Monday 10 November 2014

मैं इन रस्तों का मतवाला राही हूं/जयप्रकाश त्रिपाठी

खुशियों के ये सारे रस्ते मेरे हैं,
जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं।

मैं समस्त सुबहों-शामों में शामिल हूं, मैं जन-मन के संग्रामों में शामिल हूं
मैं तरु की पत्ती-पत्ती पर चहक रहा, मैं रोटी की लौ में निश-दिन लहक रहा
मैं जन के रंग में, मन की रंगोली में, मैं बच्चे-बच्चे की मीठी बोली में
आंखों के ये तारे रस्ते मेरे हैं, खुशियों के ये सारे रस्ते मेरे हैं,
जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं......

इतने सृजन किये हैं जिनके हाथों ने, इतने सुमन दिये हैं जिनके हाथों ने
इतना ताप पिया है जिनके जीवन ने, अपने आप जिया है जिनके जीवन ने
जिनके आजू-बाजू पर्वत चलते हैं, जिनकी चालों पर भूचाल मचलते हैं
इनके प्यारे-प्यारे रस्ते मेरे हैं, खुशियों के ये सारे रस्ते मेरे हैं,
जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं.......

मैं इन रस्तों का मतवाला राही हूं, इन रस्तों का हिम्मत वाला राही हूं
युगों-युगों से थिरक रहा हूं यहां-वहां, इन रस्तों के राहीजन हैं जहां-जहां,
मैं हूं इनके शब्द-शब्द में महक रहा, मैं इनकी मशाल में कब से धधक रहा
ये सारे उजियारे रस्ते मेरे हैं, खुशियों के ये सारे रस्ते मेरे हैं,
जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं.........

कविवर तोंदूराम / हरिकृष्ण देवसरे

कविवर तोंदूराम बुझक्कड़ कभी-कभी आ जाते हैं।
खड़ी निरंतर रहती चोटी,
आँखें धँसी मिचमिची छोटी,
नाक चायदानी की टोटी,
अंग-अंग की छटा निराली, भारी तोंद हिलाते हैं।
कविवर तोंदूराम बुझक्कड़ कभी-कभी आ जाते हैं।
कंधे पर लाठी बेचारी,
लटका उसमें पोथा भारी,
लिए हाथ में सुँघनी प्यारी,
सूँघ-सूँघकर 'आ छीं-आ छीं' का आनंद उठाते हैं।
कविवर तोंदूराम बुझक्कड़ कभी-कभी आ जाते हैं।
ये हैं नियमी धर्म-धुरंधर,
गायक गुपचुप भाँड उजागर,
परम स्वतंत्र न नौकर चाकर,
झूम-झूम कर मटक-मटककर हलुआ पूरी खाते हैं।
कविवर तोंदूराम बुझक्कड़ कभी-कभी आ जाते हैं।
कविता का बँध जाता ताँता,
चप्पल का विवाह ठन जाता,
जूता दूल्हा बनकर आता,
बिल्ली रानी पिस्सू राजा की भी जोड़ मिलाते हैं।
कविवर तोंदूराम बुझक्कड़ कभी-कभी आ जाते हैं।

एक पाठक / मक्सिम गोर्की

रात काफी हो गयी थी जब मैं उस घर से विदा हुआ जहाँ मित्रों की एक गोष्ठी में अपनी प्रकाशित कहानियों में से एक का मैंने अभी पाठ किया था । उन्होंने तारीफ के पुल बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और मैं धीरे-धीरे मगन भाव से सड़क पर चल रहा था, मेरा हृदय आनंद से छलक रहा था और जीवन के एक ऐसा सुख का अनुभव मैं कर रहा था जैसा पहले कभी नहीं किया था ।
फरवरी का महीना था, रात साफ थी और खूब तारों से जड़ा मेघरहित आकाश धरती पर स्फूर्तिदायक शीतलता का संचार कर रहा था, जो नई गिरी बर्फ से सोलहों सिंगार किये हुए थी ।
'इस धरती पर लोगों की नजरों में कुछ होना अच्छा लगता है!' मैंने सोचा और मेरे भविष्य के चित्र में उजले रंग भरने में मेरी कल्पना ने कोई कोताही नहीं की ।
"हां, तुमने एक बहुत ही प्यारी-सी चीज लिखी है, इसमें कोई शक नहीं," मेरे पीछे सहसा कोई गुनगुना उठा,
मैं अचरज से चौंका और घूमकर देखने लगा,
काले कपड़े पहने एक छोटे कद का आदमी आगे बढ़कर निकट आ गया और पैनी लघु मुस्कान के साथ मेरे चेहरे पर उसने अपनी आंखें जमा दीं, उसकी हर चीज पैनी मालूम होती थी-उसकी नजर, उसके गालों की हड्डियां, उसकी दाढ़ी जो बकरे की दाढ़ी की तरह नोकदार थी, उसका समुचा छोटा और मूरझाया-सा ढांचा, जो कुछ इतना विचित्र नोक-नुकीलापन लिये था कि आंखों में चुभता था, उसकी चाल हल्की और निःशब्द थी, ऐसा मालूम होता था जैसे वह बर्फ पर फिसल रहा हो, गोष्ठी में जो लोग मौजूद थे, उनमें वह मुझे नजर नहीं आया था ओर इसीलिए उसकी टिप्पणी ने मुझे चकित कर दिया था, वह कौन था ? और कहां से आया था ?
"क्या आपने...मतलव ...मेरी कहानी सुनी थी ? मैंने पूछा
"हां, मुझे उसे सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।"
उसकी आवाज तेज थी, उसके पतले होंठ और छोटी काली मुछें थी जो उसकी मुस्कान को नहीं छिपा पाती थीं। मुस्कान उसके होंठो से विदा होने का नाम ही नहीं लेती थी और यह मुझे बड़ा अटपटा मालूम हो रहा था ।
"अपने आपको अन्य सबसे अनोखा अनुभव करना बड़ा सुखद मालूम होता है, क्यों, ठीक है न ?" मेरे साथी ने पूछा,
मुझे इस प्रश्न में ऐसी कोई बात नहीं लगी जो असाधारण हो ,सो मुझे सहमति प्रकट करने में देर नहीं लगी ।
"हो-हो-हो!" पतली उगलियों से अपने छोटे हाथों को मलते हुए वह तीखी हंसी हंसा, उसकी हंसी मुझे अपमानित करने वाली थी ।
"तुम बड़े हंसमुख जीव मालूम होते हो," मैंने रूखी आवाज में कहा, "अरे हाँ, बहुत !" मुस्काराते और सिर हिलाते हुए उसने ताईद की, "साथ ही मैं बाल की खाल निकालने वाला भी हूं क्योंकि मैं हमेशा चीजों को जानना चाहता हूं-हर चीज को जानना चाहता हूं।"
वह फिर अपनी तीखी हंसी हँसा और वेध देने वाली अपनी काली आंखों से मेरी ओर देखता रहा, मैंने अपने कद की ऊंचाई से एक नज़र उस पर डाली और ठंडी आवाज में पूछा, "माफ करना लेकिन क्या मैं जान सकता हूँ कि मुझे किससे बातें करने का सौभाग्य ...."
"मैं कौन हूँ ? क्या तुम अनुमान नहीं लगा सकते ? जो हो, मैं फिलहाल तुम्हें आदमी का नाम उस बात से ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम होता है जो कि वह कहने जा रहा है ?"
"निश्चय ही नहीं, लेकिन यह कुछ ... बहूत ही अजीब है," मैंने जवाब दिया ।
उसने मेरी आस्तीन पकड़ कर उसे एक हल्का-सा झटका दिया और शांत हँसी के साथ कहा, "होने दो अजीब, आदमी कभी तो जीवन की साधारण और घिसी-पिटी सीमाओं को लाँघना चाहता ही है, अगर एतराज न हो तो आओ, जरा खुलकर बातें करें, समझ लो कि मैं तुम्हारा एक पाठक हूँ-एक विचित्र प्रकार का पाठक, जो यह जानना चाहता है कि कोई पुस्तक-मिसाल के लिए तुम्हारी अपनी लिखी हुई पुस्तकें-कैसे और किस उद्देश्य के लिए लिखी गयी है, बोलो, इस तरह की बातचीत पसंद करोगे ?"
"ओह, जरूर !" मैंने कहा, "मुझे खुशी होगी, ऐसे आदमी से बात करने का अवसर रोज-रोज नहीं मिलता," लेकिन मैंने यह झूठ कहा था, क्योंकि मुझे यह सब बेहद नागवार मालूम हो रहा था, फिर भी मैं उसके साथ चलता रहा-धीमे कदमों से, शिष्टाचार की ऐसी मुद्रा बनाये, मानो मैं उसकी बात ध्यान से सून रहा हूँ ।
मेरा साथी क्षण भर के लिए चुप हो गया और फिर बड़े विश्वासपूर्ण स्वर में उसने कहा, "मानवीय व्यवहार में निहित उद्देश्यों और इरादों से ज्यादा विचित्र और महत्वपूर्ण चीज इस दुनिया में और कोई नहीं है, तुम यह मानते हो न ?" मैने सिर हिलाकर हामी भरी ।

