Wednesday 16 December 2015

जिसकी उंगली है रिमोट पर वो है सबसे ग्रेट

""...सुनो बाबू जी, ये जो दस-दस लाख के गेट वाली कोठियां देख रहे हो न, इन सबकी अपनी-अपनी कथा-कहानी है। पढ़े-लिखे लगते हो। फुर्सत लगे तो कभी-कभार उन कहानियों की दो-चार लाइन तुम भी पढ़ लिया करो न, तबीयत हरी हो जाएगी।... आंख चियार कर जीवन भर भक्कू ही बने रहोगे क्या?...और हां, फिर भी दिमाग काम न करे तो कैलाश गौतम की ये दो-चार लाइनें ही पढ़ डालो, शायद कुछ पल्ले पड़ जाए.......""
सौ में दस की भरी तिजोरी नब्बे खाली पेट, झुग्गीवाला देख रहा है साठ लाख का गेट ।
बहुत बुरा है आज देश में लोकतंत्र का हाल
कुत्ते खींच रहे हैं देखो कामधेनु की खाल, हत्या, रेप, डकैती, दंगा हर धंधे का रेट ।
बिकती है नौकरी यहाँ पर बिकता है सम्मान,
आँख मूँद कर उसी घाट पर भाग रहे यजमान, जाली वीज़ा पासपोर्ट है जाली सर्टिफ़िकेट ।
लोग देश में खेल रहे हैं कैसे कैसे खेल, एक हाथ में खुला लाइटर
एक हाथ में तेल चाहें तो मिनटों में कर दें सब कुछ मटियामेट ।
अंधी है सरकार-व्यवस्था, अंधा है कानून
कुर्सीवाला देश बेचता रिक्शेवाला ख़ून, जिसकी उंगली है रिमोट पर वो है सबसे ग्रेट ।

Tuesday 3 November 2015

जयप्रकाश त्रिपाठी

प्यार की बातें करने वाले,
देह से बाहर आओ तो,
प्यार के भूखे इंसानों पर
भी कुछ शब्द लुटाओ तो......
रचो न मिथ्या, जन-गण-मन
के साथ चलो दो-चार कदम,
सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् का दुनिया को पाठ पढ़ाओ तो.....

Saturday 31 October 2015

मीडिया पर केंद्रित एवं शीघ्र प्रकाश्य मेरी नयी पुस्तक.... खबर फरोश

Monday 26 October 2015

मेरी पीड़ा के लोग / जयप्रकाश त्रिपाठी

मैंने जब-जब लिखना चाहा, कभी नहीं लिख पाया तुमको,
मैंने जब-जब पढ़ना चाहा, कभी नहीं पढ़ पाया तुमको, तुम इतने, क्यों ऐसे-ऐसे.....
लिखना-पढ़ना, कहना-सुनना, 
मिलना-जुलना रहा न संभव,
जन में तुम-सा, मन में तुम-सा, 
रचना के जीवन में तुम-सा,
सहज-सहज सा, सुंदर-सुंदर,
मुक्त-मुक्त सा, खुला-खुला सा,
ओर-छोर तक युगों-युगों से
आदिम बस्ती-बस्ती होकर,
शिशु की हंसी-हंसी में तिरते,
रण में भी क्षण-प्रतिक्षण घिरते,
मां के मुंह से लोरी-लोरी,
युद्ध समय में गगन-गूंज तक,
आर्तनाद से घिरे-घिरे वे
दस्यु न जाने अब तक तुमको
ठगने और लूटने वाले,
वे समस्त जाने-आनजाने,
संघर्षों का वह इतिहास अधूरा अब भी
रक्तबीज सा, धर्मराज सा
अथवा अब के राज-काज में
इस समाज में श्रम से, सीकर से, शोणित से सिंचित
जीवन के जंगल में
खिंची-खिंची प्रत्यंचाओं पर
उत्तर में भी, दक्षिण में भी, धरती से नभ तक अशेष
जग को रचते-रचते, ढोते-ढोते
थके न फिर भी, चले आ रहे,
चले आ रहे अंतहीन, अविरल,
अपराजित, ऐसे किसी समय की निर्णायक बेला को,
उन सब के गाढ़े-गाढ़े सब अंधेरों को ढंक देने को
उफन रहे आक्रोश लिये
अंतस में अपने रोष लिए
किलो, मठों के ढह जाने तक,
टूट-टूट कर, बिखर-बिखर कर उनका जीवन मिट जाने तक....
मैंने तुमको लिखना चाहा, पढ़ना चाहा,
कहना चाहा, सुनना चाहा,
क्योंकि तुम, बस तुम हो ऐसे
आओ-आओ, हम हैं इतने,
इतने हम हैं, इतने-इतने, हम हैं ऐसे,
आओ अभी अशेष समर है !

Sunday 27 September 2015

अथ फेसबुक प्रपंच

दो-तीन वर्षों में जाना-पहचाना है कि फेसबुक पर दो तरह के प्राणी विचरते हैं। सच्चे मन के विद्वान-मनीषी और भांति-भांति के लंपट। विद्वान-मनीषी यहां रोजाना बने रहने के लिए अपने शब्दों की जादूगरी से ललचाते-रिझाते हैं और लंपट तत्व तरह तरह की खुराफातों में व्यस्त रहते हैं। आह-आह, वाह-वाह के शब्दजाल से लैस ऐसे तत्वों की कुदृष्टि स्त्रियों पर रहती हैं। खोखली पंक्तियों पर भी वे दिल खोलकर वाहवाही लुटाते फिरते हैं। वह कोई पोस्ट पढ़ें-न-पढ़ें, खासकर स्त्रियों के सीधे चैट बॉक्स में घुसकर नाना प्रकार के लंपट-संवाद कर गुजरने के लिए दुष्प्रयासरत होते हैं, बार बार फोन नंबर और पता मांगते हैं... गुड मॉर्निंग से, गुड नाइट तक... हलो-हाय से लव यू तक।
एक जनाब तो, जो देश के एक महानगर में विराजते हैं, अपनी फ्रेंड लिस्ट की कई कई स्त्रियों के कन्हैया बन चुके हैं। अपने महानगर में उन स्त्रियों को घूमने-फिरने के लिए आमंत्रित करते रहते हैं। उनके लिए होटल बुक कराना, वाहन उपलब्ध कराना, उनके फोन रिचार्ज कराना, खाने-पीने के उम्दा से उम्दा इंतजाम करना, शहर व उसके आसपास के पर्यटन स्थलों पर देर रात तक टहलाना-घुमाना, मौज-मस्ती करना उनका शगल होता है। ये बहुंरगी कर्मकांड वह अपने पत्नी-बच्चों से छिप-छिपाकर करते हैं। एक जनाब लड़कियों के फोन रिचार्ज कराते कराते अब कंगाल-से हो चुके हैं।
ऐसे ही एक श्रृंगार रसावतार इन दिनो लड़कियों और स्त्रियों को ज्ञान देते डोल रहे हैं कि उन्हें अपनी फ्रेंड लिस्ट में से किस-किस को आउट कर देना चाहिए, और उनके नेतृत्व में अपना समूह बनाकर साहित्य और समाज की भलाई के लिए कालीदास के 'कुमार संभव' से लेकर 'लोलिता' तक जैसी पुस्तकों पर आधुनिक टिप्पणियों की बहस चलानी चाहिए....। ऐसे और भी अनेकशः महापुरुष यहां दिन-रात एक किए हुए हैं। खुली-खाटी निखालिस बात कहें तो फेसबुक सामंती थूथन वाले ऐसे छुपेरुस्तम निर्लज्जों के लिए 'कोठा' है। उनके और भी कई तरह के क्रिया-कलाप हैं, जिन पर लिखने में भी घिन आती है। स्त्रियां और भले लोग उनसे बचते-भागते तंग आ चुके हैं और कई-एक डाट-फटकार के साथ बेइज्जत भी.....

Friday 25 September 2015

मध्य प्रदेश के बाबा कालू दास का दर्द

........ सीधी, शहडोल, सागर, विदिशा, उमरिया आदि ऐसे जिले, जहां के लाखों बाशिंदों का दर्द पन्नों पर दर्ज नहीं। इतनी कड़वी सच्चाइयां कि जो जाने-सुने, हैरत में पड़ जाए। वहां के ऐसे गांव-के-गांव, पीढ़ियों से वहां रहने के बावजूद, उन जमीनों के उनके नाम पट्टे नहीं, जिन पर उनके मकान बने हैं। ऊपर ही ऊपर जमीनों के सौदे हो जाते हैं, वे अपनी जड़ों से उजड़कर कहीं और जा बसते हैं। ऐसे तमाम लोग उन बांधों के नीचे झुग्गियां डालकर मेहनत-मजदूरी से जीवन बसर कर रहे हैं या जंगलों में जाकर शरण ले रहे हैं। सरकार कहती कुछ है, जमीनी हकीकत कुछ और है।
बाबा कालूदास बताते हैं कि पीढ़ियों से वहां होने के बावजूद उनके नाम तो कार्ड नहीं, जिनके पास ट्रैक्टर-गाड़ियां हैं, उनके पूरे के पूरे परिवार गरीबी रेखा के नीचे दर्शाकर उन्हें राशन कार्ड दिए गए हैं। जब ये गरीब राशन अथवा तेल मांगने जाते हैं, फटकार कर भगा दिया जाता है। जीहुजूरी पर लीटर दो लीटर मिल जाता है, बाकी सब दबंगों को बांट दिया जाता है।
बाबा कालूदास इस समय नैक्डोर के उस आंदोलन से जुड़े हैं, जो अशोक भारती और संजय भारती के नेतृत्व में हर भूमिहीन आदिवासी को पांच-पांच एकड़ जमीन देने की लड़ाई लड़ रहा है। ये लोग पंचायत अधिनियम और भूमि वितरण कानून का भी इन दिनो बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं।
उनका कहना है कि हम अपनी लड़ाई को किसी भी हद तक ले जाएंगे मगर अब पीछे नहीं हटेंगे। हमारा दुख न राज्य सरकार सुन रही है, न केंद्र सरकार। हमे सुनियोजित तरीके से हमारे इलाकों से खदेड़ा जा रहा है। हमारी जमीनें, हमारे जंगल, खदानें, पानी पर लगातार सरकार के सहयोग से कब्जे होते जा रहे हैं। कहीं सुनवाई नहीं, जैसे लगता ही नहीं कि हम अपने देश में रह रहे हैं।

Thursday 24 September 2015

रंजीता के शब्द

Tum kavi udas na hona
Tum kavi nirash na hona,
Tab vi nahi jab jeewan ke gahantam andhero me
Tumhe kuch na sujhta ho,
Ya tab jab tanhai tumhe Mar dalne lage..
Saavi tumhe paraye se dikhne lage ,
Aur har rishta jab chor chale tumhara sath.

Tab vi nahi ..
Tab vi tum kavi udas na hona,
Tab vi tum kavi nirash na hona,
Main hu .........
Aur hamesha hi rahungi ,
Tumhare sath .....
Tumhare pas,
Ek shardha ki tarah. ....
Ek pooja ki tarah ......
Ek aastha ki tarah.....
Nirakar.............
Bhale hi kai bar tum mujhe dekh na payoge,
Par mujhe har pal. .partial jina,
Mehsoos karna .......
Apni tmam chetan aur achetan vichardhara me,
Main hu...
Aur.....
Rahungi .... hamesha
Tumhare pas.....Tumhare sath. .
Bas tum hausla aur zazba bachaye rakhna.
Mere khawab apne palkoN pe sajaye rakha.

Tuesday 22 September 2015

जयप्रकाश त्रिपाठी

जो है, क्या-क्या है, जो नहीं है, 
क्या नहीं है, मेरे पास, उनके पास...।
सब चेहरे, सब खुशियां, सब सुबहें उनके वश में,
उजियारे, रंग सारे, उनके मन में, उनके रस में,
जो भी है, सब वहीं है, उनके पास, उनके पास...।
सब कर्ज-कर्ज किस्से, सब दर्द-दर्द लम्हे,
जले सर्द-सर्द चेहरे, जो बुझे-से, मेरे हिस्से,
मेरे नाम सब उधारी, कई खाते हैं, बही है, 

मेरे पास, मेरे पास...।

Sunday 20 September 2015

सिर्फ आकाश ही क्यों, उसका एक नीड़ हो / रंजिता सिंह

Nanhi chiria ka aakash kitna hai
Uska parisiman kaun tai karega
Tum ya mai ya hamdono
Sirf aakash hi kyo
Uska ek neer vi to banana hoga
Tinka tinka jor ke lana hoga
Kya tunhe lagta hai tum De sakoge
Ek mukt aakash aur ek surakhit neer
Ek kilol aur sapno ke dher sare peroN par
Vicharti ...hansti. .vihasti wo nanhi chiria
Kya uski chonch me dana bharna
Tumhe uski dega. .kya barish se gile
Uske pankh ko tum apne pankhoN se
Dhak doge. .kya unchi aur lambi uran se
Thaki bahut thaki wo nanhi chiria
Sukh ke kuch nirwidhn nind le payegi
Aur jab aankh khole to apne neer me
Pahle se rakha dana-pani chug payegi
Aur fir aasman ke Jane kitne naye kone haiN
Jo usne kavi nahi vichra
Un sundar sapnile path ki rah dikha payoge tum
Us naye nawele neel gagan me
Sang uske urr payoge tum.
 रंजिता सिंह

Saturday 19 September 2015

मेरी पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से पुरस्कृत

वर्ष 2014 में प्रकाशित मेरी पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने पुरस्कृत किया है। हिंदी दिवस के मौके पर 14 सितंबर 2015 को लखनऊ में संस्थान के यशपाल सभागार में आयोजित एक समारोह में मुझे सम्मानित करते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, संस्थान के निदेशक सुधाकर अदीब, मुख्य सचिव अटोरिया, विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय आदि। 

Sunday 16 August 2015

जयप्रकाश त्रिपाठी

इस क्रूर-अबूझ कोलाहल में मन कैसे-कैसे रंग ओढ़ने लगता है.....
ऊंची-ऊंची लहरों से ढंके गहरे-गहरे समुद्र, ऊपर-और-ऊर बिछा-बिछा सा अंतहीन आकाश और भांति-भांति की पंछी-उड़ानें....
कि बस, इन सब से ही बोलते-बतियाते रहें, आंधियों की तरह उठें अक्सर और दूर-दूर तक फैले जंगलों को झकझोरते हुए बांहों में भर लें बस्तियां, नगर, गांव-गांव...
दिशाएं जहां तक ले जाए वक्त की उंगलियां थामे-थामे...
अजायब घर होती जा रही अपनी दुनिया से कुछ देर बाहर रहें, और जाने-समझें और ठीक से पहचानें कि वे कौन हैं, क्या चाहते हैं, क्यों इस तरह उन सब ने इतनी खूबसूरत इंसानियत को जिबह कर डाला है, आखिर मंशा क्या है उनकी...
क्या उन बहेलियों को ठोर-ठोर घोसलों की खिड़कियों से चोंच-चोंच चहचहाती, दाने चुगती, टहनियां झकझोरती और पंखों में आकाश भर लेने के लिए बेताब चिड़ियों की आंखों से प्यार नहीं....
प्यासी पृथ्वी और मनुष्यता को संतृप्त कर देने वाले बादलों से, बारिश से बातें करना क्या उन्हें जरा भी नहीं सुहाता...
सबके हिस्से के सुख बांटती धूप से, उजाले से, क्षितिज से, सुबहों-शामों, दोपहरों और रातों से, निरभ्र-नीले वितान के ओर-छोर और गहन तारा कुंज-निकुंजों से कोई हमदर्दी नहीं...
आखिर क्या किया जाना चाहिए पत्तियों के थरथराने पर तालियां बजाकर झूम उठते इन बहेलियों का, जन-गण-मन के सपनों के लुटेरों का.....

