Tuesday 25 November 2014

आज याद आया 1980 में लिखा अपना एक नवगीत / जयप्रकाश त्रिपाठी

है मुझे मालूम, आंखें फेर लेंगे फूल; तब -
तुम लौट आना, मैं तुम्हे मधुमास दूंगा।

सूख जायें आंख के आंसू,
समय मन तोड़ दे जब,
मांग में सिंदूर, कंगन हाथ में
कोई पिन्हाकर छोड़ दे जब -
लौट आना, मैं तुम्हे विश्वास दूंगा....


हाथ मेंहदी को तरस जायें,
भरे सावन घटाएं इंद्रधनुषाकार
उग आयें क्षितिज पर, लौट आना
पंख दूंगा मैं, नया आकाश दूंगा......

(उन दिनो गेंदा मेरा सबसे पसंदीदा फूल हुआ करता था, घर वालों के लाख मना करने के बावजूद बार-बार आंगन में गेंदे के अनेक पौधे रोपकर उनके खिलने का इंतजार करता रहता था.... गये, न फिर लौटेंगे वो दिन. )

क्यों और किसके लिए है मीडिया / डा. संध्या गर्ग

कुछ समय पहले आई एक फिल्म में ‘नासा’ का एक इंजीनियर अपने गांव लौटता है। वह गांव की स्थितियों से रूबरू होता है। वह अपने ज्ञान को गांव की प्रगति के लिए प्रयोग करता है। वहां बिजली ले आता है। अंत में वह नासा नहीं लौटता बल्कि गांव में ही रह जाता है। यह एक आदर्शवादी फिल्म  के रूप में प्रदर्शित की गई जिसमें यह दिखाने का प्रयास किया गया कि आधुनिक तकनीकों का प्रयोग अब किस प्रकार गांव के उद्धार के लिए करना संभव हो गया है। खैर! यह फिल्म बदलते माहौल में, भारतीय गांव को अमेरिका से जोड़ने का प्रयास है। यह उस अमेरिका को नमन करने का एक तरीका है जो आज के भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण का जन्मदाता है। भूमंडलीकरण की अवधारणा एक ऐसी सभ्यता को जन्म देने के लिए प्रयासरत है जिसके मूल में पश्चिम से उपजे प्रतिमान हैं। इस सभ्यता के विस्तार में सांस्कृतिक कारणों से अधिक भूमंडलीय बाजार का महत्व है। और इस बाजार को बढ़ाने की मुख्य भूमिका का निर्वाह करने की जिम्मेदारी मीडिया के कंधों पर डाली गई है।
आज की दुनिया में संचार माध्यमों या मीडिया की भूमिका एक व्यापक बहस का मुद्दा बन चुकी है। विभिन्न शोधों से यह बात साबित हो गई है कि सामाजिक विकास में जनसंचार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यहां प्रश्न उठता है कि सामाजिक विकास कैसे संभव होगा यदि 75 प्रतिशत जनता के प्रति मीडिया सचेत व जागरूक ही नहीं है। वैसे तो इलेक्ट्रानिक मीडिया ने गांवों की कठपुतली, लोकगीत, नौटंकी और अन्य कई पारंपरिक विधाओं का स्थान लेने की होड़ मचा दी है। पर, इन माध्यमों से जुड़ा गांववासी ठीक वैसा ही अनुभव करता है जैसे मोगली को शहर में ला कर खड़ा कर दिया गया हो। इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रसारित कार्यक्रम गांव वालों की दुनिया से भिन्न हैं। उन्हें लगता है कि यह सब एक तिलस्म से अधिक कुछ नहीं।
शिक्षा व विकास का औजार बन कर उभरा टेलीविजन आज विश्व में बाजार का औजार बन चुका है। इस टेलीविजन ने गांव को भी उस बाजार से जोड़ने की कोशिश की है और उसकी मूलभूत आवश्यकताओं में परिवर्तन किया है। आज विज्ञापनों में गांव के चित्रण का नया जलवा है। भाई को शुभकामना देने के लिए बच्ची पंछी उड़ाना चाहती है लेकिन पैसे नहीं, तो एक खास कंपनी का क्रेडिट कार्ड उसके लिए हाजिर है। गांव में लौटे युवक ने एक खास ब्रांड की सूटिंग्स पहनी है। क्रिकेट का प्रसिद्ध खिलाड़ी अपने गांव लौटा है तो एक खास घड़ी को विज्ञापित करने के लिए। इन सभी विज्ञापनों में गांव एक स्टेज मात्र है। मुख्य मकसद है गांव की मूलभूत जरूरतों में परिवर्तन करना।
इन विज्ञापनों के माध्यम से गांव को उपभोक्ताओं की एक नई दुनिया में प्रवेश कराया जाता है, एक ऐसी दुनिया जहां सब जगह बाजार है। इन माध्यमों में दिखने वाले गांवों की मौलिक समस्याएं कहीं दिखाई नहीं देती हैं। यहां ‘लव हुआ’ जैसे सीरियल पहुंच चुके हैं। शहर की लड़कियां अपने छोटे-छोटे कपड़ों में गांव को एक नई दृश्यता देने आ चुकी हैं। किसी को यह सोचने की फुर्सत नहीं कि गांव वालों को क्या चाहिए। गांव वालों की कोई सुने तो वे बताएंगे कि उन्हें अधिक आवश्यकता है भूमि सुधार की, पशुपालन के नए तौर-तरीकों की, कृषि उत्पादन के विपणन की, अतिवृष्टि और अनावृष्टि तथा विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं से बचने की और इससे जुड़ी जानकारियों की। पर, आज मीडिया कितने ऐसे कार्यक्रम प्रसारित करता है। पहले तो कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम टी.