Wednesday 26 November 2014

ब्लॉगिंगः ऑनलाइन विश्व की आज़ाद अभिव्यक्ति / बालेन्दु शर्मा दाधीच

"दूसरे धर्मों का तो पता नहीं पर मैंने अपने धर्म में इतने दंभी, स्वार्थी और बेवकूफ लोग देखे हैं कि मुझे पछतावा है कि मैं क्यों जैन पैदा हुआ? अब जैन में तो हर चीज करने में पाप लगता है.... कुछ जैन संप्रदाय मूर्ति पूजा करते हैं तो कुछ मूर्तिपूजा के खिलाफ हैं। अब एक जैन मंदिर में जाकर लाइट चालू करके, माइक पे वंदना करके यह संतोष व्यक्त करते हैं कि मुझे स्वर्ग मिलेगा तो कुछ 'स्थानकवासी' जैन मानते हैं कि बिजली चालू करने से पाप लगता है और मूर्ति बनाने से बहुत छोटे जीव मरते हैं इसलिए पाप लगता है। यहां दोनों संप्रदाय एक ही भगवान की पूजा करेंगे लेकिन अलग ढंग से। फिर आठ दिन भूखे रहकर यह मान लेंगे कि उनका पाप मिट गया। यानी आपने तीन खून किए हों या लाखों लोगों के रुपए लूटे हों फिर भी कुछ दिन भूखे रहने से पाप मिट जाएंगे।" (तत्वज्ञानी के हथौड़े)।
"मैं अपने आपको मुसलमान नहीं मानता मगर मैं अपने मां-बाप की बहुत इज्जत करता हूं, सिर्फ और सिर्फ उनको खुश करने के लिए उनके सामने मुसलमान होने का नाटक करता हूं, वरना मुझे अपने आपको मुसलमान करते हुए बहुत गुस्सा आता है। मैं एक आम इन्सान हूं, मेरे दिल में वही है जो दूसरों में है। मैं झूठ, फरेब, मानदारी, बेईमानी, अच्छी और बुरी आदतें, कभी शरीफ और कभी कमीना बन जाता हूं, कभी किसी की मदद करता हूं और कभी नहीं- ये बातें हर इंसान में कॉमन हैं। एक दिन अब्बा ने अम्मी से गुस्से में आकर पूछा- क्या यह हमारा ही बच्चा है? तो वो हमारी तरह मुसलमान क्यों नहीं? कयामत के दिन अल्लाह मुझसे पूछेगा कि तेरे एक बेटे को मुसलमान क्यों नहीं बनाया तो मैं क्या जवाब दूं? पहले तो अब्बा-अम्मी ने मुझे प्यार से मनाया, फिर खूब मारा-पीटा कि हमारी तरह पक्का मुसलमान बने... यहां दुबई में दुनिया भर के देशों के लोग रहते हैं और ज्यादातर मुसलमान। मुझे शुरू से मुसलमान बनना पसंद नहीं और यहां आकर सभी लोगों को करीब से देखने और उनके साथ रहने के बाद तो अब इस्लाम से और बेजारी होने लगी है। मैं यह हरगिज नहीं कहता कि इस्लाम गलत है, इस्लाम तो अपनी जगह ठीक है। मैं मुसलमानों और उनके विचारों की बात कर रहा हूं।" (नई बातें, नई सोच)।
ये दोनों टिप्पणियां दो अलग-अलग लोगों ने लिखी हैं। दो ऐसे साहसिक युवकों ने, जो प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़े किंतु भीतर से रूढ़िवादिता को हृदयंगम कर परंपराओं और मान्यताओं को बिना शर्त ढोते रहने वाले हमारे समाज की संकीर्णताओं के भीतर घुटन महसूस करते हैं। क्या इस तरह की बेखौफ, निश्छलतापूर्ण और ईमानदार टिप्पणियां किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित की जा सकती हैं? क्या क्रुद्ध समाजों की उग्रतम प्रतिक्रियाओं से भरे इस दौर में ऐसे प्रतिरोधी स्वर किसी दूरदर्शन या आकाशवाणी से प्रसारित हो सकते हैं? क्या कोई धार्मिक, सामाजिक या राजनैतिक मंच इस ईमानदार किंतु विद्रोही आक्रोश की अभिव्यक्ति का मंच बन सकता है? ऐसा संभवत: सिर्फ एक मंच है जिसमें अभिव्यक्ति किन्हीं सीमाओं, वर्जनाओं, आचार संहिताओं या अनुशासन में कैद नहीं है। वह मंच है इंटरनेट पर तेजी से लोकप्रिय हो रही ब्लॉगिंग का।
औपचारिकता के तौर पर दोहरा दूं कि ब्लॉगिंग शब्द अंग्रेजी के 'वेब लॉग' (इंटरनेट आधारित टिप्पणियां) से बना है, जिसका तात्पर्य ऐसी डायरी से है जो किसी नोटबुक में नहीं बल्कि इंटरनेट पर रखी जाती है। पारंपरिक डायरी के विपरीत वेब आधारित ये डायरियां (ब्लॉग) सिर्फ अपने तक सीमित रखने के लिए नहीं हैं बल्कि सार्वजनिक पठन-पाठन के लिए उपलब्ध हैं। चूंकि आपकी इस डायरी को विश्व भर में कोई भी पढ़ सकता है इसलिए यह आपको अपने विचारों, अनुभवों या रचनात्मकता को दूसरों तक पहुंचाने का जरिया प्रदान करती है और सबकी सामूहिक डायरियों (ब्लॉगमंडल) को मिलाकर देखें तो यह निर्विवाद रूप से विश्व का सबसे बड़ा जनसंचार तंत्र बन चुका है। उसने कहीं पत्रिका का रूप ले लिया है, कहीं अखबार का, कहीं पोर्टल का तो कहीं ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा के मंच का। उसकी विषय वस्तु की भी कोई सीमा नहीं। कहीं संगीत उपलब्ध है, कहीं कार्टून, कहीं चित्र तो कहीं वीडियो। कहीं पर लोग मिल-जुलकर पुस्तकें लिख रहे हैं तो कहीं तकनीकी समस्याओं का समाधान किया जा रहा है। ब्लॉग मंडल का उपयोग कहीं भाषाएं सिखाने के लिए हो रहा है तो कहीं अमर साहित्य को ऑनलाइन पाठकों को उपलब्ध कराने में। इंटरनेट पर मौजूद अनंत ज्ञानकोष में ब्लॉग के जरिए थोड़ा-थोड़ा व्यक्तिगत योगदान देने की लाजवाब कोशिश हो रही है।
सीमाओं से मुक्त अभिव्यक्ति
ब्लॉगिंग है एक ऐसा माध्यम जिसमें लेखक ही संपादक है और वही प्रकाशक भी। ऐसा माध्यम जो भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह मुक्त, और राजनैतिक-सामाजिक नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र है। जहां अभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है, न अल कायदा से डरने को। इस माध्यम में न समय की कोई समस्या है, न सर्कुलेशन की कमी, न महीने भर तक पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतजार करने की जरूरत। त्वरित अभिव्यक्ति, त्वरित प्रसारण, त्वरित प्रतिक्रिया और विश्वव्यापी प्रसार के चलते ब्लॉगिंग अद्वितीय रूप से लोकप्रिय होकर करोड़ों ब्लॉगों तक पहुँच गई है। समूचे ब्लॉगमंडल का आकार हर छह महीने में दोगुना हो जाता है।
आइए फिर से अभिव्यक्ति के मुद्दे पर लौटें, जहां से हमने बात शुरू की थी। हालांकि ब्लॉगिंग की ओर आकर्षित होने के और भी कई कारण हैं। लेकिन अधिकांश विशुद्ध, गैर-व्यावसायिक ब्लॉगरों ने अपने विचारों और रचनात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए ही इस मंच को अपनाया। जिन करोड़ों लोगों के पास आज अपने ब्लॉग हैं, उनमें से कितने पारंपरिक जनसंचार माध्यमों में स्थान पा सकते थे? स्थान की सीमा, रचनाओं के स्तर, मौलिकता, रचनात्मकता, महत्व, सामयिकता आदि कितने ही अनुशासनों में निबद्ध जनसंचार माध्यमों से हर व्यक्ति के विचारों को स्थान देने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। लेकिन ब्लॉगिंग की दुनिया पूरी तरह स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और मनमौजी किस्म की रचनात्मक दुनिया है। वहां आपकी 'भई आज कुछ नहीं लिखेंगे' नामक छोटी सी टिप्पणी का भी उतना ही स्वागत है जितना कि जीतेन्द्र चौधरी की ओर से वर्डप्रेस पर डाली गई सम्पूर्ण रामचरित मानस का। 'भड़ास' नामक सामूहिक ब्लॉग के सूत्र वाक्य से यह बात स्पष्ट हो जाती है- कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिए... मन हल्का हो जाएगा..।
चौपटस्वामी नामक ब्लॉगर की लिखी यह टिप्पणी पढ़िए- "(हमारे यहां) धनिया में लीद मिलाने और कालीमिर्च में पपीते के बीज मिलाने को सामाजिक अनुमोदन है। रिश्वत लेना और देना सामान्य और स्वीकृत परंपरा है और उसे लगभग रीति-रिवाज के रूप में मान्यता प्राप्त है। कन्या-भ्रूण की हत्या यहां रोजमर्रा का कर्म है और अपने से कमजोर को लतियाना अघोषित धर्म है। गणेशजी को दूध पिलाना हमारी धार्मिक आस्था है। हमारा लड़का हमें गरियाते और जुतियाते हुए भी श्रवणकुमार है, पर पड़ोसी का ठीक-ठाक सा लड़का भी बिलावजह दुष्ट और बदकार है।" यानी कि सौ फीसदी अभिव्यक्ति की एक सौ एक फीसदी आजादी!
वरिष्ठ ब्लॉगर अनूप शुक्ला (फुरसतिया) कहते हैं- "अभिव्यक्ति की बेचैनी ब्लॉगिंग का प्राण तत्व है और तात्कालिकता इसकी मूल प्रवृत्ति है। विचारों की सहज अभिव्यक्ति ही ब्लॉग की ताकत है, यही इसकी कमजोरी भी। यही इसकी सामर्थ्य है, यही इसकी सीमा भी। सहजता जहां खत्म हुई वहां फिर अभिव्यक्ति ब्लॉगिंग से दूर होती जाएगी।"
जो चाहें, लिखें और अगर चाहते हैं कि इसे दूसरे लोग भी पढ़ें तो ब्लॉग पर डाल दें। किसी को जंचेगा तो पढ़ लेगा वरना आगे बढ़ जाएगा। ब्लॉगिंग वस्तुत: एक लोकतांत्रिक माध्यम है। यहां कोई न लिखने के लिए मजबूर है, न पढ़ने के लिए। जो अच्छा लिखते हैं, उनके ठिकानों पर स्वत: भीड़ हो जाती है, उनके ब्लॉगों में टिप्पणियों की बहार आ जाती है। ऐसे कई ब्लॉग हीरो ब्लॉगिंग की दुनिया ने दिए हैं जो सिर्फ अपने लेखों, भाषा या रचनात्मकता के लिए ही नहीं, तकनीकी मार्गदर्शन देने (गैर-अंग्रेजी ब्लॉगरों को इसकी जरूरत पड़ती ही है) और नए ब्लॉगरों व ब्लॉग परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए भी जाने जाते हैं।
ब्लॉग विश्व के चर्चित लोग
दुनिया के विख्यात ब्लॉगरों में एंड्र्यू सलीवान (एंड्र्यूसलीवान.कॉम), रॉन गंजबर्गर (पोलिटिक्स१.कॉम), ग्लेन रोनाल्ड (इन्स्टापंडित.कॉम), डंकन ब्लैक, पीटर रोजास, जेनी जार्डिन, बेन ट्रोट, जोनाथन श्वार्ट्ज, जेसन गोल्डमैन, रॉबर्ट स्कोबल, मैट ड्रज (ड्रजरिपोर्ट.कॉम) आदि शामिल हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को महाभियोग की हद तक ले जाने वाले मोनिका लुइन्स्की प्रकरण का पर्दाफाश मैट ड्रज ने ही अपने ब्लॉग पर किया था। चीनी अभिनेत्री जू जिंगले का ब्लॉग संभवत: दुनिया का सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉग है जिसे पांच करोड़ से भी अधिक बार पढ़ा जा चुका है। ब्लॉगिंग का चस्का बहुत सी विख्यात हस्तियों को भी लगा है जिनमें टेनिस सुंदरी अन्ना कोर्निकोवा, हॉलीवुड अभिनेत्री पामेला एंडरसन, गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स, अभिनेत्री व सुपरमॉडल कर्टनी लव, फिल्म निर्देशक व अभिनेता केविन स्मिथ आदि शामिल हैं। हमारे देश में
भारत के कई अंग्रेजी ब्लॉग काफी लोकप्रिय हो गए हैं जिनमें गौरव सबनीस का वान्टेड प्वाइंट, अमित वर्मा का इंडिया अनकट, रश्मि बंसल का यूथ सिटी, अमित अग्रवाल का डिजिटल इनिस्परेशन, दीना मेहता का दीनामेहता.कॉम आदि प्रमुख हैं।
फिल्म अभिनेता आमिर खान (लगानडीवीडी.कॉम), जॉन अब्राहम, बिपासा बसु (बिपासाबसुनेट.कॉम), राहुल बोस, राहुल खन्ना, शेखर कपूर, सुचित्रा कृष्णमूर्ति, अनुपम खेर, कवि अशोक चक्रधर, रेडिफ चेयरमैन अजीत बालाकृष्णन, इंडियावर्ल्ड.कॉम बनाकर उसे छह सौ करोड़ रुपए में सिफी.कॉम को बेचने वाले राजेश जैन, वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई , नौकरी.कॉम के सी ई ओ संजीव बीखचंदानी आदि भी सक्रिय ब्लॉगर हैं। आमिर खान के ब्लॉग पर तो पिछली पोस्ट के जवाब में सत्रह सौ पाठकों की टिप्पणियां दर्ज हैं!
अगर आपने झटपट ब्लॉग बनाकर फटाफट धन कमाने की योजना बना ली हो तो जान लीजिए कि यह कोई आसान काम नहीं है। अपने ब्लॉग के लिए अमित अग्रवाल ही रोजाना सैंकड़ों ब्लॉगों, उतनी ही आरएसएस फीड (ब्लॉगों के लेखों को अपेक्षाकृत आसान फॉरमेट में कंप्यूटर या इंटरनेट ब्राउजर पर पढ़ने की सुविधा) और दर्जनों वेबसाइटों का अध्ययन करते हैं। रोजाना बारह से चौदह घंटे तक काम करना, पचासों मेल संदेशों का जवाब देना और सर्च इंजनों को खंगालना उनके दैनिक कर्म में शामिल है। लेकिन फिर भी, कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है।
हिंदी ब्लॉगिंग के प्रमुख हस्ताक्षरों में जीतेन्द्र चौधरी, अनूप शुक्ला, आलोक कुमार (जिन्होंने पहला हिंदी ब्लॉग लिखा और उसके लिए 'चिट्ठा' शब्द का प्रयोग किया), देवाशीष, रवि रतलामी, पंकज बेंगानी, समीर लाल, रमण कौल, मैथिलीजी, जगदीश भाटिया, मसिजीवी, पंकज नरूला, प्रत्यक्षा, अविनाश, अनुनाद सिंह, शशि सिंह, सृजन शिल्पी, ई-स्वामी, सुनील दीपक, संजय बेंगानी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। जयप्रकाश मानस, नीरज दीवान, श्रीश बेंजवाल शर्मा, अनूप भार्गव, शास्त्री जेसी फिलिप, हरिराम, आलोक पुराणिक, ज्ञानदत्त पांडे, रवीश कुमार, अभय तिवारी, नीलिमा, अनामदास, काकेश, अतुल अरोड़ा, घुघुती बासुती, संजय तिवारी, सुरेश चिपलूनकर, तरुण जोशी, अफलातून जैसे अन्य उत्साही लोग भी ब्लॉग जगत पर पूरी गंभीरता और नियम के साथ सक्रिय हैं और इंटरनेट पर हिंदी विषय वस्तु को समृद्ध बनाने में लगे हैं। अगर आप ब्लॉगों की दुनिया से अनजान हैं, तो संभवत: ये नाम भी आपने नहीं सुने होंगे। लेकिन अगर आप ब्लॉगजगत में सावन की तेज हवा में उड़ती पतंग का सा फर्राटा भी मार लें तो इन सबकी अनूठी रचनात्मकता, हिंदी प्रेम और ब्लॉगी जुनून का लोहा मानने पर मजबूर हो जाएंगे। इस लेख के शुरू में जिन दो ब्लॉगों पर लिखी टिप्पणियां उद्धृत की गई हैं, उन्हें रवि कामदार और शुएब संचालित करते हैं। प्रसंगवश, इसी ब्लॉगविश्व में मीडिया की आत्मालोचना पर केंद्रित 'वाह मीडिया' और 'मतांतर' नामक ब्लॉगों के माध्यम से मेरी भी उपस्थिति है।
