानों के दो टेलीविजन चैनल हैं. एक जी मीडिया के रूप में देश के सबसे बड़े मीडिया समूह का स्वामित्व रखता है और दूसरे ने एक नए टेलीविजन में निवेश करके उसके ऊपर अपना आधिपत्य कर लिया है. इस चुनाव में इन दोनों टेलीविजन चैनलों ने भाषा की मर्यादा समाप्त कर दी है. सुभाष चंद्रा गाली-गलौज कर रहा है, सुभाष चंद्रा गुंडागर्दी कर रहा है, सुभाष चंद्रा लोगों को धमका रहा है, जैसी सभ्यता के स्तर से नीचे उतरी भाषा का इस्तेमाल सुभाष चंद्रा के लिए फोकस टीवी ने किया. सुभाष चंद्रा के चैनल जी मीडिया ने भी तुर्की-ब-तुर्की, नवीन जिंदल कोयला घोटाले का आरोपी है, नवीन जिंदल अपराधी है, नवीन जिंदल गले में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह लगा मफलर डालकर घूम रहा है, जैसी भाषा का इस्तेमाल किया. इससे थोड़ी-सी और नीचे गिरी भाषा-शैली का भी इस्तेमाल हुआ. दोनों टेलीविजन चैनल इस भाषा युद्ध में एक-दूसरे को नीचा दिखाने और अपने-अपने घरानों का प्रतिनिधित्व करने में बस एक महत्वपूर्ण बात भूल गए. वह महत्वपूर्ण बात मीडिया की अपनी साख है.
हम जब टेलीविजन या अख़बार में होते हैं, तो लोग हमारे ऊपर वैसे ही विश्‍वास करते हैं, जैसे वे किसी न्यायाधीश के ऊपर विश्‍वास करते हैं. आज भी मीडिया के ऊपर, वह चाहे प्रिंट हो या टेलीविजन चैनल हों, देश के अधिकांश लोग बिना किसी तर्क के उनकी कही हुई बातों पर विश्‍वास कर लेते हैं. यह साख अभी मीडिया की ख़त्म नहीं हुई है. हालांकि, बहुत सारे लोगों के मन में ख़बरों के दिखाने के तरीके को लेकर शंकाएं उत्पन्न हो गई हैं और वे मीडिया के एक हिस्से को मनोरंजन का पर्याय भी मानने लगे हैं. पर इसके बावजूद साख अभी ख़त्म नहीं हुई है.
ये दोनों टेलीविजन समूह इस बात को भूल गए कि उनकी इस असभ्य अंत्याक्षरी में इन दोनों का कोई नुक़सान नहीं होने वाला, क्योंकि दोनों ही धन में और ताकत में एक-दूसरे का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे. अगर कुछ बिगड़ेगा, तो मीडिया का बिगड़ेगा. और मीडिया का मतलब स़िर्फ जी और फोकस से जुड़े हुए या उनके दर्शकों का नहीं, बल्कि उन सारे लोगों का, जो मीडिया में काम करते हैं. जब दो लोग एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, तो न केवल राजनीतिक दल, बल्कि जनता भी इसे एक तमाशा मान लेती है. और उस तमाशे में सारे पत्रकार, वे चाहे किसी भी विधा से जुड़े हों, एक हास्यास्पद भूमिका में जोकरों की तरह खड़े दिखाई देते हैं. वैसे ही मीडिया की साख समाप्त हो रही है. मीडिया खुद अपनी साख समाप्त कर रहा है. ऐसे में अगर टेलीविजन चैनल और अख़बारों के माध्यम से आपसी युद्ध सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जाए, तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति दूसरी नहीं हो सकती.
मेरी चिंता सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल में नहीं है. मेरी चिंता मीडिया में है. और मैं इन दोनों (सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल) से विनम्र अनुरोध करना चाहता हूं कि आप दोनों लड़ें, आपके पास लड़ने के बहुत सारे माध्यम हैं. उसमें टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को, जो आपके पैसे की वजह से चलते हैं, उन्हें न घसीटें. क्योंकि, जब आप अपने टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को घसीटते हैं, तो आप पत्रकारिता को वहां खड़ा कर देते हैं, जहां पत्रकारिता अपनी साख खो देती है और पत्रकारिता हास्यास्पद नाटक मंडली का प्रहसन बन जाती है.
लोग भले अपने मुंह से कुछ न कहें, लेकिन लोग इसे अपने दिल से उतार देते हैं. मुझे नहीं मालूम, ये दोनों महान व्यक्ति, सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल हमारे इस छोटे-से अनुरोध को स्वीकार करेंगे या नहीं. लेकिन अगर वे स्वीकार करेंगे, तो न केवल अपने चैनलों और अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों पर कृपा करेंगे, बल्कि पत्रकारिता के पेशे में लगे हुए तमाम उन लोगों पर भी उपकार करेंगे, जो अपनी जान हथेली पर रखकर अभी भी सच की तलाश में जुटे हुए हैं. क्योंकि, जो चीजें आज हो रही हैं, वे दीमक की तरह हैं. और दीमक जब कहीं लग जाती है, तो वह किसी को नहीं छोड़ती. कोशिश करनी चाहिए कि पत्रकारिता के पेशे में दीमक न लगे, क्योंकि पत्रकारिता का पेशा लोकतंत्र की सलामती के लिए बहुत अहम स्थान रखता है. इसलिए आख़िर में श्री सुभाष चंद्रा और श्री नवीन जिंदल से एक बार फिर अनुरोध है कि वे अपना युद्ध लड़ें, जिस स्तर पर चाहें लड़ें, जितना चाहें एक-दूसरे को ऩुकसान पहुंचाएं, उनकी मर्जी. बस अपने टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को इस युद्ध से दूर रखें, तो उनकी पत्रकारिता के ऊपर और दूसरे शब्दों में, लोकतंत्र के ऊपर बहुत बड़ी कृपा होगी. -