Monday 3 August 2015

मेरी पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' को उ.प्र.हिंदी संस्थान का 'बाबूराव विष्णु पराड़कर पुरस्कार'

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से आज वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तकों पर सम्मान एवं पुरस्कारों की घोषणा कर दी गई। इसके अंतर्गत संस्थान ने पत्रकारित पर केंद्रित मेरी पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' को 'बाबूराव विष्णु पराड़कर पुरस्कार' से सम्मानित करने का निर्णय लिया है।

'मीडिया हूं मैं' पर वरिष्ठ पत्रकार धनंजय चोपड़ा की टिप्पणी 

इन दिनो, जब मीडिया इंडस्ट्री को सबसे तेज भागती और नित नया रूप बदलती इंडस्ट्री का तमगा दिया जा रहा है, तब यह जरूरी हो जाता है कि इस मिशनरी व्यवसाय की न केवल गंभीर पड़ताल की जाए, बल्कि उसके उन तत्वों को खंगाला जाए, जिन्होंने इसे रचने और मांजने में योगदान दिया है। जाहिर है कि अगर मीडिया के भीतर से इसकी शुरुआत हो तो सही मायनों में हम मीडिया के बदलावों, उसमें पनपती नए जमाने की फितरतों और पूंजी और मुनाफे की मुठभेड़ में कहीं खोती जा रही असल खबरों की जरूरतों के साथ-साथ पत्रकारों के लिए तैयार हो रही पगडंडियों पर बेहतर बात कर पाएंगे।
हाल के दिनो में प्रकाशित पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' इसी तरह की पड़ताल की कमी को पूरा करती नजर आती है। यह किसी से नहीं छिपा है कि नया होता मीडिया अपने नए-नए उपक्रमों के सहारे तेजी से विस्तार ले रहा है। इंटरनेट ने मीडिया के कई खांचों को पूरी तरह बदल दिया है। संपादक नाम की संस्था अब असंपादित टिप्पणियों वाले आभासी साम्राज्य के आगे बेबस-सी है। सोशल मीडिया के नाम से अगर लोगों को वैकल्पिक माध्यम मिला है तो मोबाइल जैसे टूल ने नागरिक पत्रकारों और नागरिक पत्रकारिता जैसे नए आयाम हमारे सामने प्रस्तुत कर दिए हैं। फेसबुक और ट्विटर ने मीडिया के मायनों को फिर से परिभाषित करने पर मजबूर किया है। जाहिर है कि समय बदला है और जरूरतें भी। ऐसे में वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' की कहानी को मीडिया की ही जुबानी सुनाने का प्रयास करती है। छह सौ से अधिक पृष्ठों वाली इस पुस्तक में श्री त्रिपाठी ने पत्रकारिता में 32 वर्षों के अपने अनुभवों के साथ साथ कई अन्य नामचीन पत्रकारों के विचारों को भी संकलित-प्रस्तुत किया है। मीडिया में अपना भविष्य खोज रहे युवाओं के लिए भी ढेर सारी ऐसी जरूरी जानकारियां इस पुस्तक में हैं, जो एक साथ किसी एक किताब में आज तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। मीडिया के बनने और फिर नए रास्तों पर चलकर नई-नई मंजिलें पाने तक की रोचक यात्रा की झलकियां तथ्यतः इस पुस्तक में पढ़ने को मिलती हैं।
पत्रकारिता का श्वेतपत्र, मीडिया का इतिहास, मीडिया और न्यू मीडिया, मीडिया और अर्थशास्त्र, मीडिया और राज्य, मीडिया और समाज, मीडिया और कानून, मीडिया और गांव, मीडिया और स्त्री, मीडिया और साहित्य जैसे अध्यायों से गुजरते हुए लेखक के अनुभवों के सहारे इस पुस्तक में बहुत-कुछ जानने को मिलता है। इन अध्यायाों में जिस तरह समय के अनुरूप विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, वह अंतरविषयक जरूरतों को तो पूरा करता ही है, मीडिया के साथ विषय-वैविध्यपूर्ण रिश्तों की आवश्यक पड़ताल भी करता है। लेखक ने अपनी बात को स्थापित करने के लिए जिस तरह अन्य पत्रकारों के उद्धरणों का सहारा लिया है, वह भी सराहनीय है। पहले-पहल तो पुस्तक किसी लिक्खाड़ की आत्मकथा-सी लगती है, लेकिन धीरे-धीरे पृष्ठ-दर-पृष्ठ यह एक ऐसे दस्तावेज की तरह खुलने लगती है, जिसमें विरासत की पड़ताल के साथ-साथ अपने समय और मिशन के साथ चलने की जिद की गूंज सुनाई देने लगती है।
लेखक की पंक्तियों पर गौर करें तो वे मीडिया की बदलती तस्वीर से उसी तरह परेशान लगते हैं, जिस तरह समाज की विद्रूपता से हम सब। मीडिया को लेकर लेखक की गंभीरता इन शब्दों में साफ झलकती है - 'मैं सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं, लड़ने के लिए भी। मनुष्यता जिसका पक्ष है, उसके लिए। जो हाशिये पर हैं, उनका पक्ष हूं मैं। उजले दांत की हंसी नहीं, मीडिया हूं मैं। सूचनाओं की तिजारत और जन के सपनों की लूट के विरुद्ध। जन के मन में जिंदा रहने के लिए पढ़ना मुझे बार-बार। मेरे साथ आते हुए अपनी कलम, अपने सपनों के साथ। अपने समय से जिरह करती बात बोलेगी। भेद खोलेगी बात ही।...' तय है कि यह पुस्तक नये पत्रकारों और पत्रकारिता के प्रशिक्षुओं के साथ-साथ मीडिया को समझने की ललक रखने वालों से बेहतर संवाद करने और उन्हें कुछ नया बताने-सिखाने में सफल होगी।
पुस्तक : मीडिया हूं मैं
लेखक : जयप्रकाश त्रिपाठी
प्रकाशक : अमन प्रकाशन, कानपुर
मूल्य : 550 रुपये
फोन संपर्क : 8009831375

Friday 10 July 2015

सफर

आओ, कोई ऐसी चाल चलें कि चलते जाएं
राहें थमें नहीं, उस ओर, जहां तक जाना हो....

सच्चाई

जिसने भी सुना, दांतों तले उंगली दबा ली,
वो कह रहे हैं, मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा...

प्यार

सच्चा है मेरा प्यार तो सच बोलता हूं मैं
सच्चाइयां उनको बुरा लगें तो क्या करूं
रोने के वक्त हंसी आ गई, खुद को जोकर बना लिया
चेहरे से नूरानी, फूल-फूल, मन को पत्थर बना लिया 
अब तो सारे घाव पुराने हो गए,
रिश्ते सब जाने-पहचाने खो गए,
बेगाने-बेगाने से दिन बचे रहे
जाने हम कैसे अनजाने हो गए।

कर्जखोर दिन


रोज सुबह से शाम तक देता रहा हिसाब
फिर भी बही खुली रही, खाता रहा खराब

Monday 25 May 2015

नादानियों का सिला / जयप्रकाश त्रिपाठी

सोचा था जाने क्या मेरे नादान-से दिल ने,
नादानियों ने मुझको फिर वही सिला दिया।

कोई इस तरह से खेला मेरे दिल से बार-बार,
तो दिल ने कहा, खेलना उसने सिखा दिया।

दिल चीज क्या है, खेलने की चीज ही तो है,
खेलो न मेरे यार, और कितना खेलोगे ।

टूटा हुआ था और इसे तोड़ क्यों दिया,
इतना न टूटता तो बात और ही होती।

दिल ने तड़प-तड़प के कहा फिर से एक बार,
ऐसी तड़प नहीं है उधर, जैसी इधर है ।

दिल टूटने का सिलसिला जो आज तक रहा
अब और टूट जाने की हिम्मत नहीं रही ।

मैंने जिन्हें चाहा था अपने चांद की तरह
दिल में मेरे उन्होंने अंधेरा भर दिया ।

Sunday 17 May 2015

सोशल साइटों पर यौन उत्पीड़न

फेसबुक और ट्विटर मित्रों के लिए ये बड़े काम की जानकारी हो सकती है। जरा संभल संभल कर चलने की जरूरत है। सोशल साइट्स ट्विटर और फेसबुक निजी जीवन को दूषित भी कर रही हैं। एक अध्ययन में पता चला है कि ट्विटर पर उत्पीड़न के मामलों में बढ़ोत्तरी हो रही है। नारीवादी कार्यकर्ता समूह वूमैन, एक्शन एंड द मीडिया (वैम) के अध्ययन के मुताबिक लगभग एक चौथाई के आस-पास युवा पुरुषों और महिलाओं को शारीरिक रूप से ऑनलाइन धमकी दी जाती है और एक चौथाई युवा महिलाओं का यौन उत्पीड़न हो रहा है। फेसबुक पर दोस्ती कर गाजियाबाद के एक सिपाही के बेटे ने तो छात्रा से दुराचार किया। कल उसे गिरफ्तार कर लिया गया। सोशल मीडिया में जरायम किस्म के लोगों की भी बाढ़ आई हुई है।

Sunday 3 May 2015

मई में मौसम ही नहीं, मीडिया भी तपता है : जयप्रकाश त्रिपाठी

मई का मौसम ही नहीं, इतिहास भी तपता रहा है। मानो ये जमाने से सुलगता आ रहा है। इसके चार अध्याय-विशेष, जिनमें दो पत्रकारिता के। एक है आज तीन मई को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस। इसी महीने की 30 तारीख को हिंदी पत्रकारिता दिवस रहता है। बाकी दो में एक मई दिवस और 10 तारीख को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम दिवस। 1 मई 1886 को अमेरिका में काम के घंटे घटाने की मांग करते मजदूरों पर गोलीबारी के दुखद दिन को मई दिवस के रूप में याद किया जाता है।
'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' प्रेस की स्वतंत्रता का मूल्यांकन, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाहरी तत्वों के हमले से बचाव और प्रेस की सेवा करते हुए दिवंगत हुए संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का दिन है। 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' मनाने का निर्णय वर्ष 1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के 'जन सूचना विभाग' ने मिलकर किया था। इससे पहले नामीबिया में विन्डंहॉक में हुए एक सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि प्रेस की आज़ादी को मुख्य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आज़ादी की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। तब से हर साल '3 मई' को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
आज जबकि हिंदुस्तान के पत्रकार मजीठिया वेतनमान की लड़ाई लड़ रहे हों, ऐसे में इस दिन का महत्व और अधिक उल्लेखनीय हो जाता है। वह इसलिए कि, जब पत्रकार अपने घर में गुलामी के दिन बिता रहा हो, उसे घर मालिक ही मजदूर की तरह रपटाते हुए,उल्टे मजदूरी न देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों तक उल्लंघन कर रहे हों, फिर काहे की स्वतंत्रता। जब पत्रकार गुलाम हो तो प्रेस स्वतंत्र कैसे हो सकता है।
मीडिया की आज़ादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के 'अनुच्छेद 19' में किया गया है। भारत में संविधान के अनुच्‍छेद 19 (1 ए) में "भाषण और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार" का उल्‍लेख है, लेकिन उसमें शब्‍द 'प्रेस' का ज़िक्र नहीं है, किंतु उप-खंड (2) के अंतर्गत इस अधिकार पर पाबंदियां लगाई गई हैं। इसी क्रम में 'भारतीय संसद' द्वारा 2005 में पास किया गया 'सूचना का अधिकार क़ानून' भी गौरतलब हो जाता है। इस क़ानून में सरकारी सूचना के लिए नागरिक के अनुरोध का निश्चित समय के अंदर जवाब देना बहुत जरूरी है। संसद में 15 जून, 2005 को यह क़ानून पास कर दिया था, जो 13 अक्टूबर, 2005 से पूरी तरह लागू हो गया।
हिंदी पत्रकारिता दिवस 30 मई को मनाया जाता है। सन 1826 ई. में इसी दिन पंडित युगुल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन आरम्भ किया था। भारत में पत्रकारिता की शुरुआत पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने ही की थी। हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई थी, जिसका श्रेय राजा राममोहन राय को दिया जाता है। आज हिंदी पत्रकारिता को कारपोरेट मीडिया ने जिस हालत में पहुंचा दिया है, जग जाहिर है। 'उदन्त मार्तण्ड' के लिए गोरे शासकों से जैसा लोहा लेना पड़ा था, उसे तो ये पतित कारपोरेट मीडिया याद भी नहीं करना चाहता है।
इसी महीने पड़ने वाले प्रथम स्वाधीनता संग्राम दिवस को 1857 के भारतीय विद्रोह के रूप में जाना जाता है। 10 मई 1857 को ही ब्रितानी शासन के विरुद्ध पहला सशस्त्र विद्रोह हुआ था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जारी रहा। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था। बाद में उसने देशव्यापी आकार ले लिया था। इस विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ।
इस मई महीने में ही क्रांतिकारियों, साहित्यकारों, इतिहासकारों, कवियों, लेखकों की 18 जयंतियां पड़ती हैं और 17 स्मृति (निधन) दिवस।
इस माह के प्रमुख जयंती दिवस इस प्रकार हैं -
5 मई 1929 - अब्दुल हमीद कैसर (भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में से एक)।
7 मई 1861 - रबीन्द्रनाथ ठाकुर (नोबेल पुरस्कार प्राप्त बांग्ला कवि, कहानीकार, निबंधकार)।
7 मई 1889 - एन. एस. हार्डिकर (प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी)।
8 मई 1895 - गोपबन्धु चौधरी (उड़ीसा के प्रसिद्ध क्रांतिकारी तथा गाँधीवादी कार्यकर्ता)।
11 मई 1912 - सआदत हसन मंटो (कहानीकार, लेखक, पटकथा लेखक और पत्रकार)।
15 मई 1907 - महान क्रांतिकारी सुखदेव।
20 मई 1900 - सुमित्रानंदन पंत (प्रसिद्ध छायावादी कवि)
21 मई 1931 - शरद जोशी (प्रसिद्ध हिंदी व्यंग्यकार)।
22 मई 1774 - राजा राममोहन राय (अग्रणी धार्मिक-सामाजिक क्रांतिद्रष्टा)
23 मई 1923 - अन्नाराम सुदामा (प्रसिद्ध राजस्थानी साहित्यकार)।
27 मई 1894 - पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (ख्यातिप्राप्त आलोचक तथा निबन्धकार)।
27 मई 1928 - बिपिन चन्द्रा (प्रसिद्ध इतिहासकार)।
27 मई 1954 - हेमन्त जोशी (कवि-पत्रकार-प्राध्यापक)।
24 मई 1896 - करतार सिंह सराभा (प्रसिद्ध क्रान्तिकारी)।
25 मई 1831 - दाग़ देहलवी (प्रसिद्ध उर्दू शायर)।
29 मई 1906 - कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (जाने-माने निबंधकार)।
31 मई 1725 - अहिल्याबाई होल्कर - (प्रसिद्ध वीरांगना)।
31 मई 1843 - अण्णा साहेब किर्लोस्कर (मराठी रंगमंच के क्रांतिधर्मी नाटककार)।
इस माह में पड़ने वाले 17 स्मृति-दिवस (निधन) इस प्रकार हैं -
2 मई 1985 -बनारसीदास चतुर्वेदी (प्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार)।
9 मई 1995 - कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (हिन्दी के जाने-माने निबंधकार)।
10 मई 2002 - कैफ़ी आज़मी (फ़िल्म जगत के मशहूर उर्दू शायर)।
12 मई 1993 - शमशेर बहादुर सिंह (हिन्दी कवि)।
13 मई 2001 - आर. के. नारायण (भारत के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक)।
14 मई 1978 - प्रसिद्ध नाटककार जगदीशचन्द्र माथुर
19 मई 1979 - हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (प्रसिद्ध लेखक, उपन्यासकार)
20 मई 1932 - विपिन चन्द्र पाल (भारत में क्रान्तिकारी विचारों के जनक)
22 मई 1991 - श्रीपाद अमृत डांगे (भारत के प्रारम्भिक कम्युनिस्ट नेताओं में से एक)
23 मई 2010 - कानू सान्याल (नक्सली आंदोलन के जनक)।
 23 मई 2011 - चन्द्रबली सिंह (प्रसिद्ध लेखक, आलोचक, अनुवादक)।
24 मई 2000 - मजरूह सुल्तानपुरी (प्रसिद्ध गीतकार)
26 मई 1986 - श्रीकांत वर्मा (प्रसिद्ध कवि-कथाकार-समीक्षक)।
27 मई 1964 - जवाहरलाल नेहरू (भारत के प्रथम प्रधानमंत्री)।
28 मई 2005 - गोपाल प्रसाद व्यास (प्रसिद्ध कवि, लेखक)।
30 मई 2000 - रामविलास शर्मा (सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार एवं कवि)
31 मई 1988 - द्वारका प्रसाद मिश्रा (स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार)।
भड़ास4मीडिया से साभार