"ठीक, तब आओ, जरा खुलकर बातें करें, सुनो, तुम जब तक जवान हो तब तक खुलकर बात करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए ।"
'अजीब आदमी है!' मैंने सोचा, लेकिन उसके शब्दों ने मुझे उलझा लिया था ।
"सो तो ठीक है," मैंने मुस्कराते हुए कहा, "लेकिन हम बातें किस चीज के बारे में करेंगे ?
पुराने परिचित की भांति उसने घनिष्ठता से मेरी आँखों में देखा और कहा, "साहित्य के उद्देश्यों के बारे में, क्यों, ठीक है न ?"
"हाँ मगर....देर काफी हो गया है...."
"ओह, तुम अभी नौजवान हो, तुम्हारे लिए अभी देर नहीं हुई ।"

मैं ठिठक गया, उसके शब्दों ने मुझे स्तब्ध कर दिया था । किसी और ही अर्थ में उसने इन शब्दों का उच्चारण किया था और इतनी गंभीरता से किया था कि वे भविष्य का उदघोष मालूम होते थे । मैं ठिठक गया था, लेकिन उसनें मेरी बांह पकड़ी और चुपचाप किंतु दृढ़ता के साथ आगे बढ़ चला ।
"रुको नहीं, मेरे साथ तुम सही रास्ते पर हो" उसने कहा, "बात शुरू करो, तुम मुझे यह बताओ कि साहित्य का उद्देश्य क्या है ?" मेरा अचरज बढ़ता जा रहा था और आत्मसंतुलन घटना जा रहा था । आखिर यह आदमी मुझसे चाहता क्या है? और यह है कौन ? निस्संदेह वह एक दिलचस्प आदमी था, लेकिन मैं उससे खीज उठा था । उससे पिंड छुडा़ने की एक और कोशिश करते हुए जरा तेजी से आगे की ओर लपका, लेकिन वह भी पीछे न रहा, साथ चलते हुए शांत भाव से बोला, "मैं तुम्हारी दिक्कत समझ सकता हूँ, एकाएक साहित्य के उद्देश्य की व्याख्या करना तुम्हारे लिए कठिन है, कही तो मैं कोशिश करूँ?"
उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा लेकिन मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना कहने लगा, "शायद बात-बात से तुम सहमत होगे अगर मैं कहू कि साहित्य का उद्देश्य है-खुद अपने को जानने में इंसान की मदद करना, उसके आत्मविश्वास को दृढ़ बनाना और उसके सत्यान्वेषण को सहारा देना, लोगों की अच्छाईयों का उद्-घाटन करना और सौंदर्य की पवित्र भावना से उनके जीवन को शुभ बनाना, क्यों, इतना तो मानते हो ?"
"हाँ," मैंने कहा, "कमोबेश यह सही है, यह तो सभी मानते है कि साहित्य का उद्देश्य लोगों को और अच्छा बनाना है।"
"तब देखो न, लेखक के रुप में तुम कितने ऊँचे उद्देश्य के लिए काम करते हो ! "मेरे साथी ने गंभीरता के साथ अपनी बात पर जोर देते हुए कहा और फिर अपनी वही तीखी हँसी हँसने लगा, "हो-हो-हो !"
यह मुझे बड़ा अपमानजनक लगा। मैं दुख और खीज से चीख उठा, "आखिर तुम मुझसे क्या चाहते हो ?"
"आओ, थोड़ी देर बाग में चलकर बैठते हैं।" उसने फिर एक हल्की हँसी हँसते हुए और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचते हुए कहा।
उस समय हम नगर-बाग की एक वीथिका में थे । चारों ओर बबूल और लिलक की नंगी टहनियाँ दिखायी दे रही थीं, जिन पर वर्फ की परत चढ़ी हुई थी । वे चांद की रोशनी में चमचमाती मेरे सिर के ऊपर भी छाई हुई थीं औऱ ऐसा मालूम होता था जैसे वर्फ का कवच पहने ये सख्त टहनियाँ मेरे सीने को बेध कर सीधे मेरे हृदय तक पहुंच गयी हों।
मैंने बिना एक शब्द कहे अपने साथी की ओर देखा, उसके व्यवहार ने मूझे चक्कर में डाल दिया था। 'इसके दिमाग का कोई पूर्जा ढीला मालूम होता है।' मैंने सोचा औऱ इसके व्यवहार की इस व्याख्या से अपने मन को संतोष देने की कोशिश की।
"शायद तुम्हारा खवाल है कि मेरा दिमाग कुछ चल गया है" उसने जैसे मेरे भावों को ताड़ते हुए कहा। "लेकिन ऐसे खयाल को अपने दिमाग से निकाल दो यह तुम्हारे लिए नुकसानदेह और अशोभन है.... बजाय इसके कि हम उस आदमी को समझने की कोशिश करें, जो हमसे भिन्न है। इस बहाने की ओट लेकर हम उसे समझने के झंझट से छुट्टी पा जाना चाहते हैं । मनुष्य के प्रति मनुष्य की दुखद उदासीनता का यह एक बहुत ही पुष्ट प्रमाण है।"
"ओह ठीक है," मैंने कहा । मेरी खीज बराबर बढ़ती ही जा रही थी, "लेकिन माफ करना, मैं अब चलूँगा, काफी समय हो गया।"
"जाओ अपने कंधों को बिचकाते हुए उसने कहा। "जाओ, लेकिन यह जान लो कि तुम खुद अपने से भाग रहे हो।" उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और मैं वहाँ से चल दिया।
वह बाग में ही टीले पर रुक गया। वहा से वोल्गा नज़र आती थी जो अब बर्फ की चादर ताने थी और ऐसा मालूम होता था जैसे बर्फ की उस चादर पर सड़कों के काले फीते टंके हों, सामने दूर तट के निस्तब्ध और उदासी में डूबे विस्तृत मैदान फैले थे। वह वहीं पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गया और सूने मैदानों की ओर ताकता हुआ सीटी की आवाज़ में एक परिचित गीत की धुन गुनगुननाने लगा।
वो क्या दिखायेंगे राह हमको
जिन्हें खुद अपनी ख़बर नहीं
मैंने घुमकर उसकी ओर देखा अपनी कुहनी को घुटने पर और ठोडी की हथेली पर टिकाये, मुँह से सीटी बजाता, वह मेरी ही ओर नज़र जमाये हुए था और चांदनी से चमकते उसने चेहरे पर उसकी नन्हीं काली मूंछें फड़क रही थीं। यह समझकर कि यही विधि का विधान है, मैंने उसके पास लौटने का निश्चय कर लिया। तेज कदमों से मैं वहां पहुँचा और उसके बराबर में वैठ गया।
"देखो, अगर हमें बात करनी है तो सीध-सादे ढंग से करनी चाहिए," मैने आवेशपूर्वक लेकिन स्वयं को संयत रखते हुए कहा।