वी. के प्रमुख कार्यक्रमों में शामिल थे। सरकारी चैनलों पर गांव सुधार के कार्यक्रम अब भी सुनाई देते हैं। पर विदेशी उपग्रहों से प्रसारित कार्यक्रमों ने एक नया ही संसार रच दिया है। इनके पास गांव के मतलब की बात करने का वक्त नहीं है। हालांकि रेडियो के कुछ कार्यक्रम आज भी गांववसियों के लिए हैं। रेडियो से आज भी ग्रामीण महिलाओं और किसान भाईयों के लिए कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। लेकिन यह भी ‘आकाशवाणी’ तक ही सीमित है। कम्युनिटी रेडियो से भी सार्थक उम्मीद की जा सकती है। किंतु निजी एफ.एम. चैनलों से कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती।
चौबीस घंटे प्रसारित होने वाले न्यूज चैनलों में यदि देखें तो कितना प्रतिशत हिस्सा गांव की खबरों या वहां होने वाले विकास कार्यक्रमों को मिलता है। इन चैनलों के सुविधाभोगी किसी गांव की यात्रा करने की जहमत तब उठाते हैं जब वहां कोई सेलिब्रिटी पहुंचती है या कोई बड़ा हादसा होता है। छोटे गांव की तो बात ही रहने दें, हमारे सामने हरसूद का उदाहरण है। अरुंधति राय वहां पहुंची तो मीडिया के लोग भी उनके पीछे-पीछे हो लिए।
आज हकीकत यह है कि इन चैनलों पर गांव दिखते हैं ‘मानो या न मानो’ जैसे कार्यक्रमों में। ऐसे कार्यक्रम के गांव किसी अंधविश्वास से घिरे दिखाई देते हैं। और शहरी दर्शकों के लिए यह एक मनोरंजक कार्यक्रम से अधिक नहीं होते। ये दर्शक अपनी दैनिक समस्याओं और भागदौड़ के जीवन से थक चुके होते हैं। और उन्हें ऐसे कार्यक्रम मानसिक थकान से राहत देते हैं। एक समय था जब जल-जमीन का स्वामित्व और संबंधों की प्रगाढ़ता गांव में शक्ति का आधार मानी जाती थी। पर आज स्थितियां बदल गई हैं। गांव का समाज पूर्णतया भिन्न समाज हो गया है। न केवल संसाधनों के स्वामित्व की दृष्टि से बल्कि, जाति, वर्ग और अन्य कई भेदों से भी। अब उस समाज की दुनिया इस टी.वी के माध्यम से बदल चुकी है। गांव वालों का मन अब गांव में नहीं शहर में लगता है। गांव के लोग शहर जाने के लिए लालायित हैं। जो शहर नहीं जा सकते वे गांव को ही शहर बनाने में लगे हैं। इस सारे बदलाव में टी.वी. की महत्वपूर्ण भूमिका है।
गांवो में भ्रूणहत्या, नारी उत्पीड़न, अशिक्षा और अधिकारों के प्रति उनकी अज्ञानता आदि बहुत से मुद्दे हैं जिन्हें लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया बड़ी प्रभावी भूमिका निभा सकता है। लेकिन, टी.आर.पी. के लोभ में सभी चैनल वही कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं जिनके चलते खुद को नंबर एक चैनल सिद्ध किया जा सके। वस्तुत: सभी सरोकारों पर बाजार हावी हो चला है। ‘मेरे देश में पवन चले पुरवाई’ और ‘बलमा बैरी हो गये हमार’ जैसे गीत कहीं खो गये हैं। ‘बीड़ी जलाई ले’ और ‘दिल्ली-बिहार लूटने’ वाली नौटंकी गांव का भौंडा चित्र प्रस्तुत करने में लगी है।
पिछले दिनों किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की खबर को भी चैनलों ने जिस तरह प्रस्तुत किया वह उन के जीवन को बचाने की चिंता और मुद्दे की संवेदनशीलता से अधिक ‘कापी कैट फिनोमिना’ ही अधिक था। ‘सेन्टर फार मीडिया स्टडीज’ की रिपोर्ट के अनुसार सभी मुख्य समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों का सर्वे किया गया और पाया गया कि किसानों और कृषि से संबंधित समाचार राष्ट्रीय समाचारों का एक प्रतिशत भी नहीं होते। न्यूज चैनल ने उन दिनों भी किसानों की आत्म हत्या की कोई खबर नहीं दी जब  ‘हिन्दु’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ पांच से अधिक आत्महत्याओं की खबर प्रकाशित कर चुके थे।
ऐसा नहीं है कि टेलीविजन और अन्य माध्यमों ने केवल नकारात्मक भूमिका ही निभाई है। कहीं न कहीं इन माध्यमों ने गांव के लोगों को उनके अधिकारों और सरकारी योजनाओं के प्रति सचेत किया है। विज्ञापन और वृत्तचित्रें द्वारा कई नई तकनीकी जानकारी लोगों को मिली है। लेकिन, यह सब पर्याप्त नहीं है। अभी बहुत कुछ और करने की जरूरत है। यह तय है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया तब तक अपनी भूमिका प्रभावकारी ढंग से नहीं निभा सकता जब तक वह इस लोकतंत्र के 70 प्रतिशत लोगों की समस्याओं को अभिव्यक्ति नहीं देगा। प्रश्न यह है कि मीडिया ग्लोब से गायब हो रहे गांव को क्या ग्लोब्लाइजेशन के इस दौर में बचा पाएगा?