प्रेस फ्रीडम डे पर इन दो पत्रकारों की चीख क्या सुनी आप ने !

छह सौ दिन से जेल में कैद शौकन ने चिट्ठी में लिखा - मैं एक पत्रकार हूं, अपराधी नहीं. महमूद अबु जैद "शौकन" टाइम पत्रिका, डी त्साइट, बिल्ड, मीडिया ग्रुप और ऑनलाइन फोटो एजेंसी डेमोटिक्स जैसे कई प्रकाशकों के लिए सेवाएं दे चुके हैं. 2013 में शौकन मिस्र की राजधानी काहिरा के रबा स्क्वायर में हुई हिंसक झड़पों की रिपोर्टिंग कर रहे थे, जहां अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी के समर्थकों और सुरक्षा बलों के बीच चल रही मुठभेड़ के दौरान वह गिरफ्तार कर लिए गए. उन पर अब तक आधिकारिक रूप से कोई आरोप तय नहीं हुआ है. लेकिन मामले की सुनवाई से पहले उनकी हिरासत की अवधि को लगातार आगे बढ़ाया जाता रहा है और मुक्त किए जाने की उनकी अपील को खारिज किया जाता रहा है.
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर "शौकन" ने जेल से 'डीडब्ल्यू' को यह पत्र लिखा है -
"वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर, मैं मिस्र के उन पत्रकारों की दुर्दशा की बात आप तक पहुंचा रहा हूं, जो इस दिन को जेल की अंधेरी चारदीवारी में मना रहे हैं. प्रेस की आजादी के मायने हमसे कितने दूर मालूम पड़ते हैं, जब मैं खुद 600 दिन से भी अधिक जेल में बिता चुका हूं और मुझे नहीं पता की ये भयावह अनुभव कब खत्म होगा. और यह सब इसलिये हुआ क्योंकि मैं रबा अल-अदाविया प्रोटेस्ट कैंप को तितर बितर किए जाने की घटना को एक फोटो पत्रकार के तौर पर कवर कर रहा था. किसी वजह से मुझे "अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी का समर्थक" समझ लिया गया.
''मेरे देश में पत्रकारिता करना एक अपराध बन गया है, हर तरह से एक अपराध. मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ सहानुभूति रखने वाले 13 पत्रकारों को आजीवन कारावास की सजा मिली है और एक दूसरे पत्रकार को मौत की सजा सुनाई गई. आखिर विश्व के वे सभी नेता कहां हैं जिन्होंने शार्ली ऐब्दॉ के कार्टूनिस्टों की हत्या के विरूद्ध पेरिस में प्रदर्शन किया था, और लगातार यह मांग की थी कि अभिव्यक्ति एवं प्रेस की स्वतंत्रता को हर हाल में बचाया जाए??
''मैं बेहद कठिन परिस्थितियों में जेल की एक छोटी सी कोठरी में ऐसे रह रहा हूं जिसे कोई जानवर भी ना सहेगा. मुझ पर तमाम बेबुनियाद झूठे आरोप लग रहे हैं और मुझे गिरफ्तार हुए बाकी विरोध प्रदर्शनकारियों के साथ मिला के देखा जा रहा है. दुनिया भर के सभी मीडिया और पत्रकारों से मेरी यही मांग और अनुरोध है कि कृपया मेरी मदद कीजिए, मेरे साथ आइए और मिस्र की सरकार पर मुझे आजाद करने का दबाव बनाइए. मैं एक पत्रकार हूं कोई अपराधी नहीं...मेरी मदद कीजिए!!"
प्रेस फ्रीडम डे पर इसी तरह बांग्लादेशी फोटोग्राफर शाहिदुल आलम बता रहे हैं कि बिना आजादी के काम करने वाली प्रेस केवल अभिप्रचार है. दुर्भाग्य से बांग्लादेशी प्रेस कई तरह के राजनीतिक दबावों और आर्थिक नियंत्रणों में है.
जो प्रेस खुद को बंधनों में जकड़ा पाती है, वह जनमानस का भरोसा जीतने और जनाधार बनाने के सर्वोपरि लक्ष्य को हासिल करने से चूक जाती है. जाहिर है कि एक जिम्मेदार पत्रकारिता में कई तरह के नैतिक बंधनों का तो वैसे भी ध्यान रखना होता है. आजकल जनता समाचार पाने के लिए किसी एक संस्था या स्रोत तक सीमित नहीं रह गई है. सुनी सुनाई बातों से लेकर, दुनिया में घट रही तमाम गलत बातों पर लिखे जा रहे ब्लॉग्स तक, कई ऐसी चीजें हो रही हैं जो बड़े, रसूखदार लोगों को भी जिम्मेदारी के दायरे में रखने का काम करती हैं.
हो सकता है कि प्रेस की आजादी से कुछ चीजें और उलझती दिखें और ऐसे कई लोग भी हैं जो प्रेस को उत्पाती समझते हैं. लेकिन प्रेस को सिर्फ उसी स्थिति में नियंश्रित करने की जरूरत है जब वह नैतिकता की सीमाएं पार करे या उसकी किसी हरकत से जनहानि पहुंचने का खतरा हो. यह अपने आप में एक जटिल मुद्दा है कि असल में प्रेस इन सीमाओं को कब पार कर रही है यह कौन तय करे. ज्यादातर विवाद तो इतने दूर तक पहुंचते भी नहीं है. प्रेस और जनता दोनों ही के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा विषय है जिसे सरकारों, कॉर्पोरेशनों, राजनैतिक एवं धार्मिक समूहों जैसी शक्तिशाली ईकाइयों के तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खतरों का सामना करना पड़ता है. ऐसा पूरी दुनिया में होता है, लेकिन बांग्लादेश जैसे राष्ट्र में जहां धोखाधड़ी के साये में हुए चुनावों से बनी सरकार की खुद की वैधानिकता पर सवालिया निशान लगा है, वहां विचारों की आजादी का शमन करना न्यायोचित असहमति का गला घोंटने और कट्टरपंथी कार्रवाई को सही ठहराने का एक बड़ा ही सुविधाजनक तरीका लगता है.
जाहिर है, बांग्लादेशी मीडिया में हमेशा से ही कई तरह की वर्जनाएं रही हैं. सेना तो सीमा से बाहर रही ही है, सबसे बड़े विज्ञापनदाता होने के कारण बड़े बड़े टेलीकॉम कॉर्पोरेशनों को मीडिया छेड़ती नहीं है. इसके अलावा भी कई दानदाता समुदाय हैं जिनका ध्यान रखा जाता है. हाल कि दिनों में तो सरकारी मीडिया चैनल भी ढाका सरकार के लिए प्रचार का साधन बन गए लगते हैं. कड़े आलोचकों को टॉक शो में आमंत्रित नहीं किया जाता. एंकरों का इस तरह घुमाकर सवाल पूछना आम है जिससे शासन की बेहतर छवि दिखे.
यह सारे मुद्दे काफी चिंताजनक हैं. मगर, मीडिया कंपनियों, 'संदिग्ध संपादकों' को सीधी धमकी मिलना और पत्रकारों, ब्लॉगरों पर हमले करवाना कहीं ज्यादा बड़ी परेशानी है. प्रशासन ने हाल के दिनों में असाधारण तौर पर बहुत बड़ी तादाद में 'कोर्ट की अवहेलना' के आरोप लगाए हैं जिससे भी भय का माहौल बन गया है. असहिष्णुता की इस संस्कृति के कारण ही स्वतंत्र विचारों वाले कई लोगों का बेहद हिंसक अंत हुआ है. विवेचनात्मक सोच रखने वालों की सबसे ज्यादा जरूरत आज से ज्यादा कभी महसूस नहीं हुई. और ऐसी सोच रखने वालों के लिए अब से ज्यादा खतरनाक समय भी कभी नहीं रहा.
1955 में बांग्लादेश के ढाका में जन्मे शाहिदुल आलम एक फोटोग्राफर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो अपनी कला का इस्तेमाल गरीबी और आपदाओं से घिरे देश के तमाम सामाजिक और कलात्मक संघर्षों को दर्ज करने के लिए करते हैं.
भड़ास4मीडिया से साभार