"लोगों को हमेशा ही सीधे-सादे ढंग से बात करनी चाहिए।" उसने सिर हिलाते हुए स्वीकार किया, "लेकिन यह तुम्हें भी मानना पड़ेगा कि अपने उस ढंग से काम लिये बिना मैं तुम्हारा ध्यान आकर्षित नहीं कर सकता था। आजकल सीधी-सादी और साफ बातों को नीरस और रूखी कहकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन असल बात यह है कि हम खुद ठंडे और कठोर हो गये हैं और इसीलिए हम किसी भी चीज में जोश या कोमलता लाने में असमर्थ रहते हैं । हम तुच्छ कल्पनाओं और दिवास्तप्नों में रमना तथा अपने आपको कुछ विचित्र और अनोखा जताना चाहते हैं, क्योंकि जिस जीवन की हमने रचना की है, वह नीरस, बेरंग और उबाऊ है, जिस जीवन को हम कभी इतनी लगन और आवेश के साथ बदलने चले थे, उसने हमें कुचल और तोड़ डाला है "एक पल चुप रहकर उसने पूछा," क्यों, मैं ठीक कहता हूं न ?"
"हाँ," मैंने कहा, "तुम्हारा कहना ठीक है,"
"तुम बड़ी जल्दी घुटने टेक देते हो!" त़ीखी हँसी हँसते हुए मेरे प्रतिवादी न मेरा मखौल उडाया। मैं पस्त हो गया। उसने अपनी पैनी नज़र मुझ-पर जमा दी और मुस्कराता हुआ बोला, "तुम जो लिखते हो उसे हजारों लोग पढ़ते हैं। तुम किस चीज का प्रचार करते हो ? और क्या तुमने कभी अपने से यह पूछा है कि दूसरों को सीख देने का तुम्हें क्या अधिकार है ?"
जीवन में पहली बार मैंने अपनी आत्मा को टटोला, उसे जांचा-परखा। हाँ, तो मैं किस चीज का प्रचार करता हूँ ? लोगों से कहने के लिए मेरे पास क्या है ? क्या वे ही सब चीजें, जिन्हें हमेशा कहा-सुना जाता है, लेकिन जो आदमी को बदल कर बेहतर नहीं बनातीं ? और उन विचारों तथा नीतिवचनों का प्रचार करने का मुझे क्या हक है, जिनमें न तो मैं यकीन करता हूँ और न जिन्हें मैं लाता हूँ ? जब मैंने खुद उनके खिलाफ आचरण किया, तब क्या यह सिद्ध नहीं होता कि उनकी सच्चाई में मेरा विश्वास नहीं है ? इस आदमी को मैं क्या जवाब दूँ जो मेरी बगल में बैठा है ?
लेकिन उसने, मेरे जवाब की प्रतीक्षा से ऊब कर, फिर बोलना शुरू कर दिया, "एक समय था जब यह धरती लेखन-कला विशारदों, जीवन और मानव-हृदय के अध्येताओं और ऐसे लोगों से आबाद थी जो दुनिया को अच्छा बनाने की सर्वप्रबल आकांक्षा एवं मानव-प्रकृति में गहरे विश्वास से अनुप्राणित थे, उन्होंने ऐसी पुस्तकें लिखीं जो कभी विस्मृति के गर्भ में विलीन नहीं होंगी, कारण, वे अमर सच्चाइयों को अंकित करती हैं और उनके पन्नों से कभी मलिन न होने वाला सौंदर्य प्रस्फुटित होता है । उनमें चित्रित पात्र जीवन के सच्चे पात्र हैं, क्योंकि प्रेरणा ने उनमें जान फूंकी है, उन पुस्तकों में साहस है, दहकता हुआ गुस्सा और उन्मुक्त सच्चा प्रेम है, और उनमें एक भी शब्द भरती का नहीं है ।
"तुमने, मैं जानता हूं, ऐसी ही पुस्तकों से अपनी आत्मा के लिए पोषण ग्रहण किया है, फिर भी तुम्हारी आत्मा उसे पचा नहीं सकी, सत्य और प्रेम के बारे में तुम जो लिखते हो, वह झूठा और अनुभूतिशून्य प्रतीत होता है, लगता है, जैसे शब्द जबरदस्ती मुँह से निकाले जा रहे हों, चंद्रमा की तरह तुम दूसरे की रोशनी से चमकते हो, और यह रोशनी भी बुरी तरह मलिन है-वह परछाइयाँ खूब डालती है, लेकिन आलोक कम देती है और गरमी तो उसमें जरा भी नहीं हैं ।
"असल में तुम खुद गरीब हो, इतने कि दूसरों को ऐसी कोई चीज नहीं दे सकते जो वस्तुतः मूल्यवान हो, और जब देते भी हो तो सर्वोच्च संतोष की इस सजग अनुभूति के साथ नहीं कि तुमने सुंदर विचारों और शब्दों की निधि में वृद्धि करके जीवन को संपन्न बनाया है, तुम केवल इसलिए देते हो कि जीवन से और लोगों से अधिकाधिक ले सको, तुम इतने दरिद्र हो कि उपहार नही दे सकते, या तुम सूदखोर हो और अनुभव के टुकड़ों का लेनदेन करते हो, ताकि तुम ख्याति के रूप में सूद बटोर सको ।
"तुम्हारी लेखनी चीजों की सतह को ही खरोंचती है । जीवन की तुच्छ परिस्थितियों को ही तुम निरर्थक ढंग से कोंचते-कुरेदते रहते हो । तुम साधारण लोगों के साधारण भावों का वर्णन करते रहते हो, हो सकता है, इससे तुम उन्हें अनेक साधारण-महत्वहीन-सच्चाइयां सिखाते हो, लेकिन क्या तुम कोई ऐसी रचना भी कर सकते हो जो मनुष्य की आत्मा को ऊँचा उठाने की क्षमता रखती हो ? नहीं ! तो क्या तुम सचमुच इसे इतना मह्तवपूर्ण समझते हो कि हर जगह पड़े हुए कूड़े के ढेरों को कुरेदा जाये और यह सिद्ध किया जाये कि मनुष्य बुरा है, मूर्ख है, आत्मसम्मान की भावना से बेखबर है, परिस्थितियों का गुलाम है, पूर्णतया और हमेशा के लिए कमजोर, दयनीय और अकेला हैं ?
"अगर तुम पूछो तो मनुष्य के बारे में ऐसा घृणित प्रचार मानवता के शत्रु करते हैं-और दुख की बात यह है कि वे मनुष्य के हृदय में यह विश्वास जमाने में सफल भी हो चुके हैं, तुम ही देखो, मानव-मस्तिष्क आज कितना ठस हो गया है और उसकी आत्मा के तार कितने बेआवाज़ हो गये हैं, यह कोई अचरज की बात नहीं है, वह अपने आपको उसी रूप में देखता है जैसा कि वह पुस्तकों में दिखाया जाता है......
"और पुस्तकें-खास तौर से प्रतिभा का भ्रम पैदा करने वाली वाक्-चपलता से लिखी गयी पुस्तकें-पाठकों को हतबुद्धि करके एक हद तक उन्हें अपने वश में कर लेती हैं, अगर उनमें मनुष्य को कमजोर, दयनीय, अकेला दिखाया गया है तो पाठक उनमें अपने को देखते समय अपना भोंडापन तो देखता है, लेकिन उसे यह नज़र नहीं आता कि उसके सुधार की भी कोई संभावना हो सकती है । क्या तुममें इस संभावना को उभारकर रखने की क्षमता है ? लेकिन यह तुम कैसे कर सकते हो, जबकि तुम खुद ही.... जाने दो, मैं तुम्हारी भावनाओं को चोट नहीं पहुँचाऊंगा, क्योंकि मेरी बात काटने या अपने को यही ठहराने की कोशिश किये बिना तुम मेरी बात सून रहे हो ।

