Saturday 31 January 2015

मेरी पाठशाला दो : जिनको अक्सर पढ़ता रहता हूं


 
मँजी हुई शर्म का जनतंत्र, आलोचना : साहित्य, समाज और जनतंत्र, बाजारवाद और जनतंत्र, आजादी और राष्ट्रीयता का मतलब, छूटे हुए क्षण, बुधराम, नवोन्मेष की चुनौती के सामने हिंदी समाज और साहित्य आदि के सुपरिचित कवि-आलोचक प्रफुल्ल कोलख्यान के शब्दों में हाशिये का वंचित जनजीवन धड़कता है। वह तो इसे पूरी साफगोई और बेबाकी से स्वीकारते भी हैं कि 'जी हाँ, मैं लिखता हूँ... दुख पर काबू पाने के लिए। मेरा जन्म न तो महानता की किसी चोटी पर हुआ और न विकास ही किसी महर्षि के अशीर्वाद के कोमल, सुरक्षित, हितकारी प्रकाशवलय की दिव्य परिधि में हुआ। दुख यह नहीं है कि आज भी जिधर अन्याय है, उधर ही शक्ति है; बल्कि यह है कि जहाँ शक्ति है वहीं अन्याय है। दुख है कि जीवन शक्ति के बिना चल नहीं सकता और अन्याय को झेल नहीं पाता। दुख है कि आज भी अंधेरे में ब्रह्मराक्षस दनदनाता हुआ अपने विकास की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है।' प्रफुल्ल कोलख्यान फेसबुक पर भी सक्रिय रहते हैं। उनका हिंदी ब्लॉग भी है - prafullakolkhyan.blogspot.in. तरह तरह की सुपठनीय टिप्पणियों और साहित्यिकी से भरा-पूरा। उनकी कुछ पंक्तियां-
सूरज चाँद तारे हैं बुझा-बुझा-सा आसमान क्यों है?
फसलें लहराई बहुत फिर! उदास खलिहान क्यों है?
भूख, अ-भाव से इतनी गहरी हमारी पहचान क्यों है?
आदमी का मन, मन का कोना अब सुसान क्यों है?
कहा, सुना तो बहुत पर बेमानी हर बयान क्यों है!
देवता मुस्कुरा रहे, पूजा का फूल लहुलुहान क्यों है?
यह कौन-सी हवा, आदमी से सभी परेशान क्यों है!

मेरी पाठशाला एक : जिनको पढ़ता रहता हूं

एक है दुनिया रंग-विरंगी, द्वारिका प्रसाद अग्रवाल की। जैसा लिखते हैं, बोल-चाल में भी उतने ही स्वादिष्ट। फेसबुक पर तो प्रतिदिन रहते ही हैं, उनका एक सुपठनीय ब्लॉग भी है - atmkatha3.blogspot.in, जिसे अक्सर पढ़ता रहता हूं, भले अपनी कोई टिप्पणी करूं-न-करूं। इन दिनो वह 'प्यारी दुल्हनियाँ चली' की कड़ियां बुन रहे हैं। उससे पहले चार कड़ियों वाली श्रृंखला ('ये क्या हुआ') 'स्वस्थ होने की कीमत बीमार होने पर ही समझ में आती है' वाक्य से प्रारंभ कर, 'सब जानते हैं कि यदि जेब भरी हो तो 'सब सम्भव हो जाता..' पर पूरी पठनीयता के साथ सम्पन्न कर चुके हैं। उससे पूर्व वर्ष 2014 से प्रारंभ 'ये जीवन है' की पांच कड़ियां वर्ष 2015 में पांचवें सोपान तक आ गयीं। ... लेकिन 'समझो इशारे' के वे चोखे-चौपदे पढ़ने की बात ही कुछ और थी। उनकी रचनाओं के प्रिय पाठक अमित कुमार नेमा लिखते हैं- आपको पढ़ना हमेशा ही रोचक होता है, इसलिए मैं भी उनको अक्सर पढ़ता रहता हूं। फोटो : बनारस में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ  के ज्येष्ठ पुत्र नय्यर हुसैन खां के साथ उनका एक चित्र, और दूसरे चित्र में अपनी धर्मपत्नी माधुरीजी के साथ।
(क्रमशः)

Thursday 29 January 2015

मित्रों के लिए कुछ ताजा पंक्तियां/जयप्रकाश त्रिपाठी

कितना अपना, वो रोजी-रोटी का मारा, 
लगता है क्यों थका-थका सा, हारा-हारा
फिर भी अपनी लोहे की मुट्ठी तक तना हुआ..........

रुका नहीं, मन दुखा-दुखाकर अपने दिखते, कभी नहीं भी दिखते,
इनके-उनके चेहरों की सब गझिन इबारत पढ़ते-पढ़ते, लिखते-लिखते,
साबुत है या नहीं, न जाने किस मिट्टी का बना हुआ..........

रिश्ते-नातों की परिभाषा फिर क्यों लिक्खे वक्त निरक्षर अकबक-अकबक,
खाली-खाली हाथ, साथ उसके संघाती तितर-बितर हो लिये यक-ब-यक,
जितना मारा-तोड़ा अपनो ने, वह उतना घना हुआ..........

ओटा-घोटा हुआ गला वो जन-दुखियारा चुप-चुप, मुर्दा-मुर्दा लुंठित
''हंसी-ठहाकों वाले पेटू उछल-कूदते लेकिन अंदर कुंठित-कुंठित
जैसे कोई बदबू मार रहा कीचड़ में सना हुआ''..........

मेरे नये काव्य संकलन की कुछ पंक्तियां

चाहे पथ पर फूल बिछा दे
चाहे कोई साज सजा दे
चाहे कोई लाज लजा दे
चाहे कोई सुबह जगा दे
चाहे कोई शाम सुला दे
मैं अपने मन का बंजारा.......

विष घोले या मिसरी घोले,
चिथड़ा या चांदी से तोले,
बोले अथवा कभी न बोले,
चाहे जो दे, चाहे जो ले,
खोले, मन का भेद न खोले,
साथ-साथ हो ले, न हो ले,
मैं अपने मन का बंजारा.......