बिना टॉफी वाले बच्चे


ट्रिक ओर ट्रीट/घुघूती बासूती

परसों शाम अचानक घंटी बजी। देखा तो बच्चों का झुँड चेहरे पर थोड़ी सी कलाकारी कर हैलोवीन मनाता आया था। कई तरह की टॉफियाँ न जाने क्यों मेरे घर एक अलमारी में शायद उनकी प्रतीक्षा में ही पड़ी थीं। सो उन्हें बाँट दी। कुछ देर बाद बच्चों का एक और झुंड आया। वे भी टॉफियाँ ले चले गए।
मैं बचपन की गलियों में पहुँच गई। कभी हम बच्चे लोहड़ी के दिन यूँ ही घर घर लोड़ी माँगने पहुँचते थे। कुछ देर लोहड़ी के गीत गाते जैसे....
दे माँ लोहड़ी, जिए तेरी जोड़ी।
दे माँ दाणे, जीवें तेरे न्याणे।
सुंदर मुंदरिए हो..,
तेरा कौण बिचारा हो..
दुल्ला भट्टी वाला हो,
दुल्ले दी धी ब्याही हो,
सेर शक्कर पाई हो ...
फिर मध्य प्रदेश के मुरैना जिले की याद आती है जहाँ लड़के टेसू और लड़कियाँ झाँझी (? ) लेकर गाने गाते हुए घर घर जाते थे।
लड़के गाते थे..
मेरा तेसू यहीं खड़ा
खाने को माँगे दही वड़ा
दही वड़े में पन्नी
रख दो चवन्नी।
उस जमाने में तो चवन्नी की माँग भी उद्दंडता लगती थी। झाँझी वाली लड़कियाँ क्या गाती थीं समझ नहीं आता था। सब पैसा पाँच पैसा लेकर चले जाते थे।
समय बदला और ५० साल बाद आज बच्चे हैलोवीन मना रहे हैं। बात लगभग वही है।