Friday 1 May 2015

डराओ मत, उसे गुस्सा आ रहा है/जयप्रकाश त्रिपाठी

मजीठिया वेतनमान लागू करने के मसले पर कारपोरेट मीडिया ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की अवमानना करते हुए जिस तरह पत्रकारों के पेट पर लात मारा है, उससे लावा अंदर ही अंदर खदक रहा है। मीडिया कर्मियों की खामोशी तूफान से पहले के सन्नाटे जैसी है। यह पढ़ा-लिखा वर्ग है। सब समझ रहा है। जान रहा है कि मजीठिया मामले की पैरोकारी कर रहे अपने उन मददगारों से उसकी भेंट-मुलाकात तो दूर, उनसे बातचीत भी उसके जुर्म में शुमार हो सकती है, जो उसके हितों की हिफाजत के लिए देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था की शरण में हैं। 
इन दिनो उसे यह डर बार-बार परेशान कर रहा है, उसे ही क्यों, उसके घर-परिवार तक को, कि आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय से भी इंसाफ नहीं मिला तो फिर क्या होगा? क्या इतनी आसानी से उसके आर्थिक भविष्य का शिकार हो जाएगा? वह मजीठिया वेतनमान का मामला लड़ रहे अपने कानूनविदों, जुझारू पत्रकारों से मिले-न-मिले, उनके प्रति इस समय उसके मन गहरी आस्था है। अट्ठाईस अप्रैल के बाद से अब वह बड़ी बेचैनी से उन तीन महीनो की बाट जोह रहा है। सहमा हुआ अपने आसपास को चुपचाप पढ़ रहा है। सच पूछिए तो इस समय उसका ध्यान खबरों में कम, अपने भविष्य के खतरों पर ज्यादा है। वह जान रहा है कि उसने कोई जुर्म नहीं किया है, ऐसे अस्थिर हालात में उसने अपने लिए कोई मामूली सी भी ईमानदार पहल की तो उसका जुर्म बांचने वाले तुरंत हरकत में आजाएंगे।  
मैं तो कहता हूं, उसकी भूख को गुदगुदाओ नहीं। उसके भविष्य से मत खेलो। उसे इतनी बेरहमी से मत छेड़ो। चंद चाटुकारों के बूते उसके साथ कोई नामाकूल हरकत मत करो। उसका हक उसे दे दो। वरना जिस दिन उसने ठान लिया कि अब माफ नहीं करना है, इंसाफ चाहिए, चाहे किसी भी कीमत पर, तब कोई बिगड़ी बनाने वाला नहीं होगा। यह पूंजीपतियों की कोख से नहीं, कलम की तलवार चलाते हुए आया है। उसके वंशज गोरी तोपों से मुकाबले के लिए अखबार निकालते थे। विज्ञापन बाजार लूटने के लिए नहीं। याद करो कि उसकी कलम ने इस देश से उन गोरे शासकों को खदेड़ दिया था, जिनका दुनिया में कभी सूरज नहीं डूबता था। उसके पुरखे स्वतंत्रता संग्राम की सबसे मुखर आवाज थे। गांधी, सुभाष, भगत सिंह, नेहरू, अंबेडकर जैसे वीर स्वातंत्र्य सेनानी भी उसके शब्दों के कायल रहे हैं। उसे पूंजी की ताकत और कानून की उंगली से मत डराओ। उसके डर को अब और मत आजमाओ। उसके डर में एक अंतहीन गुस्से का इतिहास छिपा है। देखो, धीरे धीरे उसकी मुट्ठियां हरत में आ रही हैं। वह अब सुप्रीम कोर्ट तक आंखें तरेरने लगा है। मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधान मंत्री की दर तक दस्तक देना सीख रहा है।
समय से खतरा भांपने का शऊर है तो सावधान हो जाओ, उसके पांव अब तुम्हारी चौखट से बाहर जा रहे हैं। वह बड़ी बेचैनी से चुपचाप अपनी दिशा खोज रहा है। उसे अपने इस तरह के चौथे खंभे पर शक हो रहा है, जो उसके हक का, उसके काम का न हो। वह खुद से पूछ रहा है कि जब वह देश-काल के आचरण में इस तरह घुला हुआ है तो उसकी अस्मिता का खंभा चौथा क्यों? वह चौथे खंभे का तिजारती नहीं, सिर्फ अपना घर-परिवार चलाने भर की मजदूरी चाहता है। वह मजदूरी, जो इस देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था को भी जायज लगती है। उस एक-एक की बेचैनी, उस एक-एक के घर-परिवारों का एक-एक व्यक्ति इन दिनो साझा कर रहा है। उसका हक उसे न देने की जिद उन सबमें एक साथ नफरत के बीज बो रही है। ऐसे विशाल, सशक्त और अतिजागरूक बौद्धिक समुदाय में सुलगती इतनी अधिक नफरत को हवा देकर भला कोई कैसे और कब तक सकुशल-सलामत रह सकता है। कानूनी दांव-पेंच से उसे जितना हांकने की कोशिश की जाएगी, अपनी सही सही दिशा खोज लेने के बाद वह उतना ज्यादा भड़क सकता है। गुस्से से लाल हो सकता है। वह सिर्फ अपने शब्दों और अपनी मेहनत पर भरोसा करना जानता है। सबके हित में होगा कि उसे उसके उसी ज्ञान और श्रम के भरोसे तक रहने दिया जाए। उसे और कुछ करने के लिए विवश करना समझदारी नहीं होगी।
मजीठिया वेतनमान पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कानूनी दांव-पेंच को माध्यम बनाकर उसे उलझाने और पछाड़ने की कोशिश की जा रही है। उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा है। उसे केवल खबरें बटोरने-बनाने में सुख मिलता है। वह रोजाना खबरें बटोर-बना कर चुपचाप अपने घर लौट जाना चाहता है। वह लड़ना नहीं चाहता है। उसे लड़ने के लिए उकसाया जा रहा है। वह तो केवल शब्दों के पेंच लड़ाता है। सूचनाओं के बहाने विचार, सरोकार और चेहरे गढ़ता है। ये सब करके वह बड़ा खुश नजर आता है। चाय की चुस्कियां, मसाले की जुगाली करते हुए उसे शब्दों, सूचनाओं, खबरों, शीर्षकों पर बतकही करने में ज्यादा मजा आता है। वो लड़ना-भिड़ना क्या जाने। उसका हक मारकर, उसके पेट पर लात मार कर उसे लड़ाकू बनाने की जिद भला कहां की समझदारी हो सकती है?
उसके बीच से कुछ गिनती भर उसकी ही बिरादरी के जिन लोगो से जो कुछ गलत-सही कराया जाता है, उनका भी दिल वह सब करना गंवारा नहीं करता है। उनमें से किसी एक को भी पूछ कर देख लीजिए। पत्रकारिता के ऐसे पतित तत्वों को भी थाना-पुलिस की दलाली करने के लिए मजबूर किया जाता है। खबर से पहले विज्ञापन बटोरने की विवशता उनके भी जमीर को तिलमिला देती है। वे किसी से जब अपना दुख साझा करते हैं, उन्हें अपने से ही घृणा होने लगती है क्योंकि पहले-पहले दिन वे भी जब इस पेशे में आए थे, पत्रकार होने के सपने देखते हुए आए थे। वे भी मीडिया हाउसों तक ऐसे कर्म करने का अनुमान लगाकर नहीं पहुंचे थे। अपने लंबे कार्यकाल में मैंने उनको अंदर-ही-अंदर कांपते-ठिठुरते हुए बहुत करीब से देखा है। उनको समझाया, संभाला है। मीडिया प्रबंधन के नाजायज आदेशों पर उनमें से कइयों को बार-बार रोते, गालियां देते हुए सुना है। जो सच्चे पत्रकार हैं, उनकी तो बात ही जाने दीजिए, पतित पत्रकारों से भी कभी अकेले में मिलिए तो वे भी अपने सिरहाने शानदार शीशे के चैंबर में बैठे समाचार के शीर्ष सौदागरों की कुंडली बांचने की बदपरहेजी कर जाते हैं। लेकिन तभी, जब सामने सुनने वाला उनके भरोसे का हो।  
मजीठिया मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना के बाद का यह दौर उन्हें खलनायक साबित कर रहा है, जो प्रबंधन के पक्ष में हैं। गुनहगार वे भी हैं, जो तटस्थ और चुप हैं। वह पत्रकार हों, साहित्यकार हों, राजनेता अथवा संगठनकर्ता। मीडिया के भीतर की यह लड़ाई सीधे सीधे शोषक और शोषित, शासक और शासित के बीच का संघर्ष है। इसमें एक तरफ मीडियाकर्मियों का पूरा समुदाय है, दूसरी तरफ मीडिया मालिक, संपादक- प्रबंधक वर्ग। तीसरा कोई पक्ष नहीं है। मालिक वेज बोर्ड से निर्धारित एवं सुप्रीम कोर्ट से आदेशित वेतनमान नहीं देना चाहता है। अपनी सुख-सुविधाओं, खेल-तमाशों, संपादक-प्रबंधक वर्ग पर करोड़ों रुपये फूंकने के लिए तो उनके पास अथाह धन है लेकिन मजीठिया वेतनमान के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं देंगे।
यह बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। इस कानूनी वाकये ने उस समुदाय को हाशिये पर पड़े वंचितों, शोषितों की तरह शायद पहली बार इतनी शिद्दत से सोचने पर विवश किया है। उसका मोहभंग हो रहा है। वह खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। वह एक ऐसे पेशे के विपरीत स्वभाव से टकरा रहा है, जो चौथा स्तंभ कहा जाता है। वह अब तक जिसका मान न्यायपालिका से कम नहीं मानता-जानता रहा है। यथार्थ के धरातल पर यह मोहभंग उसे वंचित-शोषित वर्ग के निकट ले जा रहा है। साफ कहें तो पेशे की गद्दारी, जनद्रोही चरित्र से टकराने के लिए वह तेजी से तैयार हो रहा है। वह ये भी देख रहा है कि जो साहित्यकार, लेखक, कवि उसके दर पर अपनी रचनाएं प्रकाशित कराने के लिए दिन-रात मिन्नतें करते रहते हैं, उनकी नैतिकता ढकोसला है क्या, वे सब भी शब्दफरोश हैं क्या। उनमें से एक भी उसके जीवन से जुड़े इतने गंभीर प्रश्न पर क्यों अपना पक्ष प्रकट नहीं कर रहा है। इस सबसे वह दीक्षित हो रहा है। वह यह भी देख रहा है कि जिन संगठनों, नेताओं, कार्यकर्ताओं की वह खबरों में रोज-रोज राजनीतिक छवियां गढ़ता है, अच्छे-अच्छे शीर्षक रचता है, वे सब भी चुप हैं। वह हैरान है कि यह सब क्या है? ये कौन लोग हैं? अनावश्यक आत्मीयता प्रकट करते रहने वाले ये लोग, और इनके आंदोलन सिर्फ हाथी दांत हैं? क्यों ??
ये कारपोरेट मीडिया घराने पत्रकारों का सम्मान तो करना चाहते हैं लेकिन उनका हक नहीं देना चाहते हैं। वह सोच रहा है कि अखबारों में अक्सर छपने वाली बाइलाइन स्टोरी, स्टिंग ऑपरेशन, खबरों की पड़ताल, एक्सक्लूसिव समाचार, लाइव रिपोर्ट, ह्यूमन एंगल स्टोरी, क्या यह सब फ्रॉड है? वह क्या जागती आंखों से अमंगल सपने देख रहा है? देश-समाज पर मनुष्यता की बातें करने वाले ये संपादक कौन हैं? उसके मसले पर इन्होंने रीढ़, जमीर जैसे शब्दों को अपनी डिक्शनरी से अचानक क्यों खदेड़ दिया है? मजीठिया वेतनाम मांगने पर ये प्रताड़ित क्यों कर रहे हैं? अचानक ये दुश्मन जैसा व्यवहार क्यों करने लगे हैं? इन सवालों के जवाब में उसके सामने संपादक का वर्ग चरित्र खुल रहा है। अपनी कार्यशालाओं में वह देख रहा है कि संपादक-प्रबंधक उसका मित्रवर्ग नहीं है। उनका पक्ष मालिक है। उनका उद्देश्य उसको कुचलते हुए केवल मालिक का हित साधना है। देश-दुनिया के सुख-दुख के बारे में ये अखबार के पन्ने से न्यूज चैनलों की टीवी स्क्रीन तक इसका सारा ज्ञान प्रदर्शन केवल धोखा है। मालिक का पक्ष, तो भी स्पष्ट और इकहरा है। ये सफेदपोश बिचौलिया तो उससे ज्यादा खतरनाक है। हमारे विरुद्ध हमे ही इस्तेमाल कर रहा है। हमारे बीच जहर बो रहा है। हमसे ही हमारी कानाफूसी, जासूसियां करा रहा है। हम से ही हमको लड़ा रहा है। यह हमे अलग-अलग हिस्सों में बांट कर हमे मारना चाहता है। यह एक साथ हमारे विवेक और शरीर (पेट-रोटी) दोनो पर हमला कर रहा है। हमले करने की योजनाएं बना रहा है। यह मालिक को बता रहा है कि वह किस तरह मारे तो हम मर जाएंगे, हार जाएंगे। यही है, जो मालिक को सिखा-पढ़ा रहा है कि वह न्यायपालिका की कमजोरियों का फायदा उठाए, राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के रिश्ते साधे, आवाज उठाने वालों के तबादले और निष्कासन करे। उसके घर का असली भेदी यही है। यही हमारे चेहरे पढ़ते हुए हमसे 'मजीठिया वेतनमान नहीं चाहिए', जैसे झूठे फॉर्मेट पर हस्ताक्षर करा रहा है।  
तो यह भारतीय लोकतंत्र में पहली बार हो रहा है। मजीठिया वेजबोर्ड से पहले भी मणिसाना आदि के वेतनमान घोषित हुए थे लेकिन तब ऐसी मोरचेबंदी होते-होते रह गई थी। यह गुस्सा तात्कालिक नहीं। यह किसी को बख्शने वाली भी नहीं। उनको भी नहीं, जो न्यायपालिका तक उसके हितों की वकालत करने पहुंच चुके हैं। यदि उन्होंने उसके हितों के साथ कोई गलत समझौता किया तो। यह गुस्सा किसी ऐसे समुदाय का नहीं, जिसे शोषण की बारीकियां समझने में किताबों और रैलियों से दीक्षित होना पड़े। ये समुदाय उन सभी अनुभवों से पहले से लैस है। इसलिए इसका गुस्सा अधिक बेकाबू और ज्यादा खतरनाक हो सकता है। यह सब समझ रहा है। इसे कुछ भी समझाना नहीं है। ये जान रहा है कि इसकी ही समझदारी और मेहनत-मशक्कत के बूते बड़े-बड़े मीडिया घराने करोड़ो-अरबों में खेल रहे हैं और उनके चारण लाखों के पैकेज पर जिंदगी की मस्तियां लूट रहे हैं। इसे अच्छी तरह पता है कि मीडिया हाउस में मालिक का सिर्फ पैसा लगा है, विवेक और मेहनत तो उसकी है, जो मालिकों को मंत्रियों-प्रधानमंत्रियों, उच्चाधिकारियों के साथ उठने-बैठने का अवसर उपलब्ध कराती है। वे न हों, तो कोई मीडिया हाउस न हो। मालिक इसीलिए उसे आपस में लड़ाना चाहता है कि उसका रास्ता सुरक्षित रहे, उसके विज्ञापनों के बाजार और ऐशो-आराम, उसकी अथाह पूंजी के अभेद्य दुर्ग और सामाजिक प्रतिष्ठा को उसके घर के भीतर से  कोई चुनौती न दे सके।
इस सूचना-समय में उसे यह भी पता है कि आजकल के नेता-मंत्री अपने कर्मों के बूते नहीं, उसकी कलम की ताकत से राज भोग रहे हैं। यही है, जो मौके-दर-मौके उन सभी की छवियां बनाता-बिगाड़ता है। उनकी ही क्यों, बड़े बड़े लेखक-पत्राकारों, साहित्यकारों पर वह कलम न चलाए तो उनको भी सिर्फ उनकी रचनाओं और किताबों के बूते उन्हें कोई न जाने-पूछे। इसलिए उसे अपनी ताकत का अच्छी तरह अता-पता है। उसका भीतर से खौलना, नाराज होना, उबलना और संघर्ष की दिशा में दौड़ जाना, उन सबके लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। असली नायक मालिक और उसके पिट्ठू नहीं। वह है कलम का महानायक। वही है इमेज बिल्डर। वही बनाता है और बिगाड़ भी देता है। वह बिगड़ा तो सब कुछ बिगड़ जाएगा। चौथाखंभा ढह जाएगा।
सिर्फ वही है, जिसे सबकी जात-बिरादरी, नस्लीयत और नब्ज पता है। वह न मालिक है, न मीडिया मैनेजर। वह पत्रकार है। वह सूचनाओं का जादूगर है। वह अपनी कार्यशाला में दिन-रात जुटा हुआ शब्दों से नब्ज टटोलता है और समाज का मिजाज रचता है। उसे इतना हल्के में न लेना। उसके पूरे समुदाय के पेट पर लात मार रहे हो तो उसके उठे हाथ-लात झेल नहीं पाओगे। पलट कर उसका वार करना बहुत भारी पड़ जाएगा। वह मोरचा कानून का हो या आंदोलन का।
सिर्फ मालिकानों और उनके चाटुकारों के लिए नहीं, बल्कि पूरे सूचनात्मक सिस्टम और सामाजिक ताने बाने के लिए वह आज हमारे सामने ऐसे ज्वलंत प्रश्न की तरह आ खड़ा हुआ है, जिसे अनसुना करना भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा। चुप्पियां टूटने से पहले का ये वही सन्नाटा है। अब भी वह अपने भीतर उमड़ते दर्द और गुस्से पर काबू पाना चाहता है। यह अन्याय वह शायद ही बर्दाश्त कर पाए। सोच लो, समय है। अभी तीन महीने के तीन दिन ही गुजरे हैं। सुनो, 28 अप्रैल 2015 के बाद से वह बिहार से मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल तक पहले से ज्यादा मुखर हो रहा है। वह पत्रकार है।   