Saturday 24 January 2015

पी. साइनाथ की 'परी': उम्‍मीद पर भी सवाल बनते हैं /अभिषेक श्रीवास्‍तव

बीते दस साल में अगर याद करें तो मुझे नहीं याद आता कि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसे एक अपमार्केट अभिजात्‍य आयोजन स्‍थल पर किसी कार्यक्रम में पांच सौ के आसपास की भीड़ मैंने देखी या सुनी होगी। राजकमल प्रकाशन के सालाना आयोजन या किसी बड़े लेखक के बेटे-बेटी के रिसेप्‍शन समारोह को अगर न गिनें, तो सामाजिक-राजनीतिक विषय पर किसी वक्‍ता को सुनने के लिए यहां सौ श्रोता भी आ जाएं तो वह अधिकतम संख्‍या होती है। इसीलिए 5 जनवरी को नियत समय से सिर्फ पंद्रह मिनट की देरी से जब मैं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पहुंचा तो भीड़ को देखकर हतप्रभ हुए बिना नहीं रह सका। सभागार के भीतर इतने लोग थे कि दरवाज़ा खोलकर पैर रखना मुश्किल था। तब समझ में आया कि करीब दो दर्जन लोग बाहर क्‍यों मंडरा रहे थे। कार्यक्रम शुरू हो चुका था और ग्रामीण पत्रकारिता के लिए मशहूर व भारत में उसका तकरीबन पर्याय बन चुके पी. साइनाथ अपनी चिर-परिचित थॉमस फ्रीडमैन वाली शैली में मंच पर नमूदार थे। मौका था उनकी वेबसाइट पीपॅल्‍स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (परी) के बारे में उनके परिचयात्‍मक वक्‍तव्‍य का, जिसका लोकार्पण 20 दिसंबर, 2014 को किया जा चुका था।
साइनाथ जब-जब दिल्‍ली आए हैं, उन्‍हें सुनने के लिए लोग अपने आप उमड़ते आए हैं। बीते कुछ वर्षों में ऐसे दो मौकों का मैं गवाह रहा हूं- एक राजेंद्र भवन में और दूसरा कॉस्टिट्यूशन क्‍लब में। उनके बोलने और समझाने की शैली बड़ी दिलचस्‍प है। आंकड़े उनकी ज़बान पर चढ़े रहते हैं। व्‍यंग्‍य बिलकुल विक्‍टोरियाई शैली वाला संतुलित और बौद्धिक होता है। विषय हमेशा तकरीबन एक ही- गांव, किसान, पलायन, खुदक़ुशी और कॉरपोरेट मीडिया का मिलाजुला आख्‍यान। सफ़ेद कमीज़, काले रंग की बंडी और बांहें मुड़ी हुईं। ये सब मिलकर उन्‍हें एक ब्रांड बनाता है। एक ऐसा ब्रांड, जो अपने व्‍याख्‍यानों में ब्रांड के जनक पूंजीवादी बाज़ार और विपणन की अवधारणा का विरोधी है क्‍योंकि वह किसान की बात करता है। बेहतर होगा कि हम उन्‍हें काउंटर-ब्रांड कहें- बाज़ार के खिलाफ़ बाज़ार में खड़ा एक आदमी जो लोगों को अपने अनुभवों से शिक्षित करता है। उसके अनुभव गांवों से आते हैं, खासकर मध्‍य भारत और दक्षिण भारत के वे गांव, जहां तक उसकी आसान पहुंच है। हमने साइनाथ के माध्‍यम से वायनाड से लेकर अहमदनगर और विदर्भ तक के कई किस्‍से सुने हैं। हम साइनाथ के ऋणी हैं कि उन्‍होंने एक ऐसे वक्‍त में हमारा ध्यान खेतों की ओर खींचा जब सारी सियासत उस ओर से ध्‍यान हटाने के लिए चल रही थी। और भी लोग थे जो उदारीकरण के दौर में किसानों और खेतों पर खबरें कर रहे थे, लेकिन ब्रांड अकेले साइनाथ थे क्‍योंकि उनके पीछे एक बड़ा ब्रांड खड़ा था- उनका अख़बार दि हिंदू, जिसे इस देश के 'पढ़े-लिखे सरोकारी लोग' अपना अख़बार मानते रहे हैं (क्षेपक: मैंने पिछले चार-पांच महीने से इसे लेना बंद कर दिया है)। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी से लेकर बौद्धिक विमर्शों तक फैले इस दायरे में दि हिंदू को उद्धृत किया जाता रहा है, लिहाजा साइनाथ से इस देश के मध्‍यवर्ग का एक तबका लंबे समय से पर्याप्‍त परिचित रहा है।  
आइआइसी के सभागार में 5 जनवरी को यही तबका मौजूद था। एक सज्‍जन ने हॉल के बाहर टीप मारी, ''साइनाथ अपनी भीड़ साथ लेकर आते हैं''। उनका इशारा जेएनयू और एसएफआई (सीपीएम के छात्र संगठन) की ओर था। ज़ाहिर है, इस भीड़ के अलावा कार्यक्रम में जयराम रमेश और दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस के बड़े नेता, कुछ बड़े पत्रकार, शहर की सिविल सोसायटी का एक तबका, दिल्‍ली के कॉलेजों के आइपैडयुक्‍त जिज्ञासु छात्र और बड़ी संख्‍या में ऐसे लघु व मंझोले पत्रकार शामिल थे जो शायद अपने करियर की शुरुआत में साइनाथ बनना चाहते रहे होंगे लेकिन आटे-दाल के भाव ने उन्‍हें किसी मूर्ख बनिया का क्‍लर्क बनाकर छोड़ा है। साइनाथ को सुनने आना दरअसल अपने आल्‍टर-ईगो को तुष्‍ट करने जैसा होता है- कि जो काम हम नहीं कर पाए, जो करना चाहते थे, जिसे मानते भी हैं कि हमें करना चाहिए, उसे कम से कम सुनकर ही क्षुधा को तृप्‍त कर लिया जाए। हो सकता है कि सबके मामले में ऐसा न हो, लेकिन मैं दावे से कह सकता हूं कि अधिकतर लोग ऐसे वक्‍ताओं को सुनने इसीलिए जाते हैं ताकि वापस आकर वहां नहीं गए दूसरे व्‍यक्ति से कह सकें, ''ओ... आइ फील यू मिस्ड इट... तुम्‍हें वहां रहना चाहिए था।'' यह सरोकार से ज्‍यादा प्रातिनिधिक खुशी का एक मसला है, जिसमें हम/आप जैसे हिंदी पट्टी के सामान्‍य, भीरु और दरिद्र लोग 'नदी के द्वीप' (अज्ञेय) का वह रिक्‍शावाला बन जाते हैं जिसके पीछे बैठा पत्रकार चंद्रमाधव लखनऊ के मेफेयर सिनेमा में लगी एक फिल्‍म देखने जा रहा है जबकि खुद वह फिल्‍म न देख पाने की अपनी कसक को तुष्‍ट करने के लिए रिक्‍शेवाला फिल्‍म के अंतरंग दृश्‍यों की कल्‍पना कर के ही मस्‍त हो गया है और अनजाने में उसने गति बढ़ा दी है। चंद्रमाधव भी रिक्‍शे से उतरने के बाद उसका उत्‍साह देखकर उसे एक रुपया बख्‍शीश दे देता है।
बहरहाल, उपन्‍यास जीवन नहीं होता। जीवन भले उपन्‍यास बन जाए। इसीलिए साइनाथ ने वहां उत्‍साह में आए नौजवानों को अपनी परियोजना में ''वॉलन्टियर'' बनाने के लिए उनसे हाथ तो उठवाया, लेकिन उन्‍हें अपनी ओर से कोई बख्शीश नहीं दे पाए क्‍योंकि उनके पास खुद संसाधनों का अभाव है और अब तक का सारा काम कथित तौर पर स्‍वैच्छिक कार्यकर्ताओं के भरोसे ही हो रहा है। यह भरोसा वाकई मज़बूत होगा, शायद इसीलिए साइनाथ इन कार्यकर्ताओं के सहारे अपनी नई-नवेली 'परी' को छोड़कर पूरे साहस के साथ अगले चार महीनों के लिए प्रिंसटन युनिवर्सिटी में पढ़ाने चले गए हैं। वे कह रहे थे, ''चार महीना पैसे कमाकर आऊंगा तो आठ महीना घूम पाऊंगा।'' ठीक ही कह रहे थे। मैं भी यही करता हूं। फ्रीलांसर पत्रकार और कर भी क्‍या सकता है। अपने भीतर की प्रेरणा का पीछा करने के लिए ज़रूरी है कि पहले उसके लिए कुछ पैसे कमाए जाएं। सोचा जा सकता है कि जब साइनाथ को अपने पसंदीदा काम के लिए पैसे कमाने अध्‍यापन के लिए बाहर जाना पड़ रहा है, तो हिंदी पट्टी का कोई सरोकारी पत्रकार चाह कर भी उनके लिए वॉलंटियर कैसे कर सकेगा? सवाल सिर्फ हिंदी पट्टी का नहीं है। पत्रकारिता में कायदे के काम की जितनी कीमत है, उतने में एक आदमी का घरबार नहीं चल सकता। फिर हर कोई पूर्व राष्‍ट्रपति का पोता भी नहीं होता। हर किसी के पास जेएनयू से पैदा हुआ राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय नेटवर्क नहीं होता। हर किसी के पास दि हिंदू जैसा अख़बार नहीं होता। हर कोई पी. साइनाथ नहीं होता। साइनाथ कह रहे थे कि अपना प्रायोजक खुद ढूंढिए और 'परी' के लिए काम करिए। हर पत्रकार की पहली और आखिरी तमन्‍ना एक 'प्रायोजक' खोजने की होती है। हर मार्क्‍स को एक एंगेल्‍स चाहिए। मार्क्‍सवाद उसके बाद पनपता है। अगर प्रायोजक ही मिल गया, तो दुकान अपनी होगी न? प्रायोजक भी खोजें और अपना माल दूसरे के ब्रांड से बेचें? ऐसा कहीं सुना है किसी ने?
बहरहाल, भाषा के इस चालूपने से इतर, 'परी' में मामला बेचने-खरीदने का बिलकुल नहीं है। यह एक निशुल्‍क डिजिटल आर्काइव है। इसके बारे में पत्रकार रवीश कुमार की भूरि-भूरि प्रशंसा से आप इस प्रोजेक्‍ट के कथित उद्देश्‍यों को जान-समझ सकते हैं। मेरे लिखने का उद्देश्‍य इसका फिर से परिचय देना नहीं है क्‍योंकि वेबसाइट चालू है और कोई भी उसे देखकर अपनी समझ बना सकता है। 'परी' को योगदान दीजिए निशुल्क, उससे डाउनलोड कीजिए निशुल्‍क, उसे देखिए निशुल्‍क। सब कुछ निशुल्‍क है। 'परी' की यही खूबी है। कभी-कभार जो खूबी होती है, वही अभिशाप बन सकती है। ज़रा खुलासे में समझने की कोशिश करते हैं। पहली बात यह है कि अख़बारों को वैसे भी ग्रामीण या विकास पत्रकारिता से कोई सरोकार अब नहीं रहा। चैनलों को तो और भी नहीं क्‍योंकि वहां प्रधान सेवक का डिक्‍टेट चलता है। जो काम हो भी रहा है वह ऑनलाइन उपलब्‍ध है। वीडियो वॉलंटियर्स जैसे तमाम मंच हैं जो गांवों की ख़बर, ऑडियो, वीडियो लाकर लोगों को मुफ्त में दे रहे हैं। कई एनजीओ इस किस्म के काम कर रहे हैं। गांवों को डॉक्‍युमेंट करने का काम जितना नेशनल ज्‍यॉग्राफिक और डिस्‍कवरी चैनलों ने अपने-अपने तरीके से किया है, उतना शायद ही किसी ने किया हो। दिल्‍ली में एक भारत सरकार का अभिलेखागार भी है जहां जाने की आदत अब तक इस देश के पत्रकारों को नहीं पड़ी है। इसके अलावा इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय कला केंद्र की वेबसाइट है जहां बहुमूल्‍य सामग्री डिजिटल रूप में मौजूद है। सब का सब निशुल्‍क। किसी भी मीडिया में कहीं भी ऐसे किसी संसाधन का कोई उपयोग होता नहीं दिखता। अखबारों में एक जमाने में लाइब्रेरी हुआ करती थी। वो भी अब नहीं बनती। चैनलों में एक पद होता है रिसर्चर का, जिसका व्‍यावहारिक मतलब होता है गूगलप्रेमी स्‍टेनो। इसलिए यह सोचना गफ़लत पालने जैसा होगा कि आप गांवों की स्‍टोरी निशुल्‍क मुहैया करा रहे हैं तो इसका उपयोग मुख्‍यधारा का मीडिया करेगा। दूसरी बात, यदि किसी संदर्भ में किसी क्षेत्र विशेष के प्रोफाइल की, किसी गांव की ख़बर की ज़रूरत किसी मीडिया प्रतिष्‍ठान को हुई भी और उसने 'परी' का सहारा लिया, तो देखिए कैसी-कैसी विडम्‍बनाएं सामने आ सकती हैं।
पहली तो यही होगी कि आप कालखंड में स्थिर एक सामग्री (वीडियो, ऑडियो, लेख, रिपोर्ट, चित्र) आर्काइव से उठा रहे हैं, जबकि ज़मीन पर सचाई बदल चुकी है। अगर मीडिया संस्‍थान ने वहां अपना रिपोर्टर रीयल टाइम में नहीं भेजा, तो वह 'परी' पर भरोसा कर के धोखा खा सकता है क्‍योंकि 'परी' उक्‍त गांव/क्षेत्र का कालखंड में किसी समय पर रिकॉर्ड किया गया एक पहलू आपके सामने रखेगी। ध्‍यान रहे, यह कोई एंथ्रोपोलॉजिकल (नृशास्‍त्रीय) वेबसाइट नहीं है जो बदलावों को दर्ज करती हो। फर्ज़ करें, आपने इस वेबसाइट से अमुक गांव के बारे में साइनाथ की 2009 में खींची हुई एक तस्‍वीर 2016 में किसी घटना की रिपोर्ट में इस्‍तेमाल कर ली। जिस जगह पर वह तस्‍वीर खींची गई थी, मान लें एक खेत, वहां सात साल के अंतराल में ज़मीन बिक चुकी है और किसी कारखाने/संयंत्र का काम चालू हो गया है। अब आप क्‍या करेंगे? मान लें कि किसी चैनल ने 'परी' पर मौजूद पॉस्‍को सयंत्र विरोधी वृत्‍तचित्र से ढिनकिया गांव के एक किसान की बाइट काटकर आज से डेढ़ साल बाद अपनी किसी ताज़ा स्‍टोरी में लगा दी क्‍योंकि उस गांव में पुलिस की घेराबंदी है और स्ट्रिंगर वहां नहीं जा सकता। अगर वह बाइट 2012 में ली गई थी और उक्‍त किसान स्‍टोरी चलने तक गुज़र चुका हो, तब तो चैनल को लेने का देना पड़ जाएगा। वेबसाइट को देखेंगे तो आप ऐसी कई वास्‍तविक स्थितियां खुद सोच पाएंगे। खतरे और भी हैं। मान लें कि किसी घटना पर एक रिपोर्टर अपने संपादक से कवर करने के लिए वहां जाने की इच्‍छा जताता है। संपादक कह सकता है- ''तुम साइनाथ से ज्‍यादा बड़ा पत्रकार खुद को समझते हो? जाओ, जाकर 'परी' देखो, सब कुछ पहले से मौजूद है।'' इस तरह ग्रामीण पत्रकारिता की रही-सही गुंजाइश भी खत्‍म हो सकती है।
टीवी चैनलों में आजकल कुछ वर्षों से यू-ट्यूब के वीडियो डाउनलोड कर के स्‍टोरी बनाने का चलन सा बन गया है। जिस रफ्तार से यह सुविधा बढी है, उसी रफ्तार से वीडियो की विश्‍वसनीयता को जांचने का विवेक कम होता गया है। रिपोर्टरों का काम मौसम, हादसे या ज्‍यादा से ज्‍यादा नेताओं को रिपोर्ट करना रह गया है। सुदूर गांवों में जाने पर सामान्‍यत: रिपोर्टरों का क्‍या हश्र होता है और वे कैसे मचल जाते हैं, उसका एक दृष्‍टान्‍त मैंने एनडीटीवी के बहाने नियमगिरि की सुनवाई के दौरान इंडिया रेजिस्‍ट्स नामक वेबसाइट पर पेश किया था जिसके लिए मुझे अंग्रेज़ी के पत्रकारों से बहुत गालियां बाद में खानी पड़ी थीं। सोचिए, ऐसी विषद स्थिति में अगर बैठे-बैठाए मुफ्त में बढि़या ऑडियो, वीडियो और चित्रों का आर्काइव पूरे देश भर से एक क्लिक पर उपलब्‍ध हो, तो ग्रामीण व विकास पत्रकारिता के लिए भला कौन कष्‍ट उठाना चाहेगा। कौन संपादक उसका बजट तय कर के प्रबंधकों के सामने खुद को खर्चीला दिखाना चाहेगा? कुल मिलाकर स्थिति आज से और बदतर इसलिए हो जाएगी क्‍योंकि पी.साइनाथ एक अतिविश्‍वसनीय ब्रांड हैं जिनके सामने कम से कम आज की तारीख में और कोई नहीं टिकता। आप चीखते हुए मर जाएंगे, लेकिन संपादक को यह बात नहीं समझ आएगी कि उसे आपको गांव क्‍यों भेजना चाहिए जब सब कुछ रेडीमेड मौजूद है। ऐसी तमाम कल्पित स्थितियों के सहारे मुझे नहीं लगता कि 'परी' के आने से मुख्‍यधारा के मीडिया परिदृश्‍य पर लेशमात्र भी कोई फ़र्क पड़ने वाला है।
अब संस्‍थागत पत्रकारिता के दायरे से बाहर आते हैं। गांवों में जाकर दो किस्‍म के स्‍वतंत्र पत्रकार रिपोर्ट कर सकते हैं। एक, जिनके पास बाप का कमाया पैसा हो और अभिव्‍यक्ति की आज़ादी का प्रिविलेज भी हो। दूसरे, जो अपनी प्रेरणा का पीछा करने के चक्‍कर में कहीं से पैसे जुगाड़ कर बेखौफ़ निकल पड़ते हों। पहली श्रेणी पत्रकारिता के लिए वरदान है। होनी भी चाहिए। ऐसे जितने युवा पैदा हों, ग्रामीण पत्रकारिता की गुंजाइश उतनी ही बची रहेगी। दूसरी श्रेणी दुर्लभ है और लुप्‍तप्राय है। इसके भरोसे कुछ नहीं होने या बचने वाला। ऐसे लोग शहीद होने के लिए बने हैं या फिर अपनी सनक में अपना ही घर तोड़ लेंगे। जो अवसरप्राप्‍त पहला तबका है, शहरी, मध्‍यवर्गीय और बुनियादी वर्जनाओं से स्‍वतंत्र, वही 'परी' का टार्गेट ग्रुप है। साइनाथ के मुताबिक उनका उद्देश्‍य ऐसे ही तबके को ''सेंसिटाइज़'' करना है। साइनाथ बहुत मार्के की बात कह रहे थे, ''इस देश में म्‍यूजि़यम संस्‍कृति इसलिए नहीं है क्‍योंकि बाहर कुछ भी नहीं बदला है। जो म्‍यूजि़यम में है, वही समाज में भी बचा हुआ है।'' इस बात के दो आशय हैं। पहला यह कि भारतीय समाज स्थिर है। यह एक खतरनाक व्‍याख्‍या हो सकती है इसलिए इसकी गहराई में मैं नहीं जाना चाहूंगा। दूसरा आशय यह है कि समाज की चीज़ों को संग्रहित करने का कोई जीवंत सांस्‍कृतिक मूल्‍य भारत जैसे देश में नहीं है। साइनाथ यहीं से अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि इसी वजह से उन्‍होंने ऑनलाइन माध्‍यम को चुना क्‍योंकि संग्रहालय में 'फिजि़कली' जाने की संस्‍कृति यहां विकसित नहीं हुई है जबकि युवाओं के हाथ में मोबाइल है जिससे वे कभी भी ऑनलाइन कुछ भी देख सकते हैं। ठीक बात है। साइनाथ इसी तबके को 'सेंसिटाइज़' करना चाहते हैं। आजकल इसे चलताऊ भाषा में 'डेमोग्राफिक डिविडेंड' कहा जाता है। इस देश में 18 से 35 बरस के बीच 65 फीसदी युवा हैं। नरेंद्र मोदी को भी इन्‍हीं की चिंता है। राहुल गांधी भी इसी समूह को लेकर परेशान थे। कहते हैं कि इसी तबके ने भाजपा की जीत को आसान बनाया और नरेंद्र मोदी को दिल्‍ली के सिंहासन तक पहुंचाया। क्‍या साइनाथ के पास इस समूह को 'सेंसिटाइज़' करने की कोई 'राजनीति' है जो उनके उद्देश्‍य को नरेंद्र मोदी/राहुल गांधी आदि के उद्देश्‍य से अलग कर सके? संघ भी गांवों की बात करता है। मोदी भी आदर्श गांव बनाना चाहते हैं। देश को बरसों पीछे पीछे किसानी सभ्‍यता में ले जाने के प्रयास इधर तेजी से हो रहे हैं। अगर हम मौजूदा 'डेमोग्राफिक डिविडेंड' को अपने पक्ष में करना चाहते हैं तो हमारे पास एक वैकल्पिक राजनीति ज़रूर होनी चाहिए जिससे हम प्रतिगामी ताकतों के खिलाफ़ खड़े होकर गांवों की बात को किसी तरक्‍कीपसंद मूल्‍य से जोड़ सकें। सिर्फ बचाने और बचाने का काम तो हिंदी कवि भी अपनी कविता में तुलसी के चौरे आदि के माध्‍यम से करता है। गांवों को बचाना एक सामान्‍य और सदिच्‍छा प्रेरित उद्देश्‍य भले हो, लेकिन उसमें 'राजनीतिक तत्‍व' की शिनाख्‍त करनी बहुत ज़रूरी है। क्‍या 'परी' का कोई स्‍पष्‍ट राजनीतिक उद्देश्‍य है जो अपने लक्षित समूह को उससे अनुप्राणित कर सके? क्‍या आप गांव के साथ वहां के सामंती मूल्‍यों को भी बचाएंगे? अगर नहीं, तो यह बात आप कैसे युवाओं को समझाएंगे कि संघ जो कह रहा है आप उससे बिलकुल अलग परिप्रेक्ष्‍य में बात कर रहे हैं? कोई लकीर है? राजनीतिक उद्देश्‍य के सवाल पर साइनाथ सिर्फ इतना कहते हैं कि उनका काम गांवों को डॉक्‍युमेंट करना है। मेरे खयाल से यह सबसे बड़ा लोचा है जिसकी ओर मेरा ध्‍यान कवि रंजीत वर्मा ने हॉल से निकलते ही दिलाया था जब उन्‍होंने सवाल किया, ''ये आर्काइव क्‍यों बना रहे हैं?''
ऊपर कहीं गई तमाम बातें निराधार हो सकती हैं। अटकलें ही हैं। व्‍याख्‍याओं का क्‍या, उन्‍हें अपनी सुविधानुसार मोड़ा भी जा सकता है। मेरा उद्देश्‍य इस बहुप्रचारित परियोजना के बारे में कोई आखिरी राय बनाना नहीं है, बल्कि एक अच्‍छे काम को और अच्‍छा बनाने के लिए बार-बार सोचना है, शायद इसीलिए बीते एक हफ्ते से मैं लगातार इस बारे में सोच रहा था। और बार-बार जब मैं सोच रहा था तो मेरे जेहन में एक तस्‍वीर उभर रही थी। वह तस्‍वीर सभागार में लगे उस साइनबोर्ड की थी जिसके सामने बैठकर साइनाथ जिज्ञासु श्रोताओं के जवाब दे रहे थे। उक्‍त बोर्ड पर कार्यक्रम के नाम के अलावा सबसे ऊपर पांच नाम लिखे थे- ऐक्‍शन एड, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, सेव दि‍ चिल्‍ड्रेन, यूथ की आवाज़, बिजनेस एंड कम्‍युनिटी फाउंडेशन। मैं नहीं जानता कि ये संस्‍थाएं इस कार्यक्रम की प्रायोजक थीं या नहीं। मैंने पता करने की कोशिश भी नहीं की। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ने हो सकता है अपना सभागार दिया था इसलिए उसका नाम वहां हो, लेकिन बाकी चार वहां क्‍या कर रहे थे? पता नहीं। मैं कुछ और बातें ज़रूर जानता हूं जिस वजह से इसका जिक्र यहां कर रहा हेूं। मसलन, ऐक्‍शन एड के बारे में पर्याप्‍त सूचनाएं मौजूद हैं कि वह फोर्ड फाउंडेशन से अनुदानित संस्‍था है। यही वह संस्‍था है जिसने वेदांता का संयंत्र नियमगिरि में लगवाने के लिए वहां के आदिवासियों और कंपनी के मालिक अनिल अग्रवाल के बीच मांडवाली की थी। शब्‍दों का मेरा चयन बुरा लगता हो तो लगे, लेकिन कालाहांडी के लांजीगढ़ में रहने वाले आदिवासी नेता कुमटी मांझी गवाह हैं कि उन्‍हें और कुछ दूसरे आदिवासियों को बाकायदा ऐक्‍शन एड के द्वारा लंदन ले जाकर अनिल अग्रवाल से मिलवाने की कोशिश की गई थी। कुमटी मांझी ने मुझे यह बात बताते हुए शर्म से अपना सिर झुका लिया था और बोले थे, ''...लेकिन हम लोगों को धोखे में रखा गया था। वहां अनिल अग्रवाल को अचानक देखकर हम लोग कमरे से बाहर निकल गए।'' मांझी से पूरी बातचीत का वीडियो मेरे पास है।
सेव दि चिल्‍ड्रेन बच्‍चों की शिक्षा पर काम करने वाली संस्‍था है। हमारे एक मित्र राजेश चंद्र जो आजकल 'समकालीन रंगमंच' के संपादक हैं, आज से कुछ साल पहले इस संस्‍था की पत्रिका निकाला करते थे और उसके लिए नियमित तौर पर उदयपुर आते-जाते रहते थे। उन्‍होंने अपने आखिरी दिनों में कुछ पत्रकारों को संस्‍था का काम दिखाने के लिए उदयपुर बुलाया। कुल सात लोग थे। मैं भी था। सभी जानने वाले थे। हम लोग एक सप्‍ताह तक उदयपुर, बांसवाड़ा, सलूम्‍बर, डूंगरपुर आदि जगहों पर घूमे। शिक्षा में चल रहा काम देखा गया। इस दौरान एक रात हमारी मुलाकात डूंगरपुर के बाहर स्थित एक होटल में सेव दि चिल्‍ड्रेन के कंट्री डायरेक्‍टर से हुई थी। नाम नहीं याद है, कोई बंगाली था। उम्र 35 बरस के आसपास रही होगी। प्रेसिडेंसी कॉलेज से पढ़ा सभ्‍य अभिजात्‍य व्‍यक्ति था। आधी रात को हमारे परिचय के साथ शुरुआती बातचीत उसके सुरूर में आने के बाद हलकी बहस में बदल गई, तब उसने एक दिलचस्‍प उद्घाटन किया था। उसने बताया था कि दक्षिणी राजस्‍थान का इलाका माओवाद के पनपने के लिए काफी मुफीद है क्‍योंकि यहां पर्याप्‍त आदिवासी हैं और समस्‍याएं अपार हैं। सेव दि चिल्‍ड्रेन के प्रोजेक्‍ट का बुनियादी उद्देश्‍य आदिवासियों के असंतोष को दबाना है और शिक्षा के आंदोलन की तरफ सारी चेतना को मोड़कर संसाधनों की लूट से ध्‍यान हटाना है। इस घटना का जि़क्र मैंने वरिष्‍ठ पत्रकार उर्मिलेश द्वारा संपादित एक पुस्‍तक में लिखे अपने एक लंबे आलेख में कुछ साल पहले किया था। यहां बस दुहरा रहा हूं। आखिरी बात यह ध्‍यान रखने वाली है कि उदयपुर को वेदांता सि‍टी के नाम से भी जाना जाता है क्‍योंकि सरकारी उपक्रम जि़ंक इंडिया को वेदांता ने खरीद लिया था। आप उदयपुर गए हों तो वेलकम टु वेदांता सिटी के बोर्ड ज़यर आपने देखे होंगे।
क्‍या यह महज संयोग है कि सेव दि चिल्‍ड्रेन और ऐक्‍शन एड का सिरा एक ही कंपनी वेदांता से जाकर जुड़ता है? हो सकता है यह मेरा सीमित अनुभव हो। बहरहाल, एक ऑनलाइन मंच है यूथ की आवाज़ जिसे किसी अश्विनी तिवारी ने शुरू किया है और जिसका नाम साइनाथ के आयोजन के बोर्ड पर था। इस मंच का घोषित उद्देश्‍य युवाओं की आवाज़ को स्‍वतंत्र रूप से सामने लाना है क्‍योंकि उसके मुताबिक मीडिया में अब जगह नहीं बची है। इस वेबसाइट पर आपको अच्‍छी कहानियां पढ़ने को मिल जाएंगी। आजकल इस पर अंतरराष्‍ट्रीय दानदाता एजेंसी ऑक्‍सफैम के एक प्रोजेक्‍ट के तहत महिलाओं पर श्रृंखला चलाई जा रही है। वेबसाइट का कहना है कि उसे किसी संस्‍था से भी कोई परहेज़ नहीं है। क्‍या यह संयोग है कि ऑक्‍सफैम को भी फोर्ड फाउंडेशन ही पैसा देता है?
संयोगों की इस कड़ी में बोर्ड पर लिखा आखिरी नाम है बिजनेस एंड कम्‍युनिटी फाउंडेशन का, जिसके बारे में बहुत ज्‍यादा सूचनाएं नहीं हैं क्‍योंकि यह अपेक्षाकृत नई संस्‍था है। इसकी वेबसाइट कहती है कि इसके निदेशक बोर्ड में ग्‍लैक्‍सो स्मिथक्‍लाइन लिमिटेड के पूर्व प्रबंध निदेशक एस.जे. स्‍कार्फ, कैडबरी कंपनी में वरिष्‍ठ पद पर रहे एन.एस. कटोच, बजाज कंपनी के अध्‍यक्ष राहुल बजाज, फोर्ब्‍स मार्शल कंपनी की रति फोर्ब्‍स, कनफेडरेशन ऑफ ब्रिटिया इंडस्‍ट्री के भारत में सलाहकार एम. रुनेकर्स, केंद्रीय प्रत्‍यक्ष कर बोर्ड के पूर्व अध्‍यक्ष सुधीर चंद्र समेत कुछ लोग शामिल हैं। यह संस्‍था भारत सरकार के कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय के साथ मिलकर सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्‍पॉन्सिबिलिटी) के क्षेत्र में काम करती है और कई दूसरी संस्‍थाओं को अपने परमर्श और प्रशिक्षण मुहैया कराती है। इसी संस्‍था ने 1 जुलाई 2010 को आइआइसी में ''कृषि संकट और किसानों की आत्‍महत्‍या'' विषय पर पी. साइनाथ का एक व्‍याख्‍यान रखवाया था।
पी. साइनाथ ने भविष्‍य में 'परी' की ओर से 50 फेलोशिप देने की भी बात कही है। अगर उपर्युक्‍त संस्‍थाएं 'परी' की प्रायोजक हैं, तो हो सकता है कि फेलोशिप में इन संस्‍थाओं का कुछ हाथ हो। यह स्‍पष्‍ट नहीं है कि इन संस्‍थाओं के साथ 'परी' का क्‍या और किस हद तक लेना-देना है। ऐसी संदिग्‍ध संस्‍थाओं के साथ ग्रामीण पत्रकारिता की सबसे अनोखी परियोजना का रिश्‍ता हो सकता है, और उस रिश्‍ते के क्‍या निहितार्थ हो सकते हैं, यह सिर्फ अटकल की बात है। एक बात हालांकि तय है कि ऐक्‍शन ऐड और सेव दि चिल्‍ड्रेन आदि इस देश में ग्रामीण पत्रकारिता करने-करवाने न आए थे, न ही उनका यह कोई उद्देश्‍य है। विदेशी अनुदान से, स्‍पष्‍टत: फोर्ड फाउंडेशन से अनुदानित स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं की सामाजिक-राजनीतिक भूमिका पर अब इस देश में कोई बहस नहीं रह गई है। यह बात खुलकर कई साल पहले सामने आ चुकी है कि ऐसी संस्‍थाएं जनता के असंतोष को प्रेशर कुकर की तरह बाहर निकालने का काम करती हैं। यह बहुत संभव है कि पी. साइनाथ की एक ग्रामीण पत्रकार के तौर प्रतिबद्धता और ईमानदारी इन आशंकाओं को निर्मूल करार देगी, लेकिन फिर भी एक सवाल बचा रह जाता है कि आखिर 'परी' की पॉलिटिक्‍स क्‍या है?
मैं 'परी' को लेकर बहुत उत्‍साहित था। अब भी हूं। यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। अब हो रहा है तो इसका स्‍वागत किया जाना चाहिए। हमें साइनाथ के हाथ मज़बूत करने चाहिए। मैंने भी और लोगों की तरह साइनाथ को कुछ तस्‍वीरें भेजी हैं। एक पिक्‍चर स्‍टोरी भेजी है। मैंने उनसे कहा है कि मेरे पास बहुत सामग्री है, मैं 'परी' को सब कुछ देना चाहूंगा जो उसके मैनडेट में आता हो। मैंने कहा कि मैं स्‍टोरी भी करना चाहूंगा। इतना सब कहते हुए हमने उनके उद्देश्‍य के बारे में सवाल भी पूछे। काफी बात हुई, लेकिन बात अब तक अधूरी है क्‍योंकि वे हमें शंकाओं के बीच छोड़कर चार महीने के लिए बाहर चले गए हैं। शायद वे व्‍यस्‍त होंगे क्‍योंकि मेरे पास उनको भेजे ई-मेल की पावती अब तक नहीं आई है। हम लोग हिंदी पट्टी के दरिद्र पत्रकार हैं। हमेशा अच्‍छा काम करने का मौका देने वाले की फिराक में रहते हैं। और साइनाथ तो पत्रकारिता के जौहरी हैं। उन्‍हें अच्‍छे-बुरे की परख है। हो सकता है वे हमें मौका दें। हो सकता है न भी दें। सवाल पूछना हमारा सनातन काम है। वो तो हम करते रहेंगे।
('हाशिया' से साभार)