दिल्ली किससे लड़ेगी / रवीश कुमार


राजनीति मनमोहन देसाई की फ़िल्म की तरह जो फ्लैश बैक से शुरू होती है जिसमें दो लड़के अपने परिवेश के बंधनों को तोड़कर भागते हैं और पुल से चलती रेल पर कूदते समय हवा में ही बड़े हो जाते हैं। पर्दे पर लिखा आता है इंटरमिशन। फ़िल्म तो समाप्त हो जाती है लेकिन हकीकत और अंतर्विरोध का जो ढांचा होता है वो असली और पर्दे के जीवन पर बना रहता है। इसलिए हार और जीत किसी कहानी के मोड़ ज़रूर हो सकते हैं मगर ज़रूरी नहीं कि इससे बुनियादी सवालों पर बहुत फर्क पड़ जाए। 2011-13 की दिल्ली ने जो उम्मीदें जगाईं थीं वो अब कहां हैं। राजनीति को बदलने के सवाल गुलज़ार का गाना गा रहे होंगे। मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, एक सौ सोलह चांद की रातें, एक तुम्हारे कांधे का तिल, गीली मेंहदी की खुश्बू झूठ मूठ के वादे। वो भिजवा दो। कहीं ऐसा तो नहीं कि दिल्ली उस थियेटर से निकलकर हैप्पी न्यू ईयर जैसी चतुर्थस्तरीय फिल्म देखने में मगन हो गई है जहां नैतिकता का मतलब सिर्फ जीत है। चोर जीते लेकिन इंडिया के लिए जीते। वैसे इस फिल्म ने कमाई के रिकार्ड भी बनाए हैं।
काला धन और भ्रष्टाचार का मुद्दा अब लतीफ़े में बदल गया है। लोकपाल का जुनून उस शामियाने की तरह उजड़ गया है जिसके भीतर कुर्सी कहीं से आई थी और लाउडस्पीकर कहीं से। सब अपना-अपना सामान लेकर चले गए हैं। वित्त मंत्री सी ए जी को सलाह देते हैं कि नीतियों के कई पक्ष हो सकते हैं। जो फैसला है वो लिया जा चुका है। वे सनसनी न करें। हेडलाइन की भूख छोड़ दें। फिर सफाई आती है कि बात को संदर्भ से काट कर पेश किया गया लेकिन यह नहीं बताया जाता कि वो बात क्या थी जो कट-छंट गई हमारे नेता ही संपादक हैं। कब संदर्भ समाप्त कर मुद्दे को महज़ नारे में समेट देते हैं और कब नारे को किनारे लगाकर संदर्भ समझने की अपील करने लगते हैं इसका फैसला उन्हीं के पास सुरक्षित है। हर किसी के खाते में तीन लाख आएगा या नहीं अब यह आक्रोश की जगह लतीफ़े का मामला बन गया है। जब पता नहीं था तब संसद में बहस की मांग क्यों हुई, स्थगन क्यों हुए, यात्राएं क्यों निकाली गईं। वो दस्तावेज़ कहां से आए जिनके आधार पर कहा गया कि देश में लाखों करोड़ों का कालधन है। रेडियो पर प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसी को पता नहीं कि काला धन कितना है। पर पाई पाई लायेंगे इसका भरोसा उन पर कीजिए। तो क्या भ्रष्टाचार का वो मुद्दा नकली था तब क्यों नेता ऐसे बोल रहे थे कि किसी को पता नहीं था।
दो सवाल हैं। काला धन आने को लेकर दूसरा भ्रष्टाचार मिटाने को लेकर। क्या ये दोनों सवाल इस कदर बेमानी हो चुके हैं कि अब इनपर सिर्फ लतीफे ही बनाए जा सकते हैं। अगर यही बात मनमोहन सिंह कहते कि उन्हें पता नहीं कि कितना काला धन है तब 2013 का मीडिया और सोशल मीडिया उनके साथ क्या सलूक करता। अब किरण बेदी, बाबा रामदेव सब चुप हैं। सबने इस सवाल को सिर्फ एक व्यक्ति के भरोसे छोड़ दिया है। तब तो इनका सवाल कुछ और था कि भ्रष्टाचार के सवाल को किसी एक व्यक्ति या सरकार के भरोसे छोड़ा ही नहीं जा सकता। ये काम सिर्फ और सिर्फ लोकपाल कर सकता है। क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि लोकपाल को लेकर वैसा आक्रोश अब भी है। ग्यारह महीने से लोकपाल नहीं है और अब इसे लेकर कोई बयान भी नहीं है। राज्यों में भ्रष्टाचार के सवाल पर तो अब करीब करीब खामोशी सी छा गई है। जैसे भ्रष्टाचार केंद्र सरकार ही खत्म करेगी और वो भी एस आई टी के ये दो जज जो इस वक्त वैकल्पिक लोकपाल की तरह उम्मीद बनते हुए प्रतीत होते हैं लेकिन इनका दावा भी अजीब है। एक साल में ठीक-ठाक पता कर लेंगे काला धन के बारे में। सवाल तो लोकपाल जैसे सिस्टम का था जो इस महामारी से एक लड़ाई की शुरूआत करता।