"तुम अपने आपको मसीहा के रूप में देखते हो, समझते हो कि बुराइयों को खोल कर रखने के लिए खुद ईश्वर ने तुम्हें इस दुनिया में भेजा है, ताकि अच्छाइयों की विजय हो, लेकिन बुराइयों को अच्छाइयों से छांटते समय क्या तुमने यह नहीं देखा कि ये दोनों एक-दूसरो से गुंथी हुई हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता? मुझे तो इसमें भी भारी संदेह है कि खुदा ने तुम्हें अपना मसीहा बना कर भेजा है । अगर वह भेजता तो तुमसे ज्यादा मजबूत इंसानों को इस काम के लिए चुनता, उनके हृदयों में जीवन, सत्य और लोगों के प्रति गहरे प्रेम की जोत जगाता ताकि वे अंधकार में उसके गौरव और शक्ति का उद्घोष करने वाली मशालों की भांति आलोक फैलायें, तुम लोग तो शैतान की मोहर दागने वाली छड़ की तरह धुआं देते हो, और यह धुआँ लोगों को आत्मविश्वासहीनता के भावों से भर देता है । इसलिय तुमने और तुम्हारी जाति के अन्य लोगों ने जो कुछ भी लिखा है, उस सबका एक सचेत पाठक, मैं तुमसे पूछता हूँ-तुम क्यों लिखते हो? तुम्हारी कृतियाँ कुछ नहीं सिखातीं और पाठक सिवा तुम्हारे किसी चीज पर लज्जा अनुभव नहीं करता, उनकी हर चीज आम-साधारण है, आम-साधारण लोग, आम साधारण विचार, आम-साधारण घटनाएं ! आत्मा के विद्रोह और आत्मा के पुनर्जांगरण के बारे में तुम लोग कब बोलना शुरू करोगे ? तुम्हारे लेखन में रचनात्मक जीवन की वह ललकार कहाँ है, वीरत्व के दृष्टांत और प्रोत्साहन के वे शब्द कहाँ हैं, जिन्हें सुनकर आत्मा आकाश की ऊंचाइयों को छूती है ?
"शायद तुम कहो- 'जो कुछ हम पेश करते हैं, उसके सिवा जीवन में अन्य नमूने मिलते कहाँ है ?'
न, ऐसी बात मुँह से न निकालना, यह लज्जा और अपमान की बात है कि वह, जिसे भगवान ने लिखने की शक्ति प्रदान की है । जीवन के सम्मुख अपनी पंगुता और उससे ऊपर उठने में अपनी असमर्थता को स्वीकार करे, अगर तुम्हारा स्तर भी वही है, जो आम जीवन का, अगर तुम्हारी कल्पना ऐसे नमूनों की रचना नहीं कर सकती जो जीवन में मौजूद न रहते हुए भी उसे सुधारने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, तब तुम्हारा कृतित्व किस मर्ज की दवा है ? तब तुम्हारे धंधे की क्या सार्थकता रह जाती है?
"लोगों के दिमागों को उनके घटनाविहीन जीवन के फोटोग्राफिक चित्रों का गोदाम बनाते समय अपने हृदय पर हाथ रखकर पूछो कि ऐसा करके क्या तुम नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो ? कारण-और तुम्हें अब यह तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए-कि तुम जीवन का ऐसा चित्र पेश करने का ढंग, नहीं जानते जो लज्जा की एक प्रतिशोधपूर्ण चेतना को जन्म दे, जीवन के नए जीवन के स्पंदन को तीव्र और उसमें स्फूर्ति का संचार करना चाहते हो, जैसा कि अन्य लोग कर चुके हैं?"
मेरा विचित्र साथी रुक गया और मैं, बिना कुछ बोले, उसके शब्दों पर सोचता रहा, थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, "एक बात और, क्या तुम ऐसी आह्लादपूर्ण हास्य-रचना कर सकते हो,जो आत्मा का सारा मैल धो डाले ? देखो न, लोग एकदम भूल गये हैं कि ठीक ढंग से कैसे हँसा जाता है ! वे कुत्सा से हँसते हैं, वे कमीनपन से हँसते हैं, वे अक्सर अपने आँसुओं की बेधकर हँसते हैं, वे हृदय के उस समूच उल्लास से कभी नहीं हँसते जिससे वयस्कों के पेट में बल पड़ जाते हैं, पसलियां बोलने लगती हैं, अच्छी हंसी एक स्वास्थ्यप्रद चीज है । यह अत्यंत आवश्यक है कि लोग हमें, आखिर हँसने की क्षमता उन गिनी-चुनी चीजों में से एक है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती हैं, क्या तुम निदा की हँसी के अवाला अन्य किसी प्रकार की हँसी को भी जन्म दे सकते हो ? निंदा की हंसीँ तो बाजारू हँसी है, जो मानव जीवधारियों को केवल हँसी का पात्र बनाती है कि उसकी स्थिति दयनीय है ।
"तुम्हें अपने हृदय में मनुष्य की कमजोरियों के लिए महान घृणा का और मनुष्य के लिए महान प्रेम का पोषण करना चाहिए, तभी तुम लोगों को सीख देने के अधिकारी बन सकोगे, अगर तुम घृणा और प्रेम, दोनों में से किसी का अनुभव नहीं कर सकते, तो सिर नीचा रखो और कुछ कहने से पहले सौ बार सोचो"
सुबह की सफेदी अब फूट चली थी, लेकिन मेरे हृदय में अंधेरे गहरा रहा था, यह आदमी, जो मेरे अंतर के सभी भेदों से वाकिफ था, अब भी बोल रहा था ।
"सब कुछ के बावजूद जीवन पहले से अधिक प्रशस्त और अधिक गहरा होता जा रहा है, लेकिन यह बहुत धीमी गति से हो रहा है, क्योंकि तुम्हारे पास इस गति को तेज़ बनाने के लायक न तो शक्ति है, न ज्ञान, जीवन आगे बढ़ रहा है और लोग दिन पर दिन अधिक और अधिक जानना चाहते हैं । उनके सवालों के जवाब कौन दें ? यह तुम्हारा काम है लेकिन क्या तुम जीवन में इतने गहरे पैठे हो कि उसे दूसरों के सामने खोल कर रख सको ? क्या तुम जानते हो कि समय की मांग क्या है ? क्या तुम्हें भविष्य की जानकारी है और क्या तुम अपने शब्दों से उस आदमी में नई जान फूंक सकते हो जिसे जीवन की नीचता ने भ्रष्ट और निराश कर दिया है ?"
यह कहकर वह चुप हो गया । मैंने उसकी ओर नहीं देखा. याद नहीं कौन-सा भाव मेरे हृदय में छाया हुआ था-शर्म का अथवा डर का । मैं कुछ बोल भी नहीं सका ।
"तुम कुछ जवाब नहीं देते?" उसी ने फिर कहा, "खैर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं तुम्हारे मन की हालत समझ सकता हूँ अच्छा, तो अब मैं चला."
"इतनी जल्दी ?" मैने धीमी आवाज़ में कहा. कारण, मैंउ ससे चाहे जितना भयभीत रहा होऊँ, लेकिन उससे भी अधिक मैं अपने आपसे डर रहा था.
"हाँ, मैं जा रहा हूँ. लेकिन मैं फिर आऊँगा. मेरी प्रतीक्षा करना ।"
और वह चला गया । लेकिन क्या वह सचमुच चला गया ? मैंने उसे जाते हुए नहीं देखा । वह इतनी तेजी से और खामोशी से गायब हो गया जैसे छाया। मैं वहीं बाग में बैठा रहा- जाने कितनी देर तक-और न मुझे ठंड का पता था, न इस बात का कि सूरज उग आया है और पेड़ों की बर्फ से ढंकी टहनियों पर चमक रहा है.
(अनुवाद - अनिल जनविजय)