क्लास रिपोर्टर/जयप्रकाश त्रिपाठी

प्रो. संजीव भानावत : कुल बाईस अध्यायों में प्रस्तुत 'क्लास रिपोर्टर' पत्रकारिता के छात्रों के लिए आधारभूत ग्रंथ है। इसमें मीडिया रिपोर्टिंग के विविध पक्षों को सविस्तार तथ्यात्मक सार्थकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक फिल्ड रिपोर्टिंग को सारगर्भित ढंग से विवेचित एवं विश्लेषित करती है।
संजय द्विवेदी : पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण कर्म है रिपोर्टिंग। सूचना की बहुतायत के बीच खबरें चुनना और उन्हें अपने लक्ष्य समूह के लिए प्रस्तुत करना साधारण कला नहीं है। 'क्लास रिपोर्टर' का मीडिया के छात्रों के लिए इसलिए विशेष उपयोग है कि यह सिर्फ अकादमिक आख्यान प्रस्तुत नहीं करती, सीधे रिपोर्टिंग के अलग-अलग क्षेत्रों पर संवाद करती है।
डॉ. ज्ञान प्रकाश पाण्डेय : महानगर से गांव तक आज आधुनिक मीडिया का कार्यक्षेत्र जितना व्यापक हो गया है, जर्नलिज्म के छात्रों एवं नये रिपोर्टरों के लिए उसकी तकनीकों एवं 'क्लास रिपोर्टर' में एक साथ संकलित जानकारियों से सुपरिचित होना कितना आवश्यक है, इसके अध्ययन से पता चलता है।