इस आंदोलन ने राजनीति में कई नायक दिये। ये और बात है कि इनका नायकत्व किसी और नायक में विलीन हो गया। अब हर दूसरा तीसरा टुटपुंजिया आंदोलन भी आज़ादी की दूसरी लड़ाई कहा जाने लगा है। दिल्ली के ज्यादातर भ्रष्टाचार विरोधी नायकों ने अपनी-अपनी निष्ठाएं घोषित कर दी हैं। जिसके आधार पर इनकी चुप्पी और मुखरता तय हो रही है। तब तो ना भ्रष्टाचार ना, अबकी बार ना। एक उम्मीद टूटती थी तो एक अनशन आकर उसे संभाल लेता था। अब ये सब नौटंकी में बदल दिया गया है। जाने-अनजाने में एफ एम रेडियो ने लोकतांत्रिक आयोजनों को प्रहसन में बदल दिया है।
2013 में दिल्ली भ्रष्टाचार के सवाल पर ठीक से अपना पक्ष तय नहीं कर पाई। जितना बीजेपी को पसंद किया उतना ही आम आदमी पार्टी को। कांग्रेस को जो सज़ा मिली उसे वही सज़ा देश भर में मिली। तब बीजेपी और आम आदमी पार्टी एक दूसरे से नहीं बल्कि कांग्रेस से लड़ रहे थे। इस बार लड़ाई बदल जाएगी। बीजेपी और आम आदमी पार्टी आमने-सामने हैं और इस लड़ाई में कांग्रेस अपने लिए कुछ जगह खोज रही है। लेकिन क्या वाकई आम आदमी पार्टी सामने-सामने से बीजेपी पर वार करेगी। बीजेपी नहीं मोदी पर वार करेगी। मीडिया सोशल मीडिया के सहारे इस लड़ाई को व्यक्तिगत बना दिया जाएगा। यही वास्तविकता है। पर क्या दिल्ली खुद को इस व्यक्तिवादी राजनीति से निकलकर सिस्टम से जुड़े मुद्दों पर कोई समझदारी कायम करेगी। बहस की दिशा को बदल पाएगी।
क्या आम आदमी पार्टी जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के सवाल पर उस भावुकता को दोबारा रच पाएगी जो उसने उन दो सालों में किया था। आम आदमी पार्टी अपनी स्थापना का चुनाव उस मुद्दे के सहारे लड़ेगी जिसके आधार पर वो कायम हुई थी। 2013 और 2014 की दिल्ली काफी बदल गई है। दिल्ली का चुनाव इस बार भारतीय राजनीति की दिशा तय कर देगा। वो यह कि अब राजनीति वही होगी जो मध्यमवर्ग चाहेगा। वो इस वक्त राजनीति को टीवी सीरीयल की तरह देख रहा है जहां नए नए कपड़ों में सजे किरदार उसे रूलाते हैं तो कभी हंसाते हैं। इस चुनाव में दिल्ली के लिए कुछ नहीं है। जैसे उस चुनाव में दिल्ली के लिए कुछ नहीं था। आम आदमी पार्टी अब एक राजनीतिक दल में ढल चुकी है। अब उन नौसीखीये समाजसेवियों की फौज नहीं रही जो राजनीति को बदलने के लिए निकले थे। उसके राजनीतिक अंतर्रिवोध भी सामने आते रहते हैं। जिसके भीतर राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई लोकसभा की हार के बाद शुरू होकर थम तो गई थी लेकिन इस चुनाव के बाद फिर उभरेगी। दिल्ली का फैसला बतायेगा कि भविष्य में नई पार्टी के लिए राजनीतिक स्पेस क्या रहेगा। कभी खत्म नहीं होगा मगर उस स्पेस को लेकर नए तरह के सबक ज़रूर कायम होंगे। फिलहाल एक बात आम आदमी पार्टी के पक्ष में ज़रूर जाती है कि उसके विधायक नहीं टूटे। किसी ने अपनी पार्टी से बाहर से जाकर स्टैंड लेते हुए इस्तीफा देकर बीजेपी के लिए स्पेस नहीं बनाया। देखते हैं कि अरविंद केजरीवाल अपने उन मुद्दों को छोड़ देते हैं या उन्हीं के सहारे फिर मैदान में उतरते हैं या नहीं।
ये चुनाव जितना नरेंद्र मोदी का नहीं होगा उतना अरविंद केजरीवाल का होगा। इस बीच जनता उन्हें कुछ दिन सरकार में और बहुत दिन विपक्ष में देख चुकी है। जिस भावुकता और जादू के निर्माण करने का सोशल मीडियाई संसाधन केजरीवाल की टीम ने जुटाया था उसे बीजेपी ने बड़े पैमाने पर अपना लिया है। यह चुनाव दो दलों के संसाधनों के प्रदर्शन के टकराव का भी चुनाव होने जा रहा है। संसाधनों के मामले में आप बीजेपी से हमेशा कमज़ोर रहेगी। इसलिए आप का असली इम्तहान शुरू होता है अब। दिल्ली जी लाक किया जाए। अमिताभ की शैली में बोले तो। देखते हैं दिल्ली किसे लाक करती है।
कई लोग कह रहे हैं कि यह चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए करो और मरो का चुनाव होगा। उनका आंकलन है कि अगर विपक्ष लायक बनी तो पार्टी खत्म हो जाएगी। कोई पार्टी विपक्ष में आकर खत्म कैसे हो जाती है। क्या महाराष्ट्र में पंद्रह साल विपक्ष में रहकर बीजेपी खत्म हो गई थी। क्या केंद्र में दस साल सत्ता से बाहर रहकर बीजेपी खत्म हो गई थी। लेकिन भारतीय राजनीति में अपने लिए दिल्ली जैसा छोटा संदर्भ और लक्ष्य चुनकर अरविंद केजरीवाल ने भी खुद को इन सवालों के घेरे में नहीं ला दिया है। जब दिल्ली नहीं तो फिर कहां। इस चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी का भविष्य भी दांव पर होगा। मेरा अपना मानना है कि हिन्दुस्तान की जनता भ्रष्टाचार के सवाल पर ईमानदार नहीं है। जो इस मुद्दे को लेकर आग में कूदेगा वो जलकर मर जाएगा। जनता भ्रष्टाचार सिस्टम की लाभार्थी है। उसे अपनी अन्य निष्ठाएं भ्रष्टाचार से ऊपर लगती हैं। वो भ्रष्टाचार के साथ जीना सीख चुकी है। उसे इस मुद्दे और देश की राजनीति से स्टाकहोम सिंड्रोम हो गया है। जो उत्पीड़क है उसी से प्यार हो गया है उसे। अगर अरविंद इस धारणा को ग़लत साबित कर देते हैं तो आम आदमी पार्टी मोदी के वर्चस्ववादी राजनीति और युग में फिर से उम्मीद बनकर ज़िंदा हो जाएगी। दांव तो सिर्फ आप का है। बचे रहने का और मिट जाने का। यह चुनाव अब आप का है। जनता का नहीं। जो अरविंद कहा करते थे कि चुनाव जनता का है। वही जीतेगी या वही हारेगी।
ज़रा सोचिये। बीजेपी की जीत हुई तो नरेंद्र मोदी का कैसा बखान होगा। मोदी तो जीतते ही आ रहे हैं। उनके फैलाये वृतांतों के अनुसार ही बहसें चल रही हैं। बाकी दल और नेता अपने अंतर्विरोधों से भाग रहे हैं तो मोदी रोज़ एक नया अंतर्विरोध पैदाकर के भी बच निकल जा रहे हैं। विरोधी कंफ्यूज हैं कि मोदी पर हमला करें या नहीं। मोदी को इस तरह का कंफ्यूज़न नहीं है। वो जब चाहते हैं जिस पर चाहते हैं हमले करते हैं। वो एक नहीं हज़ार तीर लेकर उतरते हैं। बिना देखे दायें बायें छोड़ते रहते हैं। हालांकि उनका हर कदम योजना के हिसाब से ही होता है। टीवी और मीडिया को सिर्फ और सिर्फ एक ही योद्धा लड़ता हुआ दिखता है और इस दुनिया में जो दिखता है वही बिकता है। क्या अरविंद केजरीवाल मोदी पर उस तरह से सीधे टारगेट कर पायेंगे। बीजेपी उन्हीं के सहारे तो मैदान में उतरेगी।कांग्रेस के लिए भी नए नेतृत्व को आज़माने का मौका है। क्या वो कुछ खड़ी हो पाएगी। शीला दीक्षित के सहारे मैदान में उतरेगी या फिर कोई और नया नेता आएगा।
यह भी ध्यान में रखना होगा कि क्या इस बार भी दिल्ली का चुनाव किसी राजनीतिक बदलाव की चाहत के लिए होगा। दिल्ली ने राजनीति को बदलने का सपना छोड़ दिया है। अगर दिल्ली में बदलाव की चाहत होती तो वो बवाना और त्रिलोकपुरी की घटना पर इतनी खामोश न होती। वो इन घटनाओं के समर्थन में भले मुखर नहीं है लेकिन लोगों का मौन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पूर्ण हो चुका है। चूंकि सेकुरलिज्म की तरह ये भी एक बैड वर्ड है इसलिए दिल्ली का नफ़ीस तबका इसका प्रदर्शन नहीं करेगा। किन्हीं और बहानों के सहारे इस पर चुप रहेगा।
बवाना की पंचायत अगर यूपी में होती तो अब तक कई सवाल अखिलेश सरकार पर दागे जा चुके होते कि सपा बीजेपी से मिली हुई है ताकि इस ध्रवीकरण का लाभ दोनों मिलकर उठा लें। दिल्ली में जवाबदेही के सवाल पर वैसी आक्रामकता ग़ायब है। क्यों किसी ने नहीं कहा कि जिस दिल्ली के लाल किले से दस साल तक सांप्रदायिकता पर रोक लगाकर देश सेवा में जुटने का आह्वान किया गया उसी दिल्ली में किसकी इजाज़त से महापंचायतें हो रही हैं। क्यों तनाव हो रहे हैं। क्यों नहीं ऐसे वक्त में प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से डांट लगाते हैं कि बंद कीजिए। मेरी नज़र है ऐसी घटनाओं पर। वो भी एक ऐसे प्रधानमंत्री से उम्मीद तो की जा सकती है जिनका खासा समय मीडिया के माध्यमों में गुज़रता है। आम आदमी पार्टी ने भी सांप्रदायिकता के खिलाफ स्टैंड लेकर यात्राएं नहीं निकालीं। घर घर जाकर लोगों से पर्चे नहीं बांटे। कांग्रेस और आप ने मीडियाई बयान देने की औपचारिकता भर पूरी की। वर्ना कोई बवाना के समानांतर सौहार्द पंचायत करने की भी सोच सकता था। सब इस सवाल पर कंफ्यूज़ हैं क्योंकि उन्हें डर है कि लोकसभा की तरह सेकुलरिज़्म के बैड वर्ड बन जाने का नुकसान न उठाना पड़े। यही तो राजनीति है। नुकसान उठाकर भी आप अपने आदर्शों को नही छोड़ें। लेकिन तब क्या करेंगे जब सामने वाला हर तरह के आदर्शों की तिलांजली देकर जीतने पर आमादा है। चुनावी राजनीति की यही तो सीमा है। हर किसी को इसमें फंस जाना पड़ता है। नैतिकता टीवी स्टुडियो में बहस के लिए बची रह जाती है।
(www.naisadak.org से साभार)