अपनी चार पंक्तियां


जब थके आदमी को ढोता हूं
सोचता हूं, उदास होता हूं
वक्त थोड़ा सा गुदगुदाता है
खूब हंसता हूं, खूब रोता हूं

पटकथा / धूमिल

जब मैं बाहर आया
मेरे हाथों में
एक कविता थी
और दिमाग में
आँतों का एक्स-रे।
वह काला धब्बा
कल तक एक शब्द था;
खून के अँधेर में
दवा का ट्रेडमार्क
बन गया था।
औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद
अपनी ऊब का
दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।
मैंने सोचा !

क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।
मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।
बाहर हवा थी
धूप थी
घास थी
मैंने कहा आजादी…
मुझे अच्छी तरह याद है-
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
खुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-जा-दी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
गया। वहाँ कतार के कतार
अनाज के अँकुए फूट रहे थे
मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये
बच्चे। तारों पर
चिडि़याँ चहचहा रही थीं
मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…
खेत की मेड़ पार करते हुये
मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
सड़क पर जाते हुये आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा- बधाई…

घर लौटकर
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उतारकर
उन्हें साफ किया
और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
पोंछकर टाँग दिया।
मैंने दरवाजे के बाहर
एक पौधा लगाया और कहा–
वन महोत्सव…
और देर तक
हवा में गरदन उचका-उचकाकर
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
देर तक महसूस करता रहा–
कि मेरे भीतर
वक्त का सामना करने के लिये
औसतन ,जवान खून है
मगर ,मुझे शान्ति चाहिये
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’
और चहकते हुये कहा
यही मेरी आस्था है
यही मेरा कानून है।

इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था
उसका इंतज़ार किया।
मैंने इंतज़ार किया–
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा

अब यह ज़मीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था…
सूर्य,हमारा सपना है
मैं इन्तजा़र करता रहा..
इन्तजा़र करता रहा…
इन्तजा़र करता रहा…
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशफ़हम इरादे थे

सुन्दर थे
मौलिक थे
मुखर थे
मैं सुनता रहा…
सुनता रहा…
सुनता रहा…
मतदान होते रहे
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा। मैं खुद को
समझाता रहा-’जो मैं चाहता हूँ-
वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल
मगर सब कुछ सही होगा।

मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था

यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब की भीड़ बढ़ती रही।
चौराहे चौड़े होते रहे।
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
खाकर-निरापद भाव से
बच्चे जनते रहे।
योजनायेँ चलती रहीं
बन्दूकों के कारखानों में
जूते बनते रहे।
और जब कभी मौसम
उतार पर होता था।
हमारा संशय
हमें कोंचता था।
हम उत्तेजित होकर
पूछते थे
यह क्या है?
ऐसा क्यों है?
फिर बहसें होतीं थीं
शब्दों के जंगल में
हम एक-दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
जुबान से कम जूतों से
ज्यादा पाटते थे

कभी वह हारता रहा…
कभी हम जीतते रहे…
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
दिन बीतते रहे…
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में
बह गया।
मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग-
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
सधवायें मंगल गा रहीं हैं
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-
‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
सख्त मना है।’

क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।

फिर भी उस उजाड़ में
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
कितना डरावना है
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध- मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हासिये पर
लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद ,नाम है
यह मेरा देश है…
यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-
नफ़रत है।
साज़िश है।
अन्धेर है।
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है?
एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।

जनता क्या है?
एक शब्द…
सिर्फ एक शब्द है
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँऽऽ..हाँऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
‘कथाकलि’ की अंमूर्त मुद्रा है
यह जनता…
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।

दरअसल,
अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।

हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अन्धकार में सुरक्षित होने का
नाम है- तटस्थता। ...

यहाँ कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त हैं।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है...

हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है...

मैं सोचता रहा
और घूमता रहा-
टूटे हुये पुलों के नीचे
वीरान सड़कों पर आँखों के
अंधे रेगिस्तानों में
फटे हुये पालों की
अधूरी जल-यात्राओं में
टूटी हुई चीज़ों के ढेर में
मैं खोयी हुई आजादी का अर्थ
ढूँढता रहा।

अपनी पसलियों के नीचे /अस्पतालों के
बिस्तरों में/ नुमाइशों में
बाजारों में /गाँवों में
जंगलों में /पहाडों पर
देश के इस छोर से उस छोर तक
उसी लोक-चेतना को
बार-बार टेरता रहा
जो मुझे दोबारा जी सके
जो मुझे शान्ति दे और
मेरे भीतर-बाहर का ज़हर
खुद पी सके।
–और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमान्त
…ध्वस्त…ध्वस्त…ध्वान्त…ध्वान्त…
मैं दोबार चौंककर खड़ा हो गया
जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में
कन्धों पर लुढ़क रहा था,
किसी झनझनाते चाकू की तरह
खुलकर,कड़ा हो गया…
अचानक अपने-आपमें जिन्दा होने की
यह घटना
इस देश की परम्परा की -
एक बेमिशाल कड़ी थी
लेकिन इसे साहस मत कहो
दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई
गाय की घृणा थी...