ब्लॉगिंग में है कुछ अलग बात!
अंग्रेजी में तो ब्लॉगिंग की उम्र दस वर्ष हो गई है। इन दस वर्षों में संचार और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनने के साथ-साथ उसने सामूहिकता और सामुदायिकता पर आधारित अनेकों नई विधाओं को जन्म दिया है। दुनिया का पहला ब्लॉग किसने बनाया, इस बारे में मतैक्य नहीं है। लेकिन इस बारे में कोई विवाद नहीं है कि ब्लॉगिंग की शुरूआत १९९७ में हुई । अप्रैल १९९७ में न्यूयॉर्क के डेव वाइनर ने स्क्रिप्टिंग न्यूज नामक एक वेबसाइट शुरू की जिसने ब्लॉगिंग की अवधारणा को स्पष्ट किया और लोगों को अपने विचार इंटरनेट पर प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। दिसंबर १९९७ में जोर्न बार्गर ने रोबोटविसडम.कॉम की शुरूआत की और पहली बार इसे 'वेब लॉग' का नाम दिया। पीटरमी.कॉम के पीटर मरहोल्ज ने वेबलॉग के स्थान पर उसके छोटे रूप 'ब्लॉग' का प्रयोग किया। तब से इंटरनेट पर ब्लॉगों की जो तेज हवा बही, उसने पहले आंधी और अब तूफान का रूप ले लिया है।
हालांकि ब्लॉगिंग के आगमन के पहले से ही अभिव्यक्ति के नि:शुल्क मंच इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। नब्बे के दशक के शुरू में ही जियोसिटीज.कॉम, ट्राइपोड.कॉम, ८के.कॉम, होमपेज.कॉम, एंजेलफायर.कॉम, गो.कॉम आदि ने आम लोगों को अपने निजी इंटरनेट होमपेज बनाने की सुविधा दी थी और इनमें से अधिकांश आज भी सक्रिय हैं। उन पर लाखों लोगों ने अपनी वेबसाइटें बनाई भी लेकिन उन्हें ब्लॉगिंग की तर्ज पर अकूत लोकप्रियता नहीं मिली क्योंकि वेबसाइट बनाने के लिए थोड़ा-बहुत तकनीकी ज्ञान आवश्यक है। दूसरी तरफ ब्लॉग का निर्माण और संचालन लगभग मेल पाने-भेजने जितना ही आसान है। ब्लॉगर, वर्डप्रेस, माईस्पेस, लाइवजर्नल, ब्लॉग.कॉम, टाइपपैड, पिटास, रेडियो यूजरलैंड आदि पर ब्लॉग बनाना और टिप्पणियां पोस्ट करना बहुत आसान है। सरल, तेज, विश्वव्यापी, विशाल, नि:शुल्क और इंटर-एक्टिव होने के साथ-साथ कोई संपादकीय, कानूनी या संस्थागत नियंत्रण न होना ब्लॉगिंग की बुनियादी शक्तियां (और कमजोरी भी) हैं जिन्होंने इसे इंटरनेट आधारित अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों की तुलना में अधिक लोकप्रिय बनाया है।
ब्लॉगिंग विश्व ने उन लोगों की स्मृतियों को भी जीवित रखा है जो सरकारी दमनचक्र, समाजविरोधी तत्वों के जुल्म या फिर आतंकवादी कार्रवाइयों के शिकार हुए। चीन में भले ही थ्येनआनमन चौक पर हुई अमानवीय सैन्य कार्रवाई के खिलाफ मुंह खोलना बहुत बड़ा अपराध हो, पर ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसी रोकटोक नहीं। 'यान्स ग्लटर' नामक ब्लॉग का संचालन करने वाली यान शाम शैकलटन १९८९ में थ्येनआनमन चौक पर हुए सैनिक नरसंहार में मारे गए युवकों के प्रति अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त करती हैं-
'मैं भूलूंगी नहीं। मैं आपको हमेशा याद रखने का वादा करती हूं। मैं ऐसा दोबारा नहीं होने दूंगी। मैं पूरी दुनिया को आपकी, थ्येनआनमन चौक के छात्रों की याद दिलाती रहूंगी। मेरे बड़े भाइयो और बहनों!'
लोकतंत्र की आवाज़
दमन के विरुद्ध विद्रोह और लोकतंत्र की चाहत को भी ब्लॉगिंग ने स्वर दिए हैं। बहरीन में शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करते लोगों के सरकारी दमन को वहीं के एक ब्लॉगर 'चनाद बहरीनी' (ब्लॉगर का छद्म नाम) ने अपने चित्रों में कैद किया और ब्लॉग के माध्यम से दुनिया भर को उसकी जानकारी दी। कुछ वर्ष पहले अमेरिकी सीनेटर ट्रेन्ट लोट ने १९४८ के राष्ट्रपति चुनाव में हैरी ट्रूमैन के प्रतिद्वंद्वी और रंगभेद समर्थक उम्मीदवार स्ट्रॉम थरमंड का समर्थन किया। मीडिया ने इस पर खास ध्यान नहीं दिया तो ब्लॉगर समुदाय ने जोर-शोर से यह मुद्दा उठाया और सीनेटर से इस्तीफा दिलवाकर ही दम लिया। इस घटना में ब्लॉगरों ने मीडिया के वैकल्पिक स्वरूप के रूप में अपनी उपयोगिता सिद्ध की।
यही बात इराक युद्ध के दौरान भी 'बगदाद ब्लॉगर' के नाम से प्रसिद्ध एक गुमनाम ब्लॉगर ने 'सलाम पैक्स' के नाम से लिखे अपने ब्लॉग के माध्यम से दिखाई। वह इराक युद्ध की विनाशलीला का आंखों देखा हाल उपलब्ध कराता रहा और उसकी टिप्पणियों का दुनिया भर के मीडिया ने उपयोग किया। ब्लॉगिंग को लोकप्रिय बनाने में उसकी अहम भूमिका मानी जाती है। इराक युद्ध के दौरान जब बीबीसी और वॉयस ऑफ अमेरिका में इस ब्लॉगर पर केंद्रित कार्यक्रमों का प्रसारण किया गया तो उसके पिता को पहली बार अहसास हुआ कि संभवत: ये कार्यक्रम मेरे शर्मीले पुत्र के बारे में हैं जो चुपचाप कमरे में बैठकर इंटरनेट पर कुछ करता रहता है। उन्हें लगा कि सद्दाम हुसैन की खुफिया एजेंसियों को पता चलने वाला है और वे पक्के तौर पर बहुत बड़े संकट में फंसने जा रहे हैं। लेकिन सौभाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ और सलाम का नाम ब्लॉगिंग के इतिहास में दर्ज हो गया। (संयोगवश, सलाम ने इराक युद्ध के बाद लंदन के 'गार्जियन' अखबार में कॉलम भी लिखा)।
ब्लॉग लेखन आम तौर पर बहुत गंभीर लेखन नहीं माना जाता लेकिन ड्रज रिपोर्ट, बगदाद ब्लॉगर आदि की जिम्मेदाराना भूमिकाओं और ट्रेन्ट लोट के इस्तीफे के बाद समाचार माध्यम के रूप में भी उसकी साख और विश्वसनीयता में वृद्धि हुई है। पिछले अप्रैल माह में अमेरिका के वर्जीनिया विश्वविद्यालय में अनजान हमलावरों ने अंधाधुंध फायरिंग कर कई छात्रों को मार डाला तब ब्लॉगर अनुराग मिश्रा ने हमारे अपने 'इंडिया टीवी' के लिए रिपोर्टिंग की। इंडिया टीवी से जुड़े नीरज दीवान, जो स्वयं 'कीबोर्ड के सिपाही' नामक ब्लॉग चलाते हैं, कहते हैं- "उस घटना पर किसी भारतीय द्वारा अमेरिका से दी जा रही वह पहली जानकारी थी। अनुराग भाषा, शैली में पूर्णत: सक्षम और विश्वस्त ब्लॉगर हैं। वे उसी विश्वविद्यालय के छात्र भी हैं। उस वक्त मेरे पास उनसे बेहतर कोई और विकल्प नहीं था। अनुराग ने जन-पत्रकार की भूमिका बखूबी निभाई ।"
हिंसा व आतंक के खिलाफ और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने वाले ये गुमनाम सिपाही स्वयं भी लोकतंत्र विरोधियों के दमन का शिकार होते रहे हैं। ईरान सरकार ने अराश सिगारची नामक ब्लॉगर को उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से खफा होकर १४ साल के लिए जेल में डाल दिया है। अनार्कएंजेल नामक एक ब्लॉगर के खिलाफ मुस्लिम कट्टरपंथियों ने मौत का फतवा भी जारी किया है। सिंगापुर में दो चीनी ब्लॉगरों को स्थानीय कानूनों की आलोचना करने ओर मुसलमानों के खिलाफ टिप्पणियां करने के लिए जेल में डाल दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र से जुड़े एक राजनयिक को उसके ब्लॉग में लिखी टिप्पणियों के कारण सूडान ने तीन दिन में देश छोड़ने का आदेश दिया था। यानी चुनौतियों की कोई कमी भी नहीं।
ब्लॉगिंग अब नए क्षेत्रों, नई दिशाओं में आगे बढ़ रही है। असल में ब्लॉग तो अपनी अभिव्यक्ति, अपनी रचनाओं को विश्वव्यापी इंटरनेट उपयोक्ताओं के साथ बांटने का मंच है, और ऐसे मंच का प्रयोग सिर्फ लेखों, राजनैतिक टिप्पणियों और साहित्यिक रचनाओं के लिए किया जाए, यह किसी किताब में नहीं लिखा है। ब्लॉग पर फोटो या वीडियो डाल दीजिए, वह फोटो ब्लॉग तथा वीडियो ब्लॉग कहलाएगा। संगीत डाल दीजिए तो वही म्यूजिक ब्लॉग हो जाएगा। रेडियो कार्यक्रम की तरह अपनी टिप्पणियों को रिकॉर्ड करके ऑडियो फाइलें डाल दीजिए तो वह पोडकास्ट कहलाएगा। किसी ब्लॉग को कई लोग मिलकर चलाएं तो वह कोलेबरेटिव या सामूहिक ब्लॉग बन जाएगा। हिंदी में 'बुनोकहानी' नामक ब्लॉग पर कई ब्लॉगर मिलकर कहानियां लिख रहे हैं। यह इसी श्रेणी में आएगी।
किसी परियोजना विशेष से जुड़े लोग यदि आपस में विचारों के आदान-प्रदान के लिए ब्लॉग बनाएंगे तो वह प्रोजेक्ट ब्लॉग माना जाएगा और अगर कोई कंपनी अपने उत्पादों या सेवाओं का प्रचार करने या फिर अपने कर्मचारियों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान के लिए ब्लॉग बनाती है तो इसे कारपोरेट ब्लॉग कहेंगे। यानी ब्लॉग आपकी जरूरतों के अनुसार ढल सकता है। यूट्यूब (आम लोगों की ओर से पोस्ट किए गए वीडियो), फ्लिकर (आम लोगों के खींचे चित्र), विकीपीडिया (आम लोगों द्वारा लिखे गए लेख) जैसी परियोजनाएं भी ब्लॉगों की ही तर्ज पर विकसित हुई हैं। अब आम लोगों के भेजे समाचारों की वेबसाइटें भी लोकप्रिय हो रही हैं। अंग्रेजी समाचार चैनल आईबीएन ने पिछले साल इस दिशा में पहल की थी जो बहुत सफल हुई । भारत में मेरीन्यूज.कॉम भी नागरिक पत्रकारिता (सिटीजन जर्नलिज्म) पर आधारित एक चर्चित वेबसाइट है।
ब्लॉगिंग के और भी बहुत से रूप तथा उपयोग हैं। आजकल मेल पर जिस तरह से वायरसों और स्पैम (अनचाही तथा घातक डाक) का हमला हो रहा है उसे देखते हुए बहुत सी कंपनियां ब्लॉगों को संदेशों के आदान-प्रदान के सुरक्षित माध्यम के रूप में भी इस्तेमाल कर रही हैं। यह सामाजिक मेलजोल का भी एक माध्यम है। अपने ब्लॉग पर टिप्पणियां करने वाले अनजान व्यक्तियों के साथ संदेशों का आदान-प्रदान करते-करते उनके साथ मित्रता हो जाना स्वाभाविक है। धीरे-धीरे एक ही विषय में रुचि रखने वाले लोगों के बीच सामुदायिकता की भावना पैदा हो जाती है। ऐसे ब्लॉगर समय-समय पर मिल-बैठकर चर्चाएं भी करते हैं जैसे कि १४ जुलाई को दिल्ली में पहले कैफे कॉफी डे पर और फिर एक नए ब्लॉग एग्रीगेटर के दफ्तर पर हुई ।
हिंदी ब्लॉगिंग में हलचलें
अंग्रेजी में जहां ब्लॉगिंग १९९७ में शुरू हो गई थी वहीं हिंदी में पहला ब्लॉग दो मार्च २००३ को लिखा गया। समय के लिहाज से अंग्रेजी और हिंदी के बीच महज छह साल की दूरी है लेकिन ब्लॉगों की संख्या के लिहाज से दोनों के बीच कई प्रकाश-वर्षों का अंतर है। हालांकि अप्रत्याशित रूप से ब्लॉगिंग विश्व में एशिया ने ही दबदबा बनाया हुआ है। टेक्नोरैटी के अनुसार विश्व के कुल ब्लॉगों में से ३७ प्रतिशत जापानी भाषा में हैं और ३६ प्रतिशत अंग्रेजी में। कोई आठ प्रतिशत ब्लॉगों के साथ चीनी भाषा तीसरे नंबर पर है।
ब्लॉगों के मामले में हिंदी अपने ही देश की तमिल से भी पीछे है जिसमें दो हजार से अधिक ब्लॉग मौजूद हैं। लेकिन हिंदी ब्लॉग जगत निराश नहीं है। कुवैत में रहने वाले वरिष्ठ हिंदी ब्लॉगर जीतेन्द्र चौधरी कहते हैं- २००३ में शुरू हुए इस कारवां में बढ़ते हमसफरों की संख्या से मैं संतुष्ट हूं।
जीतेंद्र चौधरी के आशावाद के विपरीत रवि रतलामी मौजूदा हालात से संतुष्ट नहीं दिखते, "जब तक हिंदी ब्लॉग लेखकों की संख्या एक लाख से ऊपर न पहुंच जाए और किसी लोकप्रिय चिट्ठे को नित्य दस हजार लोग नहीं पढ़ लें तब तक संतुष्टि नहीं आएगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की गति अत्यंत धीमी है। पर इंटरनेट और कंप्यूटर में हिंदी है भी तो बहुत जटिल भाषा- जिसमें तमाम दिक्कतें हैं।"
दुनिया की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा होने के लिहाज से देखें तो हिंदी में ब्लॉगों की संख्या अपेक्षा से बहुत कम दिखेगी। लेकिन इसके कारण स्पष्ट हैं। टेलीफोन, कंप्यूटर, इंटरनेट, बिजली और तकनीकी ज्ञान जैसी बुनियादी आवश्यकताएं पूरी किए बिना कंप्यूटर और इंटरनेट को तेजी से लोकप्रिय बनाने की आशा नहीं की जा सकती। दूसरे, आर्थिक रूप से हम इतने सक्षम और निश्चिंत नहीं हैं कि ऐसी किसी तकनीकी सुविधा पर समय, श्रम और धन खर्च करना पसंद करें, जो अपरिहार्य नहीं है। तीसरे, हमारा समाज संभवत: पश्चिम के जितना अभिव्यक्तिमूलक भी नहीं है। बहरहाल, आर्थिक तरक्की के साथ-साथ इन सभी क्षेत्रों में स्थितियां बदल रही हैं जिसका असर ब्लॉग की दुनिया में भी दिख रहा है। पिछले छह महीने में नए हिंदी ब्लॉग बनने की गति कुछ तेज हुई है। चिट्ठाकार आलोक कहते हैं, "ब्लॉगिंग की गति में आई तेजी के कई कारण हैं। एक तो हिंदी में लेखन के अलग-अलग तंत्रों (सॉफ्टवेयरों) का विकास, दूसरे विन्डोज एक्सपी का अधिक प्रयोग जिसमें हिंदी में काम करना विंडोज ९८ की तुलना में अधिक आसान है, तीसरे ब्लॉगर जैसी वेबसाइटों में मौजूद सुविधाओं में वृद्धि (जिनसे ब्लॉगिंग की प्रक्रिया निरंतर आसान हो रही है), और चौथे पत्र-पत्रिकाओं में इंटरनेट, ब्लॉग आदि के बारे में छप रहे लेख।"