झू लिक्सुआन का ये चित्र क्या कहता है...


ब्रेक और ब्रेक के बीच की पत्रकारिता / प्रमोद जोशी

दो जानकारियाँ तकरीबन साथ-साथ प्राप्त हुईं। दोनों में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं, सिवाय मूल्यों और मर्यादाओं के जो एक कर्म से जुड़ी हैं, जिसे पत्रकारिता कहते हैं। तहलका पत्रिका के पत्रकार तरुण सहरावत का देहांत हो गया। उनकी उम्र मात्र 22 साल थी। अबूझमाड़ के आदिवासियों के साथ सरकारी संघर्षों की रिपोर्टिंग करने तरुण सहरावत बस्तर गए थे। जंगल में मच्छरों के काटने और तालाब का संक्रमित पानी पीने के कारण उन्हें टाइफाइड और सेरिब्रल मलेरिया हुआ और वे बच नहीं पाए। दूसरी खबर यह कि मुम्बई प्रेस क्लब ‘पब्लिक रिलेशनशिप और मीडिया मैनेजमेंट’ पर एक सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करने जा रहा है। 23 जून से शुरू हो रहे तीन महीने के इस कोर्स के विज्ञापन में प्लेसमेंट का आश्वासन दिया गया है। साथ ही फीस में डिसकाउंट की व्यवस्था है। यह विज्ञापन प्राइम कॉर्प के लोगो के साथ लगाया गया है, जो मीडिया रिलेशंस और कंसलटेंसी की बड़ी कम्पनी है। पहली खबर की जानकारी और दूसरी को लेकर परेशानी शायद बहुत कम लोगों को है।
पत्रकारों के क्लब को पब्लिक रिलेशंस पर कोर्स करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी? सम्भव है क्लब को चलाए रखने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती हो। ऐसा कोर्स चलाने से दो काम हो जाते हैं। पैसा भी मिलता है और कुछ नौजवानों को दिशा-निर्देश भी मिल जाता है। पर पत्रकारिता और पब्लिक रिलेशंस एक चीज़ नहीं है। पब्लिक रिलेशंस और मीडिया मैनेजमेंट का व्यावहारिक मतलब है मीडिया का इस्तेमाल किस तरह किया जाए। इस अर्थ में उसका पत्रकारिता से टकराव है। वह पत्रकारिता का हिस्सा नहीं है। पत्रकारों को ट्रेनिंग देते समय यह बताने की ज़रूरत है कि वे पब्लिक रिलेशंस के महारथियों से किस तरह बचें और अपने काम पर फोकस करें। पिछले साल हम लॉबीइंग के खेल में फँसे रहे। हमने सारी तोहमत नीरा राडिया पर लगाई, पर वह तो अपना काम कर रही थीं। पत्रकारों को यह समझने की ज़रूरत थी कि उनका उद्देश्य क्या है। लगता है बहुत से पत्रकारों की समझ भी अपने कर्म को लेकर साफ नहीं है। मीडिया माने कुछ भी प्रकाशित और प्रसारित करना नहीं है। बिजनेस की बात करें तो वही माल बेचना चाहिए जिसकी डिमांड हो। और चूंकि डिमांड क्रिएट करना भी अब हमारे हाथ में है, इसलिए सारी बातें गड्ड-मड्ड हो गईं हैं।
जब हम अपने कंटेंट पर नज़र डालते हैं तो बात साफ होती है। पत्रकारिता पब्लिक रिलेशंस है, मनोरंजन है प्रचार भी। तीनों में पैसा है। सबसे ज्यादा पैसा तो विज्ञापन की कॉपी लिखने में है। वास्तव में यह पाठक को तय करना है कि उसे बेहतरीन कॉपी लिखने वाले विज्ञापन लेखक चाहिए या जीवन और समाज की विसंगतियों को उजागर करने वाले पत्रकार। पर पत्रकारिता का काम जन सम्पर्क नहीं है। ज़रूरत पड़े तो उसे जन भावनाओं के खिलाफ भी लिखना चाहिए। सच यह है कि समाज को प्रभावित करने वाले पत्रकार इस समय नज़र नहीं आते। राजनेताओं या कॉरपोरेट वर्ल्ड को पसंद आने वाले कुछ लोग हमारे बीच ज़रूर हैं, पर उनके प्रसिद्ध होने के कारण कुछ और हैं। पर जिसे नोबल प्रफेशन या श्रेष्ठ कर्म कहते थे वह पत्रकारिता अपने आप को जन सम्पर्क कहलाना पसंद करती है। दूसरी ओर हमें गर्व है कि तरुण सहरावत जैसे साहसी तरुण हमारे पास हैं जो इस कर्म को श्रेष्ठ कर्म साबित करने के लिए जान की बाजी लगा सकते हैं।
एक-डेढ़ साल पहले आईबीएन सीएनएन ने राडिया लीक्स और विकी लीक्स के बाद अपने दर्शकों से सवाल किया कि क्या पुराने स्टाइल के जर्नलिज्म को नए स्टाइल के मीडिया ने हरा दिया हैं? यह सवाल अपने पैनल से था और दर्शकों दर्शकों से भी। पर सोचने की बात तो पत्रकारों के लिए थी और उनके लिए भी जो इसका कारोबार करते हैं। क्या होता है पुराने स्टाइल का जर्नलिज्म? और क्या होती है नए स्टाइल की पत्रकारिता? सागरिका घोष का आशय नए मीडिया से था। सोशल मीडिया फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर वगैरह। पर ये तो मीडियम हैं, पत्रकारिता तो कंटेंट की होती है।
लगता है कि पुरानी पत्रकारिता को सबसे नए मीडिया यानी नेट ने सहारा दिया और परम्परागत प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बिसरा दिया। क्या वजह है इसकी? एक बड़ी वजह कारोबार है। नेट पर जो कुछ लिखा जा रहा है उसके पीछे ध्येय कमाई करने का नहीं है। बेशक छोटा-मोटा प्रभाव और मामूली बिजनेस भी इसमें है, पर बड़े क़रपोरेट हित इससे नहीं जुड़े हैं। इसका मतलब यह कि सूचना की आज़ादी को बनाए रखने के लिए उसे कारोबारी हितों से बचाने की ज़रूरत होगी। और वह कारोबार है भी तो वह प्रत्यक्ष रूप से पत्रकारीय साख का कारोबार है, साख गिराने का कारोबार नहीं। यह भी सच है कि नए मीडिया की पत्रकारिता में जिम्मेदारी का भाव कम है, व्यक्तिगत आक्षेप लगाने की कामनाएं हैं, क्योंकि कानूनी पकड़ कम है।
नया मीडिया और उसकी तकनीक समझ में आती है, पर नई स्टाइल क्या? नई स्टाइल में दो बातें एकसाथ हो रहीं हैं। एक ओर पता लग रहा है कि पत्रकार और स्वार्थी तत्वों की दोस्ती है। दूसरी ओर ह्विसिल ब्लोवर हैं, नेट पर गम्भीर सवाल उठाने वाले हैं। दोनों में ओल्ड स्टाइल और न्यू स्टाइल क्या है? दोनों बातें अतीत में हो चुकी हैं। हमने बोफोर्स का मामला देखा। हर्षद मेहता और केतन मेहता के मामले देखे। कमला का मामला देखा, भागलपुर आँखफोड़ मामला देखा। यह भारत में हिकीज़ जर्नल से लेकर अब तक पत्रकारिता की भूमिका यही थी। नयापन यह आया कि मुख्यधारा का मीडिया यह सब भूल गया। कम से कम नए मीडिया ने यह बात उठाई। ओल्ड स्टाइल जर्नलिज्म को न्यू मीडिया ने सहारा दिया है।
यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी? काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।
पत्रकारिता नोबल प्रफेशन है। नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था, इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।
सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। यह बात कारोबार की रक्षा के लिए ज़रूरी है। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।
इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।
चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है।
फिलहाल कंटेंट माने खबर या पत्रकारीय सामग्री नहीं है। उसकी जगह विज्ञापन ने ले ली है। खबरें फिलर बन गई हैं। यानी महत्वपूर्ण हैं ब्रेक। ब्रेक और ब्रेक के बीच क्या दिखाया जाय ताकि दर्शक अगले ब्रेक तक रुका रहे। स्वाभाविक है कि इसकी जिम्मेदारी जिन लोगों पर है उनके जेहन में बाजीगरी आती है। अखबारों में महत्वपूर्ण चीज़ होती है डमी। डमी यानी वह नक्शा जो बताता है कि विज्ञापन लगने के बाद एडिटोरियल कंटेट कहाँ लगेगा। यहाँ भी खबरें फिलर बन गईं। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो मीडिया पर विश्वास नहीं करते।
हमने बात की शुरूआत तरुण सहरावत से की थी। व्यक्तिगत रूप से तरुण के साहस की तारीफ की जा सकती है, पर यह काम जोखिम का है। दुनिया के तमाम पत्रकार जोखिम उठाकर काम करते हैं, पर उनके पीछे संस्थाएं होती हैं। जोखिम के असाइनमेंट पूरे करने की ट्रेनिंग और जंगलों में ताम करने के किट होते हैं। सारी बातें केवल भावनाओं और आवेशों से पूरी नहीं होतीं। पत्रकारिता से जुड़ी व्यावसायिक संस्थाओं को इसके लिए साधन मुहैया कराने होते हैं। हमारी पत्रकारिता के प्रफेशनल लेवल को ऊपर लाने की ज़रूरत है। चैनल की एंकर का जबर्दस्त मेकप, वॉर्डरोब या शानदार सैट और वर्च्युअल बैकड्रॉप प्रफेशनलिज्म नहीं होता। अखबारों का रूपांकन, रंगीन छपाई और चमकदार कागज भी नहीं। ये बातें पब्लिक रिलेशंस में काम आती होंगी। अच्छी पत्रकारिता में तमाम काम सादगी से हो सकते हैं। उनमें व्यावसायिक सफलता भी सम्भव है।
(शीर्ष पत्रकार वर्तिका नंदा के ब्लॉग vartikananda.blogspot.in से साभार)