मगर उसके तुरन्त बाद
मुझे झेलनी पड़ी थी-सबसे बड़ी ट्रैजेडी
अपने इतिहास की
जब दुनिया के स्याह और सफेद चेहरों ने
विस्मय से देखा कि ताशकन्द में
समझौते की सफेद चादर के नीचे
एक शान्तियात्री की लाश थी
और अब यह किसी पौराणिक कथा के
उपसंहार की तरह है कि इसे देश में
रोशनी उन पहाड़ों से आई थी
जहाँ मेरे पडो़सी ने
मात खायी थी।
मगर मैं फिर वहीं चला गया
अपने जुनून के अँधेरे में
फूहड़ इरादों के हाथों
छला गया।
वहाँ बंजर मैदान
कंकालों की नुमाइश कर रहे थे
गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग
भूखों मर रहे थे
मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के
एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ
अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है
अब न तो कोई किसी का खाली पेट
देखता है, न थरथराती हुई टाँगें
और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है
हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है
सबने भाईचारा भुला दिया है
आत्मा की सरलता को भुलाकर
मतलब के अँधेरे में
सुला दिया है।
सहानुभूति और प्यार
अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये
एक आदमी दूसरे को,अकेले –
अँधेरे में ले जाता है और
उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है
ठीक उस मोची की तरह जो चौक से
गुजरते हुये देहाती को
प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर
रबर के तल्ले में
लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ
ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद
डपटकर पैसा वसूलता है
गरज़ यह है कि अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है

अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है
मैंने देखा कि
इस जनतांत्रिक जंगल में
हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है
हरे-हरे हाथ
और पेड़ों पर
पत्तों की जुबान बनकर
लटक जाते हैं
वे ऐसी भाषा बोलते हैं
जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुसाफिर
अपना रास्ता भटक जाते हैं।

उन्होंने किसी चीज को
सही जगह नहीं रहने दिया
न संज्ञा
न विशेषण
न सर्वनाम
एक समूचा और सही वाक्य
टूटकर
‘बि ख र’ गया है
उनका व्याकरण इस देश की
शिराओं में छिपे हुये कारकों का
हत्यारा है
उनकी सख्त पकड़ के नीचे
भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय
सबसे सटीक नारा है
वे खेतों मेंभूख और शहरों में
अफवाहों के पुलिंदे फेंकते हैं

भूख से मरा हुआ आदमी/
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है
और गाय
सबसे सटीक नारा है
देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की ‘हाय’पर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर सो जाती है
मैं देखता रहा…
देखता रहा…
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफरत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था। उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी ,रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का।
इस तरह एक दिन-
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
मेरे खून में एक काली आँधी-
दौड़ लगा रही थी
मेरी असफलताओं में सोये हुये
वहसी इरादों को
झकझोरकर जगा रही थी
अचानक ,नींद की असंख्य पर्तों में
डूबते हुये मैंने देखा
मेरी उलझनों के अँधेरे में
एक हमशक्ल खड़ा है
मैंने उससे पूछा-’तुम कौन हो?
यहाँ क्यों आये हो?
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,
वह हँसता है-ऐसी हँसी कि दिल
दहल जाता है
कलेजा मुँह को आता है
और मैं हैरान हूँ
‘यहाँ आओ
मेरे पास आओ
मुझे छुओ।
मुझे जियो। मेरे साथ चलो
मेरा यकीन करो। इस दलदल से
बाहर निकलो!
सुनो!
तुम चाहे जिसे चुनो
मगर इसे नहीं। इसे बदलो।
मुझे लगा-आवाज़
जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है...

मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
उसकी आवाज में
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था। मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था-
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
रास्ते में रुक गये हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
नहीं-सरलता की तरह इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
आधार है
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
दुनिया में
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
सिर्फ दीवार है।
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
हिस्सा बन गयी है
इसे झटककर अलग करो
अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाज़े को
ठोकर मार दो
अब वक्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।

आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सचाई
छोटी है। इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।

मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता -
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है
वह आदमी को वहीं ले जाती है
जहाँ भूख
सबसे पहले भाषा को खाती है
वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है
जो अपने चेहरे की राख
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है
जो अपना हाथ
मैला होने से डरता है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
मौत मरता है

और सुनो! नफ़रत और रोशनी
सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं
जिसे जंगल के हाशिये पर
जीने की तमीज है
इसलिये उठो और अपने भीतर
सोये हुए जंगल को
आवाज़ दो
उसे जगाओ और देखो-
कि तुम अकेले नहीं हो
और न किसी के मुहताज हो
लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं
वहाँ चलो।उनका साथ दो
और इस तिलस्म का जादू उतारने में
उनकी मदद करो और साबित करो
कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’

मैं पूरी तत्परता से
उसे सुन रहा था
एक के बाद दूसरा
दूसरे के बाद तीसरा
तीसरे के बाद चौथा
चौथे के बाद पाँचवाँ…
यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प
चुन रहा था
मगर मैं हिचक रहा था
क्योंकि मेरे पास
कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं
जो मेरी सीमाएँ थीं
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठण्डा आदमी नहीं है
मुझमें भी आग है-
मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता
बनी रहे।
कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे
और विरोध में उठे हुये हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात
फैलने की हद तक
आते-आते रुक जाती है
क्योंकि हर बार
चन्द सुविधाओं के लालच के सामने
अभियोग की भाषा चुक जाती है।
मैं खुद को कुरेद रहा था
अपने बहाने
उन तमाम लोगों की
असफलताओं को
सोच रहा था
जो मेरे नजदीक थे।
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
खरोंच रहा था,नोंच रहा था
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये
मैंने आदमी के भीतर की मैल
देख ली थी। मेरा सिर
भिन्ना रहा था
मेरा हृदय भारी था
मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं
अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से
थोड़ी देर के लिये
बचना चाह रहा था
जो अपनी पैनी आँखों से
मेरी बेबसी और मेरा उथलापन
थाह रहा था
प्रस्तावित भीड़ में
शरीक होने के लिये
अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था
अचानक ,उसने मेरा हाथ पकड़कर
खींच लिया और मैं
जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में
ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये
धड़ाम से-
चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर
मत-पेटियों के
गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा
नींद के भीतर यह दूसरी नींद है
और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
सिर्फ एक शोर है
जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं
शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …
राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…
सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…
वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…
शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…
एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…
झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…
मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ
और अँधेरे में गाड़ दी है
आंखों की रोशनी।
सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
मैंने देखा हर तरफ
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
गुट से गुट टकरा रहे हैं
वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं
श्रीमान्‌ किन्तु हैं
मिस्टर परन्तु हैं
कुछ रोगी हैं
कुछ भोगी हैं
कुछ हिंजड़े हैं
कुछ रोगी हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
आँखों के अन्धे हैं
घर के कंगाल हैं
गूँगे हैं
बहरे हैं
उथले हैं,गहरे हैं।
गिरते हुये लोग हैं
अकड़ते हुये लोग हैं
भागते हुये लोग हैं
पकड़ते हुये लोग हैं
गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं
एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में
असंख्य रोग हैं
और उनका एकमात्र इलाज-
चुनाव है।