Wednesday 22 April 2015

राजधानी में एक किसान की मौत पर कई बड़े सवाल / जयप्रकाश त्रिपाठी


आज दिल्ली में जंतर मंतर पर केंद्र सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान दौसा (राजस्थान) का किसान गजेंद्र सिंह पेड़ पर फांसी से झूल गया। अपने पीछे छोड़े एक सुसाइड नोट में वह लिख गया कि 'दोस्तों, मैं किसान का बेटा हूं। मेरे पिताजी ने मुझे घर से निकाल दिया क्योंकि मेरी फसल बर्बाद हो गई। मेरे पास तीन बच्चे हैं....जय जवान, जय किसान, जय राजस्थान।' घटना के समय मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, आप के नेता संजय सिंह, कुमार विश्‍वास मौके पर मौजूद थे। राममनोहर लोहिया अस्पताल के मुताबिक उसको मृत अवस्था में अस्पताल ले जाया गया था। 


मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि आप के कार्यकर्ता दिल्ली पुलिस से किसान को बचाने के लिए अपील करते रहे लेकिन दिल्ली पुलिस के जवानों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया। उसे पेड़ पर चढ़ने दिया। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि किसान और मजदूर घबराएं नहीं, हम उनके साथ खड़े हैं।
देश की राजधानी में सरेआम एक रैली के दौरान गजेंद्र सिंह की मौत अपने पीछे कई बड़े सवाल छोड़ गई है। यह सवाल केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार, दिल्ली पुलिस, भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस, इन सबको कठघरे में खड़ा करता है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से शुरू होकर यह सवाल हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था तक जाता है। यह सवाल उस पूरे सिस्टम से है, जो एक तरफ मौसम की मार से निढाल किसानों की लाशें गिन रहा है, दूसरी तरफ किसी भी कीमत पर वह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पारित कराने पर आमादा है, जो किसान से उसकी जमीन भी छीन सके।
जंतर मंतर की मौत उस गहरे षड्यंत्र के दुष्परिणाम के रूप में देखी जानी चाहिए, जो देश आजाद होने के बाद से लगातार इस देश के करोड़ो-करोड़ किसान-मजदूरों के साथ खेत-खलिहानों से कल-कारखानों तक हो रहा है। उस षड्यंत्र में सबसे बड़ी साझीदार कांग्रेस है, जिसने आज देश को इस मोकाम तक पहुंचा दिया है। उस षड्यंत्र में दूसरी सबसे बड़ी भागीदार मजदूर-किसान विरोधी भाजपा है, जिसकी इस समय केंद्र में सरकार है। इन दोनो की आर्थिक नीतियां एक हैं। देश का आम बजट हो या एफडीआई जैसे मुद्दे, दोनो एक सिक्के के दो पहलू हैं। इन दोनो की प्राथमिकताएं कारपोरेट पूंजी की हिफाजत है।
उस षड्यंत्र के लिए उन्हें भी गैरजिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए जो पिछले साठ साल से इस देश में किसानों-मजदूरों की सियासत के नाम पर खूब मुस्टंड और हरे-भरे हो रहे हैं। इस षड्यंत्र से उस मीडिया को भी असंपृक्त नहीं माना जा सकता, जो स्वयं को भारतीय लोकतंत्र का चौथा सबसे बड़ा खैरख्वाह मानता है लेकिन खबरें छापते-छापते, अब पूरी बेशर्मी से सिर्फ खबरें बेचने लगा है।
कथित हरितक्रांतिवादी देश में ये सब-के-सब इसलिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि इन सभी को बहुत अच्छी तरह से मालूम है कि भारत में विदर्भ, तेलंगाना से बुंदेलखंड तक क्यों हजारों किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। उस प्रदेश में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, जिसके शासन की बागडोर धरतीपुत्र के पुत्र के हाथ में है। ये कैसा मजाक है कि 2014 में किसानों की आत्महत्या का ब्यौरा नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो जून महीने तक देगा। 31 मार्च 2013 तक के आंकड़े बताते हैं कि 1995 से अब तक 2,96 438 किसानों ने आत्महत्या की है हालांकि जानकार इस सरकारी आकंड़े को काफी कम बताते हैं। क़रीब पांच साल पहले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने पंजाब में कुछ केस स्टडी के आधार पर किसान आत्महत्याओं की वजह जानने की कोशिश की थी। इसमें सबसे बड़ी वजह किसानों पर बढ़ता कर्ज़ और उनकी छोटी होती जोत बताई गई। इसके साथ ही मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दरें बताई गई थीं लेकिन वह रिपोर्ट भी सरकारी दफ़्तरों में दबकर रह गई। असल में खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती क़ीमत किसानों की निराशा की सबसे बड़ी वजह है, जिससे सरकारें बेखबर रहना चाहती हैं।
यह सच है कि इस व्यवस्था की जनद्रोही क्रूरताओं के चलते इससे पहले हजारों किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं लेकिन अपने हालात से विक्षुब्ध एक युवा किसान का देश की राजधानी में इस तरह हुई मौत कोई यूं ही भुला दिया जाने वाला मामूली हादसा नहीं। घटना के समय वहां उस पार्टी के हजारों कार्यकर्ता मौजूद थे, जिसकी दिल्ली में सरकार है। उस मीडिया के दर्जनों रिपोर्टर मौजद थे, जो चौथा खंभा कहा जाता है। घटना उस स्थान पर हुई, जिससे कुछ कदम दूर देश की संसद है, जिसमें देश भर के जनप्रतिनिधियों का जमघट लगता है और जिसमें इस समय भाजपा सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पारित कराने पर पूरी तरह से आमादा है। कैसी बेशर्मी है कि वही पार्टी आज इस मौत पर बयान देती है कि जंतर मंतर पर मानवता की हत्या हुई। भाजपा प्रवक्ता संबित कहते हैं कि रैली क्या किसी आदमी की जान से ज्यादा जरूरी थी? तो क्या यही सवाल केंद्र की भाजपा सरकार से नहीं बनता कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश फिर तो किसान की जान से ज्यादा जरूरी है!

Saturday 18 April 2015

आर्थिक आत्‍मनिर्भरता के लिए दिल्‍ली में जुटे पत्रकार और कंटेंट जनरेटर

अंग्रेजी के सेंटीमेंटल कवि लार्ड टेनिसन की एक कविता है-
Wherefore bees of Ingland forge.
Many a weepans chain and scorge.-----
यह कविता उद्योगपतियों की ओर से की जा रही श्रमिकों की प्रताड़ना और मजदूरों की कर्मनिष्‍ठा पर आधारित है। कवि मजदूरों से कहता है-हे इंग्‍लैंड की मधुमक्खियों, उनके लिए शहद क्‍यों बनाती हो, जो तुम्‍हें कुचलने से गुरेज नहीं करते हैं। हे मजदूरों, आप उन कोड़ों और जंजीरों का निर्माण क्‍यों करते हो, जो कोड़े आप पर बरसाए जाते हैं और जिन जंजीरों में आपको जकड़ा जाता है।
इन्‍हीं कोड़ों और जंजीरों से छुटकारा पाने के लिए देश भर से पत्रकार और कंटेंट जनरेटर लोकप्रिय सोशल साइट भड़ास 4 मीडिया डॉट कॉम के मालिक यशवंत सिंह के बुलावे पर दिल्‍ली में जमा हुए और उर्दू घर में लोगों को बहुत कुछ सीखने को मिला। इस आयोजन से लोग अभिभूत थे और कुछ लोग तो यह भी कह रहे थे कि हमने अभी तक केवल सुना भर था कि इंटरनेट के जरिये ईमानदारी और सुकून की कमाई की जा सकती है, लेकिन उसे व्‍यावहारिक तौर पर देख भी लिया, वह भी मात्र 1100 रुपये के खर्च पर।
आयोजन की खास बात यह रही कि दीन दुनिया की फिक्र में लगे पत्रकार कभी अपने भविष्‍य के बारे में जहां सोच नहीं पाते थे और वर्षों से संपर्क से कटे हुए थे, वहीं एक दूसरे से मिल कर सकारात्‍मक ऊर्जा से भर गए। संपूर्ण कार्यक्रम से यह संदेश जरूर निकल कर आया-कुछ भी नहीं है मुश्किल अगर ठान लीजिए।
श्रीकांत सिंह के वॉल से

Monday 13 April 2015

ओम थानवी को 'बिहारी पुरस्कार'

 ‘जनसत्ता’ के संपादक एवं लेखक ओम थानवी को वर्ष 2014 का 24वां बिहारी पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। के.के. बिड़ला फाउंडेशन के निदेशक सुरेश ऋतुपर्ण ने थानवी को उनकी यात्रा वृत्तांतपरक चर्चित पुस्तक ‘मुअनजोदड़ो’ के लिए यह पुरस्कार देने की घोषणा की है। इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2011 में हुआ था। थानवी को पुरस्कार के रूप में 1 लाख रुपए, प्रशस्ति पत्र और प्रतीक चिह्न प्रदान किया जाएगा। इससे पूर्व उन्हें शमशेर सम्मान, सार्क सम्मान, केंद्रीय हिंदी संस्थान सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। वह निरंतर लेखनरत रहते हुए वर्तमान में साहित्य, समाज, राजनीति, शिक्षा, पत्रकारिता आदि विषयों पर त्वरित टिप्पणियों के लिए हिंदी क्षेत्र में सुप्रसिद्ध हैं।
केके बिरला फाउंडेशन द्वारा स्थापित बिहारी पुरस्कार राजस्थान के हिन्दी या राजस्थानी भाषा के लेखकों को प्रदान किया जाता है। पिछले 10 वर्षों में प्रकाशित राजस्थानी लेखकों की कृतियों में से विजेता का चयन किया जाता है।  वर्ष 1991 में स्थापित पहला बिहारी पुरस्कार डॉ. जयसिंह नीरज को उनके काव्य संकलन ‘ढाणी का आदमी’ के लिए दिया गया था। ओम थानवी की एक अन्य चर्चित कृति है- 'अपने अपने अज्ञेय'।
ओम थानवी का जन्म 1 अगस्त 1957 को फलोदी, जोधपुर (राजस्थान) में हुआ था। वह नौ वर्षों (1980 से 1989) तक 'राजस्थान पत्रिका' में रहे। इसके बाद चंडीगढ़, फिर दिल्ली में संपादक बने। उन्होंने हिंदी की साहित्यिक तथा सांस्कृतिक इतवारी पत्रिका का भी सम्पादन किया है। ओम थानवी की साहित्य, कला, सिनेमा, पर्यावरण, पुरातत्त्व, स्थापत्य और यात्राओं में गहन रुचि है।
वह मेक्सिको, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, स्विटजरलैंड, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, फिनलैंड, स्वीडन, बेल्जियम, रोमानिया, थाईलैंड, आर्मेनिया, बेलारूस, चीन, ब्राजील, मलेशिया, सिंगापुर, गयाना, त्रिनिदाद एवं टोबेगो, सूरीनाम, श्रीलंका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ग्रीस और क्यूबा आदि अनेक देशों की यात्राएं कर चुके हैं। 

एक 'आदर्श मां' की लाइव रिपोर्टिंग

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह एक नए तरह की चर्चा सरगर्म हुई है। चर्चा है मिस्र की टीवी पत्रकार लामिया हामदीन का अपने बच्चे को लेकर रिपोर्टिंग करना। उनकी रिपोर्टिंग की तस्वीरें वायरल होने से ऑनलाइन सूचना माध्यमों पर इसे लेकर समर्थन और विरोध के रूप में तरह तरह की चर्चाएं बहस की शक्ल में सार्वजनिक रही हैं।
लामिया हामदीन के अपने बच्चे को लेकर रिपोर्टिंग करने का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि ये तरीका ठीक नहीं है। वे उनको नौकरी से निकालने तक की मांग कर रहे हैं। समर्थकों का कहना है कि लामिया आदर्श मां हैं। एक माँ का दर्द समझने के लिये दिल चाहिए, दिमाग नहीं। उन्होनें वही किया जो वक्त की जरूरत थी, "माँ तुझे सलाम"। उन्होंने उनकी तुलना इटली की नेता लीसिया रॉनज़्यूली से की है। लीसिया 2010 में अपनी बेटी को काम पर लेकर जाती थीं।
लामिया का कहना है कि एक कामकाजी मां होने के नाते उन्होंने वहीं किया जो उन्हें करना चाहिए था। उन्होंने कहा, 'मेरा बेटा बीमार था और मुझे कुछ ज्यादा देर काम करना था। ऐसे में वह उसे नर्सरी से अपने साथ लेकर आ गईं क्योंकि उसे और कहीं छोड़ना ठीक नहीं था।