मीडिया और देहात / मनोज कुमार

महात्मा की पत्रकारिता और वर्तमान समय को लेकर विमर्श हो रहा है और यह कहा जा रहा है कि महात्मा की पत्रकारिता का लोप हो चुका है। बात शायद ग़लत नहीं है किन्तु पूरी तरह ठीक भी नहीं। महात्मा की पत्रकारिता को एक अलग दृष्टि से देखने और समझने की ज़रूरत है। महात्मा की पत्रकारिता दिल्ली से देहात तक अलग अलग मायने रखती है। पत्रकारिता का जो बिगड़ा चेहरा दिख रहा है वह महानगरीय पत्रकारिता का है। वहाँ की पत्रकारिता का है जिन्हें एयरकंडीशन कमरों में रहने और इसी हैसियत की गाड़ियों में घूमने का शौक़ है। पत्रकारिता का चेहरा वहाँ बिगड़ा है जहाँ पत्रकार सत्ता में भागीदारी चाहता है और यह भागीदारी महानगर में ही संभव है। दिल्ली से देहात की पत्रकारिता के बीच फकत इसी बात का फरक है। दिल्ली की पत्रकारिता से महात्मा पत्रकार दूर हैं तो देहाती पत्रकारिता में वे आज भी मौज़ूद हैं।
इस अर्थ में पत्रकार महात्मा की इस दौर में अनुपस्थिति शायद ठीक ही है। पत्रकारिता का आज जो हाल है उसे देखकर पत्रकार महात्मा स्वयं को माफ़ नहीं कर पाते। वे पत्रकारिता को समाजसेवा का साधन मानते थे किन्तु पत्रकारिता आज स्वयं के जीवन का साध्य बन कर रह गयी है। आज़ादी के साढ़े छह दशक में पत्रकारिता ने अनेक बदलाव देखे हैं। इन बदलाव की पत्रकारिता गवाह रही है। विदेशी आक्रमण से लेकर देश के भीतर इमरजेंसी को पत्रकारिता ने क़रीब से देखा है। आज वही पत्रकारिता पेडन्यूज छापने के लिये रोज़-ब-रोज़ दाग़दार हो रही है। ठीक ही है कि पत्रकार महात्मा गांधी इस समय हमारे साथ नहीं हैं। उनकी पत्रकारिता आज के दौर में छिन्न-भिन्न हो गयी है। सत्ता को रास्ता बताने वाले सत्ता के साथ चलने लगे हैं। आख़िरी छोर पर बैठे व्यक्ति को उसका हक दिलाने वाली पत्रकारिता उनका हक़ छीनने में आगे हो गयी है।
महात्मा की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता को जाँचने के पहले कुछ बुनियादी बातों की चर्चा कर लेना सामयिक होगा। पत्रकार महात्मा द्वारा पत्रकारिता के लिये बताये गये मानदंड और आज की पत्रकारिता के मानदंड में कोई साम्य नहीं है। दोनों की पत्रकारिता एक तरह से नदी के दो पाट की तरह हो गये हैं जो चलेंगे तो साथ साथ किन्तु कभी मिल नहीं पाएँगे। पत्रकारिता की बात होगी और पत्रकारिता के लिये पत्रकार महात्मा को याद किया जाएगा किन्तु जब उनके बताये रास्ते पर चलने की बात होगी तो दोनों वापस नदी के दो किनारों की तरह हो जाएँगे। यह बात तो शीशे की तरह साफ है कि आज की पत्रकारिता में महात्मा की पत्रकारिता का लोप हो चुका है किन्तु क्या यह सच नहीं है कि इतना स्याह हो जाने के बाद भी पत्रकारिता की बुनियाद उन्हीं बातों पर टिकी है जो पत्रकार महात्मा बता गये थे।