पुणे के सॉफ्टवेयर इंजीनियर देवाशीष चक्रवर्ती, जिन्होंने नवंबर २००३ में नुक्ताचीनी नामक ब्लॉग शुरू किया, ने हिंदी ब्लॉगिंग में अहम भूमिका निभाई है। नुक्ताचीनी के अलावा वे पॉडभारती नामक पोडकास्ट और नल प्वाइंटर नामक अंग्रेजी ब्लॉग चलाते हैं। उन्होंने श्रेष्ठ ब्लॉगों को पुरस्कृत करने के लिए 'इंडीब्लॉगीज' नामक पुरस्कारों की शुरूआत भी की है। देवाशीष कहते हैं, "भारतीय भाषाओं में ब्लॉग जगत में निरंतर विकास होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। अधिकांश भाषाओं के अपने ब्लॉग एग्रीगेटर हैं, और स्थानीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने भी भाषायी ब्लॉगरों को काफी प्रचारित एवं प्रोत्साहित किया है। गूगल और माइक्रोसॉफ्ट की कुछ तकनीकों से भी भाषायी ब्लॉगिंग को गति मिली है।" इस बीच, तरकश समूह ने भी ब्लॉग पोर्टल के रूप में एक अच्छी शुरूआत की है और वह तरकश जोश (अंग्रेजी), टॉक एंड कैफे (अंग्रेजी) और पॉडकास्ट का संचालन कर रहा है। नारद के कुछ प्रतिद्वंद्वी ब्लॉग एग्रीगेटर भी सामने आए हैं जिनमें ब्लॉगवाणी, चिट्ठाजगत और हिंदीब्लॉग्स.कॉम प्रमुख हैं। इन सबने हिंदी ब्लॉग जगत को विविधता दी है और उसकी विषय वस्तु को समृद्ध किया है।
अक्षरग्राम और नारद
बहरहाल, अगर कुछ समर्पित ब्लॉगरों ने मिलकर प्रयास न किए होते तो शायद हिंदी में ब्लॉगिंग की हालत बहुत कमजोर होती। अलग-अलग देशों में रहने ब्लॉगरों के कुछ समूहों ने हिंदी ब्लॉगिंग को संस्थागत रूप देने और नए ब्लॉगरों को प्रोत्साहित करने का अद्वितीय काम किया है। उन्होंने हिंदी में काम करने की दिशा में मौजूद तकनीकी गुत्थियां सुलझाने, नए लोगों को तकनीकी मदद देने, हिंदी टाइपिंग और ब्लॉगिंग के लिए सॉफ्टवेयरों का विकास करने, ब्लॉगों को अधिकतम लोगों तक पहुंचाने के लिए ब्लॉग एग्रीगेटरों (एक सॉफ्टवेयर जो विभिन्न ब्लॉगों पर दी जा रही सामग्री को एक ही स्थान पर उपलब्ध कराने में सक्षम है) का निर्माण करने, सामूहिक रूप से अच्छी गुणवत्ता वाली रचनाओं का सृजन करने और ब्लॉगरों के बीच नियमित चर्चा के मंच बनाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए हैं।
'चिट्ठाकारों की चपल चौपाल' के नाम से चर्चित अक्षरग्राम नेटवर्क ऐसा ही एक समूह है। इसके सदस्यों में पंकज नरूला (अमेरिका), जीतेन्द्र चौधरी (कुवैत), ईस्वामी, संजय बेंगानी, अमित गुप्ता, पंकज बेंगानी, निशांत वर्मा, विनोद मिश्रा, अनूप शुक्ला और देवाशीष चक्रवर्ती शामिल हैं। यह समूह ब्लॉग एग्रीगेटर 'नारद' और 'चिट्ठा विश्व' (आजकल निष्क्रिय), 'अक्षरग्राम', हिंदी विकी 'सर्वज्ञ', ब्लॉगरों के बीच वैचारिक-आदान प्रदान के मंच 'परिचर्चा', सामूहिक रचनाकर्म पर आधारित परियोजना 'बुनो कहानी', ब्लॉग पत्रिका 'निरंतर' आदि का संचालन करता है। ब्लॉग जगत से जुड़े अधिकांश सदस्य इन सभी से न सिर्फ परिचित हैं, बल्कि किसी न किसी तरह जुड़े हुए भी हैं। (हिंदिनी, भड़ास, हिंद-युग्म, सराय, चिट्ठा चर्चा आदि भी सामूहिक ब्लॉगों के अच्छे उदाहरण हैं)।
हिंदी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में धीमी प्रगति के बावजूद इस समूह ने अपनी लगन और उत्साह में कमी नहीं आने दी। इस बारे में जीतेंद्र चौधरी का कहना है, "इंटरनेट पर हिंदी का प्रचार-प्रसार हिंदी ब्लॉगिंग के जरिए बढ़ सकता है क्योंकि हर ब्लॉगर अपने साथ कम से कम दस पाठक जरूर लाएगा। अगर उन दस पाठकों में से चार ने भी ब्लॉगिंग शुरू की तो एक श्रृंखला बन जाएगी और ध्यान रखिए, इंटरनेट पर जितनी ज्यादा सामग्री हिंदी में उपलब्ध होगी, जनमानस का इंटरनेट के प्रति रुझान भी बढ़ता जाएगा।
अद्यतन टिप्पणीः हिंदी में नारद के अतिरिक्त भी कुछ अच्छे ब्लॉग एग्रीगेटर आए, जिन्होंने ब्लॉगिंग के प्रति रुझान बढ़ाने और इस क्षेत्र को सुनियोजित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें मैथिली और सिरिल गुप्ता का 'ब्लॉगवाणी' और आलोक कुमार का 'चिट्ठाजगत' प्रमुख थे। इससे पूर्व 'चिट्ठा विश्व' के रूप में भी देवाशीष चक्रवर्ती की पहल पर एक अच्छा प्रयास हो चुका था। लेकिन कुछ ब्लॉगिंग विश्व से जुड़े कारणों, कुछ तकनीकी और कुछ निजी कारणों से ये एग्रीगेटर बंद हो गए।
सीमाएं और चुनौतियां
हिंदी ब्लॉगिंग के स्वस्थ विकास के लिए कुछ मुद्दों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। जिस तरह ब्लॉगरों की संख्या में वृद्धि की दर दूसरी भाषाओं की तुलना में काफी कम है, उसी तरह यहां पाठकों का भी टोटा है। हिंदी ब्लॉग विश्व को चिंतन करना होगा कि वह आम पाठक तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगिंग में विविधता का अभाव है? क्या इसलिए कि इसमें मौजूद अधिकांश सामग्री समसामयिक विषयों पर टिप्पणियों, निजी कविताओं, पुराने लेखों तथा प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं को इंटरनेट पर डालने तक सीमित है? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगों की भाषा अभी विकास के दौर से गुजर रही है और पूरी तरह मंजी नहीं है? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगों की सामग्री सुव्यवस्थित ढंग से उपलब्ध नहीं है बल्कि छिन्न-भिन्न है जिसमें मतलब की चीज ढूंढना चारे के ढेर में सुई ढूंढने के समान है? या फिर इसलिए कि पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपने के बावजूद हिंदी पाठक अभी तक ब्लॉगिंग को तकनीकी अजूबा मानते हुए उनसे दूर हैं?
इंटरनेट आधारित साहित्यिक पत्रिका सृजनगाथा.कॉम के संपादक और ब्लॉगर जयप्रकाश मानस कहते हैं, "जहां तक हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा का प्रश्न है, वह अभी परिनिष्ठित हिंदी को स्पर्श भी नहीं कर सकी है। वहां भाषा का सौष्ठव कमजोर है। अधिकांश ब्लॉगर नगरीय परिवेश से हैं, ऊपर से हिंदी के खास लेखक और समर्पित लेखक ब्लॉग से अभी कोसों दूर हैं, सो वहां भाषाई कृत्रिमता और शुष्कता ज्यादा है। वहां व्याकरण की त्रुटियां भी साबित करती हैं कि अभी हिंदी ब्लॉगिंग में भाषा का स्तर अनियंत्रित है।" अविनाश भी इससे सहमत दिखते हैं, "हिंदी ब्लॉगिंग की अभी कोई शक्ल नहीं बन पाई है। विविधता के हिसाब से भी अभी विषयवार ब्लॉग नहीं हैं। लेकिन जो हैं, वे जड़ता तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।"
हालांकि कई लेखक लीक से हटकर चलने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। अतुल अरोरा और सुनील दीपक के संस्मरण और यात्रा वृत्तांत, रवि रतलामी, श्रीश शर्मा, जीतेन्द्र चौधरी, देबाशीष, पंकज नरूला, ईस्वामी, अमित गुप्ता, प्रतीक पांडेय आदि के तकनीकी आलेखों का स्तर बहुत अच्छा है। प्रत्यक्षा जैसी कथालेखिका, अशोक चक्रधर, बोधिसत्व जैसे कवि और जयप्रकाश मानस, प्रमोद सिंह, प्रियंकर जैसे साहित्यकार-ब्लॉगर, आलोक पुराणिक जैसे सक्रिय व्यंग्यकार और रवीश कुमार, चंद्रभूषण, इरफान जैसे पत्रकार भी अच्छी, विचारोत्तेजक ब्लॉगिंग कर रहे हैं। लेखक ने स्वयं अपने ब्लॉग 'वाहमीडिया' को विविधता के लिहाज से मीडिया की आत्मालोचना पर केंद्रित रखा है। कमल शर्मा का 'वाह मनी' आर्थिक विषयों पर केंद्रित है और आलोक का 'स्मार्ट मनी' निवेश संबंधी सलाह देता है।
'फुरसतिया' और 'मोहल्ला' पर कई ऊंचे दर्जे के साक्षात्कार और लेख पढ़े जा सकते हैं। नीलिमा हिंदी ब्लॉग जगत में पाठकों-लेखकों संबंधी आंकड़ों की गहन छानबीन कर रही हैं। मनीषा स्त्री विमर्श के मुद्दों पर साहसिक लेखन कर रही हैं। लेकिन विविधता अभी और भी चाहिए। जीतेन्द्र चौधरी भी यह बात मानते हैं- "लेखन के विषयों और गुणवत्ता पर काफी कुछ किया जाना बाकी है। आसपास कई ऐसे चिट्ठाकार आए हैं जिनके लेखन में विविधता है और लेखन भी काफी उत्कृष्ट कोटि का है। लेकिन बहुसंख्यक ब्लॉग ऐसे हैं जो निजी डायरी के रूप में ही चल रहे हैं।"
अनगढ़ भाषा कोई अड़चन नहीं!
वैसे एक मजेदार तथ्य यह भी है कि भाषा के लिहाज से बेहद कमजोर माने जाने वाले कुछ ब्लॉग लोकप्रियता में परिमार्जित भाषा वाले ब्लॉगों से कहीं आगे हैं। तत्वज्ञानी के हथौड़े की भाषा देखिए- "वेसे अगर आपके जमाने कि बात करे तो भी लता से बहेतर बहुत सी गायिकाए होन्गी लेकिन आपकि कमजोर संगीत सुझकि बजह से वह आपको दिखी नहि! शायद आप पोप्युलर गाने हि सुनते थे इसिलिए शमशाद बेगम को भुल गए। शायद लताजी फिल्मों में राजनिति करती थी और इसलिए कोई और आपके जमाने मे से उभर नहि पाया? मुझे अफसोस होता है कि आप लोगो ने केवल २-३ अछछी गायिकाए दी!" और शुएब को देखिए, "अपने विचारों को शेर करने के लिए मेरा ब्लॉग काफी है और मेरी डाईरी यही ब्लॉग है। भारत मेरा पहला धर्म है जहां मैं पैदा होवा और उसी के बनाए कानून के मुताबिक कोर्ट में शादी करूंगा मगर एसी लड़की मिलेगी कहां?"
कहना न होगा कि व्याकरण संबंधी त्रुटियों के बावजूद ये दोनों ब्लॉगर सर्वाधिक पढ़े जाने वालों में से हैं। भाषा की बात चली है तो कुछ स्थानों पर असहज और चौंका देने वाली भाषा भी दिखती है। इस संदर्भ में कुछ शीर्षकों की मिसालें भी दी जा सकती हैं, "सब मोहल्ले का लौंडपना है", "क्या इस देश को चूतिया बनाया जा रहा है?" आदि आदि। भाषायी सुरुचि और शालीनता में विश्वास रखने वाले शुद्धतावादियों को शायद इन टिप्पणियों को पढ़कर भी निराशा होगी-
1. "आपके चिट्ठे की टिप्पणियों में बेनामों की विष्ठा के अलावा कोई भी नामधारी टिप्पणी क्यों नहीं है?",
2. "बेंगाणी एक गंदा नैपकिन है",
3. "ये लोग (एक ब्लॉगर) आतंकवादी से भी खतरनाक हैं। ये हमेशा आग लगाने की फिराक में रहते हैं।"
जयप्रकाश मानस कहते हैं, "सार्थक अर्थों में वैचारिक, अर्थशास्त्रीय, चिकित्सा, इतिहास, लोक अभिरुचि और साहित्यिक ब्लॉग नहीं के बराबर हैं। हिंदी ब्लॉगरों के उत्साह को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए ब्लॉगिंग के विषयों और उसके कोणों में विविधता और विश्वसनीयता आवश्यक है अन्यथा इनकी स्थिति भी वैसी ही हो जाएगी जैसे किसी दैनिक अखबार के संपादक को कई बार किसी कल्पित नाम से 'संपादक के नाम पत्र' छापना पड़ता है।'
लेखकों के साथ-साथ हिंदी ब्लॉगों के पाठक कैसे बढ़ें? रवि रतलामी के अनुसार, "फिलहाल हिंदी ब्लॉग जगत के अधिकतर पाठक वे ही हैं जो किसी न किसी रूप से स्वयं ब्लॉगिंग से जुड़े हुए हैं। उनमें से अधिकतर स्वयं सक्रिय रूप से ब्लॉग लिखते हैं।" अनूप शुक्ला भी यह बात स्वीकार करते हैं, "पाठक तब बढ़ेंगे जब हिंदी में तकनीक का प्रसार होगा। हमारे समाज में कंप्यूटर और नेट का पूरी तरह से उपयोग होना बाकी है। जैसे-जैसे मीडिया में ब्लॉगिंग का प्रचार होगा, वैसे-वैसे पाठक संख्या में भी वृद्धि होगी।" आलोक कुमार इस संदर्भ में बड़ी कंपनियों के पहल करने की जरूरत महसूस करते हैं, "बड़े पोर्टल और बड़ी कंपनियां हिंदी भाषियों की जरूरतों को पूरा करने में पीछे रह गई हैं। इस समय जो भी बड़ी कंपनियां व पोर्टल आगे आकर हिंदी के स्थल बनाएंगे उनके पीछे हिंदी भाषियों की बहुत बड़ी टोली हो लेगी।"
यानी हिंदी ब्लॉगिंग को भी बड़े संस्थानों के समर्थन की जरूरत है। शायद आलोक कुमार ठीक कहते हैं। ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर और संस्थागत आधार पर तैयार किए गए सॉफ्टवेयरों की तुलनात्मक स्थिति को देखकर भी यह धारणा पुष्ट होती है कि आम लोगों द्वारा किए जाने वाले असंगठित तकनीकी प्रयासों को किसी न किसी दिशानिर्देशक या व्यवस्थागत समर्थन के बिना उतनी बड़ी सफलता नहीं मिल पाती जिसके वे वास्तव में हकदार होते हैं। (balendu.com से साभार)