लेकिन मुझे लगा कि
एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है
उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है
मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग
इस बात पर सहमत हैं कि
‘चुनाव’ ही सही इलाज है
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुये
न उन्हें मलाल है,न भय है
न लाज है
दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
और इसी बहाने
वे अपने पडो़सी को पराजित कर रहे हैं
मैंने देखा कि हर तरफ
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
जिसे कुछ जंगली पशु
खूँद रहे हैं
लीद रहे हैं
चर रहे है
मैंने ऊब और गुस्से को
गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा
मैंने अहिंसा को
एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
भरते हुये देखा
मैंने विवेक को
चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…

मैं यह सब देख ही रहा था
कि एक नया रेला आया
उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस।
वे किसी आदमी को
हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।
चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।
गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत
गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।
उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द
थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!
यह क्या कर रहे हो?’ मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने
उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
मैं हतप्रभ सा खड़ा था
और मेरा हमशक्ल
मेरे पैरों के पास
मूर्च्छित- सा
पड़ा था-
दुख और भय से झुरझुरी लेकर
मैं उस पर झुक गया
किन्तु बीच में ही रुक गया
उसका हाथ ऊपर उठा था
खून और आँसू से तर चेहरा
मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन
उसकी आवाज में उतर आया था-
‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।
मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने
उन्हें उजाले से जोड़ा है
उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है
इसी तरह तोड़ा है
मगर समय गवाह है
कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’

सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है
जैसे किसी जले हुये जंगल में
पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है
घास की की ताजगी- भरी
ऐसी आवाज़ है
जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
फिर भी वे अपने हैं…
अपने हैं…
अपने हैं…
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
नहीं है।अपने लोगों की घृणा के
इस महोत्सव में
मैं शापित निश्चय हूँ

किसी का भय नहीं है।
‘तुम मेरी चिंता न करो। उनके साथ
चलो। इससे पहले कि वे
गलत हाथों के हथियार हों
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
काले बाजा़र हों
उनसे मिलो।उन्हें बदलो।
नहीं-भीड़ के खिलाफ रुकना
एक खूनी विचार है
क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
इस हिंसक भीड़ का
अन्धा शिकार है।
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
मैं हर वक्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
जहाँ वर्तमान
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ
वह टुकड़ा हूँ
जो आदमी की शिराओं में
बहते हुये खू़न को
उसके सही नाम से पुकारता हूँ
इसलिये मैं कहता हूँ,जाओ ,और
देखो कि लोग…

मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने
मुझे दूर फेंक दिया। इससे पहले कि मैं गिरता
किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।
अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल
मेरी देह में समा गया। दूसरा मेरे हाथों में
एक पर्ची थमा गया। तीसरे ने एक मुहर देकर
पर्दे के पीछे ढकेल दिया।
भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में
पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–
कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को
काटते हुये मैं चीख पड़ा-
‘हत्यारा!हत्यारा!!हत्यारा!!!’
मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।मैंने यह
किसको कहा था। शायद अपने-आपको
शायद उस हमशक्ल को(जिसने खुद को
हिन्दुस्तान कहा था) शायद उस दलाल को
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है

मेरी नींद टूट चुकी थी
मेरा पूरा जिस्म पसीने में
सराबोर था। मेरे आसपास से
तरह-तरह के लोग गुजर रहे थे।
हर तरफ हलचल थी,शोर था।
और मैं चुपचाप सुनता हूँ
हाँ शायद -
मैंने भी अपने भीतर
(कहीं बहुत गहरे)
‘कुछ जलता हुआ सा ‘ छुआ है
लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है
नींद में हुआ है
और तब से आजतक
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजा़र दीं हैं
हफ्तों पर हफ्ते तह किये हैं
अपनी परेशानी के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
और हर बार मुझे लगा है कि कहीं
कोई खास फ़र्क़ नहीं है
ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है
जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है

हाँ ,यह सही है कि इन दिनों
कुछ अर्जियाँ मँजूर हुई हैं
कुछ तबादले हुये हैं
कल तक जो थे नहले
आज
दहले हुये हैं

हाँ यह सही है कि
मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है
तो पहले से ज्यादा मुस्कराता है
नये-नये वादे करता है
और यह सिर्फ़ घास के
सामने होने की मजबूरी है
वर्ना उस भले मानुस को
यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन
और अपने निजी बिस्तर के बीच
कितने जूतों की दूरी है।


हाँ यह सही है कि इन दिनों -चीजों के
भाव कुछ चढ़ गये हैं।अखबारों के
शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं।
मन्दी की मार से
पट पड़ी हुई चीज़ें ,बाज़ार में
सहसा उछल गयीं हैं
हाँ यह सही है कि कुर्सियाँ वही हैं
सिर्फ टोपियाँ बदल गयी हैं और-
सच्चे मतभेद के अभाव में
लोग उछल-उछलकर
अपनी जगहें बदल रहे हैं
चढ़ी हुई नदी में
भरी हुई नाव में
हर तरफ ,विरोधी विचारों का
दलदल है
सतहों पर हलचल है
नये-नये नारे हैं
भाषण में जोश है
पानी ही पानी है
पर
की

ड़
खामोश है

मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्जा़ गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है
न दया है

नहीं-अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।...

वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।

भूख और भूख की आड़ में
चबायी गयी चीजों का अक्स
उनके दाँतों पर ढूँढना
बेकार है। समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है।
मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है।

मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है
जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है...

यहाँ जनता एक गाड़ी है
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
‘दया’ है
और भूख में
तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।...

मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल
करता हूँ जिसका मेरे पास
कोई उत्तर नहीं है
और आज तक –
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं
हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। ऊब के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं
हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है।

कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता /राही मासूम रजा

यहाँ (बंबई में) कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। कृष्ण चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गए होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिए और उस काम की मजदूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हूँ।
मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहाँ से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपए थे। तब कमलेश्वर ने 'सारिका' से, भारती ने 'धर्मयुग' से मुझे पैसे एडवांस दिलवाए और कृष्ण जी ने अपनी एक फिल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गईं। आज सोचता हूँ कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ.पी. टाँटिया और राजस्थान से मेरी एक मुँहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेहँदी रजा और दोस्त कुँवरपाल सिंह ने मदद की। कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता। और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आतीं पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।
जब मैं अलीगढ़ से बंबई आया तो अपने छोटे भाई अहमद रजा के साथ ठहरा। छोटे भाई तो बहुतों के होते हैं, पर अहमद रजा यानी हद्दन जैसा छोटा भाई मुश्किल से होगा किसी की तकदीर में। उसने मेरा स्वागत यूँ किया कि मैं यह भूल गया कि फिलहाल मैं बेरोजगार हूँ। हम हद्दन के साथ ठहरे हुए थे, पर लगता था कि वह अपने परिवार के साथ हमारे साथ ठहरे हुए हैं। घर में होता वह था जो मैं चाहता था या मेरी पत्नी नैयर चाहती थी। वह घर बहुत सस्ता था। जिस फ्लैट में अब हूँ उससे बड़ा था। इसका किराया 600 दे रहा हूँ। उसका किराया केवल 150 रुपए माहवार था। तो हद्दन ने सोचा कि वह घर उन्हें मेरे लिए खाली कर देना चाहिए। रिजर्व बैंक से उन्हें फ्लैट मिल सकता था, मिल गया। जब वह जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ साजिश की कि घर का सारा सामान मेरे लिए छोड़ जाएँ क्योंकि मेरे पास तो कुछ था नहीं। जाहिर है कि मैं इस पर राजी नहीं हुआ। उन दोनों को बड़ी जबरदस्त डाँट पिलाई मैंने।
चुनांचे वह घर का सारा सामान लेकर चले गए और घर नंगा रह गया। मेरे पास दो कुर्सियाँ भी नहीं थीं। हम ने कमरे में दो गद्दे डाल दिए और वही दो गद्दोंवाला वीरान कमरा बंबई में हमारा पहला ड्राइंग रूम बना... उन दिनों मैं नैयर से शर्माने लगा था। मैं सोचता कि यह क्या मुहब्बत हुई, कैसी जिंदगी से निकाल कर कैसी जिंदगी में ले आया मैं उस औरत को जिसे मैंने अपना प्यार दे रक्खा है... अपना तमाम प्यार। मगर नैयर ने मुझे यह कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह निम्नमध्यवर्गीय जिंदगी को झेल नहीं पा रही है। हम दोनों उस उजाड़ घर में बहुत खुश थे। उन दिनों कृष्ण चंदर, सलमा आपा, भारती और कमलेश्वर के सिवा कोई लेखक हमसे जी खोल के मिलता नहीं था। हम मजरूह साहब के घर उन से मिलने जाते तो वह अपने बेडरूम में बैठे शतरंज खेलते रहते और हम लोगों से मिलने के लिए बाहर न निकलते। फिरदौस भाभी बेचारी लीपापोती करती रहतीं... कई और लेखक इस डर से कतरा जाते थे कि मैं कहीं मदद न माँग बैठूँ।...
आप खुद सोच सकते हैं कि हमारे चारों ओर कैसा बेदर्द और बेमुरव्वत अँधेरा रहा होगा उन दिनों। नैयर लोगों से मिलते भी घबराती थीं, इसलिए मिलना-जुलना भी कम लोगों से था और बहुत कम था... कि एक दिन सलमा आपा आ गईं। इन्हें आप सलमा सिद्दीकी के नाम से जानते हैं। उस वक्त हम दोनों उन्हीं गद्दों पर बैठे रमी खेल रहे थे। सलमा आपा बैठीं। इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर वह चली गईं और थोड़ी देर के बाद उनका एक नौकर एक ठेले पर एक सोफा लदवाए हुए आया। हमने उस तोहफे को स्वीकार कर लिया, कि जो न करते तो सलमा आपा और कृष्ण जी को तकलीफ होती और हम उन्हें तकलीफ देना नहीं चाहते थे।

मंडल ने सरदेसाई के जातिवादी ‘ट्वीट’ पर उठाया सवाल

वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई की उत्साह से भरी एक ट्वीट उनके गले की फांस बनती जा रही है। मोदी सरकार के कैबिनेट एक्सपेंशन के बाद उन्होंने जो ट्वीट किया, उसको लेकर तमाम तरह की प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर सामने आई हैं, इतना ही नहीं उनके साथ के सीनियर जर्नलिस्ट ने उन पर सवाल उठाए हैं। कभी सीएनएन-आईबीएन के सहयोगी चैनल सीएनबीसी आवाज में सीनियर पोजीशन पर काम कर चुके और इंडिया टुडे के पूर्व मैनेजिंग एडिटर दिलीप मंडल ने भी दिलीप सरदेसाई की इस ट्वीट पर सवाल उठा दिए हैं।
आखिर क्या था राजदीप सरदेसाई की इस ट्वीट में?  उससे पहले आपको जानना होगा कि राजदीप सरदेसाई देश के एक महान क्रिकेटर दिलीप सरदेसाई के बेटे हैं और जाति से सारस्वत ब्राह्मण हैं। विकीपीडिया पर जो सारस्वत ब्राह्मण की लिस्ट दी गई है, उसमें जाति के प्रख्यात लोगों की लिस्ट भी दी गई है। उसमें इलेक्ट्रोनिक मीडिया के दिग्गज के तौर पर राजदीप सरदेसाई का नाम लिखा हुआ है। ये जाति का जिक्र क्यों? यही सवाल तो दिलीप मंडल ने अपने फेसबुक पेज पर उठाया है, काफी हद तक आपको वाजिब भी लगेगा। अगर ना भी लगे तो बहस का इश्यू तो है ही।
दरअसल हुआ यूं कि जब मोदी कैबिनेट का एक्सपेंशन हुआ और मनोहर पर्रिकर और सुरेश प्रभु समेत सारे मंत्रियों ने शपथ ले ली तो राजदीप सरदेसाई ने एक ट्वीट किया, आप भी पढ़िए, “Big day for my goa. Two GSBs, both talented politicians become full cabinet ministers. Saraswat pride!! @manoharparrikar and Suresh Prabhu.”। साफ था जितना वो गोवा के लिए खुश हैं, उससे ज्यादा उनको इस बात का गौरव है कि सारस्वतों का सम्मान बढ़ा है क्योंकि दो-दो सारस्वत ब्राह्मण मोदी की केबिनेट में मंत्री बने हैं। उनके जीएसबी का मतलब है गौड़ सारस्वत ब्राह्मण। इसके बाद ही उनके ट्वीट्स पर लोगों के रिएक्शन आने शुरू हो गए, जिसके उन्हें आदत सी पड़ गई है,मोदी ब्रिगेड के वो निशाने पर पहले से रहे हैं। लेकिन अक्सर जातिवाद पर सवाल उठाने वाले वरिष्ठ पत्रकार और राजदीप से पहले इंडिया टुडे ग्रुप से जुड़े रहे दिलीप मंडल ने सवाल उठाया तो बात ट्विटर से फेसबुक पर आ गई।
दिलीप मंडल ने लिखा है,  “ सारस्वत ब्राह्मण कुल गौरव राजदीप हैप्पी क्यों हैं? ऐसा नहीं करके भी आप जातिवादी क्यों हैं? अभी एक कुशवाहा जी, या यादव जी,या जाटव जी, या कुर्मी जी, या जायसवाल जी राजदीप की तरह ऐसा मैसेज लिख दें तो.....हो जाएंगे कि नहीं जातिवादी? जातिवादी होना कुछ लोगों के लिए सुविधाजनक है और बाकियों के लिए आफत. राजदीप अपनी कास्ट के दो मंत्री बनने से खुश हैं. उन्हें गर्व का एहसास हो रहा है. GSBs = गौड़ सारस्वत ब्राह्मण.राजदीप सरदेसाई का आज का ट्वी ट देखिए”।
वे यहीं नहीं रुके उन्होंने आगे कहा, 'सेकुलर को कम्युनल पर प्यार आ गया, प्राइड आ गया, प्यार शाश्वत है, प्यार सारस्वत है'
जाहिर है तमाम लोग हैं, जो दिलीप मंडल की बात को उनके पेज पर सपोर्ट और लाइक कर रहे हैं। अब गेंद बाकी पब्लिक के पाले में हैं, राजदीप के उत्साह का समर्थन करे या दिलीप मंडल जी ने जो सवाल उठाए हैं उनके ट्वीट को लेकर उसको सपोर्ट करे। लेकिन इतना तय है कि मामला आगे जाकर और भी दिलचस्प हो सकता है। वैसे भी सारस्वत गोत्र ब्राह्मणों में आम गोत्र नहीं है, बल्कि रावण भी उसी गोत्र का था, इसलिए ब्रज क्षेत्र के सारस्वत सालों से रावण का पुतला दहन करने तक का विरोध करते आए हैं।