Friday 23 January 2015

एक दूसरे के लिए "सरकार" हैं मोदी और भागवत !/पुण्यप्रसून बाजपेयी

संघ परिवार से जो गलती वाजपेयी सरकार के दौर में हुई, वह गलती मोदी सरकार के दौर में नहीं होगी। जिन आर्थिक नीतियो को लेकर वाजपेयी सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया, उनसे कई कदम आगे मोदी सरकार बढ़ रही है लेकिन उसे कठघरे में खड़ा नहीं किया जायेगा। लेकिन मोदी सरकार का विरोध होगा। नीतियां राष्ट्रीय स्तर पर नहीं राज्य दर राज्य के तौर पर लागू होंगी। यानी सरकार और संघ परिवार के विरोधाभास को नियंत्रण करना ही आरएसएस का काम होगा। तो क्या मोदी सरकार के लिये संघ परिवार खुद को बदल रहा है। यह सवाल संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के भीतर के उन कार्यकर्ताओ का भी है, जिन्हें अभी तक लगता रहा कि आगे बढने का नियम सभी के लिये एक सरीखा होता है। एक तरफ संघ की विचारधारा दूसरी तरफ बीजेपी की राजनीतिक जीत और दोनों के बीच खड़े प्रधानमंत्री मोदी। और सवाल सिर्फ इतना कि राजनीतिक जीत जहां थमी वहां बीजेपी के भीतर के उबाल को थामेगा कौन। और जहां आर्थिक नीतियों ने संघ के संगठनों का जनाधार खत्म करना शुरु किया, वहां संघ की फिलासफी यानी "रबर को इतना मत खींचो की वह टूट जाये", यह समझेगा कौन। मोदी सरकार को लेकर यह हालात कैसे चैक एंड बैंलेंस कर रहे हैं, इसके लिये दिल्ली चुनाव के फैसले का इंतजार कर रहे बीजेपी के ही कद्दावर और धुरंधर नेताओं को टटोल कर भी समझा जा सकता है और भारतीय मजदूर संघ से लेकर किसान संघ और बीजेपी को सांगठनिक तौर पर संभालने वाले खांटी स्वयंसेवकों से बातचीत कर भी समझा जा सकता है, जिनकी एक सांस में संघ तो दूसरी सांस में बीजेपी समायी हुई है। असल में हर किसी का अंतर्विरोध ही हालात संभाले हुये है या कहें मोदी सरकार के लिये तुरुप का पत्ता बना हुआ है। लेकिन जादुई छड़ी प्रधानमंत्री मोदी के पास रहेगी या सरसंघचालक मोहन भागवत के पास यह समझना कम दिलचस्प नहीं। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी को भागवत भी चाहिये और भगवती भी। दिल्ली के लिये संघ परिवार भी चाहिये और संघ परिवार पर निशाना साधने वाले शांति भूषण भी चाहिये। वहीं भागवत को संघ की विचारधारा पर चलते हुये सत्ता के लिये मोदी भी चाहिये और विरोध करने वाले संगठनों का साथ भी। जिसमें संघ की विचारधारा के अनुसार ही भारत हिन्दू राष्ट्र की तरफ कदम बढाये उसके बाद चाहे सत्ता संघर्ष के लिये संघ को राजनीतिक तौर पर सक्रिय होने की जरुरत नहीं पड़ेगी। ध्यान दें तो मौजूदा वक्त में मोदी सरकार के किसी भी मंत्री से ज्यादा तवोज्जो उसी के मंत्रालय पर पीएम मोदी के बोलने को दिया जाता है। जिसका असर यह भी हो चला है कि पीएम कुछ भी कही भी बोले उसका एक महत्व माना जाता है और मंत्री अपने ही मंत्रालय के बारे में कितने बड़े फैसले ही क्यों ना ले ले वह पीएम के एक बयान के सामने महत्वहीन हो जाता है। गुरु गोलवरकर के बाद कुछ यही परिस्थितियां संघ परिवार के भीतर भी बन चुकी हैं। संघ के मुखिया ही हर दिन देश के किसी ना किसी हिस्से में कुछ कहते है, जिन पर सभी की नजर होती है । लेकिन संघ के संगठनों के मुखिया कही भी कुछ कहते है तो उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
असर इसी का है कि जगदीश भगवती मोदी की पीठ ठोंकते है और भागवत से डराते हैं। शांति भूषण किरण बेदी के जरीये मोदी के मास्टरस्ट्रोक की पीठ ठोंकते है लेकिन मुस्लिम मुद्दे पर संघ से मोदी को डराते हैं। ऐसे में तलवार की धार पर सरकार चल रही है या संघ परिवार यह सत्ता के खेल में वाकई दिलचस्प है। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों को लागू कराने के तरीके संघ के स्वयंसेवकों की तर्ज पर है और सरसंघचालक की टिप्पणियां नीतिगत फैसले के तर्ज पर हैं। इसीलिये बीते आठ महिनों को लेकर जो भी बहस सरकार के मद्देनजर हो रही है, उसमें प्रधानमंत्री का हर एलान तो शानदार है लेकिन उसे लागू नौकरशाही को करना है और नौकरशाही स्वयंसेवकों की टीम नहीं होती इसे कोई समझ नहीं पा रहा है। नौकरशाही में सुधार सिर्फ वक्त पर आने और जाने से हो जायेगा यह भी संभव नहीं है। सिर्फ बैंक के हालात को ही परख लें तो तो मौजूदा वक्त में औसतन हर बैंक कर्मचारी को हर दिन दो सौ ग्राहक का सामना करना पड़ता है। हर ग्राहक को तीन मिनट देने का मतलब है दस घंटे । वहीं स्वयंसेवक की तादाद सामूहिक तौर पर काम करती है। यानी जिनके बीच स्वयंसेवक काम करने जाता है उन्हें ही, स्वयंसेवक बना लेता है। ऐसे में जनधन योजना हो या फिर सरकार की कोई भी योजना जो समूचे देश के लिये हो उसे परखे तो समझ में येगा कि नौकरशाही के जरीये सरकार काम कराना चाहती है या नौकरशाही स्वयंसेवक होकर काम करने लगे। जनधन योजना से बैंकिंग कर्मचारी
परेशान है कि बैंक संभाले या खाते खोलें। यह हालात आने वाले वक्त में सरकार के लिये घातक साबित हो सकते है। वहीं दूसरी तरफ संघ के मुखिया सरकार की तर्ज पर चल पड़े हैं। मसलन भारतीय मजदूर संघ को इजाजत है कि वह मोदी सरकार की मजदूर विरोधी नीतियो का विरोध करे। क्योंकि सरसंघचालक इस सच को समझते हैं कि देश भर में अगर 60 हजार शाखायें लगती हैं तो उनकी सफलता की बड़ी वजह भारतीय मजदूर संघ से जुड़े एक करोड़ कामगार भी हैं। जो ना सिर्फ शाखाओं में शरीक होते है बल्कि बरसात में संघ की शाखा के आयोजन से लेकर संघ के किसी भी कार्यक्रम के लिये में बिना पैसा लिये बीएमएस का दफ्तर या हाल उपलब्ध करा देते हैं। जो बीएमएस कॉपरेटिव से जुडा होता है। वही किसान संघ हो या आदिवासी कल्याण संघ, दोनों की मौजूदगी ग्रामीण भारत में संग परिवार को विस्तार देती है। और इस तरह चालीस से ज्यादा संगठनों का रास्ता केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों पर कई गुना ज्यादा भारी है। लेकिन मुश्किल यह है कि स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को विस्तार देने में लगे हैं। और मोदी सरकार की नीतियों का ऐलान संघ के सपनों के भारत की तर्ज पर हो रहा है जिसमें नौकरशाही फिट बैठती ही नहीं है। गंगा सफाई के लिये टेक्नालाजी और इंजीनियरिंग की टीम चाहिये या श्रद्दा के फूल। जो गंगा माता कहकर गांगा को गंदा ना कहने पर जोर दें। बिजली खपत कम करने के लिये एलईडी बल्ब सस्ते में उपलब्ध कराने से काम होगा या सोशल इंडेक्स लागू करने से। दुनिया के किसी भी देश में एलईडी बल्ब के जरीये बिजली खपत कम ना हुई है और ना ही एलईडी बल्ब का फार्मूला किसी भी विकसित देश तक के रिहाइशी इलाकों में सफल है।
भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देश में तो असंभव है मुश्किल यह है कि प्रधानमंत्री की नीयत खराब नहीं है बल्कि नरेन्द्र मोदी देश को स्वयंसेवकों की टोली के जरीये ही देश के बिगड़े हालात पर नियंत्रण करना चाह रहे हैं। और स्वयंसेवकों को पीएम का फार्मूला इसलिये रास नहीं आ सकता क्योंकि समूचा विकास ही उस पूंजी पर टिकाया जा रहा है जिस पूंजी के आसरे विकास हो भी सकता है इसकी कोई ट्रेनिंग किसी स्वयंसेवक को नहीं है। ट्रेनिंग ही नहीं बल्कि जिस वातावरण में संघ परिवार की मौजूदगी है या संघ परिवार जिन क्षेत्रो में काम कर रहा है, वहां विकास का सवाल तो अब भी सपने की तरह है। वहां तो न्यूनतम की लड़ाई है। पीने का साफ पानी तो दूर दो जून की रोटी का जुगाड़ तक मुशिकल है। स्कूल, स्वास्थ्य सेवा या पक्का मकान का तो सपना भी नहीं देका जा सकता। वैसे भी लुटियन्स की दिल्ली छोड़ दीजिये या फिर देश के उन सौ शहरों को जिन्हे स्मार्ट शहर बनाने का सपना प्रधानमंत्री ने पाला है। इसके इतर देश में हर तीसरा व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे है। सिर्फ पांच फिसदी लोगों के पास 78 फिसदी संसाधन है। बाकी 95 फिसदी 22 फिसदी संसाधन पर जी रहा है। उसमें भी 80 फीसदी के पास देश का महज 5 फिसदी संसाधन है। यानी संघ परिवार जिन हालातों में काम कर रहा है और मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां जिस तबके के लिये एलान की जा रही है, वह ना सिर्फ संघ की विचारधारा से दूर है बल्कि देश के हालातो से भी दूर है। यहां मुश्किल राजनीति शून्यता की भी है और संघ के
राजनीतिक सक्रियता के बावजूद देश में सामाजिक असमानता बढाने वाली नीतियों पर खामोश रहने की भी है। तो फिर रास्ता अंधेरी गली तरफ जा रहा है या फिर देश को एक खतरनाक हालात की तरफ ले जाया जा रहा है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण हो चला है संघ अब वाजपेयी सरकार की तर्ज पर मोदी सरकार को परख नहीं रहा और वाजपेयी सरकार के बाद भी कोई राजनीतिक पार्टी या नेता देश में है इसे मोदी सरकार के वक्त देश में
दिखायी भी दे नहीं रहा है। याद कीजिये वाजपेयी सरकार के दौर में रज्जू भैया ने संघ के तमाम संगठनों पर नकेल कसी थी। लेकिन जब आर्थिक नीतियों को लेकर विरोध शुरु हुआ तो 2004 के चुनाव में संघ परिवार राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय हो गया। अरबों खर्च करने के बाद भी शाइनिंग इंडिया अंधेरे में समा गया क्योंकि देश अंधेरे में था। लेकिन 2015 में अगर हालात को परखें तो मोहन भागवत ने संघ के तमाम संगठनों को छूट दे रखी है कि वह अपनी बात कहते रहे।
मोदी सरकार की नीतियों पर विरोध जताते रहे। क्योंकि संघ को राजनीतिक तौर सक्रिय रखना दिल्ली की जरुरत है और दिल्ली के जरीये संघ को विस्तार मिले यह संघ की रणनीतिक जरुरत है। मोदी आस बनकर चमक रहे है क्योंकि कारपोरेट की पूंजी पर संघ की विचारधारा का लेप था। और राजनीतिक अंधेरगर्दी के खिलाफ देश में अनुगूंज है। नया संकट यह भी है कि 2004 में जिन राजनीतिक दलों या नेताओं को लेकर आस थी 2015 में उसी आस की कोई साख बच नहीं रही। कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर क्षत्रप नये युवा भारत से इनका कोई सरोकार है नहीं और पुराने भारत से संपर्क कट चुका है। शायद इसीलिये मौजूदा वक्त में सबसे बडा सवाल यही है कि अगर बीजेपी के चुनावी जीत का सिलसिला थमता है या फिर मोदी सरकार के आईने में संघ परिवार की विचारधारा कुंद पडती है तो मोदी सरकार और संघ परिवार के बीच सेफ पैसेज देने का सिलसिला क्या गुल खिलायेगा। क्योंकि अंदरुनी सच यही है कि सेफ पैसेज की बिसात पर प्यादे बने नेता हों या स्वयंसेवक वक्त का इंतजार वह भी कर रहे हैं और अंधेरे से उजाले में आने का इंतजार देश का बहुसंख्यक तबका भी कर रहा है।
(पुण्यप्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार)

सर्वे 'आजतक' : दिल्ली की पहली पसंद केजरीवाल

आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी, लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि पॉपुलैरिटी के मामले में 'आम आदमी' केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी आगे निकल गए हैं. इंडिया टुडे-सिसरो के सर्वे में ये सब बातें सामने आयी हैं.
पिछले साल 49 दिन तक दिल्ली की सत्ता संभालने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पॉपुलैरिटी के मामले में किरण बेदी से आगे हैं. गौरतलब है कि बीजेपी ने किरण बेदी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है. मुख्यमंत्री के तौर पर दिल्ली के लोगों की पहली पसंद केजरीवाल हैं और दूसरे नंबर पर किरण बेदी ही हैं. एक और चौंकाने वाली बात ये है कि इस मामले में किरण बेदी ने बीजेपी के सभी पुराने धुरंधरों को पछाड़ दिया है.
इसी हफ्ते के शुरू में हुए इंडिया टुडे-सिसरो पोल में दिल्ली के 41 फीसदी लोग आम आदमी पार्टी के संयोजक को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं, जबकि किरण बेदी को 38 फीसदी लोग पसंद करते हैं. लेकिन इस रेस में कांग्रेस बहुत पीछे है और दिल्ली चुनाव में उनके चेहरे अजय माकन को सिर्फ 12 फीसदी लोग ही मुख्यमंत्री के तौर पर देखते हैं.
बीजेपी में किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने पर लोगों की मिलीजुली राय देखने को मिली. जहां 43 फीसदी लोगों को यह फैसला सही लगा वहीं 44 फीसदी लोगों का मानना है कि किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना गलत है. इस सर्वे में भाग लेने वाले आधे से ज्यादा लोगों का मानना है कि चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार वोट खींचने में अहम भूमिका निभाता है, जबकि पार्टी के नाम पर सिर्फ 23 फीसदी वोट मिलते हैं.
केजरीवाल पर दिल्ली का दिल
दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के बारे में भी दिल्ली की जनता से कई सवाल किए गए. हाल ही में दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने केजरीवाल को भगोड़ा कहा था, लेकिन दिल्ली की जनता ऐसा नहीं मानती है. दिल्ली के सिर्फ 30 फीसदी लोग उन्हें भगोड़ा और मात्र 14 प्रतिशत लोग उन्हें अराजक समझते हैं. जब लोगों से पूछा गया कि मोदी के कहने के अनुसार क्या केजरीवाल को जंगल में जाकर नक्सलियों के साथ रहना चाहिए तो आश्चर्यजनक रूप से 44 फीसदी लोगों ने हां में जवाब दिया, जबकि 34 फीसदी लोगों को लगता है कि प्रधानमंत्री को ऐसा बयान नहीं देना चाहिए था.
हालांकि पिछले साल 49 दिन में ही सरकार से इस्तीफा देने के कारण केजरीवाल की हमेशा आलोचना होती है. और केजरीवाल खुद भी इसे अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी गलती मानते हैं, लेकिन उनके लिए राहत की बात ये है कि दिल्ली के करीब 50 फीसदी वोटर उन्हें पसंद करते हैं. 25 फीसदी लोग उन्हें करिश्माई नेता मानते हैं, जबकि 22 फीसदी लोग राजनीतिक नेता.
किरण बेदी पर दिल्ली की राय
आनन-फानन में किरण बेदी को बीजेपी में शामिल किए जाने पर दिल्ली के 37 फीसदी वोटरों का मानना है कि उन्हें केजरीवाल की काट के तौर पर पार्टी में शामिल किया गया है. हर चुनाव में मोदी के चेहरे को सामने रखकर वोट मांगने और दिल्ली में किरण बेदी को सीएम उम्मीदवार घोषित करने को भी दिल्ली के वोटर बीजेपी की रणनीति में बदलाव के तौर पर देखते हैं. कम से कम 12 फीसदी लोगों का मानना है कि इस बार बीजेपी को भी मोदी लहर पर भरोसा नहीं है.
जब लोगों से पूछा गया कि क्या बीजेपी के लिए किरण बेदी स्वभाविक चुनाव हैं तो 28 फीसदी लोगों ने हां में जवाब दिया. 13 फीसदी लोगों को लगता है कि दिल्ली में बीजेपी के पास कोई चेहरा ही नहीं था. दिल्ली के 65 फीसदी वोटरों का मानना है कि किरण बेदी ने बीजेपी में शामिल होकर सही किया.
(आजतक से साभार)