Page Three Journalism / Anil Saumitra

पत्रकारिता के बारे में मीडिया घरानों, पत्र समूहों से लेकर चाय और पान के ठेलों तक पर चर्चाएं होती हैं। पाठक, दर्शक और श्रोता अब निष्क्रिय नहीं है, वह सक्रिय हो गया है। पत्रकारिता भी निरामय या निरापद नहीं रही। पत्रकारिता के विविध आयामों - रक्षा-युद्ध पत्रकारिता, खोजी पत्रकारिता, राजनैतिक पत्रकारिता, मनोरंजन-फिल्म पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता आदि के साथ ही एक नया आयाम ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता का है। जैसे मीडिया और पत्रकारिता में कई बातें यूरोप और अमेरिका के देशों से आयात हुई हैं वैसे ही ‘पेज-3’ भी। जब से ‘पेज-3’ नाम से फिल्म बनी और चली तब से इसकी चर्चा और अधिक हो गई है। लेकिन आज भी ‘पेज-3 पत्रकारिता’ के बारे में आम तौर पर ज्यादा विचार नहीं किया जाता।
इस दिशा में विचार न होने का कारण शायद यह भी है कि भारत की पत्रकारिता का अधिकांश हिस्सा ‘पेज-3’ की ही शक्ल ले चुका है। दरअसल 70 के दशक में ब्रिटेन में सनसनीखे़ज पत्रकारिता के लिए छाटे आकार वाले समाचार पत्रों में पेज-3’ का चलन शुरु हुआ। वहां के ‘सन’ पत्रिका ने अपने खास पृष्ठ पर महिलाओं के नग्न और अद्र्धनग्न फोटो प्रकाशित करना शुरु किया। पत्रिका में यह सब कुछ तीसरे पृष्ठ पर ही छपता था। यह सब फैशन और परंपरा के नाम पर होता रहा। बाद में यह ‘पेज थ्री’ और ‘पेज थ्री संस्कृति’ के नाम से चर्चित हुआ। समाचार क्षेत्र में वह प्रत्येक घटना जो परंपरा, संस्कृति और मूल्यों को चुनौती देने वाला हो उसे पेज 3 पर जगह मिलने लगी। सामान्यतः पत्र-पत्रिकाओं का वह हिस्सा जहां फिल्मों, अभिजात्य समारोहों, जीवन शैली और महत्वपूर्ण हस्तियों के व्यक्तिगत जीवन और मनोरंजन आदि से संबंधित हल्के-फुल्के और अ-गंभीर समाचार छपते हों उसे ‘पेज-थ्री’ समाचार कहा जा सकता है। इंग्लैंड में ‘सन’ पत्रिका की देखा-देखी अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी इस तरह की प्रतिस्पद्र्धा बढ़ गई। इस अखबार ने 1999 में ‘पेज 3’ नाम से एक वेब साइट की श्ुरुआत भी की। आज यूरोप और अन्य देशों की पत्रकारिता भले ही परिपक्व हो गई हो, लेकिन भारतीय पत्रकारिता में ‘पेज-3 पत्रकारिता’ का चलन जोरों पर है, यह दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भारत की पत्रकारिता में यह एक नई अवधारणा का उदय है जो पत्रकारिता में काफी तेजी से अपना दखल बढ़ाता जा रहा है।
करीब डेढ़ दशक पहले अंग्रेजी अखबार टाइम्स आॅफ इंडिया ने भारत में ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता शुरु की। इसका उद्देश्य भारत में तैयार हो रहे एक अलग प्रकार के पाठक वर्ग पर अपनी पकड़ बनाना था। टाइम्स समूह ने इस बहाने एक नए बाजार को गढ़ने और उसका लाभ उठाने की कोशिश भी की। अब तो शायद ही कोई पत्र-पत्रिका हो जो इस राह पर न चल रहा हो। हिन्दी और अन्य भाषायी पत्र-पत्रिकाओं ने इन मामले में अंग्रेजी अखबारों की नकल उतार ली। अब तो नवभारत टाइम्स ही नहीं, बल्कि अधिकांश हिन्दी के अखबार फिल्मी हस्तियों की निजी जिंदगी तक अपने पाठकों की पहुंच सुलभ करा रहे हैंं। ये जानते हुए कि न तो उनके पाठकों के लिए और न ही उस अखबार के लिए यह जरुरी है। कई गंभीर किस्म के पत्र समूह तो अपने पाठकों का आकर्षण बरकरार रखने के लिए ही इस तरह की जद्दोजहद में लगे हैं।
दुनिया में खुली अर्थव्यवस्था का दौर है। भारत में 1990 से शुरु हुआ आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद का दौर अपने शबाब पर है। पूंजी और सूचनाएं अबाध गति से भूमंडलीकृत हो रही है। भारतीय मीडिया और पत्रकारिता भी इस प्रक्रिया से बेअसर नहीं है। दुनियाभर में न सिंर्फ आर्थिक खुलेपन आया है, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। न सिर्फ जीवन शैली बल्कि भाषा भी बदल रही है। वैश्विक स्तर पर सास्कृतिक समरुपीकरण (ीवउवहमदपेंजपवद) का दौर चल रहा है। वैश्वीकरण की यह तीव्र लालसा है कि दुनिया में न देशों की मुद्राएं एक हो जाएं बल्कि उनकी संस्कृति भी एक समान हो जाए। उदारवादी दुनिया की यह कल्पना है कि दुनिया सांस्कृतिक विविधताएं समाप्त होकर एक जैसी हो जायेंगी। पश्चिमी देशों का यह मिशन है कि विश्व की विभिन्न संस्कृतियां आदान-प्रदान करें और विश्व व्यवस्था की मातहत बन जाएं। अर्थात् विविध संस्कृतियां आदान-प्रदान करती हुई सशक्त न हों बल्कि एक ही हो जाएं।
पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ की अवधारणा, वैश्वीकरण की सांस्कृतिक समरुपीकरण से मिलती-जुलती है। पेज-थी्र समाचार अंततः ‘पेज-थ्री संस्कृति’ को जन्म देते हैंं। गत दशकों में पत्रकारिता में अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों में सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं - संपादक संस्था का हृास या पतन, पत्रकारिता में पूंजी और तकनीक का बढ़ता दखल और पत्रकारिता का बाजारोन्मुख होना है। पेज थ्री पत्रकारिता बाज़ार की बाज़ारी पत्रकारिता है। यह पत्रकारिता देश-समाज की असल समस्याओं से मुँह मोड़ कर ग्लैमर और मनोरंजन के सहारे एक काल्पनिक दुनिया पैदा करती है। पेज-थ्री पत्रकारिता स्वप्न की पत्रकारिता है। यह समृद्धि की पत्रकारिता है, विकास की नहीं। यह खुशहाली की नहीं, अमीरों की पत्रकारिता है। एक मायने में यह पत्रकारिता की मूल अपेक्षाओं का हिंसक उल्लंघन करती है। मीडिया, प्राच्यवाद और वर्चुअल यथार्थ नामक पुस्तक में जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ने बौद्रिलार्द का हवाला देते हुए लिखा है - बौद्रिलार्द ने लिखा है हमारा मीडिया आज लुप्त सामाजिकता और उसके साझा अनुभवों को सुरक्षित बनाए हुए है। उसके अर्थों को सहेजे हुए है और उसका उपभोग बढ़ा रहा है। इसके जरिए वह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। जनजाति समाजों, उत्सवों और हिंसा के विकल्प के तौर पर हमने स्थानीय फुटबॉल, राष्ट्रीय लॉटरी गेम शो, प्रातःकालीन टीवी और उसके बेहतरीन प्रस्तोता, फिल्म के प्रीमियर और तत्संबंधी घटना, समाचार कवरेज, कामुक प्रसाधन कार्यक्रमों सनसनीखेज, मसालेदार धारावाहिक और जनता के कष्ट, अपमान और रियलिटी टीवी के घृणा के पात्रों के रूप में पेश किया है। समस्त सामाजिक उर्जा को इस काम में ऐसे लगा दिया है कि वह यदि और मांग करे तो उसे तत्काल सप्लाई दे दी जाए। चर्चित व्यक्तित्वों की हगनी-मुतनी से लेकर समारोह तक की गतिविधियों का आनंद लेने के साथ राजा-महाराजाओं, अमीरों के शौक-मौज और खेल को रोज परोसा जा रहा है।
इस क्रम में समाज को पेशेवर और व्यक्तिवादी बनाया जा रहा है। ये सारी चीजें बगैर मांगे ही अपने आप आपको घर बैठे उपलब्ध हो रही है। इन्हें पाने के लिए किसी किस्म के सामाजिक संपर्क की जरूरत नहीं है। उपभोक्ता समाज उन वस्तुओं पर टिका नहीं है जो जरूरत की हैं, बिल्क उन वस्तुओं पर टिका है जो जरूरत की नहीं है। गैर-जरूरी को जरूरत का हिस्सा बनाना ही प्रधान लक्ष्य है। इस समूची प्रक्रिया में वास्तविक जरूरत और नकली जरूरत के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। यह सारा काम किया जाता है मार्केटिंग और विज्ञापन के जरिए। बौद्रिलार्द के अनुसार, विज्ञापनों, फिल्मों एवं टीवी में अधिकांश प्रस्तुतियां प्रामाणिक नहीं होती। ज्यादातर फिल्मों में दैनंदिन रोमांस, कार, टेलीफोन, मनोविज्ञान, मेकअप आदि का ही रुपायन होता है। वे पूरी तरह जीवन शैली के विवरण है। विज्ञापनों में भी यही होता है।
दरअसल पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है उसका विषय-वस्तु। यही पत्रकारिता को सााख और धाक् दोनों देती है। इसी से पत्रकारिता को ताकत मिलती है। अखबारों की प्रतिबद्धता से ही पाठकों में उसके प्रति लगाव और विश्वसनीयता बढ़ती है। पत्रकारिता की यह विश्वसनीयता उसके विषय-वस्तु के कारण ही है। यही वजह है कि पाठक विज्ञापनों की बजाए खबरों और संपादकीय विषय-वस्तु पर अधिक भरोसा करते हैं। पत्रकारिता का यह धर्म है कि वह अपने लक्ष्य समूह तक सही सूचनाएं पहंचाए। बाज़ार की शक्तियों ने अखबार और उसके पाठकों के ‘प्रतिबद्धता-विश्वसनीयता’ तन्तु को भली-भाँति जान-समझ लिया। इसे उन्होंने अपने आर्थिक हित के लिए उपयोग किया। कंपनियों ने बाज़ार में  अपने उत्पादों की मांग, अनावश्यक मांग पैदा करने के लिए अखबारों का सहारा लिया। कंपनियों की प्रेस विज्ञप्तियां खबरों की तरह छपने लगी। विज्ञापनों ने खबरों में घुसपैठ कर ली। अखबारों न भी लालचवश अपनी प्रतिबद्धता को दांव पर लगा दिया। उन्होंने पाठकों की विश्वसनीयता को ताक पर रख कंपनी मालिकों से समझौता कर लिया। खबरों की सौदेबाजी होने लगी। इसने समाचार और विज्ञापन के भेद को खत्म कर दिया। पत्रकारिता में आ रहा यह बदलाव समझ से परे जरूर था, लकिन यह हकीकत था। अनसुनी और अकल्पनीय बात आंखों के सामने हो रही थी। भारत में यह खतरनाक श्ुारुआत हुई। 15-25 वर्षों पहले अंग्रेजी पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ के नाम से शुरु हुआ यह बदलाव हिन्दी पत्रकारिता में पेड-न्यूज और ‘सुपारी पत्रकारिता’ के स्वरुप में दिख रहा है।
स्वप्रचार की भूखी एक ऐसी पूरी जमात जो धन लुटाने का तैयार थी अखबारों को मिल गई। अखबारों में अभिजात्य अमीरों की पार्टियों की तस्वीरें छापीं जाने लगी। फिल्मी और कला-संस्कृति जगत की हस्तियों के निजी जीवन समाचार बनने लगे। तारिकाओं और मॉडल्स की नग्न-अद्र्धनग्न तस्वीरें किस्म-किस्म वस्त्र-अधोवस्त्रों में छपने लगी। अखबारों में यह सब भुगतान के आधार पर छापा जाने लगा। पत्रकारिता ने अपनी सााख को पेज-थ्री के हवाले कर दिया। विज्ञापन-खबर और संपादकीय दूरियां खत्म कर दी गई। पत्रकारिता में ‘एडवरटोरियल’ का जमाना आ गया। अब समाचार भी प्रायोजित होने लगे। पत्रकारिता ने एक नई विधा को अपना लिया। इसके तहत विज्ञापन को संपादकीय सामग्री या समाचार की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा। एक प्रकार से अखबार और पाठकों के बीच के भरोसे को बाज़ार की ताकतों ने खरीद लिया। व्यवसाय और बाज़ार की दुनिया के ताकतवर लोगों ने पत्रकारिता के प्राण ‘खबर’ का हरण कर लिया। पत्रकारिता में एडवरटोरियल नाम के विषाणु ने जन्म लिया और देखते ही देखते अनियंत्रित हो गया। समाचारों से सौदेबाजी की शुरुआत व्यावसायिक घरानों और प्रचार की लिप्सा से ग्रस्त धनाढ्यों ने की। बाद में राजनीति ने भी इसका भरपूर इस्तेमाल किया। लोकसभा और विधानसभा चुनावों से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में भी बड़े पैमाने पर खबरों की सौदेबाजी की गई। चुनावों के दरम्यान राजनीति के लोगों ने प्रेस रिलीज, इंटरव्यू और अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए खूब सौदेबाजी की। आज पेज-3, पेडन्यूज और सुपारी पत्रकारिता का दाग पत्रकारिता के दामन पर लग चुका है।
पेज-3 पत्रकारिता के नाम पर अभिजात्य जीवन शैली, आधुनिक प्रचलन, सिनेमा, अभिजन विचारों और ऐसे ही कई विषयों को प्रकाशित किया जा रहा है। लेकिन आज यह पत्रकारिता बहुत दूर जा चुकी है। ऐसे अनेक असामाजिक, अनैतिक और नाजायज घटनाओं को कवर किया जा रहा है जो भावी पीढ़ी के लिए खतरनाक है। यह आने वाली पीढ़ी को रुग्ण बना सकता है। इलेक्टाªॅनिक और प्रिंट दोनों पत्रकारिता में विभत्स, हिंसक, उत्तेजक और अश्लील पार्टियों की बाढ़ आ गई है। टीवी के विभिन्न चैनलों में बिग बॉस, सच का सामना, बिकनी क्वीन प्रतियोगिता, फैशन-शो और विश्व सुंदरी चयन प्रतियोगिता को दिखाया जाना और उसके समाचार बार-बार प्रकाशित-प्रसारित करना यह पेज-थ्री का हिस्सा बन गया है। टीवी, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में शहरी और मेट्रो शहरों का तड़क-भड़क दिखाया जाता है। पेज थ्री पत्रकारिता की पहचान इन्हीं समाचारों से बनी है। इसका नकारात्मक प्रभाव ग्रामीण और अद्र्ध शहरी समाजों पर पड़ता है।
जिस पेज-थ्री पत्रकारिता की शुरुआत पाठकों को लुभाने, आकर्षित करने और अपने अखबार से प्रतिबद्ध रखने के लिए किया गया था, आज वही अपने विभत्स रूप में न सिंर्फ अपने पाठकों का, बल्कि समूचे समाज का अहित कर रहा है। बहुत लंबा समय नहीं हुआ जब भारतीय पत्रकारिता में मिशन और प्रोफेशन की चर्चा सरेआम हुआ करती थी। तब चर्चा यह होती थी कि खबरों को विचारों से अलग रखा जाए, लेकिन आज चर्चा इस बात पर होने लगी है कि खबरों को विज्ञापन से अलग कैसे रखा जाए। रिपोर्टर और विज्ञापन एजेंट के बीच दूरी कैसे बरकरार रखी जाए। पेज थ्री ने पहले पत्रकारिता को पटरी से उतारा अब वह भारतीय समाज को सांस्कृतिक मूल्यों की पटरी से उतारने में लगी है। यह समाज और पत्रकारिता दोनों के लिए घातक है।