पत्रकार महात्मा के साथ साथ चलते हुए इस दौर के महान पत्रकारों के बारे में बात करना लाज़िमी होगा। पत्रकारिता की जो बुनियादी बातें हैं उनमें पहला है पत्रकारिता की निष्पक्षता। दूसरी बात है पत्रकारिता का तथ्यों को तटस्थ होकर पाठकों के समक्ष रखना न कि न्यायाधीश बनकर फ़ैसला देना। तीसरी बात पत्रकारिता को व्यवसाय न बनाना। फौरीतौर पर तीनों ही बातें पत्रकारिता से ख़ारिज़ कर दी गयी लगती हैं किन्तु सच यह है कि पत्रकारिता आज भी इन्हीं तीन बातों के कारण जनमानस की आवाज बनी हुई है। जीवन जीने के बुनियादी अधिकार को दिलाने में पत्रकारिता हमेशा से सक्रिय रहा है किन्तु कभी इस पर चर्चा नहीं की गई।
नीरा राडिया मामले में पत्रकारिता की जो भूमिका रही हो उसको लेकर ऐसा हंगामा हो रहा है कि मानो पत्रकारिता नेस्तनाबूद हो गई हो। पत्रकारिता पर क़यामत आ गयी हो गई। जो लोग इस मामले को लेकर हंगामा कर रहे हैं वे शायद भूल गये हैं कि अरूण शौरी आज भले ही राजनेता के रूप में स्थापित हों किन्तु उन्हीं की कलम का कमाल था कि तीन दशक बाद भी बोफोर्स का मामला ख़त्म नहीं हुआ। मेरा सवाल है कि नीरा राडिया के साथ चलने वाले दस पांच पत्रकारों के नाम आ भी गये तो हंगामा क्यों होना चाहिए? क्यों कभी किसी ने अरूण शौरी से सवाल नहीं किया कि उन्हें राजनीति में आने की क्या ज़रूरत थी? अब अरूण शौरी के नक्शेकदम पर बाद की पत्रकारिता की पीढ़ी चलती है तो इसे सहज रूप में लेना चाहिए। समाज के हर वर्ग में ऐसे लोग मिल जाएँगे जो अपने उद्देश्य से भटकते नजर आते हैं।
दिल्ली और देहात की पत्रकारिता का फ़र्क वास्तव में यही तो है। दिल्ली की पत्रकारिता नदी का एक किनारा है और जो आज का सच है तो देहात की पत्रकारिता नदी का दूसरा किनारा है जो महात्मा की पत्रकारिता है। एक सच यह भी है कि ऐसे पत्रकारों के ख़िलाफ़ लिखकर पत्रकारों का एक वर्ग वाहवाही लूटना चाहता है। मुद्दा तो यह है कि इतना हंगामा करने और लिखने के बाद कथित दोषी पत्रकारों को समाज ने बहिष्कृत क्यों नहीं किया। जिस प्रभु चावला को एक प्रबंधन ने सीधी बात कर हटा दिया तो दूसरे प्रबंधन ने सच्ची बात कहने के लिये अपने साथ ले लिया। अब इसे कौन तय करेगा कि प्रभु चावला को दोष के कारण हटाया गया या इस दोष के चलते उनकी ख्याति को भुनाने के लिये दूसरे ने अपने साथ ले लिया। दिल्ली की पत्रकारिता में सबकुछ चलता है किन्तु देहात की पत्रकारिता में इस तरह की छूट नहीं है।
पत्रकार महात्मा की उस पंक्ति को याद कर लेना सामयिक होगा जिसमें वे कहते हैं कि कम समय में सच को जाँच लेना मुश्किल होता है और इसलिये अच्छा है कि ऐसा लिखा ही न जाए। इस संदर्भ में एक अनुभव स्मरण हो रहा है देहाती पत्रकारिता का जिसे हम महात्मा की पत्रकारिता कह सकते हैं बल्कि कहना चाहिए।