युद्ध में मारे गये लोगों का स्मृति दिवस / येहुदा अमिखाई

(अनुवाद : उदय प्रकाश)

युद्ध में मारे गये लोगों का स्मृति दिवस। इसमें आप भी जोड़ दीजिये
अपने नुकसानों का लेखा-जोखा उनके दुखों के साथ,
आपको छोड़ कर चली गई उस औरत से उपजे दुख को भी इसमें शामिल कर दें,
मिलाएं शोक को शोक के साथ, ग़मों को ग़म के साथ, वक़्त के मामले में बेहद किफ़ायती इतिहास की तरह,
इतिहास, जो तीज-त्यौहारो, छुटि्टयों, बलिदानों और गमज़दा तारीखों को
हमारी याददाश्त की आसान सुविधा की खातिर, एक ही किसी दिन में मिला डालता है।

ओह ! यह महान मधुर दिवस, पोपले मुंह वाले बूढ़े डरावने ईश्वर के लिए,
चीनी और दूध की चाशनी में भीगी नर्म-गीली रोटी की तरह।
``इस सबके परदे के पीछे छुपी हुई है कोई महान् खुशी !´´
भीतर-भीतर रोने और बाहर चीखने का कोई मतलब नहीं है।
``इस सबके परदे के पीछे शायद कोई महान् खुशी छुपी हुई है।´´

युद्ध में मरे लोगों का स्मृति दिवस। कसैले तेज़ नमक को किसी
प्यारी-सी नन्हीं बच्ची की तरह फूलों से सजा दिया गया है। सड़कों को
खाली करा के रस्सियों से घेर दिया गया है, जिससे जीवित और मरे हुए लोग
साथ-साथ जुलूस में चल सकें बिना धक्का-मुक्की के।
बच्चे भी धीमे-धीमे चलें उस दुख के साथ, जो उनका अपना नहीं है, एक-एक कदम
रखते हुए, जैसे टूटे-बिखरे कांच की किरचों पर रखे जाते हैं संभाल कर पांव ।

उस बांसुरी-वादक का फूंक मारता मुंह कई दिनों तक ऐसे ही रहा आएगा।
एक मरा हुआ सैनिक तमाम छोटे-छोटे सिरों के ऊपर तैरता है,
किसी मृतक के तैरने की हरकत के साथ,
मुर्दों की उस बहुत प्राचीन गलती के साथ, जिसे वे किसी ज़िंदा पानी की जगह पर
लगातार करते रहते हैं।

एक झंडा असली यथार्थ से सारे रिश्ते खो डालता है और फहराता रहता है।
एक दूकान का शो-विंडो खूबसूरत औरतों के कपड़ों से सजा हुआ है,
नीले और सफेद रंगों में।
और सब कुछ तीन भाषाओं में
हिब्रू, अरबी और मौत।

एक महान् और शाही जानवर मर रहा है
सारी-सारी रात चमेली की लताओं के नीचे
दुनिया को लगातार घूरता हुआ।

एक आदमी जिसका बेटा युद्ध में मारा गया है चल रहा है सड़क पर
जैसे कोई औरत जिसकी कोख में मरा हुआ भ्रूण हो।
``इस सबके परदे के पीछे कोई महान् खुशी छुपी हुई है।´´