प्रश्न 30 / एक किताब / 100 जवाब

1. मीडिया पूंजी बटोरने का धंधा है या समाज को दिशा देने का मिशन?
2. क्या भारत के गरीबों और वंचितों को मीडिया ने हाशिये पर फेक दिया है?
3. क्या हिंदी मीडिया के लिए साहित्य गैरजरूरी हो गया है?
4. क्या ज्यादातर मीडिया घरानों को अब पत्रकार नहीं, एचआर हेड चला रहे हैं?
5. हिंदी मीडिया क्या गांव-देहात के पत्रकारों का सबसे ज्यादा शोषण कर रहा है?
6. क्या मीडिया में महिलाओं, दलितों और मुसलमानों की संख्या नगण्य है?
7. क्या ज्यादातर मीडिया हाउसों में एक भी मान्यता-प्राप्त महिला पत्रकार नहीं हैं?
8. क्या हिंदी मीडिया के लिए पाठक केवल ग्राहक भर रह गया है?
9. क्या ज्यादातर हिंदी अखबार पत्रकारिता के मूल्यों को रौंद रहे हैं?
10. क्या फूहड़ता परोस कर मीडिया आधी आबादी की अस्मिता से खेल रहा है?
11. क्या पत्रकारिता सामाजिक परिवर्तन का सबसे कारगर माध्यम है?
12. क्या आज पत्रकारिता अपने मार्ग से भटक गयी है?
13. क्या पत्रकारिता की शक्तियों का मीडिया हाउस दुरूपयोग कर रहे हैं?
14. क्या मीडिया भारतीय समाज के तीन स्तंभों पर हावी होना चाहता है?
15. क्या मीडिया हाउस भी बेरोजगारी और अशिक्षा का लाभ उठा रहे हैं?
16. क्या भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों पर मीडिया हाउस चुप्पी साध लेते हैं?
17. क्या मीडिया किसानों और मजदूरों पर अत्याचार की खबरों को छिपाता है?
18. क्या मीडिया गांवों की समस्याओं को नकार दिया है?
19. क्या मीडिया ने आजादी के आंदोलन में पत्रकारिता की भूमिका को भुला दिया है?
20. क्या हिंदी मीडिया में अब लेखकों, साहित्यकारों की संख्या नगण्य हो गयी है?
21. क्या सभी बड़े अखबार अपने को सबसे ज्यादा लोकप्रिय बताकर झूठ बोलते हैं?
22. क्या ज्यादातर मीडिया हाउस संचालक पूंजीपति हैं?
23. जनता को जगाने के लिए मीडिया को क्या करना चाहिए?
24. क्या हिंदी अखबारों में पत्रकारों से बारह से सोलह घंटे तक काम लिया जाता है?
25. क्या मीडिया हाउस श्रम कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं?
26. क्या पत्रकार समाज का प्रहरी नहीं, केवल वेतनभोगी होता है?
27. क्या ज्यादातर पत्रकार ईमानदार और अपने पेशे से संतुष्ट नहीं हैं?
28. क्या अब स्वतंत्र पत्रकारिता के दिन लद चुके हैं?
29. क्या यह पत्रकारिता का प्रश्नकाल है?
30. क्या ये प्रश्न जरूरी हैं? इनके समाधान की दिशा में अब क्या होना चाहिए?
(जन मीडिया मंच की ओर से जारी)

जयंती रंगनाथन की कहानी गीली छतरी

कल की तरह आज भी वो रेस्तरां के कोने वाली सीट पर बैठा था। सुनहरे लंबे बाल। लगता है आज उसने शैंपू कर रखा था। सुबह की रोशनी में उसके बाल चमक रहे थे। नीले रंग की ढीली सी चैक वाली कमीज और कंधे पर टिका जयपुरी झोला।
उसके सामने वही कल वाली बच्ची बैठी थी। दोनों हाथों से बड़ा सा सैंडविच खाने की कोशिश करती हुई।
कल रिंकी ने ही मुझे टो
क कर कहा था,‘ममा, वहां देखो...’
हम दोनों को वह फिरंगी मजेदार लगा। सामने बैठी बच्ची देसी थी। काले-भूरे बेतरतीब खुले बाल। सुबह के समय भी आंखों में धूप का चश्मा लगाए। लाल रंग की छींट वाली सलवार-कमीज में वह अपनी उम्र से बड़ी लग रही थी। वह कचर-कचर कचौड़ी खा रही थी और फिरंग सलीके से चीज ऑमलेट खा रहा था।
रिंकी के साथ अकेली इस तरह घूमने पहली बार घर से निकली थी। इससे पहले जब भी बाहर गए, अशोक हमारे साथ रहे। अशोक को हमेशा जल्दी मची रहती थी। वह दस मिनट चैन से नाश्ता करने नहीं देता, हमारे पीछे पड़ जाता कि तुम दोनों मां-बेटी घूमने आई हो या आराम से बैठ कर खाने-पीने? यहां से निकलोगी तो कहीं लंच करने बैठ जाओगी। घूमोगी कब?
लेकिन हम दोनों तो ऐसे ही थे। आराम से एक जगह रुक कर, सुकून से उस क्षण को जीने में मजा आता था। हम दोनों बटर टोस्ट के साथ चाय पर चाय पीते रहे और फिरंगी और उस बच्ची को कौतुहल से देखते रहे। रिंकी ने कहा, ‘वो एक लेखक होगा और कहानी लिखने के लिए यहां आया होगा। वो ही लोग तो होते हैं ना थोड़े से झक्की। वरना वह उस बच्ची को यहां क्यों ले कर आता नाश्ता खिलाने?’
रिंकी की बात में दम था। सोलह साल की मेरी बेटी समय से पहले परिपक्व हो चली थी।
बच्ची ने टोस्ट खाए, बड़े वाले गिलास में मिल्क शेक पिया। इस बीच मैंने और रिंकी ने कटलेट्स मंगवा लिए। रिंकी का भी मन मिल्क शेक पीने को हो आया।
इस बीच फिरंगी उठ गया। बच्ची शायद अभी भी कुछ खाना चाहती थी। रिंकी ने फिर से मुझे टहोका, ‘देखो मम्मा, बिल कौन दे रहा है?’
काउंटर पर वह बारह-तेरह साल की लडक़ी अपने पर्स से पैसे निकाल रही थी। पांच सौ के कई सारे नोट थे उसके पास।
वे दोनों चले गए। हम दोनों कहानियां बुनने लगे कि कौन होगी यह बच्ची?
इसके बाद हम दोनों होटल के अपने कमरे में आ गए। रिंकी का मन कहीं जाने का नहीं था। लंच भी हमने अपने कमरे में किया। शाम को घूमने निकले। हलकी बूंदा-बांदी हो रही थी। पहाड़ी सडक़ों की ढलानों पर घूमने में रिंकी को मजा आ रहा था। और उसके खुश होते देखने में मुझे।
पिछले साल इन दिनों। लगा नहीं था कि रिंकी फिर कभी सामान्य हो पाएगी। पंद्रह साल की नहीं हुई थी। अशोक के परिवार में शादी थी। बुआ की बेटी आशी की। रिंकी उत्साहित थी। वह आशी के आगे-पीछे लगी रहती। शादी के एक सप्ताह पहले वह आशी के साथ रहने चली गई। इससे पहले भी उसने एक-दो दिन वहां बिताए थे।
पर उस सुबह जब वह घर आई, तो कुछ भी सही नहीं था। रात आशी अपनी सहेलियों के साथ कैट पार्टी में मस्त थी और रिंकी बारह बजे के बाद सोने चली गई। उसी कमरे में आशी के पिताजी आए। उनसे हमेशा से डर लगता था। उनकी लाल आंखें और घनी मूंछें भयानक लगती थी। मुझे भी। मेरी बेटी चिल्ला नहीं पाई। डर गई जब उनकी मूंछों से निकलते लपलपाते होंठों ने उसे छुआ। उस दानव के शरीर के नीचे दबी मेरी गुडिय़ा ने अपने पूरे शरीर पर उन घिनौनी उंगलियों को बर्दाश्त किया।
सुबह-सुबह बिना किसी को बताए रिक्शा ले कर घर चली आई थी रिंकी। आंखों में आंसू। सहमा सा चेहरा। उसे देख कर मैं चौंकी, फिर हिल गई। अशोक भी घर पर थे। अशोक का रवैया अलग था--वे इस बात से चौकन्ने और कहीं से संतुष्ट लगे कि उनकी बेटी के साथ बलात्कार नहीं हुआ। जो हुआ, उसके बाद अशोक का यह रवैया मुझे ज्यादा रुला गया।
रिंकी जैसे मुझे सबकुछ बता कर उस घटना से अलग हो गई। बस उस दिन से उसका अशोक के साथ रिश्ता बदल गया। मैंने घर में शोर मचाया, परिवार वालों को बुलाया, पुलिस में शिकायत की। आश्चर्य था कि इन सबमें अशोक कहीं पीछे छूटते चले गए। वे बेशक आशी की शादी में नहीं गए, पर परिवार के दूसरे सदस्यों की तरह दबी जुबान में यह तो कह ही दिया कि हम मां-बेटी छोटी सी बात को बेवजह बड़ा कर रहे हैं।
रिंकी धीरे-धीरे सामान्य हो गई। मेरे अशोक से अलग होने के बाद ज्यादा। इस ट्रिप की योजना भी उसने ही बनाई थी। वह ट्रेन में सफर करना चाहती थी। मेरे साथ बहुत कुछ बांटना चाहती थी। कल रात जब हम बारिश में भीग कर कमरे में लौटे, तो उसने केतली में पानी गर्म कर मुझे चाय बना कर पिलाया। खाना खाने हम रेस्तरां गए। मैंने वाइन पी। उसके इसरार करने पर एक घूंट उसे भी पीने को दी। उसने एकदम से मुंह बनाया, ‘यक मॉम। इसमें एेसा क्या है? आप इतना शौक से कैसे पीते हो?’ हमने पास्ता खाया, काफी पी। फिर थोड़ा टहलने के बाद लौटे। वह चुप थी, लेकिन खुश लग रही थी। कमरे में आ कर उसने कपड़े बदले। शॉर्ट्स और टी शर्ट पहन कर मुझसे चिपट कर लेट गई, ‘मम्मा, जिंदगी एेसी ही रहे तो अच्छा हो ना। हमारे आसपास कोई गलत आदमी ना हो।’
उसके सोने तक मैं जागती रही। समझ नहीं आया कि अपनी बेटी को गलत आदमियों से कैसे बचा कर रखूं? उसे अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी एेसी ही दुनिया चाहिए थी।

‘मैं आज पता करके ही रहूंगी, कौन है ये लडक़ी? देखो ममा। वो तो फिरंगी के गिलास से काफी पी रही है। कहीं ये फिरंगी उसका डैड तो नहीं?’ कहने के बाद रिंकी खुद हंसने लगी, ‘यह उसका पापा हो ही नहीं सकता। कितनी अजीब लग रही है ना वो लडक़ी? टाइट्स पहन रखा है और माथे पर इतनी बड़ी बिंदी।’
मैंने इशारे से वेटर को बुलाया, आर्डर देने। रिंकी चुप नहीं रह सकी, ‘भैया, ये फॉरिनेर जो आगे बैठे हैं, कौन हैं?’
वेटर ने सिर हिलाया, ‘पता नहीं, एेसे तो भतेरे आते हैं यहां।’
रिंकी चुप हो गई। पर उसका पूरा ध्यान उस बच्ची पर था। सैंडविच खा चुकी थी। शायद वह कुछ और खाना चाहती थी। फिरंगी उठ गया। काउंटर पर पैसे दे कर वह तेजी से आगे जाने लगा। लडक़ी ने रेस्तरां के दरवाजे पर पहुंच कर उसे रोकना चाहा।  आदमी ने उसे धक्का दिया और बाहर निकल गया। दरवाजे का हत्था लडक़ी के सिर पर लग गया, वह जमीन पर बैठ गई और जोर-जोर से रोने लगी।
रिंकी फौरन अपनी जगह से उठी और दौड़ती हुई उस लडक़ी के पास पहुंच गई। लडक़ी के माथे पर चोट लग गई थी। रिंकी ने वेटर से टिश्यू मंगवाया। देखते ही देखते वहां छोटी-मोटी भीड़ इकट्टा हो गई। मैं दूर से देख रही थी कि किस तरह रिंकी लडक़ी की मदद कर रही है। आंसू पोंछ रही है, गुस्से में कह रही है कि उस आदमी को कोई हक नहीं पहुंचता कि एक बच्ची के साथ एेसा व्यवहार करे।
रिंकी ने लडक़ी को उठाया और धीरे से उसे मेरे पास ले आई। उसे अपनी बगल की कुर्सी पर बिठा कर उसने प्यार से पूछा, ‘कुछ और खाओगी तुम? बताओ? कटलेट? फिंगर चिप्स? बर्गर?’
लडक़ी की आंखें चमक उठीं। रिंकी ने फौरन उसके लिए बर्गर मंगवाया।
पास से लडक़ी और भी छोटी लग रही थी। गोल चेहरे पर बड़ी सी नथनी अजीब लग रही थी। रिंकी ने उसका नाम पूछा। बड़ी मुश्किल से उसने बताया--मल्लिका।
बर्गर आया। मल्लिका ने दोनों हाथ में भींच कर खाने की कोशिश की। दो कौर खाया, फिर मुंह बना कर बोली, ‘जूस पिला दो।’
रिंकी ने कहा, ‘पहले बर्गर तो खत्म करो।’
मल्लिका अचानक ऊंची आवाज में रोने लगी, ‘मुझे नहीं खाना। मुझे जूस पीना है।’
मैंने रिंकी का हाथ दबाया और उसके लिए जूस मंगवाया। एक घूंट पीने के बाद मल्लिका उठ गई। रिंकी ने रोकने की कोशिश की, पर वह दौड़ती हुई बाहर निकल गई।
मैं और रिंकी हक्के-बक्के रह गए। कुछ देर तक तो हम दोनों के मुंह से कोई बात ही नहीं निकली।
बिल दे कर हम दोनों रेस्तरां से बाहर निकले। सडक़ के किनारे एक सिगरेट की दुकान के सामने फिरंगी दिख गया। रिंकी ने कहा, ‘मम्मा, देखो, कितने आराम से यहां खड़ा है मल्लिका को मारने के बाद। देखो ना मां, एकदम फूफा जी की तरह लग रहा है। मेरा मन कर रहा है कि मैं डंडे से इसे जोर से पीटूं।’
रिंकी उत्तेजित होने लगी थी। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। इस समय तो मुझे उस फिरंगी के साथ-साथ मल्लिका का भी रवैया अजीब लग रहा था। गरीब बच्ची, जिसे खाने की हवस है, पर पेट में जगह नहीं है। पता नहीं, किसकी बच्ची है? इसके साथ क्यों घूम रही है?
दया हो आई बच्ची पर। स्कूल जाने की उम्र में कहां मारी-मारी फिर रही है? कौन हैं इसके माता-पिता?
हम अपने होटल की तरफ बढ़ ही रहे थे कि सामने से दौड़ती हुई मल्लिका आई और फिरंगी से जा कर लिपट गई। फिरंगी ने उसे चांटा मारा।
रिंकी जोर से चीखी, ‘मां, उस आदमी को छोडऩा मत।’ मैं रुक नहीं पाई। मैं आगे, रिंकी पीछे। मैंने दूर से ही चिल्ला कर कहा, ‘ए, लडक़ी को हाथ मत लगाना। आइ विल कॉल पुलिस।’
फिरंगी सहमा फिर कुछ अकड़ कर बोला, ‘हू आर यू? कॉल एनिबडी। आइएम नॉट स्केर्ड। शी इज माइ वाइफ। आइ कैन डू वाटेवर आई वांट।’
मैं सन्न रह गई। सिगरेट के खोमचे वाले ने कहा, ‘मैडम जी, आप भी किस पंगे में फंस रही हैं? ये तो इनका रोज का चक्कर है। अभी मार-पीट करेंगे, दूजे मिनट लडक़ी इसकी गोद में जा बैठेगी।’
मेरी आवाज थरथरा रही थी,‘लेकिन इसने कहा कि यह बच्ची इसकी ब्याहता है।’
‘हां, तो कर ली होगी शादी। इसके मां-बाप तो हर साल अपनी सभी बेटियों की ना जाने कित्ती बार शादी करते हैं। उन्हें चार पैसे मिल जाते हैं और चार दिन इन बच्चियों के खा-पी कर गुजर जाते हैं।’
‘पर यह लडक़ी तो बारह-तेरह साल की लगती है।’
‘अरे मैडम। आप भी ना? बच्ची से उसकी उम्र पूछो तो अठारह बताएगी। ’
‘इसके बाद?’
‘अरे, ये फिरंगी इधर हमेशा थोड़े ही रहते हैं? चार-छह महीने बाद अपने वतन लौट जाते हैं।’
मुझे लगा कि मैं चक्कर खा कर गिर जाऊंगी। रिंकी कुछ समझ नहीं पा रही थी। उसने मल्लिका का हाथ पकडऩा चाहा, पर उसने झटक दिया और फिरंगी के कंधे पर सवार हो कर चलने लगी।
अबकि दुकान वाले ने कुछ नरमी से कहा, ‘आप लोग टूरिस्ट हो। आराम से दो-चार दिन यहां गुजार कर जाओ। पहाड़ देखो, झरने देखो, सन सेट पाइंट देखो।’ मैं किसी तरह अपने को संभाल कर आगे बढ़ी। रिंकी लगातार मुझसे पूछ रही थी, ‘मम्मा क्या हुआ बताओ ना?’ मैं उसे क्या जवाब देती? कैसे कहती उससे कि इस दुनिया में हर कहीं ‘गलत आदमी’ हैं। उनकी गिरफ्त में मासूम रिंकिंया और मल्लिकाएं आती रहती हैं। कभी-कभी तो उन्हें जन्म देने वाले को भी उनकी परवाह नहीं होती। मल्लिका का मासूमियम भरा दोनों हाथों से बर्गर खाने वाला चेहरा मेरे आगे घूम गया। उसकी चमकती आंखें जैसे मुझसे सवाल कर रही थीं। और मैंने अपने दुपट्टे से अपनी बेटी को ढक कर अपने करीब कर लिया।

हैरतअंगेज

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट वाराणसी में 6.47 लाख ऐसे मतदाता जिन्हे 'फ़र्ज़ी' मतदाता कहा जा रहा है. भारतीय निर्वाचन आयोग के नए मतदाताओं का नाम जोड़ने और मतदाता सूची के सत्यापन के लिए चलाए जा रहे अभियान में ये चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं. पिछले लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को वाराणसी में 5,16,593 वोट मिले थे. यहां लगभग 15 लाख मतदाता हैं.