पत्रकारिता में अपना जीवन गुज़ार चुके पत्रकार ने बताया कि एक बार वे एक महिला को अपनी ख़बर में वेश्या लिख दिया। महिला की मौत हो चुकी थी। गुस्से में लाल-पीला होता उसका बेटा हाथ में हथियार लिये वह अख़बार के दफ्तर में प्रवेश कर गया। गंदी गालियों के साथ वह उस पत्रकार को तलाश करने लगा जिसने यह ख़बर लिखी थी। उक्त वरिष्ठ पत्रकार का डर जाना स्वाभाविक था किन्तु अपना नाम छिपाते हुए उस युवक से आपत्ति की वजह जाननी चाही। युवक को ख़बर में अपनी मां को वेश्या लिखे जाने पर आपत्ति थी और उसका तर्क था कि क्या उसकी मां को किसी सरकार ने या शासन ने लायसेंस दिया था, यदि नहीं तो किस आधार पर यह लिखा गया।
युवक का गुस्सा जायज था। वरिष्ठ साथी को अपनी ग़लती का अहसास हुआ और आगे से दुबारा बिना जांचे कोई ख़बर नहीं लिखने की कसम खा ली। गांधीजी यही बात कहते थे। इस अनुभव का अर्थ यही है कि देहात की पत्रकारिता में महात्मा की पत्रकारिता आज भी मौज़ूद है किन्तु दिल्ली की पत्रकारिता में नहीं है। यदि ऐसा होता तो नैतिकता के नाते ही सही, आरोपों के जद में आये पत्रकार अपने वर्तमान दायित्व को स्वेच्छा से छोड़कर स्वतंत्र रूप से लेखन करते किन्तु आज के दौर की पत्रकारिता में यह कहाँ संभव है।
थोड़ी देर के लिये मान लिया जाए कि जिन पत्रकारों के नाम आरोपों की जद में आये हैं, उनसे पत्रकार बिरादरी ने नाता तोड़ लिया है क्या? क्या उन्हें जिन पत्रकार संगठनों की मान्यता या संबद्धता है, उनसे अलग कर दिया गया है, शायद यह भी नहीं। क्या पत्रकारों ने उनसे विमर्श बंद कर दिया है, शायद यह भी नहीं। जब स्वयं पत्रकार बिरादरी में इतना साहस नहीं है तो बेवजह अख़बार के पन्ने और आम आदमी का वक़्त जाया करने की ज़रूरत ही क्या है।
इसमें जीवन के सभी रंग समाये हुए हैं। जिसमें खुशियों की इंद्रधनुषी रंग हैं तो कुछ स्याह हिस्सा भी है। नीरा मामले में जो कुछ घटा और पत्रकार कथित आरोपों से घिरे अपने उन साथियों के बारे में लिखा है और लिख रहे हैं तो यह साहस पत्रकारिता में ही हो सकता है। किसी अन्य पेशे में यह साहस नहीं हो सकता बल्कि हरचंद कोशिश की जाती रहती है कि किस तरह साथी को बचाया जा सके। इस तरह के अनेक उदाहरण समाज के पास हैं जिन्हें पत्रकारिता ने बेनकाब किया है।
कितना भी कठिन दौर क्यों न हो, पत्रकारिता अपने बुनियादी उसूलों से मुँह नहीं मोड़ सकता है। ठीक उसी तरह जिस तरह एक वकील यह जानते हुए भी कि उसका मुवक्किल एक अपराधी है किन्तु उसे बचाने का यत्न करता है क्योंकि फीस उसने उसे बचाने की ली है। एक डॉक्टर की तरह जो कितना भी निर्माेही हो किन्तु मरीज को देखना नहीं भूलता है। यहाँ मैं अपवादों की बात नहीं करता बल्कि उन सच्चाईयों की बात कर रहा हूँ जिसे पत्रकारिता कहते हैं। आज पत्रकार महात्मा होते तो यह देखकर इत्मीनान कर लेते कि इस कठिन समय में पत्रकार अपना दायित्व निभा रहे हैं।