Thursday 22 January 2015

एक टीवी एंकर पर लघु शोध प्रबंध/शुभम श्री

(मसलन रवीश कुमार के साहित्य में मीडिया चेतना अथवा रवीश कुमार: भाषा एवं सृजन कर्म)
पटना में भी अलबत्त लोग मिलेंगे । सीधे पूछिए, टेढ़ा बताएंगे । टेढ़ा पूछिए, माथा पर चढ़ के नाचने लगेंगे, मने ननिहाल को दें कि ददिहाल को, सात पुश्त को गरियाएंगे जरूर । जैसे कि आप पूछिए “बेली रोड कहां है ?”  “हम्मर कपार पर ।” “चिड़ैयांखाना केन्ने है हो ?” “हम आमदी बुझाते है कि जेनावर”, “अरे पहिले चिड़ैयांखाना न बताइए”, “नहीं पहिले आप किलियर किजिए आमदी कि जेनावर ।” मतलब अकच्च कर देगे एकदम से । अपने मन से किसी के लिए दो शब्द बढ़िया भले नहीं निकले, दूसरा कोई उरेब बोल दे, फिर देखिए । “अरे बिहार में कहां कोई हीरो हुआ है जी ।“ “हुआ नहीं है आंय । सतरूघ्घन सीन्हा, मनोज बाजपेई का है ।“ “भक्क मनोज बाजपेई हीरो थोड़े हुआ, उ तो सिनेमा में एक्टींग करता है । हीरे मने अमिताबच्चन, सारुक्खान, सन्नी दिओल ।“ “का बात करते है मर्दे । साला सतरूघ्घन सीन्हा बोलता है तो हिला देता है । ब्बात करते हैं ।“ आप नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर लीजिए, कदमकुंआ में आपके पड़ोसी कहेंगे, आही रे दादा, उ चसमुलवा के नोबेल भेट गेलई । एहिजे खेलत रहल हलई । जिसको ठीक से बुझाया नहीं कि आप किए क्या हैं, का जनी कौची करत हलई दिल्ली में, अच्छा पइसा कमाब हई । ऐसे सीन में कुछ लोग गर्दा करने वाले भी होते हैं । जनले कि न, उ नटुलिया के भइबा एसएससी कर गेलऊ । इनकम टेक्स भेतटई सीधे । रेलवे, एसएससी, बेंक पीओ माने गर्दा । बीपीएससी चाहे यूपीएससी तहलका । आइआइटी मने उ सब एभरेज माइंड नहीं न है जी ।
इ सब भूमिका है थोड़ा । छोटू मामा के अनुसार तूम कमीसन में गायरेंटीड फेलियर । टू द पवांइट बोलो, एन्ने ओन्ने मत लसको । लेकिन लसकना परता है । पिछले साल पटना गए तो गप चला कौन क्या, कहां । गुड्डू मामा बताने लगे कि पटना केतना एडभांस हो गया है, फलाई ओभर बन रहा है, उसी में चर्चा चला । अरे इ रबीस कुमार तो गजब नाम कमाया । हां उनका रिपोर्ट बहुत अच्छा होता है । उसको पराइम टाइम न दे दिया जी । तुम समझे नहीं, उ सब रिपोटर रैंक से बहूत उप्पर चल गया की । हम त कहलिक मारले हई जमा कर के । अ जानित हें, अइसेंही बोल हई । हां मामाजी । फिर मामाजी को फील हो गया कि अब रिवर्स गियर में जाना चाहिए । अरे इ लोग तो हम लोग के सामने आया है । उ तो एहिजे साइकिल चलाते रहता था । बंगाली से न सादी किया है ।
कौन जात हई, केकरा से बियाह करले हई, ये कांसटेट वेरियेबल है हर किसी के लिए । ऐसा नहीं था कि पहले बिहार में कम पत्रकार हुए थे लेकिन रवीश कुमार के फेनोमेनन को, फेनोमेनन कहना ज्यादा सही होगा, अलग तरह से देखने की जरूरत है । बिहार में लंबे समय से चल रहे पलायन के इतिहास को देखें तो भोजपुर क्षेत्र से दूर दराज नौकरी की तलाश में गए लोगों की दास्तान मौजूद है । कलकत्ता से लेकर आसाम तक बिहार के मजदूर फैले हुए थे । फिर यह चलन पंजाब, हरयाणा की ओर हुआ । लेकिन नब्बे के बाद पहली बार बड़ी संख्या में बिहार से विद्यार्थियों ने पलायन करना शुरू किया । इसकी एक वजह में बिहार में शिक्षा व्यवस्था का अपंग हो जाना था, दूसरी वजह नौकरी की जरूरत थी । जिनके पास जमीनें थीं, उन पर कब्जा हो रहा था, फसल कटाई के लिए पुलिस बुलानी पड़ रही थी । ले देकर गांव देहात के विद्यार्थियों के लिए एक ठिकाना था पटना लेकिन पटना में महेन्द्रू घाट या बहादुरपुर के लॉज में रहकर एक के बाद एक अटेंप्ट देते छात्रों के लिए दो रास्ते थे, परीक्षा में सेटिंग कराना, पैरवी चलवाना और कुछ ले देकर नौकरी पा लेना वरना प्राइवेट । प्राइवेट की मजबूरी में बड़ी संख्या ने दिल्ली का रुख किया । इसमें एक वर्ग उन छात्रों का था जो तैयारी के लिए पटना के बजाय दिल्ली जाने लगे । ये वो लोग थे जो सो कॉल्ड कमीसन मेटेरियल माने जाते थे ।
अच्छे विद्यार्थी की एक ही निशानी थी- मैथ ठोस । इंग्लिस ठोस का मतलब था ट्रांसलेसन बनाना । जिसने नवोदय निकाला वो अच्छा, सैनिक निकाला वो साइनिंग और जो नेतरहाट कर गया वो क्रीम । इस पैमाने पर चक्रवर्ती ब्याज गणित, रेपीडेक्स, रिजनिंग तीनों घोल कर पी जाने वाले आते थे । लेकिन नेतरहाट क्रैक करने वाले क्रीम तक के लिए इंग्लिस ठोस मतलब ट्रांसलेसन ही था । फर्राटा इंग्लिस वो दुखती रग थी जिसकी कमी पहली बार दिल्ली जाने वालों ने महसूस की । प्राइवेट नौकरियों के लिए बाहर निकले लोगों ने अपने घरों में इस जरूरत को महसूस कराया कि इंग्लिस मीडियम फोकस और फूस फास नहीं है । मैथ में भुसगोल चलेगा, अंग्रेजी कमजोर नहीं चलेगा । हिन्दी माध्यम से पढ़े छात्रों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही थी । चुनोती तो खैर शुद्ध हिंदी बोलना भी थी । शुद्ध मतलब बिना दरभंगा, आरा, छपरा, बेगूसराय के टोन के । हम औयेंगे नै तब तुम जांनां । उ लरका गिड़ गया । वैं उठने नय सका । हम नय जाएंगे । बहुत कोशिश के बाद, नियम कानून बनाने के बाद भी मुंह से रिक्सा निकल जाता था, नय नहीं बंद हो पाता, र ड़ की उलझन तो खैर थी ही । इसलिए पुण्य प्रसून वाजपेयी की नकल का जब क्रेज चला तो नई उमर के लड़के कॉपी मोडडकर कोशिश करते- नमस्कार मैं हूं पुन्य परसून बाजपेई । पुण्य प्रसून मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था । ये नब्बे का आखिरी दौर रहा होगा । जब दिल्ली से लौट कर आने वाले मजदूर फर्राटेदार मैं, मेरे को झाड़ने लगे । यह मध्यवर्गीय घरों के लिए शॉक था । पटना के ऊपरी आमदनी युक्त घरों में मार काट मचा कर माइकल, जोसेफ, नेटरोडम के लिए हात पांव मारे जाने लगे । इसी दौर में घरों में नियम बनाए जाने लगे कि पढ़ने के समय इंग्लिस में बात करना है, फ्लो बनेगा । पापा से इंग्लिस में बात करना है, कोई आया तो इंग्लिस बोलना है । इंग्लिस वर्ड यूज करन है । इस नाजी शासन की मार में आंय और काहे बोलने से तौबा नहीं कर पाने वालों की भारी कुटाई हुई ।
पटना का वो तबका जो एलीट था, जिनकी पहुंच थी यानी जिनके यहां सेंट माइकेल और सेंट जोसेफ के बाद वीमेंस कॉलेज या साइंस कॉलेज जाने का रिवाज था उसके नीचे पटना के मध्यवर्ग और बाबू समुदाय ही नहीं बिहार भर में बाहर निकलने की लहर चल चुकी थी । बी.एड कॉलेज लालू यादव ने बंद करा दिए थे, बीपीएससी में खुल कर धांधली चल रही थी, उपाय नहीं था । बाहर निकलने का रास्ता था इंग्लिस और टोन से निजात पाना । दोनों ही मुश्किल था ।
रवीश कुमार बिहार के उन ब्यूरोक्रेट या जमींदार परिवारों से नहीं है जिनके लिए आम लोग कहें कि उनका छोडिए ना । रवीश कुमार का प्राइम टाइम में आना उस आहत बिहारी के लिए इगो बूस्टर है जो आंय और काहे से निजात नहीं पा सका । कोई हमारे जैसा, रलवे, बैंक, कमीसन बिरादरी का, जो टीवी में आ गया । यह आपसी रिश्ता है जिसके कारण पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा का कोई भी चौड़ाई लेकर आपको नोएडा फिल्म सिटी में डॉयलॉग मारता मिल जाएगा । अरे उ तो अपना आदमी है । रबीस कुमार को नही जानते हैं, अरे उ जो अएंकर है ।
इस पहचना को बनाने में टीवी ने बड़ी भऊमिका निभाई । बेरोजगारी के जिस दौर में क्रीम स्टूडेंट बाहर निकल रहे थे, उसी दौर में लंबी बेरोजगारी से त्रस्त होकर कई लोग केबल के धंधे में उतर रहे थे । जिनके घरों में कभी अखबार नहीं आया, उनके यहां केबल आया । जिनकी रंगीन टीवी खरीदने की औकात नहीं थी, उनके यहां भी टीवी आया क्योंकि उस दौर में लगभग हर दहेज में हीरो होंडा मोटरसाइकिल और रंगीन टीवी दिए गए । इतिहास में दर्ज होना चाहिए कि भारतीय औरतों ने रंगीन टीवी के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी दी । कितनी बहुओं की हत्याएं रंगीन टीवी के कारण हुईं, यह आंकड़ों में दर्ज है । यही दौर था जब रोहतास में बीडीओ देवरानी को स्टार प्लस देखने वाली क्लर्क जेठानी डाउन मार्केट समझने लगी । बीडीओ और क्लर्क जाहिर है उऩके पति थे लेकिन उस नाते वह खुद को उसी रेंक का मानती थीं । टीवी मध्यवर्गीय घरों में एक एलीट सदस्य था । वह दूसरी भाषा बोलता था, वह दूरदर्शन के कृषि दर्शन से आगे बढ़ कर चमकदार हो गया था । संजीव कपूर के कुकरी शो से कद्दूकस को ग्रेट करना, छीलने को पील करना और मेरिनेट करना सीख कर बी.एन मंडल से फर्स्ट डिवीडन दीदियां अपनी धाक जमाने लगीं और खुद को वीमेस कॉलेज की ग्रेजुएट बताने लगीं । टीवी अपने साथ आत्म विश्वास लाया । अब सरस सलिल की क्लीवेज दिखाती कवर पेज वाली लड़की, सेक्सोलॉजी दर्पण या ब्लू फिल्म का घिर घिर करने वाला वीसीआर नहीं था । अब फैशन टीवी था जहां बिकनी पहन कर मॉडल चलती थीं । नंगी औरतों का तूफान आ गया था, दुनिया बदल गई थी ।
ये दुनिया दिन रात आंखों के सामने थी, यह लालसा थी, मध्यवर्ग टीवी की गिऱफ्त में था । टीवी नीचे पहुंच रहा था । वह मिट्टी के घरों का रुख कर रहा था । चार पांच साल पहले की बात होगी । बासुकीनाथ-देवघर रोड पर आदिवासी घर था । दादी लगातार गाली देती जा रही थी और अपनी पोती को बुलाती जा रही थी । सात फेरे शुरू होने वाला था और पोती गायब । अंत में उस औरत ने अपनी चाय की दुकान में बैठी बोल बम औरतों से सात फेरे देखने की पेशकश की ताकि वे उसे नाहर और सलोनी के डॉयलॉग ठीक ठीक समझा सकें । टीवी ने उन युवाओं को सुविधा दी कि वे रेपीडेक्स और ट्रांसलेसन के चक्कर में पीछे रह गए फ्लो को आगे बढ़ाएं । उनके पास हर्षा भोगले था जो समझ में आता था ।
उस टीवी पर अपनी बिरादरी से निकल कर किसी को देखना, जिसने न टोन ठीक किया, न अंग्रेजी, हीनभावना से ग्रस्त, असफलता से आक्रांत बिहारी के लिए खुद को देखना था, यह उसकी जीत थी । जैसे सचिन का शतक भारतीय अहम के लिए आत्मविश्वास का सबब था । सचिन जैसे तैसे होना नहीं, बेस्ट होना था, और वह भारतीयों के लिए खुद को बेस्ट समझने का सबब था । रवीश कुमार और उन जैसे कई लोगों ने अपनी पहचान कुछ इस तरह बनाई कि अंग्रेजीदां तबकों में कुछ ऐसे परिचय दिया जाने लगा कि अंग्रेजी उनकी कमजोर है पर हिन्दी में बेहतरीन लिखते हैं । यह हिन्दी माध्यम का धारा के विपरीत तैरना था । धारा को बदलने का काम टीवी ने किया । जैसे धारा को बदलने का काम इंटरनेट कर रहा है । भदेस होना स्टाइल हो गया, वह हम्बल और रूटेड होना हो गया । कुछ तो सबआल्टर्न की इज्जत बचाने में बुद्धिजीवी इंपोरियम का गमछा टांग कर घूमने लगे, देसी भाषा बोलने लगे, कुछ उन लोगों ने भदेस को स्टेटमेंट बनाया जिन्होंने सत्ता में समीकरण बदला और अंग्रेजीदां, एलीट वर्चस्व को तोड़ कर खुद को खड़ा किया ।
रवीश कुमार ने पत्रकारिता में वैसा ही स्टेटमेंट खड़ा किया । आप किसी भी आम आदमी से पूछिए, वो रवीश कुमार को जानता है, पी. साईनाथ को नहीं जानता । यह अंतर इसलिए है क्योंकि नीचे के पांच प्रतिशत की बात आप ऊपर के पांच प्रतिशत की भाषा में कहते हैं । इसलिए वही आपको नहीं जानते जिनकी आप बात करते हैं । दुर्भाग्य से भारतीय बुद्धिजीवियों का यही अभिशाप है कि जीवन भर जिनके लिए लिखा, सोचा वही उन्हें नहीं जानते । खैर उन महीन मुद्दों पर बात करने की अपन की औकात नहीं फिलहाल । तो रवीश की रिपोर्ट ने पहली बार टीवी पर उस भाषा को गंभीर रिपोर्ट के लिए इस्तेमाल किया जो बॉलीवुड या छोटे पर्दे पर सिर्फ कॉमेडी के लिए इस्तेमाल होती थी । यह शुद्ध हिंदी नहीं थी, यह टोनरहित भाषा नहीं थी । एलीट एंकर की काया में, न्यूजरूम में पहली बार एक मध्यवर्गीय आत्मविश्वास ने प्रवेश किया था । यह वो क्रीम बच्चा नहीं था जो टप से पनरह पचे पछोतर से बोलना चाहे पर फिफ्टीन फाइव जा सेवेंटी फाइव की हिचक में चुप रह जाए, दब जाए ।
भारतीय न्यूज चैनल पर अफसोस कि ऐसे उदाहरण अपवाद रह गए । अलग अलग जगहों से, अलग अलग भाषाओं की टोन लिए, अलग अलग जातियों के लोग स्क्रीन का समीकरण पूरी तरह बदलने नहीं आ सके । उसकी जगह महंगे मीडिया स्कूलों के अधकचरे ट्रेनी और इंटर्न ने ले ली । जो डिफरेंट है वो एक समय तक ही डिफरेंट रहता है, फिर वो मेनस्ट्रीम हो जाता है, सत्ता खुद में उसे जज्ब कर लेती है । जैसे रवीश कुमार सेलिब्रेटी बनते गए, वे लिखें शुक्रिया या वाह तो उस पर भी पचास लाइक । लेकिन रवीश की रिपोर्ट बंद हो गई । क्रांति करने के लिए आपके हाथ पैर बंधे हुए हैं । यह हिन्दी पब्लिक स्फीयर का अनिवार्य गुण है । वह आपको देवता बनाकर पूजेगा भी और मां-बहन की गाली भी देगा लेकिन वह आपको स्पेस नहीं देगा, वह आपको विकसित होने का मौका नहीं देगा । यह ब्रांड वैल्यू और ग्लैमर का दौर है । एनडीटीवी आपको पहचान देगी, काम को नहीं । जैसे रवीश की रिपोर्ट बंद होने के बाद दिल्ली मेट्रो में बड़े बड़े होर्डिंग लगे, भारत का नं 1 एंकर, प्राइम टाइम । प्राइम टाइम की बहस, उसका कंटेट सीन से बाहर । व्यक्ति को प्रोजेक्ट करना मार्केटिंग की पहली स्ट्रैटेडी होती है क्योंकि विचारधारा उसके पीछे छुप जाती है । जैसे मोदी के पीछे भाजपा और संघ छुप गए, केजरीवाल के पीछे आप की विचारधारा छुप गई । विचारधारा पर बात करना, उसे समझना मुश्किल होता है, कोई दिमाग नहीं लगाना चाहता । इंसान को आगे कीजिए, सब आसान हो जाएगा । उसकी निजी जिंदगी, उसका रहन सहन, बोल चाल, चीजें आसान हो जाती हैं । मीडिया पत्रकार को खत्म कर के सेलिब्रेटी की स्थापना करता है । यही सबसे बड़ी ट्रैजिडी है ।
हम कस्बा पर लिखने के लिए लिखना सुरु किए थे और भयानक डेविएट हो गए हैं । इसलिए अब पकाऊ हो जाएगा लेकिन हम बाज नहीं आएंगे ।
('हाशिया' से साभार)

Wednesday 21 January 2015

पढ़ते-सुनते-देखते हुए

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को पढ़ते-सुनते-देखते हुए कई सवाल जेहन में कौंध रहे हैं। मसलन कि इस कथित साहित्य महोत्सव में कितना साहित्य, कितनी सियासत, कितना मनोरंजन, किसका साहित्य, कैसा साहित्य आदि-आदि!
उत्सव में पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज की बेटी सलीमा हाशमी भी शिरकत कर रही हैं और अभिनेता गिरीश कर्नाड, वहीदा रहमान आदि भी। फेस्टिवल के पहले दिन उद्‌घाटन के दौरान साहित्य के सियासी रंग भी, सीएम वसुंधरा राजे, जावेद अख्तर और शबाना आजमी ।
जावेद-शबाना के हाथ में राजे का हाथ। इस दौरान ऎड गुरू और गीतकार प्रसून जोशी ने बताया कि वह पीएम नरेंद्र मोदी को वह क्यों पसंद करते हैं और उनके कुछ अभियानों से वह क्यों जुडे हैं। उन्होंने कहा कि पीएम नरेंद्र मोदी राजनीति सही दिशा में जा रही है इसलिए वे उनके कुछ अभियानों से जुडे हैं और उनके प्रचार अभियान में काम किया है। जोशी का कहना था कि `गंदी बात` जैसे शब्दों के इस्तेमाल से बनने वाले गानों के पीछे लोगो की पसंद नहीं बल्कि लेखको की गलती है। जावेद अख्तर का कहना था कि "गंदी बात` जैसे शब्दों का प्रयोग इसलिए किया जाने लगा है क्योंकि आज लोग वही सुनना चाहते हैं। भले ही ऎसे गाने ज्यादा दिनों तक लोगों की जुबां पर नहीं रहते, लेकिन फिर भी लेखक उन्हें लिखने के लिए मजबूर हैं।
"सेवन डेडली सिन्स इन अवर टाइम" सेशन में इमिर मैकब्राइड का कहना था कि वर्तमान में धर्म से जुड़े इंस्टीट्यूशंस ज्यादा हिंसक हो गए हैं। 

Tuesday 20 January 2015

क्रांति-क्रांति कुर्सी

क्या कहें, क्रांति-क्रांति कुदराते सियासी मैराथन में कूद पड़े बूढ़े अन्ना के दोनो पट्ट शिष्य...
तो सीएम बने उनमें जो भी,
क्या मानें कि हजार हाथो वाले हजारे के दोनो हाथ खाली या दोनो हाथ लड्डू!
और तब से आज तक छली जा रही जनता के हाथ बाबा जी का ठुल्लू....