कन्टेन्ट, मोटीवेशन और बिजनेस मॉडलः हिंदी वेब की चिंताएँ / बालेन्दु शर्मा दाधीच

ब्लॉगिंग पर इन दिनों नए पाठकों तो आकर्षित करने, अपने कन्टेन्ट की ताजगी बनाए रखने और मोटीवेशन बनाए रखने का दबाव है। सोशल नेटवर्किंग के लोकप्रिय होने का प्रभाव ब्लॉगिंग पर पड़ा है और उसमें जिस तेजी के साथ विस्तार आ रहा था, वह गति मंद पड़ी है। कारण, सोशल नेटवर्किंग अपने दोस्तों के साथ जुड़े रहते हुए अपनी बात कहने का मौका देता है और अपेक्षाकृत अधिक सुलभ तथा आसान है।
वहाँ आप जो टिप्पणी कर रहे हैं, वह छोटी सी, अनौपचारिक भी हो सकती है और दूसरों की टिप्पणियाँ भी इस्तेमाल और शेयर की जा सकती हैं इसलिए अच्छा लिखने का दबाव नहीं है। इस वजह से हर कोई सोशल नेटवर्किंग में कुछ न कुछ कह देता है। ब्लॉगिंग के साथ ऐसा नहीं है। वह अधिक गंभीर और अधिक रचनात्मक माध्यम है। दूसरे, जो लोग सोशल नेटवर्किंग पर सक्रिय हैं, उनके लिए फिर ब्लॉगिंग पर भी सक्रिय बने रहना ज्यादा समयसाध्य हो जाता है जिससे ब्लॉगिंग की विकास दर के साथ-साथ ब्लॉगों के अपडेशन की स्थिति प्रभावित हो रही है।
हालाँकि कुछ हद तक इसका अप्रत्यक्ष लाभ हिंदी से ही जुड़े कुछ दूसरे क्षेत्रों को हुआ है, जैसे ई-मैगजीन्स या वेबसाइटों को। ब्लॉगिंग की दुनिया में मजबूत जगह बना चुके चेहरों को अब यह माध्यम थोड़ा छोटा लगने लगा है और वे अपनी वेब-मौजूदगी को अपग्रेड करने में जुटे हैं। नतीजा है, हिंदी में नई-नई, ताजगी से भरी वेबसाइटों का आगमन। इनमें मोहल्ला, भड़ास4मीडिया, विस्फोट, तरकश, नुक्कड़, मीडिया खबर, देशकाल, जनादेश, डेटलाइन इंडिया, परिकल्पना, हस्तक्षेप, प्रवक्ता, हिंदी होमपेज, सामयिकी, हिंद युग्म, मीडिया दरबार, चौराहा, मीडिया सरकार, चौराहा, फुरसतिया, सृजनगाथा, युगजमाना, जनता जनार्दन, अर्थ काम, साहित्य कुंज, साहित्य शिल्पी, तकनीक.ऑर्ग वगैरह शामिल हैं। देखते ही देखते ब्लॉगिंग समुदाय की बदौलत हिंदी में विविधताओं से भरी सामग्री की धारा बह निकली है जो बहुत सजीव, जीवंत और हिंदी की विशुद्ध खुशबू लिए हुए है।
हिंदी जगत में जिस किस्म के विवाद, धमाल, उठापटक, हंगामे और बहसें यहाँ पर भी हैं और शायद इसीलिए इन सबको पढ़ना खाँटी हिंदी पाठक के लिए अधिक रुचिकर भी है। अगर किसी घटना को कई कोणों से देखना पढ़ना और समझना चाहते हैं तो हिंदी के युवाओं के उल्लास, उल्लास और रचनाकर्म से भरी इन वेबसाइटों पर एक नज़र जरूर डालिए। लेकिन आर्थिक समस्या इन सबको प्रभावित कर रही है।
अमैच्योर वेबसाइटों, ब्लॉगिंग आदि से आय के बहुत सीमित जरिए उपलब्ध हैं और वे भी हिंदी में उतने प्रभावी नहीं हैं। कारण है, आम हिंदी पाठक का ई-कॉमर्स संस्कृति के साथ अधिक जुड़ाव न होना। विज्ञापनदाता भी अंग्रेजी को अधिक वरीयता देते हैं। टेलीविजन विज्ञापनों में जिस तरह हिंदी चैनलों का दबदबा है, उसकी तुलना में ऑनलाइन मीडिया की स्थिति एकदम विपरीत है। इसका कारण है कि हम विज्ञापनदाताओं को हिंदी ऑनलाइन मीडिया की शक्ति के बारे में शिक्षित नहीं कर पा रहे। मेरा अनुमान है कि लगभग पाँच साल बाद स्थिति उलट जाएगी क्योंकि टेलीविजन और प्रिंट के ट्रेंड्स का प्रभाव अंततः इंटरनेट पर भी दिखाई देना तय है।
हालाँकि कुछ ई-पत्रिकाएँ, वेबसाइटें और ब्लॉग निजी तथा सरकारी संस्थाओं के सहयोग से विज्ञापन हासिल कर पा रहे हैं लेकिन फिर भी इस माध्यम से होने वाली आय बहुत कम है और ऐसे प्रकाशनों की संख्या भी गिनी-चुनी है। गूगल एडसेंस हिंदी वेब संस्थानों के लिए फिलहाल ऊंट के मुँह में जीरे के समान ही है, जबकि अंग्रेजी में स्थिति अलग है। शायद धीरे-धीरे हिंदी में भी स्थिति बदले। गूगल ने इस दिशा में प्रयास शुरू किए हैं और वह भारत को फोकस कर विज्ञापनों के अभियान चला रहा है।
जहाँ तक बड़े हिंदी पोर्टलों का सवाल है, वे अब पूरी तरह स्थापित हो चुके हैं और किसी अच्छे बिजनेस मॉडल की तलाश में जुटे हैं। ऐसे अधिकांश वेब पोर्टल या तो बहुराष्ट्रीय पोर्टलों के हिंदी संस्करणों के रूप में चल रहे हैं या फिर उन्हें किसी न किसी समाचार पत्र समूह की ऑनलाइन शाखा के रूप में पेश किया गया है। प्रभासाक्षी इस मामले में एक अपवाद है जो पूरी तरह वेब माध्यम को समर्पित परियोजना है। वेबदुनिया भी इसी तर्ज पर शुरू हुआ था लेकिन मोटे तौर पर वह नई दुनिया समूह से ही निकला था।
हालाँकि नई दुनिया अखबार समूह के अधिग्रहण के बाद स्थिति बदल गई है। कुछ हिंदी वेब पोर्टलों में कुछ चिंताजनक ट्रेंड भी दिखाई दे रहे हैं। उनमें से एक भाषा से संबंधित है, जिसमें अंग्रेजी भाषा और यहाँ तक कि रोमन लिपि का भी सीमा से अधिक इस्तेमाल किया जा रहा है।
दूसरी चिंता इन पोर्टलों पर फोकस किए जाने वाले कन्टेन्ट को लेकर है। मुख्य धारा के कुछ पोर्टल चटपटी, यौन विषयों से जुड़ी और हल्की-फुल्की खबरों को मुख्य खबरों के रूप में प्रोजेक्ट कर रहे हैं। इन पर ऐसी तसवीरें, खबरें, लेख और सवाल-जवाब खास तौर पर उभारकर दिखाए जाते हैं, जिन्हें मुख्य धारा के मीडिया में दिखाना ठीक नहीं समझा जाता। न जाने क्यों, उन्हें यह लगता है कि न्यू मीडिया पर इसी किस्म का कन्टेन्ट बिकता है। मेरा अनुभव तो इसके अनुरूप नहीं है। मुझे आशंका है कि फिलहाल दो-तीन पोर्टलों तक सीमित यह ट्रेंड कहीं दूसरे पोर्टलों तक भी न पहुँचे और धीरे-धीरे पाठकों की रुचियों, पसंद-नापसंद और अपेक्षाओं को प्रभावित करना शुरू कर दे। हिंदी न्यू मीडिया की सफलता की कहानी सस्ते हथकंडों के आधार पर नहीं लिखनी चाहिए।
('सृजनगाथा' से साभार)