Sunday 12 April 2015

दूरदर्शन में महिला कर्मियों का यौन शोषण

अब तो दूरदर्शन भी महिला कर्मियों के लिए सुरक्षित नहीं रहा। दूरदर्शन में सेवारत कई महिला कर्मियों का यौन उत्पीड़न किया जा चुका है। हाल ही में दूरदर्शन की उत्पीड़ित महिला कर्मियों की लिखित शिकायतों के बावजूद उन पर न तो महिला आयोग गंभीर है, न अन्य कोई वह जांच एजेंसी, जहां वे अपनी शिकायतें कर रही हैं। महिला बाल विकास मंत्रालय का इस मामले पर खामोशी साध लेना तो और भी आश्चर्यजनक है। ये हाल तो तब है, जबकि उन पीड़ित महिलाओं में से एक उसी आरएसएस के दूरदर्शन में प्रसार भारती मजदूर संगठन बीएमस की नेता हैं, जिसकी इस समय केंद्र में सरकार है। एक पीड़ित महिला कर्मी ने न्याय की गुहार लगाते हुए शिकायती पत्र में लिखा है कि क्या बलात्कार हो जाने के बाद ही कोई कार्रवाई होगी?
एक वरिष्ठ अधिकारी ने तो अपने अधीनस्थ महिला कर्मी से कहा कि तुम मेट्रो में रहने वाली तीस वर्ष की जवान हो, तुम ये भी नहीं जानती कि वरिष्ठ अफसर से कैसे पेश आया जाता है। दिल्ली की लड़कियां तो सब कुछ जानती हैं। महिला कर्मी की शिकायत है कि सिर्फ उसके साथ ही ऐसा नहीं, दूरदर्शन की कई महिलाओं के साथ इस तरह की हरकतें हो चुकी हैं।
दूरदर्शन में कार्यरत कई महिलाएं अपने अफसरों से डरी हुई हैं। एक पीड़िता महिला कर्मी ने साहस बटोर कर पुलिस में शिकायत भी कर दी है। एक अन्य महिला दूरदर्शन कर्मी को अपने विभागीय उच्चाधिकारियों से जब न्याय नहीं मिला तो उसने केंद्रीय महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी और महिला आयोग को लिखित में बताया है कि उसके अफसर अपर महानिदेशक ने ऐसी शर्मनाक हरकत उससे की है कि उसे कहने में भी शर्म महसूस हो रही है। इसके बाद उस पीड़िता पर दबाव डालने के साथ ही परिजनों को शिकायत वापस लेने के लिए धमकाया गया। बताया जाता है कि उसका यौन उत्पीड़न किया गया है।
पता चला है कि इसी तरह आकाशवाणी भवन स्थित दूरदर्शन अभिलेखागार में कार्यरत एक अन्य महिला कर्मी ने प्रोग्राम एक्जिक्यूटिव पर यौन हरकतों का आरोप लगाया है। उसने इसकी लिखित शिकायत अपने विभाग के उच्चाधिकारियों के अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला बाल विकास मंत्री से की है। आरोप है कि संबंध न बनाने पर प्रोग्राम एक्जिक्यूटिव ने उसे कई बार धमकियां भी दीं। उसकी फरियाद पर कोई कार्रवाई तो नहीं हुई। उल्टे उसे ही मंडी हाउस स्थित दूरदर्शन मुख्यालय में स्थानांतरित कर दिया गया। वहां भी उसे एक अफसर तंग करने लगा। इस दफ्तर में तैनात रहे एक अपर महानिदेशक पर भी एक महिला कर्मी ने पिछले वर्ष यौन शोषण का आरोप लगाया था। उस मामले में भी कोई कार्रवाई करने की बजाय अफसर को स्थानांतरित कर दिया गया था।
इन घटनाओं से पूर्व विशाखा गाइडलाइंस के आने के बाद भी दूरदर्शन की एक महिला पत्रकार द्वारा एक वरिष्ठ पद पर कार्यरत सहकर्मी पर यौन शोषण का आरोप लगाया जाना और उस पर दूरदर्शन के सर्वोच्च पद (डीजी-डीडी) पर एक महिला के आसीन होते हुए भी उसके द्वारा पीड़ित के आरोपों पर कार्रवाई न किया जाना एक खतरनाक कदम की ओर संकेत करता है। इसी तरह की अक्टूबर 2013 की एक घटना भी दूरदर्शन से ही संबंधित है। उस समय तो प्रसार भारती प्रबंधन ने यौन उत्पीडऩ के आरोपी दूरदर्शन के वरिष्ठ अधिकारी को निलंबित कर दिया था। अधिकारी की सहकर्मी ने उसके खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इसी तरह इंडिया टीवी की एंकर तनु शर्मा ने अपने अधिकारियों द्वारा उत्पीड़ित किए जाने, दफ्तर की गुटबाजी और फिर बिना कारण बताए बर्खास्त कर दिए जाने पर दफ्तर के सामने ही जहर खाकर खुदकुशी करने की कोशिश की थी।
डा. रीना मुखर्जी, तनु शर्मा प्रकरणों ने भी मीडिया कुपात्रों का भेद खोला था : प्रिंट मीडिया में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। ‘द स्टेटसमैन’ की एक सीनियर रिपोर्टर रहीं डा. रीना मुखर्जी ने अखबार के ही तत्कालीन न्यूज कोआर्डिनेटर ईशान जोशी पर यौन शोषण का आरोप लगाया था, जिसके बाद इस मामले की निष्पक्ष जाँच कराए जाने के बजाय उन्हीं को नौकरी से निकाल दिया गया था।

Thursday 9 April 2015

घुमक्कड़ केदारनाथ पांडेय से राहुल सांकृत्यायन तक / जयप्रकाश त्रिपाठी

आज दिन राहुल सांकृत्यायन को याद करने का रहा। सुबह से अब फुर्सत। तो सोचा अपने ही जिला आजमगढ़ के, और अपने ही बगल के गांव के कनैला के थे बहुभाषाविद् त्रिपिटिकाचार्य तो कुछ ऐसी अपनी भी बता डालूं जो बहुतों को मालूम नहीं। हां, उन सहपाठियों को जरूर याद होंगी, जो उस दिन क्लास में मेरे सहित मौजूद थे। राहुल जी के गांव के ही थे पारसनाथ पांडेय, जो बारहवीं में हमारे क्लास टीचर थे। उनके पास कालेज ही नहीं, अपने पूरे गांव-जवार के बारे में एक-से-एक धांसू, पंचकूलाई, सुघर-सुघरी कहानियां थीं। घुमक्कड़ जिज्ञासु बचपन के नामधारी केदारनाथ पांडेय उर्फ राहुल सांकृत्यायन के बारे में ये सब भी उन्हीं का बताया-कहा है.....
तो गुरुवर पारसनाथ पांडेय ने केदारनाथ पांडेय के एक किशोर-घटनाक्रम को खूब रस ले-लेकर उस दिन हमे क्लास में कह सुनाया था -
....राहुल जी किशोरवय में ही गांव से परा (भाग) लिए थे। बड़ी खोज-ढूंढ मची महीनो। कहीं कोई अता-पता नहीं। वर्षों बाद लौटे तो पिता गोवर्धन पाण्डेय आगबबूला। हमारे बाबू (पारसनाथ के पिता) ने छेंकाछेंकी कर मामला बरजा (शांत कर) दिया। कई दिन तक बाप-बेटे में मुंहफुलौवल (नाराजगी) रही। तब तक केदारनाथ बाहर के मजे-सजे के साथ सब सीख-पढ़ आए थे, गांव में सयाने-सयाने बने डोल रहे थे लेकिन नया वाल नाम 'राहुल सांकृत्यायन' धारण नहीं किया था। ऊ सब बाद में हुआ।
.... एक दिन केदारनाथ का मन गांव से फिर उचटा (जैसे उस दिन क्लास में हम लोगों का उचट रहा था, तब वे बातें फालतू लगती थीं क्योंकि हमे कहां पता था कि हम किस बाणभट्ट की कथा सुन रहे हैं! अब गर्व होता है वे दिन याद कर)। सुबह-सुबह मुंह अंधेरे गोवर्धन चाचा (पारसनाथ चाचा कहते थे राहुल जी के पिता को) और केदारनाथ में जम के मुंहफचरी हुई। गोवर्धन चाचा ने कहा- जरा गांव से बाहर निकल के तो दिखा, टांगें तोड़ के हाथ में न दे दूं तो तेरी की। शादी-बियाह कर के उस दफा परा लिए ससुर, फिर अब कहां जा रहे हो, ऐं! ई जो घर में तोहार माई (केदारनाथ उर्फ राहुल की पत्नी) बइठलि हईं, इनके के खियायी-पहनाई (अर्थात घर में ये जो तुम्हारी मां (पत्नीको) बैठी है, उसको कौन खाना-कपड़ा देगा)। युवा केदारनाथ ने तपाक से छूटते ही पिता गोवर्धन से कहा - माई (मां) है तो पिता ही न खिलाए-पहनाएगा। खियावा-पहनावा माई के, हम तो चले अयोध्या....। बताते हैं, उस दिन के बाद बौद्धनामधारी केदारनाथ पांडेय उर्फ राहुल सांकृत्यायन फिर कभी अपने गांव कनैला (आजमगढ़) नहीं लौटे। हां, बताते हैं, श्रीलंका-प्रवास के दिनो में आजमगढ़ जरूर लौटे थे बूढ़े बरगद के नीचे पुरातात्विक खुदाई कराने के लिए।

Wednesday 8 April 2015

काम के घंटे हो अब चार, न्यूनतम मजदूरी हो अब चालीस हजार / अखिलेश चंद्र प्रभाकर


400 वर्षों के पूंजीवादी अनुभव बताते हैं कि उन्नत किस्म के तकनीकी और आधुनिक औद्योगिक विकास के बाबजूद; पूंजीवादी विश्व में तकरीबन रोजाना 80 करोड़ लोग भूखें पेट सोते हैं. तकरीबन 1 अरब लोग अब तक अनपढ़ हैं, लगभग 4 अरब लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे है. 25 करोड़ बच्चे स्कूल जाने की बजाय रोजाना मजदूरी करते हैं. 10 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके सर पर छत नहीं है और पांच वर्ष से कम के 10 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो प्रतिवर्ष कुपोषण, गरीबी या बिमारियों से मर जाते हैं. देश के भीतर और देशों के मध्य भी गरीबी और अमीरी में अन्तर में जबरदस्त बढ़ोतरी होती ही जा रही है. पिछली सदी के दौरान 1 अरब हेक्टयर से ज्यादा संरक्षित जंगलों को नष्ट किया गया और लगभग इतना ही क्षेत्र रेगिस्तान या बंजर भूमि में बदल गया है.
स्वाभाविक रूप से इन समस्यायों का निदान करने में पूंजीवादी-व्यवस्था नाकाम साबित रहा है. यह शासन करने वालों की जिम्मेदारी है क़ि वह जरूरत मंद हर व्यक्ति को भोजन, स्वास्थय, छत, कपडे, और शिक्षा मुहैया कराये. भरे- पूरे, तर्कसंगत, टिकाऊ और सुरक्षित जीवन का मतलब है, सांस्कृतिक सृजन, विकल्पों की विशाल संख्या और कई अन्य चीजें मानव की पहुँच में हों… यह सब हो सकता है, लेकिन नहीं है, क्योंकि किसी निजी विमान पर 9.5 अरब डॉलर खर्च होते हैं. तो कहीं आलीशान महल (अम्बानी का अट्टालिका) बनाने में 250 करोड़ रूपये खर्च किये जा रहे है.
मैं आदमी और औरत के लिए 4 घंटे कार्य दिवस होने के बारे में सोचता हूँ…यदि हमको तकनीक इतनी सुविधा देती है, तो हम 8 घंटे काम क्यों करें? इसके लिए तर्क यह है की जैसे जैसे उत्पादकता बढ़ती है; वैसे वैसे कम से कम शारीरिक व् मानसिक श्रम करने की आवश्यकता होती है; इससे बेरोजगारी कम से कम हो पायेगी और व्यक्ति को अधिक से अधिक समय प्राप्त हो सकेगा अपने निजी जीवन में मस्ती करने के लिए…
पूंजीवादी साहूकार आज विश्व् को एक बहुत बड़े मुक्त व्यापार क्षेत्र में तब्दील करना चाहते हैं. मुक्त व्यापार क्षेत्र में स्थापित किसी कारखाने के श्रमिकों को शायद ही कहीं निर्धारित वेतन दिया जाता है, बल्कि जो वेतन कारखाना मालिक अपने देश में स्थापित कारखानों के श्रमिकों को देते, उस वेतन का 5,6 या 7 प्रतिशत ही बाहर के देशों में स्थापित कारखाने में काम करने वाले श्रमिकों को भुगतान करते हैं.
संकट का लक्षण स्पष्ट है कि बाजार ईश्वर हो गया है और इसके कानून और सिद्धान्त ही संकट की जड़ हैं. USA की सबसे प्रतिष्ठित कंपनी का कुल फण्ड 4.5 अरब डॉलर है जब कि यह कंपनी 120 अरब डॉलर की सट्टेबाजी में लिप्त है.
एक छोटी सी पिन, एक छोटा सा छेद से बड़े से बड़ा गुब्बारा फुट जायेगा. यही खतरा नवउदारवादी वैश्विकरण के ऊपर मंडरा रहा है. इस परमाणु युग में भी विचार और चेतना हमारे सबसे अच्छे अस्त्र हैं और रहेंगे. हमें अच्छी तरह से सूचना संपन्न रहना चाहिए … बल्कि जरुरी है की घटनाओं को गहराई से जानें अन्यथा हम आत्म विस्मृति के शिकार हो जायेंगे.
वामपंथी यह सिद्ध करना चाहते हैं कि यह व्यवस्था नष्ट हो जायेगी, जब तक यह सच न हो तब तक यह केवल एक दलील है और इसे सच साबित करना हम सब का कर्तव्य है. हाँ, एक छोटे दायरे में दुर्लभ सम्पदा का वितरण करने- जिसमें मुठीभर लोग तो सब कुछ पाते हैं, लेकिन भारी आबादी वंचित रहती है – की अपेक्षा ‘समाजवादी गरीबी’ बेहतर है. क्रांति तब तक चलती रहेगी, जब तक इस दुनिया में अन्याय मौजूद है.

