Thursday 11 December 2014

मैं हारा हुआ सूफ़ी /शहंशाह आलम

सुना था पहले भी पखावज़, पखावज के भीतर पखावज सुना थाचखा था पहले भी फल, फल के भीतर फल चखा थामहसूसा था उतरती गर्मी को, चढ़ती बारिश को महसूसा थाचैत, वैशाख सबको महसूसा था मैंने, घूमा था अंधेरे में, कोहरे में घूमा थाकोहरे के कोहरे में भी घूमा था सुरक्षित, अकेला नितांत अकेलाअब न शिष्य थे, न शिष्यों के आग्रह, अब बर्बर हँसी थी, चीख़ थीसरसराहट थी भय की, मृत्यु की, पखावज की आवाज़ में, घने कोहरे मेंअब हत्यारे थे विजेता, मैं हारा हुआ सूफ़ी बेचाराअब उन्हीं के प्रार्थना घर, उन्हीं का मज़हब, उन्हीं के ईश्वरीय संगठनउन्हीं की लम्बाई-ऊँचाई, उन्हीं की गुनगुनाहट, स्वर उन्हीं केउन्हीं के हिज्जे, उन्ही के वाक्य, भाषा उन्हीं कीजून, जुलाई, आषाढ़, भादो, धरती, आकाश सब उन्हीं केमैं बस हारा हुआ सूफ़ी बेचारा, इस समकालीन समय में...