मीडिया और हिंदी साहित्य/ओमप्रकाश कश्यप

समाज में मीडिया की भूमिका संवादवहन की होती है. वह समाज के विभिन्न वर्गो, सत्ता-केंद्रों, व्यक्तियों एवं संस्थाओं के बीच पुल का कार्य करता है. इसके लिए एक ओर जहां वह सरकार और सत्ता-केंद्रों यथा धर्मसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता आदि की योजनाओं, कार्यक्रमों तथा उपलब्धियों को जनता के बीच ले जाता है.उनकी विशेषताओं, कमजोरियों और खामियों पर समालोचनात्मक विमर्श करता है, वहीं वह जनता की इच्छा-आकांक्षाओं, सपनों, उसकी अंदरूनी हलचलों और विभ्रमों को भी उसके दूसरे वर्गों एवं विभिन्न सत्ता-केंद्रों तक पहुंचाने का कार्य करता है. संवादवहन की इस प्रक्रिया में तथ्यों एवं घटनाओं के प्रस्तुतीकरण की ईमानदारी और निस्पृहता ही उसकी व्यावसायिक नैतिकता को रेखांकित करती है. लोकतांत्रिक समाजों में जनता चूंकि अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से स्वयंशासित होती है, इसलिए उनमें मीडिया का दायित्व और भी बढ़ जाता है. अतएव यह अन्यथा नहीं है कि लोकतंत्र मीडिया की उपादेयता एवं उसकी भूमिका आकलन करते हुए उसको अपने चौथे स्तंभ का सम्मान देता है.
यहां एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता है कि आखिर क्यों और किसके भरोसे मीडिया सत्ताकेंद्रों की गतिविधियों का आलोचनात्मक विमर्श रचने, यहां तक कि उनसे टकराने तथा उनके विरुद्ध जनमत पैदा करने का साहस कर पाता है. उत्तर एकदम स्पष्ट है—मीडिया और मीडियाकर को अपनी शक्तियां, अन्याय के प्रतिकार की पे्ररणा अपनी उस स्वयंस्फूर्त प्रतिबद्धता द्वारा प्राप्त होती हैं, जो उसकी ईमानदार मूल्यनिष्ठा और कर्तव्य-भावना की उपज होती है. यह अनुभूति कि उसके किसी निर्णय अथवा कार्य से व्यापक लोकहित संबद्ध है, उसे उस कार्य को पूरा करने की प्रेरणा और संबल प्रदान करती है. इसी नैतिक चेतना और विश्वास के भरोसे वह बड़ी से बड़ी सत्ता से दुश्मनी मोल लेने का साहस कर पाता है. कुशल नेतृत्व मिलने पर मीडिया समाज को वांछित परिवर्तनों की दिशा में ले जाने में सहायक होता है. इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब मीडिया की शक्ति एवं लोकमानस पर उसकी पकड़ को पहचानते हुए महान लोगों ने उसका उपयोग लोक-परिवर्तन के अहिंसक, प्रभावशाली और भरोसेमंद हथियार के रूप में किया है.
अब बात करते हैं साहित्य की. उसका शब्दार्थ है, सबका कल्याण. सः हितः. यानी ऐसी युक्ति ऐसा नियोजन, ऐसा माध्यम, ऐसी संप्रेरणा जिसके पीछे किसी एक वर्ग-जाति-धर्म-समाज-समूह-संप्रदाय-देश के बजाय समस्त विश्व-समाज के कल्याण की भावना सन्निहित हो. साहित्यकार के पास भरपूर कल्पनाशीलता और विश्वदृष्टि होती है. अपनी नैतिक चेतना से अभिप्रेत, कल्पनाशीलता के सहयोग से वह श्रेयस् के स्थायित्व एवं उसकी सार्वत्रिक व्याप्ति के लिए शब्दों तथा अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों द्वारा प्राणीमात्र के कल्याण का प्रयोजन रचता रहता है. संपूर्ण चराचर जगत के कल्याण यानी ‘सर्व भूत हिते रतः’ की सद्कामना ही साहित्यकार का अभीष्ठ होती है. सृजन के आनंदोत्सव के दौरान वह न तो ‘राजपाट की वांछा रखता है, न स्वर्ग, न ही मोक्ष आदि की. वह सच्चे मन से कामना करता है कि प्राणिमात्र के दुःखों और व्याधियों का अंत हो.1 सभी सुखी हों, सभी निर्भीक होकर मुक्त विचरण करें.2
‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना पर जोर देते हुए वह कामना करता है कि समस्त वसुधावासी परिवार की भांति, एक रहते हुए सदैव फलते-फूलते रहें. अभी तक केवल पृथ्वी पर जीवन की ज्ञात उपलब्धता है. यदि किसी अन्य ग्रह पर जीवन की संभाव्यता की भनक लगे, तो साहित्य तुरंत अपनी प्रार्थना में संशोधन करते हुए ‘बृह्मांड कुटुंबकम’ की भावना से युक्त कोई नई और प्रभावशाली प्रार्थना गढ़ लेगा. यहां आकर मीडिया और साहित्य की अंतर्संबद्धता एकदम स्पष्ट हो जाती है. मीडिया यानी वह उद्यम जो समाज के विभिन्न वर्गों, ध्रुवों, शक्ति-केंद्रों के बीच संप्रेषण का दायित्व वहन करे, उपेक्षित-उत्पीड़ित वर्गों के सपनों, आशा-आकांक्षाओं को सरकार और उसके प्रभावशाली वर्गों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी निभाए तथा दोनों के बीच निर्भीक-निष्पक्ष और विश्वसनीय संवादसेतु का काम करे. ताकि लोग एक-दूसरे की इच्छा-आकांक्षाओं, सपनों और समस्याओं को जानें, समझें तथा मिल-जुलकर साथ-साथ प्रगतिपथ पर आगे बढ़ सकें. साहित्य वह जो लोक-कल्याण की भावना के साथ विभिन्न विचारधाराओं, जीवन-मूल्यों, सांस्कृतिक प्रतीकों-प्रतिमानों, कलाओं एवं लोकऐषणाओं के समन्वयीकरण, संरक्षण, संवर्धन, संप्रेषण आदि का दायित्व वहन करता हुआ, उनके बीच वैचारिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संदेशों के आदान-प्रदान का माध्यम बने. ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण’ की भावना से युक्त साहित्यकार ऐसी परिस्थितियों की रचना पर जोर देता है, जिनके बीच आम आदमी की भूख और उसके जीवन की जटिल जनसमस्याओं का हल खोजा जा सके.3
यहां स्पष्ट कर दें कि मीडिया का सामान्य अभिप्राय समाचारपत्र, पत्रिकाओं, टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट आदि से लिया जाता है. ये आधुनिक मीडिया के चर्चित और प्रभावशाली रूप हैं, जो सूचनाओं के संग्रहण एवं संप्रेषण का दायित्व बाखूबी निभाते हैं. लेकिन जिसे हम मीडिया यानी संवादवहन की युक्ति मानते आए हैं, उसकी हदें इससे कहीं अधिक व्यापक और समाज में विभिन्न रूपों में पैठी हुई हैं. पुराने जमाने के नौटंकी, स्वांग, नाटक सभा से लेकर बैनर, पोस्टर, पंपलेट्स, संभाषण, लोकगायन, विज्ञापन, सेमीनार, चित्रकला आदि मीडिया की प्रचलित परिभाषा से किंचित भिन्न होने के बावजूद उसी के विविध रूप हैं. आधुनिक मोबाइल फोन का प्रारंभिक उद्देश्य भले ही अलग-अलग स्थान पर मौजूद व्यक्तियों के बीच संवाद प्रक्रिया को आसान, बहुव्यापी और चलायमान बनाना हो, लेकिन उन्नत तकनीक, बाजार की जरूरतों तथा बढ़ती विज्ञापन-स्पर्धा ने उसे भी मीडिया के आधुनिक और शक्तिशाली विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया है.
इसी प्रकार साहित्य भी लिखित शब्द, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक इत्यादि नहीं है. ये महज विधाएं हैं जिनमें साहित्य अपने विभिन्न कलेवरों और रूपाकारों के साथ प्रकट होता है. साहित्य इनमें अंतनिर्हित वह तत्व है, जो पाठक-श्रोता-दृष्टा आदि के मन में नैतिक प्रेरणाओं और आत्मविश्वास का संचार करते हुए उनके विवेकीकरण में सहायक बनता है. उल्लेखनीय है कि सत्ता चाहे राजनीति की हो, पूंजी की या फिर धर्म की-वर्चस्व की भावना उसके चरित्र का अभिन्न हिस्सा होती है. चूंकि जागरूक और चैतन्य समाज ऐसी सत्ता को उखाड़ फेंकने का सामर्थ्य रखता है, इसी डर के कारण सत्ताएं अपनी वर्चस्वकारी प्रवृत्तियों को छिपाए रखने का भरपूर प्रयास करती हैं. उचित समय पर पर्दाफाश न किया जाए तो उनका दमनकारी रूप लगातार उग्र होता चला जाता है. साहित्य और मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वे परस्पर एकजुट होकर लोकजागरण का संधान करें. चूंकि धर्म की भांति बाजार भी समाज के विवेकीकरण से बचता है, इसलिए पूंजीवादी समाजों में मीडिया का स्वरूप इस तरह गढ़ा जाता है कि वह लोगों को ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध करने, उनकी आलोचनात्मक प्रवृत्तियों को विस्तार देने के बजाय, मात्र सूचनाओं के आदान-प्रदान या मनोरंजन को अपना लक्ष्य माने रहता है.
साहित्य अपने पाठकों-श्रोताओं के विवेकीकरण पर जोर देता है. केवल सूचनात्मक ज्ञान से संतुष्ट न होकर वह सूचनाओं की पृष्ठभूमि में निहित तथ्यों के विश्लेषण पर भी समानरूप से विचार करता है. उदाहरण के रूप में दूरदर्शन तथा पत्र-पत्रिकाओं में आधुनिक स्त्री को अर्धनग्न और फैशनेबल रूप में दिखाया जाना पूंजीवादी शक्तियों के स्वार्थानुकूल है, इसलिए उनपर निर्भर मीडिया बगैर किसी शर्म / संकोच के वैसा करता है. साहित्यिक विमर्श का दायरा विस्तृत होता है. गांव-शहर की गरीब-विपन्न अपने अस्तित्व के लिए जूझती और लिंगभेद की मार सहती स्त्री भी उसके विमर्श के दायरे में होती है. इसलिए वह मीडिया की अपेक्षा अपेक्षा अधिक विश्वसनीय माना जाता है. साहित्य के साथ यह संभव है कि वह किसी खास वर्ग, समूह अथवा क्षेत्र की समस्याओं को केंद्र में रखकर रचा गया हो. मगर स्थानीयता साहित्य का तात्कालिक लक्षण भले हो, उसका आदर्श नहीं हो सकती. साहित्य को सामाजिक मान्यता तभी मिलती है, जब वह समाज के विभिन्न वर्गों में समन्वय और सद्भाव की बात करे. नैतिक मूल्यों से आबद्ध साहित्यकार केवल प्रचार अथवा सत्ताप्राप्ति की लालसा में ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकता जो मानवादर्शों के विपरीत हो. अपनी व्याप्ति को व्यापक, स्थायी एवं संग्रहणीय बनाने के लिए साहित्य रसज्ञता का गुण रखता है. मनः रंजन की अनिवार्यता मीडिया के लिए भी है. लेकिन केवल लोकरुचि अथवा मनः रंजन से न तो साहित्य का काम सधता है, न मीडिया का. इसलिए अपनी उपस्थिति को सार्थक और जनसाधारण की पहुंच में बनाए रखने के लिए साहित्य जहां मीडिया से सहयोग की अपेक्षा रखता है, वहीं मीडिया अपनी प्रामाणिकता बनाए रखने के साहित्य को न केवल अपने साथ रखता है, बल्कि जरूरत पड़ने पर उसे नारे के रूप में उछालने से भी बाज नहीं आता.
अपनी पूंजी संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए मीडिया बार-बार सरकार और बाजार की शरण में जाने को बाध्य होता है. इसी से उसके दुरुपयोग होने तथा लक्ष्य से भटक जाने की संभावना बढ़ जाती है. पूंजीपति और सरकार मीडिया की मदद तो करते हैं, लेकिन वे यह भी चाहते हैं उनके उपकार का बदला चुकाते हुए मीडिया और साहित्यकार उनके हितों के अनुकूल कार्य करें. शक्तिशाली सत्ताएं प्रायः मनुष्य के विवेकीकरण से घबराती हैं. उनकी कोशिश होती है कि मनुष्य के सोच, उसके विचारों पर हमला किया जाए. इसके लिए उसके दिल-दिमाग का अनुकूलन करते हुए वे उसको अपने अनुसार सोचने के लिए बाध्य कर देते हैं. इसके लिए मीडिया का उपयोग इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने तथा सांस्कृतिक प्रतीकों की बाजारानुकूल व्याख्या द्वारा किया जाता है. मनुष्य के मुक्त सोच को बाधित करने के लिए ज्ञान को सूचना और सूचना के स्रोतों तक सीमित कर दिया जाता है. प्रभावित साहित्य भी होता है, मगर उसके बदलाव की गति अपेक्षाकृत काफी धीमी और अस्थायी प्रवृत्ति की होती है. इसलिए वह परिवर्तन के स्थायी और भरोसेमंद औजार के रूप में काम करता है.
स्मरणीय है कि हर परिवर्तन पहले विचार के रूप में जन्मता है, बाद में साहित्य के माध्यम से लोकचेतना का हिस्सा बनता है. मीडिया उसे जनांदोलन में ढाल देता है, जिनसे वास्तविक परिवर्तन की राह निकलती है. मीडिया का आदिरूप प्रिंट मीडिया यानी पत्रकारिता का है. वैश्विक पत्रकारिता का इतिहास लगभग 59 ईसवी पूर्व रोम से शुरू होता है. वहां का तत्कालीन सम्राट जूलियस सीजर चाहता था कि राज्य की प्रमुख सामाजिक एवं राजनीतिक घटनाओं की जानकारी उसके प्रजाजनों तक भी पहुंचे. कागज के आविष्कार से पहले समाचार-प्रेषण के लिए पत्थर या धातु की पट्टियों का उपयोग होता था. जरूरी समाचार उकेरकर वे नगर के मुख्य स्थलों पर जनसाधारण के अवलोकन के लिए रख दी जाती थीं. उनमें वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिक-सभाओं की रिपोर्ट तथा सम्राट द्वारा लोकहित में लिए गए निर्णयों की सूचना होती थी.
उन दिनों ग्लेडिएटरों की लड़ाई संभ्रांत वर्ग के मनोरंजन का मुख्य माध्यम थी, इसलिए इन सूचनापट्टों पर उनका विवरण भी मजेदार भाषा में उकेर दिया जाता था. इस तरह विश्व के पहले समाचारपत्र Acta Diurna का जन्म हुआ, जिसका शाब्दिक अर्थ है- ‘दिन की घटनाएं’. चीन से आठवीं शताब्दी में हाथ के लिखे समाचारपत्र के प्रकाशन के प्रमाण मिलते हैं. मगर प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में क्रांति का आगमन पंद्रहवी शताब्दी से हुआ. सुनार का काम करने वाले योहन गुटेनबर्ग ने छपाई मशीन का आविष्कार किया. फिर भी सोलहवीं शताब्दी के अंत तक समाचारपत्र हाथ से ही लिखे जाते रहे. 1605 में यूरोप के योहन कारोलूस नाम व्यवसायी ने सबसे पहले अपने धनवान ग्राहकों के लिए सूचनापत्र मशीन से छपवाया. Relation नाम का वह समाचारपत्र विश्व का पहला मुद्रित अखबार माना जाता है.
भारत में छपाई मशीन 1674 में ही आ चुकी थी, किंतु अखबार-प्रकाशन के लिए 102 वर्ष का लंबा इंतजार करना पड़ा. 1776 में विलेम बाल्ट नामक अंगे्रज ने ईस्ट इंडिया कंपनी के समाचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए अंगे्रजी में अखबार निकालना आरंभ किया. भारत का पहला समाचारपत्र जिसमें समाचारों की विविधता के साथ स्वतंत्र अभिव्यक्ति को भी महत्त्व दिया गया था, जेम्स ओगस्टस हिकी का ‘हिकी बंगाल गजट’ अथवा ‘बंगाल गजेटियर’ था. दो पन्नों के उस अखबार में ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों और उसके वरिष्ठ अधिकारियों के जीवन पर लेख छपते थे. एक बार निर्भीक पत्रकारिता का परिचय देते हुए हिकी ने गवर्नर की पत्नी के दुराचरण पर लेख लिखा. उसके छपते ही कंपनी के अधिकारी नाराज हो गए. दंडस्वरूप हिकी को 500 रुपये का जुर्माना भरना पड़ा. मगर इससे उसकी पत्रकारीय निष्ठा पर कोई प्रभाव न पड़ा. कुछ दिन बाद हिकी ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की आलोचना से भरा लेख अपने अखबार में छाप दिया. इसपर कंपनी के अधिकारी उससे पूरी तरह खपा हो गए. हिकी को 5000 रुपये जुर्माने तथा एक साल की कैद की सजा मिली. अखबार बंद कर देना पड़ा.
भारत भाषाओं में प्रिंट मीडिया का उदय वर्षों की गुलामी के विरुद्ध भारतीय चेतना का शंखनाद था. हिंदी के पहले साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन 1826 में कलकत्ता की हवेली नंबर 37, आमड़तल्ला गली, कोलू टोला नामक स्थान से हुआ था. संपादक थे-जुगलकिशोर मुकुल. पहला अंक 30 मई, 1826 को बाजार में पहंुचा. इसके बाद तो वह प्रत्येक मंगलवार को पाठकों के दरवाजे पर दस्तक देने लगा. पत्र के प्रथम अंक से ही पत्रकारिता और हिंदी साहित्य के शाश्वत रिश्ते का संकेत मिलता है. अखबार के मुख्यपृष्ठ पर, शीर्षक के ठीक नीचे, उसके उद्देश्य को स्पष्ट करतीं, संस्कृत की पंक्तियां छपी होती थीं.4 पत्र के पहले ही अंक में पाठकों से अपील करते हुए कहा गया था—
‘‘यह ‘उदंत मार्तंड’ अब पहले-पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी ओ पारसी ओ बंगाल में जो समाचार का कागज छपता है उनका सुख उन बोलियों के जानने और पढ़नेवालों को ही होता है. इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देख आप पढ़ ओ समझ लेयँ ओ पराई अपेक्षा न करें ओ अपने भाषे की उपज न छोड़े। इसलिए दयावान करुणा और गुणनि के निधान सब के कल्यान के विषय गवरनर जेनेरेल बहादुर की आयस से ऐसे साहस में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा…’’
संपादक की भरसक कोशिशों के बावजूद अखबार लंबा न खिंच सका. अंग्रेजी के समाचारपत्रों को सरकार की ओर से विशेष डाक-सुविधाएं प्राप्त थीं. प्रयासों के बावजूद उदंत मार्तंड को वे सुविधाएं प्राप्त न हो सकीं. 4 दिसंबर, 1827 के आखिरी अंक के साथ मात्र डेढ़ वर्ष की अवधि में उसे बंद कर देना पड़ा. अखबार समेटने की घोषणा काव्य-पंक्तियों5 द्वारा की गई थी. उदंत मार्तंड के असामयिक अवसान के पीछे उसके प्रकाशक-संपादक की आर्थिक कठिनाइयां थीं, मगर उनमें पत्रकारीय निष्ठा और संकल्प की कमी नहीं थी. इसलिए करीब 23 वर्ष बाद मुकुल जी की भावनाओं ने पुनः जोर मारा. फलस्वरूप उदंत मार्तंड के नए अवतार ‘सोमदत्त मार्तंड’ का जन्म हुआ.
हिंदी का पहला दैनिक होने का गौरव कोलकाता से ही श्यामसुंदर सेन के संपादन में प्रकाशित ‘समाचार सुधावर्षण’(1854) को प्राप्त है. उदंत मार्तंड की भांति यह भी गैरसाहित्यिक पत्र था. उन दिनों अखबार निकालना संपादक-प्रकाशकों के निजी जुनून का परिणाम था. कोई बड़ा उद्योगपति घराना, खासकर भारतीय भाषाओं के समाचारपत्रों से उस समय तक नहीं जुड़ा था. संसाधनों की कमी उनकी प्रमुख समस्या थी. लेकिन उनके संपादकों की निष्ठा असंद्धिग्ध थी. तत्कालीन पत्रकारिता का प्रमुख लक्ष्य था, समाज सुधार, भारतीय राष्ट्रीय चेतना का विकास तथा रूढ़ियों का बहिष्कार. इसके लिए वे अपने पाठकों को नए ज्ञान से समृद्ध कराना चाहते थे, जो अंग्रेजी भाषा के जरिए समाज में आ रहा था. इस बारे में कृष्णबिहारी मिश्र की टिप्पणी दृष्टव्य है—