मॉल और शोरूम के जरिये महिलाओं की अस्मिता का कारोबार / डॉ. अनिल पुष्कर


इस समय मेट्रोपोलिटन से लेकर महानगर तक और राज्यों के बड़े शहरों तक मॉल और बड़ी ब्रांड्स के शोरूम देशभर में खुले हैं। इनमें ऐसा क्या ख़ास है? जिसके लिए एयरकंडीशंड सहूलियत के साथ हर आधुनिक साजोसामान की व्यवस्था की गई है। कई चीजों की ब्रांड्स तो ऐसी हैं जिन्हें एक बहुस्तरीय ब्रांड के शोरूम में भी जगह मिली है और शापिंग सेंटर में सेम ब्रांड का अलग से एक शोरूम भी खोला गया है। माल और विदेशी ब्रांड्स के लिए सरकार ने जमीन, बिजली, और सुरक्षा तक मुफ्त में उपलब्ध की हैं। जो शोरूम्स बने हैं इनमें पहनने ओढ़ने वाले लिबास की नामालूम रंगीन डिजाइन, ज्वेलरी, जूते, महंगा सिनेमा, रेस्तरां मनोरंजन के अनेकों साधन दिए गये हैं। और ये सब कुछ फैले हुए जमीन के बड़े भू-भाग याकि विशाल दायरे में वातानुकूलित तरीके से उपलब्ध है। इसके अलावा और क्या है जिसे बेचा जा सकता है?
वैश्विक बाज़ार आज इस ख्याल से हर चीज़, हर गुंजाइश पर अपनी नजरें जमाए हुए है। इंसान के इस्तेमाल में आने वाली कितनी चीजें हैं जिन्हें व्यापार के नजरिये से बिक्री कर बेशुमार मुनाफा कमाया जा सकता है। कम से कम समय में क्या नया लांच किया जाय? हर ब्रांड इसे लेकर चिंतित है, तमाम तरह की प्रयोगात्मक कार्यशालाएं काम कर रही हैं जिन्हें हम प्रचार माध्यमों से उपभोक्ता के बीच ले जाते हैं। जरूरत और नये उपयोगी चीजों पर रिसर्च चल रही है। नये उत्पादों के लिए नए आइडियाज तलाशे जा रहे हैं। सभी ब्रांड्स हर तरह से मुनाफा कमाने के लिए उत्पाद की खोजबीन करने में लगी हुई हैं और बाज़ार में पर्याप्त समय और पैसा झोंका जा रहा है। इसी मुनाफे से जुड़ा है औरतों के सौन्दय का सबसे बेहतरीन जरिया बनाया गया सुडौल और तराशा हुआ जिस्म और अस्मिता का बाज़ार।
औरत को एक उत्पाद के तौर पर बनाए रखने की कोशिशें तेजी से बाज़ार का हिस्सा बन रही हैं और नये-नये साइबर सोशल क्राइम को पनाह देते इन आधुनिक बाज़ारों में हर तरह की अथाह संभावनाएं मौजूद हैं। इसी का एक ताजा उदाहरण है हाल ही में हुआ, फैब इण्डिया, गोवा के चेंजिंग रूम में ख़ुफ़िया कैमरे का पाया जाना। वह भी मंत्रालय की प्रतिष्ठित महिला पदाधिकारी के साथ यह घिनौना प्रयास करने का दुस्साहस किया गया। ऐसा अपराध होने देने की स्थितियाँ न ही केवल शर्मनाक हैं, न ही केवल निंदनीय है बल्कि अपराधियों के मजबूत हौसले की तरफ साफ़ संकेत है। जिससे पता चलता है कि गुनहगारों के इरादे कितने पक्के हैं और मकसद कितना टार्गेटेड।
जाहिर है इन अपराधियों के लिए एक केन्द्रीय मंत्री भी केवल महिला है। एक सुंदर जिस्म जिसे बाज़ार में तौला जा सकता है। एक सशक्त महिला का चरित्र यहाँ गौण है। स्मृति ईरानी जो कि केन्द्रीय शिक्षा मंत्री हैं। गुनहगारों के लिए किसी सामान्य महिला की तरह ही है। जिसकी तस्वीरें ली जा सकती हैं, जिसे बाज़ार में अच्छी कीमत पर बेचा जा सकता है याकि इरादतन उसे ब्लैकमेल करके मानसिक रूप से परेशान किया जा सकता है। स्मृति ईरानि कोई रातों रात मशहूर नहीं हुईं। अपनी कला और कैरियर के लिए काम ने इस महिला को ख़ास पहचान दिलाई। फिर वो राजनीति में किस्मत आजमाने आईं और सफल रहीं। स्मृति ने दुनिया के हर तरह के तजुर्बे और इल्म को हासिल किया। अभिनय के क्षेत्र में कई वर्षों तक लगी रहीं। यह महिला इन तमाम मायनों में किसी सामान्य महिला से किसी तरह तुलना करने के लिए कतई उपयुक्त नहीं है। बावजूद इसके औरतों के जिस्म को सुंदर बेचने का माल समझने वाले अपराधियों ने इस महिला को भी अपने गंदे मकसद को पूरा करने का माध्यम बनाने का प्रयास किया। जिस पर गोवा के मुख्यमंत्री ने भी इस मुद्दे पर केवल कर्मचारियों को ही गुनहगार करार देते हुए मसले की गंभीरता और जिस्म के बड़े कारोबारियों का ही साथ दिया है। इस लिहाज से मुख्यमंत्री का बयान प्रभुत्वशाली और राजनीतिक घुसपैठ रखने वाले अपराधियों को कहीं न कहीं एक स्तर का समर्थन भी देता है।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं के खिलाफ यह षड्यंत्र कर्मचारियों की बदमाशी मात्र है। सोचकर देखिये औरत की देह में ऐसी क्या ख़ासियत है? जिसके कारण उसे सरेबाजार बेचा जाना चाहिए। जिसे बेचने के लिए लाइसेंस की भी जरूरत नहीं है। जिसे बेख़ौफ़ और बेहिचक बेचा जा सकता है। जिसे बेचकर अकूत संपत्ति इकट्ठी की जा सकती है। अथाह मुनाफा कमाया जा सकता है। यह ध्येय और धारणा कहाँ से पैदा होती है? ये विचार कहाँ से आया कि किसी भी वुमेन चेंजिंग रूम में किसी महिला के कपड़े बदलने का वीडियो भी बाज़ार में बेचकर अच्छी कीमत वसूल की जा सकती है।
महिलाओं की आज़ादी को मुद्दा बनाकर धन कमाने वाले कारोबारी महंगे स्त्री माडल्स के जरिये ऐश्वर्यभोगी तबके के बीच अधनंगे जिस्मों का प्रदर्शन करते हैं। महंगे से महंगे कैटवाक शो आयोजित करते हैं। आधुनिक वस्त्रों को बाज़ार के बड़े कारोबारियों के बीच इस तरह पेश किया जाता है जिसमें इन कपड़ों के बहाने मॉडल्स अपना जिस्म प्रदर्शित करती हैं। बाद में इन्हें कैलेंडर के लिए भी नंगे जिस्म को बलिक एंड व्हाईट या रंगीन कैमरों में शूट किया जाता है। फिर इन भडकाऊ तस्वीरों को आलिशान बंगलों, महलों, स्वीट, होटलों की शान में दीवारों पर टाँगे जाते हैं। आखिर इस तबके को नंगे जिस्मों को देखने का चस्का कितना अजीब और आपराधिक है। मगर सरकार और कानून इस पर कोई पाबंदी नहीं लगाता। ये लोग औरतों की देह को आज़ादी और मुक्ति के नाम पर मुनाफे के लिए इस्तेमाल करते हैं। अपने कद और प्रतिष्ठा के लिए औरतों के जिस्म को अपने फायदे में उपयोग करते हैं। अधिक रकम अदा करके सुंदर स्त्रियों के जिस्म का एक अन-एथिकल बाज़ार खड़ा किया जा रहा है। साधारण लोगों को बिना किसी बुनियादी सामाजिक इल्म और सरोकार के ऐसे हर मामले में खूब बहकाया भटकाया जा रहा है। एक सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक अनिश्चिता लगातार जारी है।
इन आधुनिक बाज़ारों में क्या ख़ास है जिसे बेचा जाता है? ऐसा क्या है जो कि पुराने बाज़ार में नहीं बिकता? जिसे आधार बनाकर हर बड़े शहर और जिले में मॉल, शॉपिंग सेन्टर खुल रहे हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों के शोरूम बाज़ार के बीचोबीच रौनक पैदा करने का काम कर रहे हैं। रौशनी से एकदम चकाचौंध और आधुनिक मानदंडों से लैस एक नये कल्चर को बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा है। आधुनिक होने का व्यूह रचने वाली तमाम इबारतें तीसरी दुनिया के देशों में रची जा चुकी हैं।
गोवा मामले में प्रशासन समेत कई जानकारों का मानना है कि यह कर्मचारियों की बेहूदा हरकत हो सकती है। मगर इसका एक पहलू यह भी है आप किसी भी मॉल या शापिंग सेन्टर, शोरूम में जाएँ। वहां के कर्मचारियों को गौर से देखें तो आपको पता लग जाएगा कि वे मुंह में न तो किसी तरह का च्विंग करने वाला खाद्य पदार्थ रख सकते हैं। न ही उन्हें स्वाभाविक तरीके से मिलने वाली सुविधाएं ही दी जा रही हैं। कर्मचारियों को तो ट्वायलेट जाने के लिए अपने समय का ब्यौरा तक देना पड़ता है। खाना खाने के लिए वक्त की पाबन्दी है। ऐसे में फैब इण्डिया के ये तीन कर्मचारी पकड कर जेल में अगर डाल भी दिए गये तो क्या इससे मसले का सही हल निकाला जा सकेगा?
सोचकर देखिये, क्या कोई कर्मचारी बिना मालिक की मर्जी और बगैर आदेश के खुद ऐसे संगीन अपराध को करने का जोखिम लेगा। किसी बड़े जुर्म से सीधे तौर पर जुड़ा होगा। चूंकि यह मामला हाई प्रोफाइल है, और हालात इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि कई चरणों में होने वाले इस आपराधिक धंधे में बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ और उनके रसूखदारों के तार कहीं न कहीं बड़े पैमाने पर जुड़े हुए हैं। वरना आप देखें कि इन्हीं शोरूम्स में कर्मचारियों के आने के समय उन्हें पूरी तरह से खंगालकर चेक किया जाता है, दिन भर कड़ी निगरानी और मुस्तैद कैमरों की नजर में रहना पड़ता है। वापसी के समय पूरी तरह से जांच के बाद ही निकासी होती है। ऐसे में क्या यह घटना कर्मचारियों के मातहत संभव है? भला इन कर्मचारियों को इतने संसाधन और टेक्निकल जानकारी कौन उपलब्ध कराएगा? कि वे अपराध करने की हिम्मत दिखा सकें और खरीददार उपभोक्ता महिलाओं की तस्वीरें ट्रायल रूम से कैद करके उन्हें साइबर दुनिया के खुले बाज़ार में बेच सकें। कतई यह मुमकिन तो नहीं लगता।।
एक और बात, आप मेट्रोपोलिटन, महानगर और आम शहरों के बीच मॉल में काम कर रही महिला कर्मचारियों को देखें। जहां मेट्रो शहर में हर प्रोडक्ट के केबिन पर अधिकांशतः एक ऐसा युवा चेहरा आपको देखने को मिलेगा जो कारोबारी की नजर में इस बात की पूरी संभावना को पूरा करने के लिए बाध्य है कि बाज़ार में बिकने वाले सौन्दर्य प्रसाधनों के बीच वह भी एक सुंदर उत्पाद की तरह है। आप इन खूबसूरत चेहरों को देखकर आकर्षित और आनंदित हो सकते हैं। इन्हें सामान बेचने के लिए खुद को मोम की गुड़िया बनना पड़ता है। अपनी देह की सुन्दरता को बनाये रखने के लिए हर तरह से तैयार रहना होता है।
दूसरी तरफ आप ट्रायल रूम्स में खड़ी महिला सुरक्षा गार्ड को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं कि वे सिर्फ एक निश्चित भूमिका में हैं। इनके ड्रेस कोड और पहनावे के साइज और डिजाइन से आप इन्हें सामान या प्रोडक्ट की सिक्योरिटी गार्ड के बतौर आसानी से पहचान सकते हैं। इनकी उम्र अमूमन 18 से लेकर 30 के बीच होती है। और काम के दौरान असुविधाओं का सामना करना पड़ता है इनके लिए बैठने की सुविधा ड्यूटी के दौरान नहीं दी जाती है। ये महिलायें 12 घंटे तक खड़े रहकर नौकरी करने को मजबूर हैं। इन स्थितियों के बारे में बात करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अपराध करने के लिए जिस तरह की स्थितियां, सुविधाएं और माहोल चाहिए। इन स्थितियों से आपको अंदाजा हो जाएगा कि ये महिला कर्मचारी किसी भी अपराध में शामिल होने के लिए कितने सक्षम और उपयुक्त हैं?
यकीनन ऐसे में जो भी अपराध हो रहे हैं उनके पीछे कर्मचारियों से अपराध करवाने वाले, इन्हें इस्तेमाल करने वाले रईस और ताकतवर लोग हैं। असल में औरतों की देह को हर तरह से बेचने वाले सौदागर सुरक्षा घेरों में हैं। और गुनाह को अंजाम देने वाले ये बड़े कारोबारी है। जिनकी शह पाकर या इनके इशारे पर गुलामों की तरह आदेश का पालन करते हुए चंद प्रलोभनों में फंसे कर्मचारी मजबूरी और दबाव के तहत आपराधिक काम में शरीक होते हैं। बावजूद इसके हर तरह के खतरे इनके हिस्से में हमेशा मौजूद हैं। मगर इनके मालिकों के लिए कोई खतरा न तो गुनाह करवाने में है और न ही औरतों की देह को बाज़ार में बेचने पर है। कानून की लचर दफाओं के कारण और व्यवस्था की खामियों की वजह से ये शातिर और प्रभुत्वशाली लोग हर गुनाह से बचकर साफ़ निकल जाते हैं और भविष्य में बड़े से बड़े अपराध की अनेक संभावनाओं से भरे हैं। सरकार ऐसे तमाम गुनहगारों को खुद इसी व्यवस्था में सुरक्षित जगह देती आई है।

मीडिया गाइड लाइन : लैंगिक अल्पसंख्यकों पर 'छिछोरे समाचार' लिखने की मनाही

हमसफर ट्रस्ट के अध्यक्ष अशोक राव कवि के मुताबिक प्रसार माध्यमों में, जो लैंगिक अल्पसंख्यकों का सनसनीखेज, अवैज्ञानिक एवं एकतरफा चित्र प्रस्तुत किया जाता है, उसमें बदलाव जरूरी है। इसी उद्देश्य से अपने सामाजिक अस्तित्व के लिए संघर्षरत एलजीबीटी (समलैंगिक लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय की ओर से संचार मीडिया गाइड (प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका) जारी की गई है। इसकी लेखिका अल्पना डांगे हैं और हिंदी में इसका अनुवाद विवेक पाटिल ने किया है। इंडिया एच.आई.वी. / एड्स अलायंस ने इनोवेशन फंड के तहत हमसफर ट्रस्ट के इस प्रकल्प को आर्थिक सहायता प्रदान की है। 
अल्पना डांगे लिखती हैं कि 'प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका' भारत में लैंगिक अल्पसंख्यकों की बेहतर रिपोर्टिंग की बेहतर पत्रकारिता के लिए सुझावित भाषा मार्गदर्शिका है। हमसफर ट्रस्ट बोर्ड पिछले कई वर्षों से संचार प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका तैयार करने पर विचार-विमर्श करता रहा है। Glaad Media के सेन एडम ने उनके कुछ हिस्सों को अपनाने की अनुमति दी। संचार प्रकल्प के दौरान कार्यशालाओं में शामिल होकर पत्रकारों ने भी इसके विमर्श में मदद की। इस प्रकल्प पर काम करते समय कुछ चुनिंदा गाने महीनों तक बार बार सुने।
प्रस्तावना सहित इसके कुल आठ अध्यायों में से अंतिम आठवें अध्याय 'संचार एवं पत्रकारिता के नीति-मूल्य' में लिखा गया है कि अगर किसी व्यक्ति का साक्षात्कार, राय, छायाचित्र लेने हैं तो पत्रकारों को उस व्यक्ति की सहमति लेनी चाहिए। साथ ही, छापने के बाद उसकी जानकारी उस व्यक्ति को देनी चाहिए। एलजीबीटी (समलैंगिक) समाज के ऐसे किसी व्यक्ति की तो पहचान भी गोपनीय रखनी चाहिए। एलजीबीटी समाज के बारे में 'छिछोरे समाचार' पेश किए जाते हैं। ऐसा नहीं लिखा जाना चाहिए। स्टिंग के बाद तो ऐसे समाचार आचार संहिता के दायरे में आते हैं या नहीं, विवाद का मुद्दा है। समलैंगिक समुदाय के लोग अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं चाहते हैं। संकेतों के माध्यम से इनकी आपस में मुलाकातें होती हैं। इसलिए स्टिंग से इनके रोजीरोटी पर खतरा पैदा हो जाता है। वे बेघर किए जा सकते हैं। समाज उन्हें धिक्कार सकता है। इसीलिए इस पुस्‍तक में देशव्यापी इस समुदाय के प्रवक्‍ताओं के संपर्क नंबर जारी किए गए हैं।

'फ्लफी' की मौत पर फूट फूट कर रोए, विधि-विधान से तेरहवीं

कानपुर में एक परिवार ऐसा भी है जिसने अपने पालतू कुत्‍ते की मौत पर तेरहवीं बकायदा विधि-विधान से कराया. कानपुर के हरजेन्दर नगर इलाके के कालीबाड़ी में रहने वाली सुनीता सिंह के मुताबिक, उनके पति राजेंद्र प्रताप सिंह सिविल कांट्रेक्टर थे. साल 1990 में उनका परिवार कारोबार के सिलसिले में रांची से कानपुर आकर बस गया. उस समय उनकी तीनों बेटियां नजदीक के ही स्कूल पढ़ने जाती थी. एक दिन उनकी सबसे छोटी बेटी रितु स्कूल के पास से एक कुत्‍ते को अपने घर ले आई. पहले तो सुनीता ने विरोध किया, लेकिन बेटियों के कहने पर उसे घर पर रखने को मान गई.