अरुण कमल

कोहरे से ढँकी सड़क पर
बच्चे काम पर जा रहे हैं सुबह सुबह,
बच्चे काम पर जा रहे हैं,
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह,
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना,
लिखा जाना चाहिए इसे एक सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं, बच्चे? 

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने एक साहित्यिक समारोह ‘लिटरेचर फेस्ट’ का निमंत्रण महिला सहकर्मी से यौन उत्पीड़न के आरोपी तहलका मैगजीन के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल को भेजा था। यह साहित्य समारोह अगले महीने मुंबई में से आयोजित किया जा रहा है, जिसमें तेजपाल को ‘सत्ता की निरंकुशता’ के बारे में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। उस पर सोशल मीडिया में विवाद खड़ा हो गया। वरिष्ठ पत्रकारों से लेकर सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों ने इस पर आपत्ति जताई। उनका कहना है कि यौन शोषण के एक हाई प्रोफाइल अभियुक्त को इस तरह का प्लेटफार्म देना महिलाओं को गलत पैगाम देने जैसा होगा। विवाद को बढ़ता देख राष्ट्रीय अखबार ने तरुण तेजपाल को दिए निमंत्रण को वापस ले लिया है।

एक सवाल पीएम से

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच सितम्बर को शिक्षक दिवस पर शिक्षकों और छात्रों के माता पिता को अपने बच्चों का चरित्र बेहतर बनाने की सलाह दी थी. छात्रों के चरित्र के निर्माण पर वो काफी देर तक बोले थे. अगर 'पत्नी दिवस' जैसा कोई दिन होता तो उस अवसर पर प्रधानमंत्री क्या सलाह देते? और अगर कोई सलाह देते तो उनकी पत्नी जशोदाबेन की क्या प्रतिक्रिया होती? ये सारे सवाल काल्पनिक ज़रूर हैं लेकिन इनसे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काफी उलझन हो सकती है. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात का एक कामयाब मुख्यमंत्री माना जाता है, और अब तो वे प्रधानमंत्री के रूप में कामयाबी की सीढ़ियां तेजी से तय कर रहे हैं. लेकिन क्या किसी में उनकी निज़ी ज़िन्दगी से जुड़े इस सवाल को पूछने की हिम्मत है - 'मोदी जी क्या आप कामयाब पति भी हैं?' अपने लेख में ये सवाल उठाया है बीबीसी संवाददाता ज़ुबैर अहमद ने। लिंक : http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/11/141125_modi_jashodaben_ideal_husband_sk