‘हिंदी-पत्रकारिता के आदि उन्नायकों का आदर्श बड़ा था, किंतु साधन-शक्ति सीमित थी. वे नई सभ्यता के संपर्क में आ चुके थे और अपने देश तथा समाज के लोगों को नवीनता से संपृक्त करने की आकुल आकांक्षा रखते थे. उन्हें न तो सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन प्राप्त था और न तो हिंदी-समाज का सक्रिय सहयोग ही सुलभ था. प्रचार-प्रसार के साधन अविकसित थे. संपादक का दायित्व ही बहुत बड़ा था क्योंकि प्रकाशन-संबंधी सभी दायित्व उसी को वहन करना पड़ता था. हिंदी में अभी समाचारपत्रों के लिए स्वागत भूमि नहीं तैयार हुई थी. इसलिए इन्हें हर कदम पर प्रतिकूलता से जूझना पड़ता था और प्रगति के प्रत्येक अगले चरण पर अवरोध का मुकाबला करना पड़ता था. तथापि इनकी निष्ठा बड़ी बलवती थी. साधनों की न्यूनता से इनकी निष्ठा सदैव अप्रभावित रही…’5
प्रारंभिक दौर में जो साहित्यकार खड़ी बोली को साहित्यिक समृद्धि प्रदान करने के लिए आगे आए उनमें राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, सदल मिश्र, सल्लूलाल, देवकीनंदन खत्री प्रमुख थे. उनके आगे प्रमुख समस्या थी कि भाषा का रूप तत्सम हो या आम बोलचाल वाला. राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने 1946 में जब ‘बनारस समाचार’ का प्रकाशन आरंभ किया तो उन्होंने संस्कृतनिष्ठ भाषा के इस्तेमाल पर जोर दिया. उसी समय देवकीनंदन खत्री आम बोलचाल की भाषा में लोकप्रसिद्ध रचनाएं दे रहे थे. दोनों के बीच की दूरी को पाटने का काम किया भारतेंदु हरिश्चंद्र ने. 1868 में उन्होंने ‘कविवचन सुधा’ नामक पत्रिका की शुरुआत की तो उसमें सरल खड़ी बोली को महत्त्व दिया. भाषा के इस समन्वयकारी रूप का सर्वत्र स्वागत हुआ. इस पत्रिका का पहला अंक 28 मार्च, 1874 को निकला था. कविताओं पर केंद्रित इस सोलह पृष्ठीय पत्रिका की आवृति आरंभ में मासिक थी, जिसे पाठकों की मांग पर पहले पाक्षिक और तदनंतर साप्ताहिक कर दिया गया. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ही आगे चलकर हरिश्चंद्र मैग्जीन, बाला बोधिनी, हरिश्चंद्र चंद्रिका पत्रिकाएं निकालीं. उनसे प्रेरणा लेकर अन्य पत्रकारों-साहित्यकारों ने भी समाचारपत्र-पत्रिकाओं के संपादन-प्रकाशन का दायित्वभार संभाला. हिंदी के कुछ प्रमुख आरंभिक पत्र, पत्रिकाओं में हिंदी प्रदीप(बालकृष्ण भट्ट), आनंद कादंबिनी(चैधरी बद्रीनारायण प्रेमधन), ब्राह्मण(प्रतापनारायण मिश्र), भारत मित्र(रुद्रदत्त शर्मा), सरस्वती(महावीर प्रसाद द्विवेदी) आदि प्रमुख हैं. इसके बाद तो उनकी बाढ़-सी आ गई. काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के प्रबंधन में- नागरी प्रचारिणी पत्रिका, विशाल भारत, चांद, मतवाला, इंदु, माधुरी, हंस, सरस्वती आदि पत्रिकाएं हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार का आधार बन गईं. यह सिलसिला लगातार आगे, देश के दूसरे हिस्सों में भी फैलता चला गया.
उस समय में भी साहित्य केवल साहित्यिक पत्रिकाओं तक सीमित नहीं था. बल्कि वह दूसरे विषयों पर केंद्रित समाचारपत्रों में भी प्रमुख-रूप से प्रकाशित होता था. दरअसल उन दिनों तक पत्रकार और साहित्यकार के बीच बड़ी विभाजन रेखा भी नहीं थी. भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे समर्पित लेखकों में यह पहचान करना कठिन था कि वे पत्रकार बड़े हैं या साहित्यकार. उस समय के प्रमुख साहित्यकार पत्रकारिता के माध्यम से ही साहित्य के क्षेत्र में आए और प्रतिष्ठित हुए थे. कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने पहले लेखन में नाम कमाया, फिर हिंदी पत्रकारिता जगत पर भी छाए रहे. हिंदी पत्रकारिता और साहित्य को एक-दूसरे का पूरक बनाने की उन्होंने जो मुहिम आरंभ की, उसी के फलस्वरूप तत्कालीन मीडिया भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान लोकजागरण की जनोन्मुखी भूमिका भली-भांति निभा सका. भारतीय संस्कृति और जीवनमूल्यों के पक्ष में लोकचेतना फैलाने के साथ-साथ उसने स्वाधीनता की भावना का सतत प्रचार-प्रसार कर, आंदोलन की आंच को प्रखर बनाए रखने का काम भी किया. जिसके फलस्वरूप माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, विष्णु पराड़कर जैसे समर्पित पत्रकार हिंदी जगत को मिल सके.
स्वतंत्र भारत में लोकतंत्रीय बयार के बीच मीडिया को अपने पांव पसारने का भरपूर अवसर मिला. नए-नए अखबार और पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत हुई. इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के वर्तमान रूप उन दिनों इतने प्रचलित नहीं थे. कुछ के तो आविष्कार ही भविष्य की गर्भनाल में छिपे थे. ले-देकर एक रेडियो हुआ करता था. वह भी अपने व्यावसायिक उपयोग की संभावनाएं तलाश रहा था. दूसरी ओर हिंदी साहित्य के पास वेद-वेदांगों, महाकाव्यों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन एवं भक्ति-साहित्य की विपुल बौद्धिक-शास्त्रीय संपदा थी. हम कह सकते कि तत्कालीन भारतीय समाज और साहित्य का बौद्धिक चरित्र अपनी पांच हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी संस्कृति, सभ्यता, सुदीर्घ दर्शन-परंपरा और लोकानुभवों से समृद्ध था, जिनकी उपेक्षा कर समाज में पहचान बना पाना असंभव था. जिसे आज ‘व्यावसायिक नैतिकता’ कहा जाता है, उसका उन दिनों तक जन्म ही नहीं हो पाया था. उत्पादन जनता की जरूरतों के लिए होता था. न कि उत्पादन के अनुसार बाजार और जरूरतों के निर्माण की प्रवृत्ति थी. दूरदर्शन आया तो उसे भी अपनी पहचान बनाने के लिए साहित्य का शरणागत बनना पड़ा. महाभारत, रामायण, वेताल पचीसी, बृहत्कथा/कथासरितसागर, पंचतंत्र, गोदान, रंगभूमि, भारत: एक खोज, चंद्रलेखा, तमस, सिंहासन बतीसी जैसी हिंदी की विशुद्ध साहित्यिक कृतियों पर धारावाहिक बने और चर्चित रहे. साहित्य का ऐसा ही दबदवा प्रिंट मीडिया के क्षेत्र पर भी बना रहा. चूंकि साहित्य और साहित्यकारों के सहयोग के अभाव में समाचारपत्र की गंभीरता और विश्वसनीयता दोनों ही संकट में पड़ जाते थे, इसलिए प्रायः सभी समाचारपत्रों ने साहित्य को प्रमुखता दी. फलस्वरूप धर्मवीर भारती, सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेंद्र माथुर, मनोहर श्याम जोशी जैसे लेखक सामने आए जो साहित्य और पत्रकारिता दोनों में समानरूप से प्रवीण थे. प्रकाशन-सुविधा बढ़ने पर निजी प्रयासों से भी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ. साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को छोड़ भी दिया जाए तो राजनीतिक और सामाजिक उद्देश्यों के लिए निकाले गए अखबारों में साहित्य अपनी भरपूर मौजूदगी बनाए रहा.
प्रारंभ में जब तक सरकारों पर स्वाधीनता संग्राम जैसे जनांदोलनों का प्रभाव था, तब तक सरकारें मीडिया के प्रोत्साहन, प्रेषण को अपने नैतिक धर्म की तरह निभाती रहीं. हालांकि उस दौर में सरकार तथा अन्य स्वार्थी वर्गाें ने मीडिया पर अपने प्रभुत्व का बेजा इस्तेमाल भी खूब किया. फिर भी उसका एक विश्वसनीय चरित्र बना रहा. पूंजीवादी दबावों के बीच सत्ताओं की नैतिक शक्तियां क्षीण होने से मीडिया, जो तब तक अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी हो चला था, खुशी-खुशी पूंजीवाद के चारणगान में जुट गया. अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूंर्ति के लिए मीडियाकरों को पूंजीवादी व्यवस्था के हाथों का खिलौना बनने से भी गुरेज नहीं था. लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करते हुए बड़े पूंजीपतियों ने स्वतंत्र मीडिया संस्थान खड़े कर लिए, जिनका उद्देश्य सिर्फ अपने व्यावसायिक हितों के लिए सरकार पर दबाव बनाना तथा बाजार को विस्तार देना था. चूंकि परंपरागत भारतीय सोच और मान्यताएं मिल-बांटकर खाने, भोग को नियंत्रित रखने और बचत को समान महत्त्व देती थीं, अधिकांश साहित्य इन्हीं के आधार पर रचा गया था. इसके अलावा साहित्य का जीवन के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण भी बाजार के किसी काम का न था, इसलिए नई मीडिया-नीति में साहित्य और साहित्यकार उत्तरोत्तर अप्रासंगिक होते चले गए. नवीं शताब्दी से आर्थिक उदारीकरण के दौर पूंजीपति घरानों को मिली छूट के बाद उत्पादन का आधार आदमी की जरूरत न रहकर मुनाफा कमाना हो गया.
अधिकतम मुनाफे के लिए विशालतम बाजार अपरिहार्य था. मनमाफिक विस्तार के लिए पूंजी-केंद्रित उद्यमों ने मीडिया को और ज्यादा सक्षम बनाने हेतु आधुनिक प्रौद्योगिकी का सहारा लिया, जो काफी महंगी थी. उतनी पूंजी सरकारों की ओर से भी आ सकती थी, मगर वे संसाधनों की कमी का बहाना बनाए रहीं. बड़े औद्योगिक घरानों का कब्जा हो जाने से मीडिया पर कारपोरेट संस्कृति का असर होने लगा. परिणामस्वरूप पत्रकारों के लिए नई आचारसहिंताएं गढ़ी जाने लगीं. मीडियाकरों में व्यावसायिक कौशल को महत्त्व दिया जाने लगा, जिसे बाजारवादी व्यवस्था के अनुचर विद्वान व्यावसायिक नैतिकता जैसा लोकलुभावन नाम देने लगे. बाजार की नब्ज पहचानना, सूचनाओं के भंडार को खंगालकर नए उपभोक्ताओं तक पहुंचना सफल मीडियाकर की अनिवार्य योग्यता मान लिया गया. बाजारवादी नैतिकता के अनुसार हर वह कार्य वरेण्य था, जिसमें अधिकतम लाभ की संभावना निहित हो. लाभ की अवधारणा परंपरागत प्रौद्योगिकी का भी अभिन्न हिस्सा थी. मगर नई अवधारणा ने लाभ को अधिकतम मुद्रार्जन के लक्ष्य तक सीमित कर दिया था, जबकि अपने परंपरागत अर्थों में लाभ का प्रत्यय उत्पाद के संपूर्ण सामाजिक-आर्थिक और नैतिक मूल्यों से जन्मता था. लाभवृद्धि की रफ्तार को बनाए रखने के लिए मीडिया ने साहित्य के साथ अपनी सालोंसाल पुरानी जुगलबंदी को किनारे कर, खुद को सूचनाओं के आदान-प्रदान तक सीमित कर दिया. उल्लेखनीय है कि साहित्य सोच का परिष्कार करता है, मीडिया रुचि का. सोच अमूत्र्तन अवस्था है, उसका व्यावसायिक लाभ संभव नहीं. इसलिए पूंजीपति की ध्यान मीडिया की ओर होता है, क्योंकि बाजार के विस्तार की संभावनाएं कहीं न कहीं रुचि के परिष्कार पर भी निर्भर होती हैं.
यह कहना भी अनुचित होगा कि साहित्य बाजार के दुष्प्रभावों से स्वयं को बचाने में सर्वथा सफल रहा. बड़े-बड़े समाचारपत्रों ने जो पूंजीपति घरानों से निकलते थे, अपने समय के प्रसिद्ध साहित्यकारों को नौकरियां दीं तथा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में उन्हें अपने हितों के विरुद्ध जाने से रोका. साहित्य-संवर्धन और साहित्यकारों के सम्मान के बहाने इस वर्ग ने बड़े-बड़े पुरस्कार घोषित किए. उनका उद्देश्य साहित्यकारों के सोच और कर्म को अपने अनुरूप ढालना था. लोगों के दिमागों में तरह-तरह से यह बिठाया जाने लगा कि साहित्य और अन्य कलाएं राज्य और पूंजी के ही संरक्षण में सुरक्षित रह सकते हैं. बावजूद इसके वर्चस्वकारी स्वार्थी शक्तियां साहित्य को पूरी तरह कब्जाने में नाकाम रहीं. क्योंकि साहित्यकारों के एक वर्ग को खरीद लेना, कुछ सुविधापरस्त साहित्यकारों की लेखनी की धार कुंद कर देना तो बाजार के लिए संभव था, मगर वह साहित्यकार बनाने का काम नहीं कर सकता था. जनाक्रोश को स्वर देने वाली साहित्यिक प्रतिभाएं प्रायः विसंगतियों और विषमताओं के बीच विकसित होती हैं. इसलिए तमाम पूंजीवादी प्रतिबंधों और आयोजनों के बीच साहित्यिक प्रतिभाएं जन्मती रहीं. उन्हीं के दम पर किंचित परिवर्तनों के बावजूद साहित्य आज भी अपनी स्वतंत्र उपस्थति बनाए हुए है.
साहित्यकारों का एक वर्ग हमेशा ही पूंजी और प्रौद्योगिकी के अंतहीन विस्तार को मानवीय अस्मिता पर संकट के रूप में देखता है. हिंदी साहित्य और मीडिया के वर्तमान संबंधों के विरुद्ध उठ रही बहसें दरअसल इसी वर्ग के जीवट और संघर्ष चेतना की प्रतीति हैं. साहित्य और आधुनिक मीडिया में एक अंतर यह भी है कि साहित्य मानवीय विवेकीकरण के प्रति निरंतर प्रयासरत रहता है. जबकि पूंजीवाद प्रेरित मीडिया की व्यावसायिक नीति लोगों को अनुगामी बनाने की होती हैं. स्थितियों की मूल्यवादी विवेचना की ओर उसका कोई रुझान नहीं होता. वह ज्ञान को सूचनाओं तक समेट देने का प्रयास करता है. यही कारण है कि आधुनिक मीडिया जिनमें हिंदी मीडिया भी सम्मिलित है, के अधिकांश आयोजन अपने दर्शकों, पाठकों के समक्ष सूचनाएं परोसने तक सीमित हैं. विमर्श के नाम पर वह तंत्र-मंत्र, खेल और सिनेमा जगत जैसी उन घटनाओं को लेता है, जो किसी न किसी रूप में बाजार को विस्तार देने के ही टोटके हैं. काले धन के बूते फल-फूल रहा आधुनिक मीडिया इतना बोल्ड हो चुका है कि वह किसी दायित्व-भावना को अपने सिर नहीं लेता. वह खुद को केवल मनोरंजन उद्योग के नाम से परचाना चाहता है. ताकि किसी भी प्रकार की उम्मीद न रखी जाए. लेकिन बात जब सुविधाओं एवं अधिकारों की आती है तो संविधान का हवाला देते हुए वह खुद को लोकतंत्र का संरक्षक घोषित करने लगता है. तथा इस बहाने सरकार से अधिकाधिक सुविधाओं की अपेक्षा रखता है.
सुप्रसिद्ध कन्नड साहित्यकार वेणुगोपाल ने अपने आलेख ‘प्रेमचंद और समकालीन राजनीति’7 में एक आपातकाल की एक घटना का जिक्र किया है. यह आधुनिक मीडिया के चरित्र का खुलासा करने को पर्याप्त है-
‘‘बात तब की है, जब राजकपूर की ‘बा॓बी’ फिल्म का हल्ला था. दिनमान में उन्हीं दिनों एक रपट छपी थी. एक विदेशी विचारक ने यह फिल्म देखी तो हाल से निकलने पर कहा—
‘ए फेंटास्टिक पा॓लिटिकल फिल्म.’ उनके भारतीय यजमान और दूसरे सुनने वाले हैरान-परेशान-कि बा॓बी और पा॓लिटिकल फिल्म! सोचा गया कि शायद विदेशी होने के कारण फिल्म उनकी समझ में नहीं आई होगी, तब उन्हें कहा गया— ‘यह फिल्म तो नई उम्र के एक छोकरे और छोकरी की इश्किया दास्तां है. इसमें पा॓लिटिकल क्या है?’ तो विदेशी विचारक मुस्कराकर बोले- ‘इससे बढ़कर पा॓लिटिकल और क्या होगा कि जिस उम्र में पूरी दुनिया के छोकरे-छोकरियां ‘यूथ पा॓वर और ‘स्टूडेंट पा॓वर’ के नाम से हड़कंप मचाए हुए हैं, उस उम्र में इस फिल्म के हीरो-हीरोइन सिर्फ ‘कमरे में बंद होकर चाबी खो देने में लगे हैं. इससे ज्यादा खतरनाक पा॓लिटिक्स और क्या होगी!’’
भटकाव का शिकार हिंदी का आधुनिक प्रिंट मीडिया तो भाषा के मूल स्वरूप से ही खिलवाड़ कर रहा है. तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों में हिंदी के स्थान पर ‘हिंग्लिश’ का जिस प्रकार धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है, वह चिंता की बात है. गंभीर साहित्य टेलीविजन और अखबार दोनों से गायब होता जा रहा है. धुन के पक्के लोग इसकी भरपाई इंटरनेट के माध्यम से करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वहां ‘संपादक’ नामक अनचाहे जीव की अनुपस्थिति साहित्यिक गुणवत्ता का सबसे बड़ा संकट बनी हुई है, हालांकि वह दिन दूर नहीं जब इंटरनेट पर गंभीर और पठनीय साहित्य का भरपूर जमावड़ा होगा, और वह पूरे समाज में वैचारिक हलचल पैदा करने में सक्षम होगा. अभी तो भाषा के साथ खिलवाड़ और सांस्कृतिक अपसरण पर साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों की चुप्पी, हालात को लगातार खतरनाक बनाती जा रही है. ऐसे में सुधी साहित्यकारों और पत्रकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे एकजुट होकर लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ के अनियंत्रित व्यावसायिकीकरण के विरुद्ध जनमत बनाने का हर संभव प्रयास करें. बस हमें याद रखना होगा कि मीडिया और साहित्य दोनों अन्योन्याश्रित हैं, उनके बीच अटूट-सी सहसंबद्धता है, उनके वर्तमान संबंध भले ही अस्पष्ट और दुविधामय नजर आते हों.

हजारी प्रसाद द्व‌िवेदी

हमारे साहित्यिकों की भारी विशेषता यह है कि जिसे देखो वहीं गम्भीर बना है, गम्भीर तत्ववाद पर बहस कर रहा है और जो कुछ भी वह लिखता है, उसके विषय में निश्चित धारणा बनाये बैठा है कि वह एक क्रान्तिकारी लेख है। जब आये दिन ऐसे ख्यात-अख्यात साहित्यिक मिल जाते हैं, जो छूटते ही पूछ बैठते हैं, 'आपने मेरी अमुक रचना तो पढ़ी होगी?