लड़कियों ने प्यार से डॉगी का नाम 'फ्लफी' रखा. धीरे-धीरे 'फ्लफी' परिवार का हिस्सा बन गई. उम्र के 15 साल पूरे कर चुकी 'फ्लफी' ने 26 मार्च को दम तोड़ दिया. 'फ्लफी' की मौत से पूरा परिवार उसकी मौत पर गम में डूब गया. सभी लोग फूट-फूट कर रोए. सुनीता के अनुसार उनलोगों ने विधिविधान से 'फ्लफी' का अंतिम संस्कार किया. परिवार ने तय किया था की 'फ्लफी' की तेरहवीं भी विधि-विधान से करेंगे. बुधवार को 'फ्लफी' की तेरहवीं का अनुष्ठान गायत्री परिवार के पुरोहितों ने संपन्‍न कराई.

रेलवे ने खोली भ्रष्टाचार की नई खिड़की / संजीव सिंह ठाकुर

भारत सरकार और भारतीय रेलवे की ओर से नई तकनीक के साथ भ्रष्टाचार रोकने व यात्रियों को सुविधाएं देने का समय समय पर दावा किया जाता है। इसी कड़ी में इंडियन रेलवे केटरिंग एण्ड टयूरिस्म कारपोरेशन (आई.आर.सी.टी.सी) द्वारा गत वर्ष एक ही दिन में 5 लाख 80 हजार टिकटें आरक्षित करने का रिकार्ड कायम किया गया था। हाल ही में यह रिर्काड 11 लाख पर पहुंच चुका है। परन्तु इसी साइट पर टिकट आरक्षित करने पर कई यात्रियों को लूट का भी शिकार होना पड़ता है।
गौरतलब है कि इस साइट पर बुक टिकट किसी कारण वश अगर गाड़ी प्रस्थान से केवल छः घंटे पहले की अवधि में निरस्त होता है तो टिकट सीधे निरस्त करने की बजाय यात्री को इसी साइट पर टी.डी.आर भरना पड़ता है। अर्थात आई.आर.सी.टी.सी यात्री का टिकट निरस्त करने का निवेदन रेलवे को भेजता है। अगर रेलवे यह पुष्टि करता है कि उक्त यात्री ने यात्रा नहीं की, जोकि अंततः टी.टी.ई की रिर्पोट पर आधारित होता  है तो यात्री का पैसा तय कटौती के बाद लौटा दिया जाता है।
मान लें टी.टी.ई किसी अनारक्षित यात्री से दो नम्बर में पैसे लेकर वही आरक्षित सीट दे देता है, जिस पर आरक्षित यात्री नहीं आया और चार्ट में असली यात्री को ही यात्रा करते दिखा देता है तो असली यात्री को आई.आर.सी.टी.सी यह मान कर पैसा लौटाने से मना कर देता है कि रेलवे के मुताबिक उसने यात्रा की है। दूसरे शब्दों में रेलवे के अनुसार वह यात्री झूठा दावा कर रहा है। अर्थात एक तो लुटाई, ऊपर से झूठा होने का इल्जाम। इस घटनाक्रम को मैं दो बार भुगत चुका हूं। 31 जनवरी को मुझे शिमला में कुछ व्यक्तिगत कार्य था। अतः मैने 1 व 2 जनवरी दोनों दिन की 19718 चंडीगढ़-जयपुर एक्सप्रेस में चंडीगढ़ से रिवाड़ी की टिकटें आरक्षित कीं। ताकि अगर 31 को काम पूरा हो गया तो एक को सुबह शिमला से चंडीगढ़ बस में आकर चंडीगढ़ से रिवाड़ी इस गाड़ी से आ सकूंगा। अगर एक को शिमला में ही रूकना पड़े तो एक जनवरी का टिकट निरस्त करवा कर दो जनवरी के इसी गाड़ी में आरक्षित टिकट का लाभ उठा सकूंगा।
एक को मुझे शिमला में ही रूकना पड़ा। अतः मैंने एक जनवरी दोपहर 1.30 वजे शिमला के एक साइबर कैफे से इस टिकट को निरस्त करने के लिए टी.डी.आर फाईल कर दिया। 2 जनवरी को प्रातः 7 वजे शिमला से बस में चलकर 12.45 दोपहर को चलने वाली चंडीगढ़ -जयपुर एक्सप्रेस द्वारा चंडीगढ़ से रिवाड़ी की यात्रा की। परन्तु आई.आर.सी.टी.सी ने कुछ दिन बाद इस तर्क के साथ मेरा पैसा लौटाने से मना कर दिया कि मैंने एक जनवरी को भी यात्रा की है।
सवाल उठता है कि जब मैं एक जनवरी को चंडीगढ़ से गाड़ी चलने के 45 मिनट बाद वहां से 110 कि.मी. दूर शिमला के आई.पी. पते से टिकट निरस्त कर रहा हूं। मेरे मोबाइल की लोकेशन अगले दिन सुबह तक शिमला में ही मिलेगी।  तीसरे मैं फोटो युक्त पहचान पत्र से उसी समय शिमला के होटल/धर्मशाला में रूकता हूं। जिसके सबूत मिल सकते हैं। तो रेल विभाग उसी समय मेरे गाड़ी में यात्रा करने की पुष्टि कैसे करता है, जिस समय मेरे शिमला में होने के सबूत पर सबूत हैं। उल्टा मेरे दावे को झूठा बता कर मेरे पैसे भी नहीं लौटा रहा।
रेलवे के अनुसार मैंने एक और दो जनवरी दोनो दिन चंडीगढ़ से रिवाड़ी यात्रा की। यह कैसे हो सकता है ? और अधिक जानकारी जुटाने पर पता चला कि ऐसे असंख्य यात्री हैं जो इस तरह के भ्रष्टाचार से शिकार हो रहे हैं परन्तु उचित मंच न मिलने, समय की कमी व पचड़े में न पड़ने के कारण इस लूट के खिलाफ आवाज़ नहीं उठ रही है। क्या मोदी सरकार या रेल मंत्री या रेलवे के किसी उच्चाधिकारी से इस गंभीर मसले पर ध्यान देने की उम्मीद की जा सकती है?

पहले मीडिया मिशन था, अब धंधा / रामानंद सिंह रोशन

बिहार के ईमानदार और जुझारू वरिष्ठ पत्रकार रामानंद सिंह रोशन कारपोरेट मीडिया के राज में ग्रामीण पत्रकारों की गुलाम-दशा देखकर हैरत में हैं। मजीठिया मामले पर तो कोई बात करते ही वह विक्षुब्ध होकर मालिकानों पर बरस पड़ते हैं। उन्हें उन पत्रकारों पर भी गुस्सा आता है, जो इतने गंभीर मामले पर खुल कर सामने आने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। 
रामानंद सिंह एक पत्रकार संगठन के राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी भी हैं लेकिन उस संगठन से भी परेशान पत्रकारों के हक और हित के लिए कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होने की कोई उम्मीद नहीं करते हैं। इन दिनो खासकर प्रिंट मीडिया गांव-देहात के पत्रकारों का कितनी तरह से शोषण कर रहा है, उसे देखते-जानते हुए उनके लिए कुछ न कर पाने से वह अत्यंत व्यथित हैं। कहते हैं, क्या करें, कोई इन पत्रकारों के दुख-दर्द को सुनना ही नहीं चाहता है। मुझे 25 वर्ष हो गए पत्रकारिता में। सन् 1990 तक लगता था कि मीडिया का मतलब समाज और देश के प्रति सेवा और सम्मान। अब लगता है मीडिया का मतलब अपमान। अब मीडिया धंधा है। उद्योगपतियों के अखबार खबरें भी कम, विज्ञापन ज्यादा बेचने लगे हैं। नीचता की हद है। हर पर्व-त्योहार पर सौ सौ रुपए के विज्ञापन में कुछ भी बेच देते हैं। बिहार में 'हिन्दुस्तान', 'जागरण', 'प्रभात खबर' आदि अखबार पत्रकारों नियुक्ति सिर्फ सरकुलेशन और विज्ञापन देने की शर्त पर करते हैं। अस्सी प्रतिशत पत्रकारों को ब्लैकमेलिंग के लिए लगाया जा रहा है। समाचार लिखने की योग्यता जरूरी नहीं। इसीलिए अब शोभना भरतिया, सुनील गुप्त, और उषा मारटिन ही पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। आज सत्ता और विपक्ष से लेकर प्रैसकौंसिल तक तमाशबीन बने हुए हैं। निर्धारित मानकों पर अब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनो तरह के मीडिया के रजिस्ट्रेशन की विधिवत निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। संवाददाताओं की नियुक्ति का मापदंड होना चाहिए।
वह लिखते हैं कि गांव (प्रखण्ड) से जिला स्तर पर अखबार कार्यालय तक सिर्फ दो से तीन मीडिया कर्मियों को छोड़ बाकी सभी पत्रकारों को सिर्फ प्रकाशित प्रति समाचार के हिसाब से मात्र 12 रुपए और प्रकाशित प्रति फोटो के हिसाब से सिर्फ 60 रुपए दिए जा रहे हैं। इसके लिए उन्हें बारह-बारह घंटे एक मजदूर से भी गई-गुजरी हालत में भागदौड़ करनी पड़ती है।
रामानंद सिंह लिखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों के वे संघर्षशील पत्रकार धन-मीडिया हाउसों के लिए सिर्फ खबरें और फोटो ही मुहैया नहीं कराते, बल्कि उन पर सरकुलेशन की गलाकाटू मुठभेड़ का जिम्मा निभाना पड़ता है। एक-एक अखबार बढ़ाने के लिए अपनी रोजी-रोटी की दुहाई देकर उन्हें एक-एक पाठक की तलाश के साथ उनके आगे रिरियाते हुए आरजू-मिन्नत करनी पड़ती है। किसी भी कारण से (भले किसी पुराने पाठक की मौत ही क्यों न हो जाए ), एक भी प्रति कम हो जाने पर अखबार के मुख्यालयों में बैठे सफेदपोश ऐसे दाना-पानी लेकर दौड़ा लेते हैं, जैसे उस पत्रकार ने पता नहीं कितना बड़ा अपराध कर दिया हो। ये हालत किसी एक अखबार के पत्रकार की नहीं, बल्कि ज्यादातर बड़े अखबार इसी तरह गांव-देहात के पत्रकारों का खून पीकर मुस्टंड हुए जा रहे हैं।
रामानंद सिंह का कहना है कि गांव-देहात के पत्रकारों को समाचार, फोटो और सर्कुलेशन की जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती है, बल्कि बारहो महीने, प्रतिदिन विज्ञापन के लिए उन्हीं लोगों के आगे हाथ पसारना पड़ता है, जिनकी घटिया करतूतें क्षेत्र में चर्चा का विषय बनी हुई होती हैं। इस तरह सीधे तौर पर अखबार अपराध-वृत्ति को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। पुलिस, माफिया, अपराधियों से तालमेल बनाए हुए ऐसे लोगों से विज्ञापन के लिए पत्रकारों को अनुनय-विनय और याचना करनी पड़ती है, जिनकी हरकतों से क्षेत्र का एक-एक आदमी आजिज आ चुका होता है। विज्ञापन मिलते ही अखबार उनका घुमा-फिराकर महिमा मंडन करने लगते हैं। ऐसा भी देखने को मिलता है कि वे माफिया और समाजविरोधी तत्व गाहे-ब-गाहे कुछ लंपट किस्म के पत्रकारों का सम्मान कर खुलेआम लोगों की नजर में और ऊंचा उठने की कोशिशें करते रहते हैं। विज्ञापन देने वालों के बारे में यदि रिपोर्टर उनकी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए सुंदर-सुंदर शब्दों में कोई खबर न लिखे तो रिपोर्टर को वे ऐसी ऐसी गालियों से नवाजते हैं कि सुनने वाले का सिर शर्म से गड़ जाए।
साफ साफ कहा जाए तो  अखबार का सर्कुलेशन बढ़ाने और माफिया तत्वों से विज्ञापन की उगाही करने के लिए गांव-देहात के रिपोर्टरों को 'कुत्ता' बन जाना पड़ता है। छुटभैये नेता, पुलिस वाले, धूर्त किस्म के कथित समाजसेवी उनका जीना दुश्वार किए रहते हैं। और तो और इन्हीं पत्रकारों के भरोसे अखबार के मैनेजर, संपादक अपने मालिकों से मोटे-मोटे पैकेज गांठते रहते हैं और जब वही पत्रकार उनसे मिलने के लिए उनके पास जाते हैं तो जैसे उन्हें बदबू मारते आदमी जैसा उनसे सुलूक किया जाता है। संपादक और मैनेजर तो दूर की बात, दोयम दर्जे के मीडिया कर्मी और मार्केटिंग वाले कर्मचारी भी उन्हें अपनी केबिन में घुसने से मना कर देते हैं।