Monday 19 January 2015

मुरुगन पुनरुज्जीवित होंगे/प्रणय कृष्ण


तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन ने 14 जनवरी को फेसबुक पर लिखा, "लेखक पेरूमल मुरुगन मर गया. वह भगवान नहीं है, लिहाजा वह खुद को पुनरुज्जीवित नहीं कर सकता. वह पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं करता. आगे से, पेरूमल मुरुगन सिर्फ एक अध्यापक के बतौर ज़िंदा रहेगा, जो वह हरदम रहा है." अब तक मुरुगन के खिलाफ धर्म और जाति के स्वयंभू ठेकेदारों से लेकर उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक़ में आवाज़ उठाने वाले लोगों ने लाखों शब्द व्यय किए होंगे, लेकिन लेखक की पीड़ित अंतरात्मा की यह तीन पंक्तियां सब पर भारी हैं. लेखक मर गया, लेकिन 2015 के हिन्दुस्तान के राज और समाज की हिंसक दयनीयता जी रही है. मुरुगन का वक्तव्य ऐसे वक्त पर टिप्पणी है जिसमें जनता की वंचनाओं और हाहाकार को एक सामूहिक पागलपन की ओर मोड़ देने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं. अतीत की रमणीय कपोल-कल्पनाओं और भविष्य के मादक सपनों की गरज के बीच आज के भारत की कराह सुनाई देनी बंद होती जा रही है. वे सारे परदे जिनपर चित्र और चलचित्र दिखाई देते हैं और वे सारे यंत्र-तंत्र जिनसे आवाजें सुनी जाती है, झपट लिए गए हैं. मानव विकास सूचकांक में दुनिया के 135वें पायदान पर खड़े भारत की वर्तमान वास्तविकता, वास्तविक अतीत तथा यथार्थपरक भविष्य के चित्र और स्वर अदृश्य और गूंगे बनाए जा रहे हैं.
आस्था में चार साल की देरी से आए उबाल के तहत मुरुगन के जिस उपन्यास को पिछले दिसंबर महीने से निशाना बनाया गया है, वह 2010 में प्रकाशित हुआ था जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद 'वन पार्ट वुमन' के नाम से 2013 में पेंग्विन से छप कर आया. रोचक यह है कि इस उपन्यास में न तो ईशनिंदा है और न ही किसी धर्म या उसकी प्रथाओं का विरोध. उपन्यासकार ने उनपर व्यंग्य भी नहीं किया है, न कोई भंडाफोड़ किया है. उपन्यास का संवेदनात्मक उद्देश्य ही अलग है. मुरुगन की इतिहास-दृष्टि और सामाजिक चेतना मिथकों और आस्थाओं में लिपटे जीवन की वास्तविक धड़कनों और मर्म को इस उपन्यास में प्रत्यक्ष कर देती है, उनके दुश्मनों की निगाह में यही उनका अपराध है. उन्हें मुरुगन की कथा-सृष्टि भी सच की तरह डराती है. सच से ऐसा डर ही उन्हें सामाजिक सच्चाइयों के हर अनुसंधान या साहित्यिक पुनर्रचना को आस्था की तोपों से मार गिराने का अभ्यस्त बनाता है. सत्य से सत्ता का युद्ध बड़ा पुराना है, लेकिन हम जिस 2015 के भारत में रह रहे हैं, वहां सच के आखेटक पहले से अधिक मूर्ख, किन्तु प्रशिक्षित हैं.
घटनाएं        :  27 दिसंबर, 2014 के 'द हिन्दू' अखबार के अनुसार तिरुचेंगोडे नगर की आर.एस.एस. इकाई के अध्यक्ष महालिंगम ने 26 दिसंबर के दिन 50 से अधिक लोगों का जुलूस निकाला और मुरुगन के इस उपन्यास की प्रतियां जलाई. भाजपा, आर.एस.एस. तथा कुछ अन्य हिंदूवादी संगठनों ने लेखक की गिरफ्तारी की मांग भी की (हालांकि अब जबकि लेखक के समर्थन में भी आवाजें तेज़ हो रही हैं, ये संगठन समूचे घटनाक्रम में अपनी भूमिका नकार रहे हैं). इसी रिपोर्ट के मुताबिक़ बीस दिन पहले से मुरुगन को धमकियां मिल रही थीं. बाद में उपन्यास के विरोधस्वरूप शहर बंद भी कराया गया. 12 जनवरी को नमक्कल के जिला प्रशासन ने लेखक को उनके विरोधियों के साथ शान्ति वार्ता के लिए बुलाया. यहाँ प्रशासन ने मुरुगन को 'बिनाशर्त माफी' माँगने, अगले संस्करण में उपन्यास में वर्णित स्थानों का नाम बदलने और उसके 'आपत्तिजनक अंशों' को हटाने, वर्तमान संस्करण की अनबिकी प्रतियों को बाज़ार से वापस लेने और भविष्य में ऐसी कोई हरकत न करने का वचन देने संबंधी हलफनामे पर दबाव देकर दस्तखत कराया. इस प्रकार सरकारी देख-रेख में संविधान की धारा 19(1) (ए) की धज्जियां उड़ाई गयीं. ध्यान रहे मुरुगन जिस अंचल के लेखक हैं, उसी अंचल के एक सपूत थे 'पेरियार'. जातिप्रथा-विरोधी, अंधश्रद्धा-विरोधी, सेक्युलर और नास्तिक 'पेरियार' की कर्मभूमि पर एक लेखक के साथ यह सब कुछ होना भारी विडम्बना है. द्रविड़ आन्दोलन के साथ पेरियार की विरासत जुडी हुई है, लेकिन उसी आन्दोलन से निकली एक पार्टी तमिलनाडू की सत्ताधारी पार्टी है और दूसरी मुख्य विपक्षी पार्टी. सत्ताधारी पार्टी की भूमिका नमक्कल प्रशासन की हरकतों से ज़ाहिर है और विपक्षी पार्टी की भूमिका इस प्रकरण पर उसकी चुप्पी से. ( मामला तूल पकड़ने पर इस पार्टी ने लेखक के पक्ष में एक-दो बयान जारी करके छुट्टी पा ली है) अनेक लेखकों ने ठीक ही लक्ष्य किया है यह प्रकरण द्रविड़ पार्टियों की पस्ती के दौर में हिंदुत्व की ताकतों द्वारा तमिलनाडू में पाँव पसारने की कवायद का सूचक है. एक जागरूक नागरिक के रूप में मुरुगन अपने इलाके में शिक्षा की दुकानदारी के खिलाफ लिखते रहे हैं और पर्यावरण की धज्जियां उड़ानेवालों के खिलाफ भी. यह सारे निहित स्वार्थ भी उनके खिलाफ परदे के पीछे सक्रिय हैं. 48 वर्षीय मुरुगन नमक्कल में शासकीय कला विद्यालय में तमिल पढ़ाते हैं. उन्होंने अबतक 35 पुस्तकें लिखीं है जिनमें 07 उपन्यास और तमिलनाडु के कोंगू (पश्चिम) क्षेत्र की बोलियों का शब्दकोष भी शामिल है.
उपन्यास का कथानक  : यह उपन्यास कोंगू अंचल के जन-जीवन का अत्यंत संवेदनशील चित्र प्रस्तुत करता है. इस अंचल के जंगल, पहाड़, वनस्पति, पशु-पक्षी, मेले, नृत्य, संगीत, खेल-तमाशे, हाट-बाज़ार, खान-पान, पहनावा, देवस्थान और उनसे जुडी आस्थाएं, लोकविश्वास और किसान जीवन को कथा में जीवंत इसीलिए किया जा पाया है कि उपन्यासकार उस अंचल का मार्मिक जानकार ही नहीं, गंभीर अध्येता भी है. उपन्यास के इसी आंचलिक परिवेश में निस्संतान किसान दंपत्ति पोन्ना(पत्नी) और काली(पति) की कोमल कथा प्रवाहित है. दोनों एक दूसरे को बेहद प्यार करते हैं. लेकिन उनके paraparpapअकुंठ प्यार पर निस्संतान होने का ग्रहण लग जाता है. रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों के ताने पोन्ना को ज़्यादा सुनने पड़ते है. तीज-त्यौहार और मांगलिक अवसरों पर कर्मकांडों के वक्त 'बाँझ स्त्री' के प्रति अपमानजनक व्यवहार के चलते वह धीरे-धीरे अपने घर की चहारदीवारी में सिमटती चली जाती है. काली को भी समय समय पर किसी न किसे प्रकरण में लज्जित होना पड़ता है. उसका भी सामाजिक जीवन सीमित होता जाता है. उसकी नपुंसकता की चर्चाएँ भी होती हैं. निस्संतान दंपत्ति की संपत्ति पर रिश्ते-नातेदारों ही नहीं, पड़ोसियों की भी निगाह है. काली को उसकी मां और दादी दूसरा विवाह करने की सलाह देती हैं. इस प्रस्ताव पर पोन्ना के मां- बाप को भी कोई ऐतराज़ नहीं है, वे इतने में ही संतुष्ट हैं कि दूसरी स्त्री के साथ उनकी बेटी भी उसी घर में रहे, निकाली न जाए. पोन्ना और काली भी कभी कभी एक दूसरे का मन टोहने या चिढाने के लिए आपस में दूसरे विवाह की बात करते हैं. पोन्ना सदैव ही भारी मन से ही सही, यह कहती है कि काली की खुशी के लिए वह इसके लिए भी तैयार है. वास्तव में दोनो ही एक दूसरे से इतना प्यार करते हैं कि मन बांटने के लिए इस प्रस्ताव पर चाहे जो चर्चा करते हों, उसकी वास्तविक संभावना को कभी मन में स्वीकार नहीं करते. काली की मां और दादी उनके परिवार पर देवी -देवताओं का श्राप मानती हैं. निर्वंश होने के श्राप से मुक्ति के लिए काली और पोन्ना वर्षानुवर्ष न जाने कितने देवी-देवताओं, मंदिरों-मठों का चक्कर लगाकर, न जाने कितनी पूजा-पाठ, व्रत-अनुष्ठान करके थक चुके हैं. काली की मां और दादी के पास परिवार पर श्राप के अलग अलग किस्से हैं. वे हर किस्से के अनुरूप श्रापमुक्ति के उपाय करते हैं. पाठक इन किस्सों में उस अंचल के तमाम सामाजिक संबंधों की भी झांकी पाता है. ये किस्से अलग-अलग जातियों के बीच, अलग अलग तबकों के बीच, आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच, स्त्री और पुरुष के बीच, औपनिवेशिक समय में अंग्रेजों और देशियों के बीच, मनुष्य और देवता के बीच संबंधों की झलक दिखलाते है. ये किस्से उस अंचल के ऐतिहासिक-सामाजिक जीवन की मिथकीय अभिव्यक्तियाँ हैं. ऐसे किस्सों और लोकविश्वासों को पिरोने और अंचल के जीवंत नृवंशीय चलचित्र प्रस्तुत करने का हुनर मुरुगन अपने अनेक उपन्यासों में पहले भी दिखला चुके हैं. अपने अंचल के प्रति गंभीर ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह करते हुए उन्होंने अतीत के लेखकों द्वारा उस अंचल पर लिखी गई चीज़ों की खोज की और उन्हें दो खण्डों में प्रकाशित किया. उन्होंने टी.ए. मुथूसामी कोनार द्वारा इस अंचल पर लिखे इतिहास-ग्रन्थ जिसे लुप्त मान लिया गया था, उसे खोजकर पुनर्प्रकाशित कराया. (देखें ए.आर. वेंकट चेलापति का लेख, 'द हिंदू', 12 जनवरी)
एक भरा-पूरा, सुन्दर और संतुष्ट वैवाहिक जीवन सामाजिक मान्यताओं के चलते किस तरह अवसादग्रस्त होता है, लेकिन अवसाद के आगे पराजय नहीं मानता, इसे मुरुगन ने बहुत कोमल और संवेदनशील रंग-रेखाओं में अंकित किया है. काली और पोन्ना का निश्छल और उन्मुक्त प्यार समाज की मान्यताओं के टकराकर कैसे कैसे अंतर्द्वंद्वों से गुज़रता है, उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म कंपन को उपन्यासकार की लेखनी पकड़ लेती है. वे तत्व जो इन पात्रों के मन की सुन्दर गहराइयों में लेखक की उंगली पकड़ कर उतरने की जगह उन सुन्दर उँगलियों को ही तोड़ देने को पुरुषार्थ समझे बैठे हैं, उनका कलेजा सचमुच काठ का बना है. उपन्यास का अंत ट्रैजिक है. काली के दूसरे विवाह के प्रस्ताव और श्रापमुक्ति के सभी उपाय विफल होने पर पोन्ना और काली दोनों की मांएं एक अलग योजना बनाती हैं. अर्द्धनारीश्वर के स्थानीय मंदिर में हर साल तमिल वैकासी महीने ( मई-जून) में १४ दिन का मेला लगता है. चौथे दिन पहाड़ों से देवता उतरते हैं और उनकी रथ की सवारी अगले दस दिन निकलती रहती है, अंतिम दिन वे वापस चले जाते हैं. अंतिम दिन मेले में भारी भीड़ होती है और माना जाता है कि इस दिन मेले में उपस्थित सभी पुरुष देवता होते हैं. निस्संतान स्त्रियों के लिए यह दिन भाग्यशाली होता है, जहां वे किसी देवता से समागम कर संतान-प्राप्ति कर सकती हैं. ऐसी संतानें देवता का प्रसाद या देव-संतानें मानी जाती हैं. काली की मां इस दिन पोन्ना को मेले में भेजे जाने के लिए काली को सहमत नहीं कर पाती. एक साल बीत जाता है. अगले साल मेला शुरू होने के समय काली का साला मुथु (जो उसका बाल-सखा भी है) बहन-बहनोई को इसके लिए राजी करने उनके घर आता है. मंदिर पोन्ना के घर से नज़दीक है. हर साल मेले के समय काली पोन्ना को लेकर अपने ससुराल जाया करता था और वहीं से वे मेला घूमने जाते थे. ऐसे में मुथु के आग्रह पर काली पोन्ना को तत्काल उसके साथ भेजने को राजी हो जाता है और खुद मेले के १४वे दिन आने का वादा करता है. लेकिन पोन्ना को देव-समागम के लिए भेजे जाने से वह इनकार कर देता है. मुथु बहन से झूठ बोलता है कि बहनोई काली ने इस बात की अनुमति दे दी है. पोन्ना को इसकी तस्दीक खुद काली से करने का वक्त नहीं मिलता, फिर भाई की बात पर अविश्वास का कोई कारण नहीं था क्योंकि काली और मुथु साले-बहनोई ही नहीं बाल-सखा भी थे. एक नाटकीय घटनाक्रम में चौदहवें दिन काली के ससुराल पहुँचाने के बाद मुथु सदा की तरह काली को लेकर खाने-पीने, मौज-मस्ती करने घर से खूब दूर ले जाता है, ताकि अगली सुबह तक दोनों लौट न पाएं. उधर पोन्ना के मां-बाप उसे लेकर बैलगाड़ी में मेले की ओर चल देते है. काली और मुथु दूरस्थ स्थान पर खाने-पीने के बाद सो जाते हैं. लेकिन काली की नींद आधी रात के बाद खुल जाती है. वह वापस ससुराल की ओर चल पड़ता है. भोर में वहां पहुँच कर जब उसे ताला जडा मिलता है, तो उस पर वज्रपात सा होता है. उसकी भावनाएं पछाड़ खाकर गिरती हैं. उसे लगता है कि पोन्ना ने उसके साथ धोखा किया है. यहीं उपन्यास ख़त्म होता है.
ट्रेजेडी का भाव सघन इसलिए होता है कि दरअसल किसी ने किसी को धोखा नहीं दिया. मुथु, काली की माँ, उसके सास-ससुर- सभी काली और पोन्ना का दुःख दूर करना चाहते हैं. मुथु ने इसी खातिर बहन से झूठ बोला. पोन्ना मेले में जाने को खुद तत्पर नहीं है. वह काली को खुश देखना चाहती है, उसके किए बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार है, ऐसे में उसकी रजामंदी जानकार वह मेले में जाने को तैयार होती है. यह निश्छल भावनाओं की ऐसी दुनिया है जहां हरेक व्यक्ति जो कर रहा है वह दूसरे की खुशी के लिए कर रहा है, लेकिन परिणाम वह निकलता है जो किसी ने न चाहा था. मेले की भीड़ में 'देवता' से उसकी भेंट सुगम हो सके, इसके लिए पोन्ना को अकेला छोड़ जब उसकी माँ गायब हो जाती है, तब के बाद का वर्णन उपन्यासकार की सामर्थ्य का सबसे ताकतवर साक्ष्य है. पोन्ना की मार्फ़त पाठक तमाम स्थानीय सांस्कृतिक कला-रूपों, नाटकों और रिवाजों की दृश्यावली से गुज़रता है, लेकिन सबसे बड़ा नाटक तो पोन्ना के मानसपटल पर अभिनीत हो रहा है. भारी भीड़ में अकेले होने के भय से शुरू करके अपरिचितों के बीच अनाम होने की खुशी तक उसके मन में अनेक भाव आते और जाते हैं. परिचय की दुनिया की हर नज़र उसे छेदती थी, क्योंकि वह निस्संतान थी. मेले में भीड़ का हिस्सा होकर वह ऐसी हर नज़र से आज़ाद थी, जहां न वह किसी को जानती थी और न कोई उसे. लेकिन अवचेतन के सह-सम्बन्ध और संस्कार उसकी निगहबानी बदस्तूर कर रहे थे. जब भी कोई 'देवता' उसकी ओर रुख करता, उसके और अपरिचित देवता के बीच काली का चेहरा परिचिति या स्मृति की छाया सा झिलमिला उठाता, क्योंकि पति से भी ज़्यादा काली वह व्यक्ति है जिससे वह सबसे ज़्यादा प्यार करती है. एक छोटे से स्वप्न-दृश्य में बचपन के प्यार का एक चेहरा भी कौंधता है. यह कोई नैतिक द्वंद्व नहीं है. काली के विपरीत पोन्ना के मन में इस प्रथा पर आस्था का कोई संकट नहीं है. काली की खुशी के लिए और अपने जानते में उसकी 'अनुमति' से ही वह 'देवता' की खोज में आई है, लेकिन क्या एक क्षण को भी काली को भूले बगैर 'देवता' से मिलन संभव हो पाएगा? इस द्वंद्व को उपन्यासकार ने चेतन और अचेतन के बीच, परिचित और अनजाने के बीच, सम्बन्ध-भावना और स्वातंत्र्य-कामना के बीच, मानवीय भाव-यंत्र और देवत्व के तसव्वुर के बीच - एक साथ अनेक स्तरों पर अभूतपूर्व संवेदनशीलता से अंकित किया है. अंततः पोन्ना इस द्वंद्व से पार जाती है, इसका संकेत करके उपन्यासकार आगे बढ़ जाता है. समागम का दृश्य उपस्थित करने और पाठक को गुदगुदाने की उसकी कोई इच्छा ही नहीं है.
कहानी का अंत नहीं हुआ, लौटेगा कहनेवाला   : उपन्यास के अंतिम दृश्य में काली को तड़पता देख पाठक की उत्कंठा बढ़नी स्वाभाविक है, लेकिन उपन्यास ख़त्म हो जाता है. पाठक के ज़ेहन में ढेरों सवाल हैं? क्या पोन्ना और काली का सम्बन्ध-विच्छेद हो जाएगा? क्या काली यह जान कर कि पोन्ना को उसकी 'अनुमति' की झूठी जानकारी थी, उसे अपना लेगा? क्या पोन्ना यह जानकार कि उससे झूठ बोला गया था, अपराधबोध या आत्महंता भाव से ग्रस्त हो जाएगी? ऐसे में अपने माँ-बाप और भाई के प्रति उसका क्या रुख होगा? यदि वह अपने माँ-बाप और भाई को क्षोभ में त्याग दे और काली उसे फिर से न अपनाए, तो वह कहाँ जाएगी? यदि उसे देव-संतान होती है, तो उस संतान का भविष्य क्या है? श्री चेलापति ने अपने लेख में लिखा है कि ढेरों पाठकों ने लेखक को पोन्ना और काली की आगे की कहानी बताने के लिए अनेक पत्र लिखे. जवाब में लेखक ने उपन्यास को आगे के दो खण्डों में जारी रखने का वादा किया है, दोनों खण्डों के शीर्षक भी बताए हैं. मुरुगन को यह वादा निभाना ही पडेगा. लेखक की मृत्यु की घोषणा के बावजूद उसे खुद को पुनरुज्जीवित करना होगा. पाठक ज़रूर उन ताकतों से लड़ेंगे और जीतेंगे जो कि लेखक के पुनरुज्जीवन में बाधा हैं.
मुरुगन के लेखक को मार देनेवाली ताकतों को इस उपन्यास की मूल संवेदना से कुछ लेना लादना नहीं है. उनके लिए निस्संतान स्त्रियों द्वारा एक स्थानविशेष के मंदिर के मेले में आपसी सहमति से विवाह-बाह्य, धर्मानुमोदित और सामाजिक स्वीकृति प्राप्त यौन-सम्बन्ध बनाने की प्रथा का उपन्यास में कथात्मक विनियोग 'आपत्तिजनक' है. इसे वे धर्मविरुद्ध, स्त्रियों की मर्यादा के विरुद्ध और उस इलाके के लिए अपमानजनक मानते हैं. क्या उपन्यासकार ने इस प्रथा की वकालत की है या उसका अनुमोदन किया है? ज़ाहिर है 'नहीं'. कहानी की तर्क-योजना और संवेदनात्मक उद्देश्य में उक्त प्रथा की हिमायत या आलोचना का कोई काम ही नहीं है. लेकिन ज़रा प्राचीन ग्रंथों पर नज़र डालें और देखें कि 'नियोग' की प्रथा को कितने धर्मशास्त्रों की सम्मति प्राप्त थी. भारतरत्न पंडित पांडुरंग वामन काणे ने गौतम, वसिष्ठ, बौधायन, याज्ञवल्क्य, नारद, कौटिल्य आदि धर्मसूत्रकारों की सम्मतियों उद्धृत की है तथा महाभारत के आदिपर्व, अनुशासनपर्व और शांतिपर्व में नियोग के उदाहरणों और संकेतों की चर्चा की है. (धर्मशास्त्र का इतिहास-प्रथम भाग) मुरुगन की पुस्तक जलानेवाले तत्व इन धर्मसूत्रों और महाभारत के बारे में क्या ख्याल रखते हैं? शास्त्र और लोक की बात छोड़ भी दें, तो क्या मानवशास्त्र का अध्ययन यह नहीं बताता कि ऐसी प्रथाएं लगभग सभी प्राक-आधुनिक समाजों में रही आई हैं? यह भी कि आधुनिक समय में भी तमाम प्राक-आधुनिक प्रथाएं रूप बदलकर क्या अपनी निरंतरता नहीं बनाए रखतीं? मुरुगन ने किसी प्रथा पर कोई मूल्य निर्णय नहीं दिया है, अच्छा या बुरा नहीं कहा है, उन्होंने सिर्फ एक कोमल कहानी कही है जो एक समाज में जन्मी है. उस समाज की कुछ प्रथाएं और मान्यताएं हैं जो उस समाज में जी रहे लोगों के जीवन से लिपटी हैं, उन्हें कोई कथाकार, इतिहास-लेखक या नृतत्वशास्त्री कृत्रिम ढंग से काट कर अलग नहीं कर सकता. ऐसा करना खुद को झूठा साबित करना है, कला और समाज दोनों से गद्दारी है. मुरुगन ने ऐसा करने से इनकार किया है, लेखक की मृत्यु की कीमत चुका कर भी. लेकिन पाठकों और जागरूक नागरिकों का प्यार उन्हें वापस लौटा लाएगा. ज़रूर ही लौटा लाएगा. (समकालीन जनमत से साभार)