फोर्ब्स मैगजीन और अरबपति लेखक/अंशुमाली रस्तोगी

कुछ लेखक केवल व्यस्त रहते हैं और कुछ अति-व्यस्त। मैं, दरअसल, उन्हीं 'अति-व्यस्त' लेखकों में से एक हूं। न.. न.. मेरी अति-व्यस्तता को मेरा 'ढीगें हंकना' न समझें। यह उत्ता ही सत्य है, जित्ता शराब पीने के बाद शराबी का बहक जाना।
लेखकीय अति-व्यस्तता के चलते मैं बहुत से काम खुद नहीं निपटा पाता, उसे मेरा पीए देखता है। अक्सर पीए भी, मेरे छूटे कामों की वजह से, अति-व्यस्त सा रहता है। मेरी अति-व्यस्तता ही एक मात्र वजह रही, जो मेरा नाम फोर्ब्स मैगजीन के सौ अरबपतियों की सूची में शामिल न हो सका। वरना इरादा तो पक्का था।
जानता हूं, आपका माथा जरूर ठनका होगा, हिंदी के लेखक को भला अरबपतियों की सूची में क्यों होना चाहिए? फोर्ब्स का लेखक (वो भी हिंदी के) से क्या मतलब? क्यों भई.. क्यों नहीं होना चाहिए लेखक को अरबपतियों की सूची या फोर्ब्स मैगजीन में शामिल?
देखिए, वो अगर अरबपति उद्योगपति हैं तो मैं भी किसी 'अरबपति लेखक' से कम नहीं! क्यों.. आंखें फटी रह गईं न आपकी। तुरंत दिमाग में यह सवाल भड़का होगा- भला लेखक (वो भी हिंदी का) कैसे अरबपति हो सकता है? तो क्या अरबपति होना का एक मात्र अधिकार उद्योगपतियों को ही है? लेखक भी तो अरबपति हो सकता है, जैसाकि मैं हूं!
मुझे अरबपति मेरी लखकीय व्यस्तता ने बनाया है। दिन में चौबीस में से साढ़े बाइस घंटे तो मैं लिखता रहता हूं। इत्ती जगह लिखता हूं कि पैसा खुद-ब-खुद मेरे कने चलकर आता है। मैं कोई एंवई सस्ता-मद्दा लेखक नहीं हूं। एक लेख के मैं इत्ते रुपए चार्ज करता हूं, जित्ते में चेतन भगत अपनी किताब छपवा पाता होगा। चेतन भगत या अरविंद अडिगा अगर अंगरेजी में बेस्ट-सेलर लेखक हैं तो मैं हिंदी में हूं। हिंदी का कोई भी अखबार उठाकर देख लीजिए जहां मैं न छपता हूं। देश को छोड़िए, मेरे मोहल्ले का बच्चा-बच्चा तक मेरे नाम से परिचित है, ठीक अमिताभ बच्चन की तरह।
मैंने हिंदी का लेखक होकर यह सोचा तो कि मेरा नाम भी फोर्ब्स मैगजीन में होना चाहिए था। वरना तो हिंदी का लेखक दो-चार पत्रिकाओं में छपकर ही गद-गद होता रहता है। लेखन से जब तलक पैसा न कमाया या अंतरराष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में नाम न आया, तो भला लेखन किस काम का? हाल यह है कि हिंदी में अरबपति लेखक तो छोड़ दीजिए, लखपति लेखक तक नजर नहीं आता। मेरे विचार में, हिंदी के लेखक को अपने 'आदर्शवाद' से बाहर निकलकर बाजार और फोर्ब्स जैसी महान मैगजीन से जुड़ना चाहिए।
हिंदी लेखन में स्थिति बड़ी विकट है। यहां अगर लेखक अपने दम पर चार पैसे ज्यादा कमा लेता है, तो पड़ोस के लेखक के पेट में 'कब्ज' बनना शुरू हो जाता है। इस बात की, जासूसों द्वारा, पड़ताल करवाई जाती है कि फलां हिंदी का लेखक किताब या लेखन से ही कमा रहा है या नंबर दो के धंधे से। हिंदी के लेखक की किताब की जहां चार-पांच सौ प्रतियां बिकी नहीं कि उसके लेखन के खिलाफ किस्म-किस्म के फतवे जारी होना शुरू हो जाते हैं। बेचारा लेखक खुद की कमाई को 'जस्टीफाई' करते-करते एक दिन 'डिप्रेशन' में चला जाता है।
लेकिन प्यारे मैं इन सब काना-फूसियों या जलनखोरों पर ध्यान नहीं देता। मेरे कने इत्ता समय ही नहीं है। मैं तो ठाठ से लिखता हूं और सीना ठोंककर पैसा मांगता हूं। आखिर दिमाग खपा रहा हूं, तो पैसा क्यों नहीं मागूंगा? जो ऐसा करने में विश्वास नहीं रखते या फिर अति-आदर्शवादी हैं, उनकी वे जानें।
चलिए, इस दफा नहीं अगली दफा ही सही पर फोर्ब्स मैगजीन की अरबपतियों की सूची में मैं आऊंगा जरूर। आखिर अरबपति लेखक हूं, क्यों शर्माऊं, यह स्वीकारने में।
(चिकोटी ब्लॉग से साभार)

'स्वच्छ भारत अभियान' का मैला सच

भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष के झाड़ू लगाने से पहले कार्यक्रम स्थल पर 'जान बूझकर कचरा फैलाए जाने' के आरोप सरेआम हैं। कुछ तस्वीरें भी दिखाई गयीं, जिनमें दिल्ली स्थित इस्लामिक कल्चरल सेंटर के बाहर एक व्यक्ति कचरा डाल रहा था और साथ में दिखाई जा रही दूसरी तस्वीर में उसी कचरे को बाद में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय झाड़ू लगाकर साफ़ कर रहे थे.....