Wednesday 10 December 2014

लड़ती हुई लड़की/जयप्रकाश त्रिपाठी

लड़कियां लड़ रही हैं, रच रही हैं दुनिया को,
सब कुछ संवार रही हैं लड़कियां,
कोई नहीं पहुंच पाता उनकी उड़ानों के आखिरी सिरे तक,
लड़कियां हर समय की रंग हैं,
लड़कियां हर सुबह की लौ होती हैं,
लड़कियां वक्त की, शब्द की, अर्थ की, गूंज-अनुगूंज की,
मुस्कराती चुप्पियों और पूरी प्रकृति की
सबसे खूबसूरत इबारत हैं,
ऐसा-वैसा कुछ कभी न कहना
किसी लड़की बारे में ।
लड़किया
गांव की, शहर की,
आंगन की, स्कूल की,
राह की,
रात-दिन की,
न हों तो खाली और गूंगी हो जाती है
हंसी-खुशी
दुख-सुख
बोलचाल की दुनिया,
लड़कियां
कहीं दूर से आती हुई
हंसी की तरह बजती हैं रोज-दिन,
उस शायर ने भी
कहा था एक दिन कि..
वह घर भी कोई घर है
जिसमें लड़कियां न हों.
लड़कियां
जब आंखें झपकाती हैं,
चांद की खिड़कियां खोलती हैं,
पूरब की किरणों में महकती हैं,
पश्चिम को अगले दिन के लिए आश्वस्त करती हैं,
केसर की तरह पुलकती हैं,
आईने की आत्माओं में प्रतिबिंबित होती हैं,
अंतस को गहरे कहीं छू-छूकर भाग जाती हैं,
सब-कुछ सुनती-सहती
और गीतों की तरह गूंजती रहती हैं,
आंसुओं की तरह बरस कर भी
इंद्रधनुषाकार पूरे क्षितिज पर छा जाती हैं,
आंख मूंदकर
युगों का गरल पी लेने के बाद
झूम-झूम कर, चूम-चूम कर नाचती हैं,
जरा-जरा-से इशारों पर
कटीली वर्जनाओं,
लक्ष्मण रेखाओं के आरपार
जोर-जोर-से हंसती-खिलखिलाती हैं
लड़कियां।
आत्मा के रस में,
अपार संज्ञाओं से भरे संसार में,
सन्नाटे की चौखट पर,
शोर की सिराओं में,
संग-संग चलती हैं, होती हैं लड़कियां,
सांसों में,
निगाहों में,
बूंदों और मोतियों में,
सादगी की गंध
और शाश्वत सजावटों में,
ऊंची-ऊंची घास की फुनगियों पर,
ग्लेशियर की दूधिया परतों में
कितने तरह से होती हैं लड़कियां.
दिशाओं से पूछती हैं
और आगे बढ़ जाती हैं,
हवाओं से हंस-हंस कर बतियाती हैं
और चारों तरफ फैल जाती हैं
लड़कियां जाने कितनी तरह से
जाने कितनी-कितनी बार
रोज सुबह-शाम
दिन भर
चांद-सितारों के सिरहाने तक.
ये हैं
समय के पहले से
समय के बाद तक के लिए
हमारी अमोल निधियां,
हमारी अथाह स्मृतियां,
हमारी सानेट और चौपाइयां,
हमारी दोहा-छंद-कवित्त,
हमारी समस्त चेतना की शिराएं,
हमारी बहुरूपिया अवास्तविकताओं की
सबसे विश्वसनीय साक्षी
हम-सब की लड़कियां.
सोचता हूं कितना लिखूं,
लिखता ही रहूं
इनके लिए
इन लड़कियों के लिए.
शायद
कभी न पूरी हो सके
लड़कियों पर
लिखी कोई भी कविता!

बच्चे/जयप्रकाश त्रिपाठी

बड़े हो जाते हैं जल्दी जल्दी
और अजनबी हो जाते हैं बच्चे,
जैसेकि और कुछ हुआ ही न हो,
न होने वाला हो बड़ा, जल्दी जल्दी...।