Sunday 18 January 2015

हमेशा रहेगी किताबों की जरूरत/प्रेमचंद गांधी

उस दुनिया की कल्‍पना करना कितना भयावह है, जिसे किताबों के बिना जीना पडता है। लेकिन सच्‍चाई यही है, आज भी विश्‍व की करीब पचास फीसद जनता पुस्‍तकविहीन अंधकारमय जीवन जीने के लिए विवश है। लेकिन यह भी इतना ही बडा सच है कि ऐसे अज्ञान और अंधकार भरे समाज के लिए किताब पहुंचाने की कोशिशें भी वैश्विक स्‍तर पर जारी हैं। देश में चल रहे ‘सर्वशिक्षा अभियान’ जैसे प्रयास दुनिया के तमाम निर्धन देशों में चल रहे हैं। हालांकि ऐसा मानने वाले लोगों की भी कमी नहीं है कि बिना किताबों के भी ज्ञान प्राप्‍त किया जा सकता है और यह एक हद तक सच भी है। हमारे पुरखों ने ज्ञान के नाम पर अपने समय में जो कुछ प्राप्‍त किया वह जीवनानुभवों का ही सार है, जिसके बिना किताब भी संभव नहीं होती, क्‍योंकि किताब भी आखिरकार एक व्‍यक्ति के अनुभूत ज्ञान और संचित जीवनानुभवों का ही तो समुच्‍चय है।
इस दुनिया को आज हम जिस रूप में देख रहे हैं, उसके पीछे किताबों की बहुत बडी भूमिका है। दुनिया के तमाम धर्मों में एक या अधिक किताबों की जरूरत हमेशा से रही है, जिनसे उनके अनुयायियों को धर्म की राह पर चलने के लिए एक रास्‍ता मिलता है। आज भी लोगों के लिए किताब अगर एक पवित्र किस्‍म की चीज है तो वह इसीलिए कि प्रारंभ में किताब का अर्थ धार्मिक किताब ही होता था, जिसके पैर से छू जाने या गिर जाने से अनर्थ की आशंका होती थी और धर्म का अपमान लगता था। मजहबी किताबें दुनिया में सबसे ज्‍यादा बिकने वाली किताबें हैं और शायद हमेशा रहेंगी। वजह यह कि पढना आये या ना आये अपने धर्म की किताब हर व्‍यक्ति घर में जरूर रखना चाहता है। सुख-दुख के अवसरों पर इनकी महत्‍ता रहती है, घर को ये एक किस्‍म की पवित्रता प्रदान करती हैं। व्‍यक्ति को ऐसी किताबों के अध्‍ययन और श्रवण से आत्मिक संतोष मिलता है। इसीलिए सभी धर्मों में आप देखेंगे कि धार्मिक किताबों के समय-समय पर पाठ आयोजित करने की परंपरा है, फिर वह चाहे गुरूग्रंथ साहिब का पाठ हो या रामायण का, कुरानख्‍वानी हो या बाइबिल का पाठ।
धार्मिक किताबों का महत्‍व इस मायने में स्‍वीकार किया जाना चाहिए कि इन्‍हीं की वजह से शिक्षा का प्रसार भी हुआ। आज भी बहुत से लोग अगर लडकियों को पढने स्‍कूल भेजते हैं तो यही समझकर कि चलो कम से कम वह कुरान, रामायण या गुरूग्रंथ साहिब का पाठ तो कर लेगी और अपने बच्‍चों को ठीक-ठाक संस्‍कार दे सकेगी। लेकिन किताबों की दुनिया का यह एक बहुत बडा सच है कि यह एक प्रकार से मनुष्‍य में संक्रामक रोग भी पैदा करती है, अर्थात जिसे पढना आ गया वह एक के बाद दूसरी किताब पढने की ओर आगे बढता है। और पढने की इस चाहत ने ही किताबों की दुनिया को परवान चढाया है। जिन लडकियों को धार्मिक किताबें पढने के लिए पाठशाला भेजा गया, वे आगे चलकर दूसरी किताबें पढकर खुद लेखिकाएं बन गईं, ऐसे हमारे समाज में सैंकडों उदाहरण हैं।
आज के तेजी से बदलते संचार क्रांति के युग में बहुत से लोग कहते हैं कि अब किताबें अप्रासंगिक हो जाएंगी, वजह यह कि किताबों की जगह लेने के लिए बाजार में बहुत सी चीजें आ गई हैं और किताबों का स्‍वरूप भी बदल गया है। सीडी, डीवीडी, ई-बुक, और इसी किस्‍म की बहुत सी ईजादों ने किताब का स्‍थान लेने की कोशि की है, लेकिन पश्चिम के अघाये हुए समाज की मानें तो आज भी पन्‍ने पलटकर, कहीं भी बैठकर, लेटकर, यात्रा करते हुए यानी किसी भी तरह किताब पढने से बेहतर कुछ नहीं है। आधुनिक संसाधनों ने जो सबसे बडा काम किया वो यह कि किताबों की उम्र और पढने का दायरा बढा दिया। आज दुनिया के लाखों पुस्‍तकालय डिजिटलाइज्‍ड हो रहे हैं, आनलाइन हो रहे हैं, हजारों की तादाद में ऐसी वेबसाइटें मौजूद हैं जिन पर दुनिया भर की असंख्‍य किताबों के बारे में जानकारी ही हासिल नहीं की जा सकती, बल्कि डाउनलोड कर किताबें पढी भी जा सकती हैं। अभी तक अप्राप्‍य और दुर्लभ समझी जाने वाली असंख्‍य किताबें आज इंटरनेट की दुनिया में या तो उपलब्‍ध हैं या ऐसा करने के प्रयास वैश्विक स्‍तर पर चल रहे हैं। इस तरह संचार क्रांति किताबों की दुनिया के लिए वरदान सिद्ध हो रही है।
दुनिया बदल रही है और इस बदलती हुई दुनिया की यह एक बहुत बडी सच्‍चाई है कि दुनिया में आज मौजूद अनेक समस्‍याएं अज्ञान और अशिक्षा के कारण हैं। फिर वो चाहे आतंकवाद हो या मजहबी कटटरता के कारण पनपने वाला सांप्रदायिक विद्वेष, इन सबकी जड में अशिक्षा और अज्ञान ही है। किताबों की दुनिया ही हमारे समाज को बताती है कि सब धर्म एक परमात्‍मा तक पहुंचने के अलग-अलग रास्‍तों के सिवा कुछ नहीं हैं, मनुष्‍य का एकमात्र धर्म है मानवता की सेवा और सब धर्मों का मूल मकसद है इस धरती को सुंदर बनाना, मानव मात्र को सुखी बनाना। प्रत्‍येक धर्म की किताब यही सिखाती है, लेकिन कुछ लोग हैं जो उनका अलग अर्थ निकालकर लोगों को एक दूसरे खिलाफ भडकाते हैं और व्‍यर्थ में खून बहाते हैं। इस प्रक्रिया में ना जाने कितनी सभ्‍यताएं नष्‍ट हो चुकी हैं और नष्‍ट होंगी, फिर किताबें ही बताएंगी कि क्‍यों वे सभ्‍यताएं नष्‍ट हुईं।
एक फ्रांसिसी दार्शनिक ने म्रत्‍यु शैया पर कहा था, ‘जो कुछ हम जानते हैं वह बहुत थोडा है, जो नहीं जानते वह बहुत अधिक है।‘ किताबों की दुनिया हमारे लिए उस अजाने संसार के दरवाजे खोलती है, जिसे हम एक जीवन में प्राप्‍त नहीं कर सकते। प्रत्‍येक विद्धान, मनीषी यही कहता है कि मैं तो एक विद्यार्थी मात्र हूं। किताबें ही यह विनम्रता का बोध पैदा करती हैं और मनुष्‍य को महामानव बनाती हैं। मनुष्‍य जीवन में किताबों का महत्‍व सदा से किसी ना किसी रूप में मौजूद रहा है और धरती के नष्‍ट होने तक रहेगा। इस दुनिया में किताब की ताकत का अंदाज आप इसी से लगा सकते हैं कि बहुत से आततायी और हिंसक लोगों ने सिर्फ डर की वजह से न केवल किताबें, बल्कि पूरी की पूरी लाइब्रेरियां जला डालीं।

Thursday 15 January 2015

जंगल-मंगल/जयप्रकाश त्रिपाठी

                                ()
जो कुछ है, इतना बस है, लगता है, ये भी बरबस है
सब झूठे-झूठे शब्दों-सा अब भी वो क्यों जस-का-तस है
जैसे हर कोई घिरा हुआ, जो बचा हुआ, क्यों गिरा हुआ
जंगल-जंगल जन दुखियारे, बस मंगल-मंगल सर्कस है
                            ()

Wednesday 14 January 2015

हमारे समाज में 'लड़की' समझ से परे की चीज/फहमीदा रियाज

पाकिस्तान के सिंध राज्य में रहने वाली तरक्की पसंद अदीबा, शायरा फहमीदा रियाज 'गुफ्तगू' से बातचीत में बताती हैं- 'जो मन में आता है लिख देती हूं. बाद में कई बार लोग बुरा-भला भी कहते हैं जिससे तकलीफ़ होती है. एक लड़की होना हमारे समाज में एक ऐसी चीज़ है जो समझ से परे है. लड़कियों को इंजॉय करने की समाज इजाज़त नहीं देता. हिन्दोस्तान में जितनी आज़ादी औरतों को हासिल है, पाकिस्तान में नहीं है.
मैं तो कुछ लिख भी देती हूं, लेकिन समाज अभी भी दकियानूसी दौर में जी रहा है. ... मैं हिन्दोस्तान इसलिए आयी थी कि यह एक सेक्युलर मुल्क है, लेकिन यह सब ख्वाब था. मैंने यहां के सांप्रदायिक माहौल पर एक नज़्म ‘नया भारत’  लिखा. इस पर इतना बड़ा हंगामा हुआ कि पूछिये मत. दो दिन बाद मेरी फ्लाइट थी. मैं सोच नहीं पा रही थी कि क्या करूं. फिर मैं पाकिस्तान वापस चली गयी. वह नज़्म हमें कुछ कुछ याद आ रहा है.....नया भारत
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले/अब तक कहां छुपे थे भाई।
वह मुरखता वह घामड़पन,/जिसमें हमने सदियां गंवायी।
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे,/अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है, कायम हिन्दू राज करोगे।
सारे उलटे काज करोगे, अपना चमन ताराज़ करोगे।
तुम भी बैठे राज करोगे,/सोचा कौन है हिन्दू कौन नहीं है।
तुम भी करोगे फतवा जारी,/अरे बधाई बहुत बधाई।
एक जाप सा करते जाओ,/बारम-बार यही दुहराओ।
कितना वीर महान था भारत/कैसा आलीशान था भारत।
प्रेत धर्म का नाच रहा है/अरे बधाई बहुत बधाई
'कुछ लोग है जिन्हें असल मज़हब के मायने नहीं पता है. इन लोगों को कौन बताये कि मज़हब लोगों को अलम करने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को जोड़ने के लिए आया है. यही सोच मार्क्स का भी है सांप्रदायिक सदभाव और मार्क्सवाद असल में एक ही चीज़ है. दोनों इन्सान को इन्सान बनाना सिखाता है और समाजी बराबरी की सीख देता है.
'अफगानिस्तान में तालिबान की ज़ालिमाना हरक़त को पूरी दुनिया जानती है. उन्होंने वहां के तारीख को मिटाना चाहा. ‘बुद्ध’ जो शान्ति की अलामह है, उनकी मूर्ति को खाक में मिला दिया. इस पर मैंने एक नज़्म लिखी थी. मोजस्सेमा गिरा  मगर ये दास्तां अभी तमाम तो नहीं हुयी दिया कई बरस तैय हुये. लिखेगा दिन को आदमी/बरंगे आबो जुस्तजू/ वह हुस्न की तलाश में/वह मुन्सफ़ी की आस में/खुली है सड़क खुल गयी दुकां में कितना माल है/दुकां में दिलबरी नहीं/मकां में मुन्सिफ़ी नहीं/ अभी तो हर बला नयी/अभी है काफ़ले रवां/गुलों मे नस्ब है निशा।/मुजस्सेमा गिरा मगर/जमीं पे ज़िन्दगी दुकां के नाम पर नहीं हुयी/हमारी दास्तान अभी तमाम पर नहीं हुयी.'

Monday 12 January 2015

थोथे मुद्दे छोड़े समाज/प्रीतीश नंदी

आप ऐसे कितने हिंदुओं से रोज मिलते हैं, जो बाहर जाकर मुस्लिमों और ईसाइयों का धर्मांतरण करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ये लोग भारत को लेकर उनके मन जो तस्वीर है उसके लिए खतरा हैं? आप ऐसे कितने मुस्लिमों को जानते हैं, जो पाकिस्तान के प्रति वफादारी का दावा करते हैं और आतंकी हमलों का समर्थन करते हैं? मैं मोहमेडन स्पोर्टिंग फुटबॉल टीम को समर्थन देने या पाकिस्तानी पॉप गायक व अभिनेता आतिफ असलम का प्रशंसक होने की बात नहीं कर रहा हूं.

धर्म परिवर्तन : आप ऐसे कितने सिखों को जानते हैं, जो 1984 के दंगों को लेकर अब भी इतने नाराज हैं कि वे अलग होकर नया खालिस्तान बनाना चाहते हैं, भारत से खूनी बदला लेना चाहते हैं? हां, वे न्याय जरूर चाहते हैं. वे दोषियों को दंडित होते देखना चाहते हैं, लेकिन ये दोनों समान बातें नहीं हैं. आप विदेशी मिशनरियों सहित ऐसे कितने ईसाइयों से मिले हैं, जिन्होंने पैसे या अन्य किसी चीज का लालच देकर आपको ईसाई बनाना चाहा? हां, यदि आप किसी ईसाई स्कूल में पढ़ें हों तो आपको नैतिक शिक्षा की कक्षा में हाजिर रहना पड़ता है, जिसमें बाइबल की कहानियां सुनाई जाती हैं. हालांकि, आपके सामने ऐसे स्कूल में न जाने का विकल्प हमेशा खुला होता है. ठीक वैसे जैसे मुस्लिमों के सामने मदरसे में न पढ़ने का विकल्प मौजूद होता है.
भारत में धर्म हमेशा से व्यक्तिगत चुनाव का विषय रहा है. इस देश में रहने की सर्वश्रेष्ठ खासियतों में से एक यह है. यदि आप किसी चीज का चुनाव नहीं करते तो किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह आपको उन चीजों में भरोसा करने पर मजबूर करे. जिन लोगों को मैं या आप जानते हैं अथवा रोज की जिंदगी में मिलते हैं, अपने चुनने के अधिकार का उपयोग करते हैं. जहां तक आस्था की बात है और ऐसा वे बहुत नामालूम तरीके से, सरलता और पूरी गरिमा के साथ करते हैं. उन्होंने हमेशा से ऐसा ही किया है. मेरे जैसे कुछ लोगों ने आस्था से मुक्त रहने का चुनाव किया, क्योंकि धर्म कोई ऐसी चीज नहीं है कि जिससे हम अपने आप को परिभाषित करते हैं.
हम तो अपने विचारों, अपने सपनों या अपनी उम्मीदों से परिभाषित होते हैं. हम जो होना चाहते हैं, उसी से परिभाषित होते हैं. मैं कोलकाता में पला-बढ़ा हूं, जहां क्रिसमस की शाम को हर कोई सेंट पॉल कैथेड्रल में जाता था. हिंदू, मुस्लिम, सिख, यहूदी, कभी-कभार कोई पारसी या आर्मेनियाई. चीनी लोग भी सर्विस में शामिल होते थे, इसलिए नहीं कि उन्हें कोई लालच दिया जाता था बल्कि वे इसलिए जाते थे, क्योंकि वहां दिए जाने वाले शांति और सद्‌भावना के संदेश का अनुभव उन्हें आनंदित करता था. ठीक वैसे जैसे पश्चिम बंगाल में हर कोई दुर्गा पूजा मनाता है और फिर धर्म कोई भी क्यों न हो माता के पैरो में गिर जाता है. कुछ महान शास्त्रीय संगीतकारों व गायकों को निकट से जानने का सौभाग्य मुझे मिला है. वे काली माता के भक्त थे, फिर चाहे वे धर्म से निष्ठावान मुस्लिम ही क्यों न हों. यह उस समय का जादू था. आपने चाहे किसी भी धर्म में जन्म लिया हो या आप किसी भी धर्म के क्यों न हो, लेकिन आप जिस चीज में विश्वास करते थे, वह आपका अपना चुनाव होता था. अपनी पसंद होती थी.
कोलकाता में सांप्रदायिक दंगे दुर्लभ ही थे. एक बार ऐसे ही दंगों के दौरान डागर बंधु (यदि मुझे सही याद  रहा है) ठुमरी गाने के लिए जा रहे थे. जैसा कि उन दिनों प्रचलन था, संगीतकार (चाहे कितने ही प्रसिद्ध, कितने ही खास क्यों न हो) अपने वाद्य साथ ले जाते थे, तो वे भी ले जा रहे थे. जल्दी ही उन्होंने खुद को दो हिंसक गुटों के बीच पाया. दोनों पक्षों ने जैसे ही उन्हें वाद्य-यंत्रों के साथ देखा वे थम गए व अलग हो गए और उन्हें संगीत सम्मेलन में जाने के लिए रास्ता दे दिया. कलाकारों के प्रति लोग ऐसा सम्मान व्यक्त करते थे. धर्म तो टकराव का कोई फौरी कारण हुआ करता था, जो यह देखते हुए असामान्य भी नहीं कहा जा सकता कि विभाजन में बंगाल के दो टुकड़े हुए थे पर धर्म आधारित विभाजन से गुजरने के बाद भी दोनों समुदायों में धर्म के मामले में शायद ही कभी संघर्ष हुआ हो.
बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग हो गया. धार्मिक समानता उन्हें जोड़कर नहीं रख सकी. नए राज्य को जिस चीज ने एकजुट रखा, वह था बांग्ला भाषा से उनका प्रेम. इसी प्रेम ने हिंदू और मुस्लिमों को एक रखा. यदि आप उथल-पुथलभरे उन दिनों का काव्य पढ़ें, आप इस्लाम को वहां नदारद पाएंगे. केवल आज़ादी के लिए अभिभूत कर देने वाला प्रेम वहां मौजूद था. आज़ादी की इसी तलाश ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटकर बांग्लादेश का निर्माण किया. धर्म, जिसके आधार पर पाकिस्तान बना था, हाशिये पर रह गया. मेरे माता-पिता विभाजन के भयावह दंगों के साक्षी बने थे, लेकिन मैंने कभी अपने बचपन में उन पर उन्हें चर्चा करते नहीं सुना. वे इसे लब्जों पर न लाई जा सकने वाली ऐसी त्रासदी समझते थे, जिसमें न तो कोई हीरो था न कोई विलैन. उस जमाने के सारे बंगाली साहित्य का यही रुख था.
न तो हिंदुओं ने और न मुस्लिमों ने ऐसा कुछ लिखा, जिसमें हिंसा के लिए दूसरे समुदाय को जिम्मेदार ठहराया हों. दोष दिया हों. उन्होंने त्रासदी को त्रासदी की तरह देखा. धर्म की इसमें कोई भूमिका नहीं थी. यही वजह रही कि जब बांग्लादेश जन्म ले रहा था तो सीमा के इस तरफ हर बंगाली ने फिर चाहे हिंदू हो या मुस्लिम, संघर्ष को समर्थन दिया. आज़ादी बड़ा उद्‌देश्य था. ठीक वैसे जैसे आज हममें उम्मीद होनी चाहिए जब आज हम भारत को उस भ्रष्टाचार व अपराध से मुक्त करने के निर्माण-पथ पर आगे बढ़ रहे हैं, जिसका कांग्रेस प्रतीक बन गई थी. क्या वाकई इसका कोई महत्व है कि निर्माण कौन कर रहा है?
क्या हमें मूर्खतापूर्ण, अप्रासंगिक मुद्‌दों को लेकर रास्ते से भटकने की बजाय इस व्यापक बहस पर केंद्रित नहीं होना चाहिए कि भारत के लिए वास्तविक बदलाव किस चीज से आएगा? ये निरर्थक मुद्‌दे हमारा भविष्य परिभाषित करने में कोई भूमिका निभाने से तो रहे. किसे परवाह है कि हमारे स्कूलों में संस्कृत पढ़ाई जाती है या नहीं. कोई मूर्ख यदि आईएसआईएस के साथ संघर्ष में शामिल होने विदेश जाता है तो कैसी चिंता? इसकी बजाय आइए, हम यहां आतंकवाद से लड़ने पर ध्यान केंद्रित करें.
इससे भी महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हम महिलाओं के साथ सद‌व्यवहार करना सीखें. आइए, हम अपने बच्चों की तस्करी होने से रोकें. घोर भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए संघर्ष करें. आइए, हमारे सपनों के ऐसे भारत का निर्माण करें, जहां लोग गरीबी और पिछड़ेपन से मुक्त हों, जहां पर्यावरण का सम्मान किया जाता हो और उसी तरह प्रतिभाओं का भी, फिर वह कहीं से भी क्यों न आती हों. तो आइए, अधिक वृहद विचार-विमर्श पर ध्यान केंद्रित रखें. सच्चा बदलाव तो वही है. धर्म अपनी परवाह खुद कर लेगा.
('रविवार' से साभार)

Sunday 11 January 2015

एक दिन अपनी डायरी में अन्ना कामीएन्सका ने लिखा

वह पूरी सम्पूर्णता में ग़रीब थी. वह फ़क़त अपनी तस्बीह के साथ गयी. वह अपने पीछे काली लाख और जर्जर मिसल वाले बेंत के छप्पर की एक जायदाद छोड़ गयी जिसमें पुराने तरीके से पापों का हिसाब किताब करने के तरीके थे मिसाल के तौर पर नौकरों और गुलामों से कैसा सुलूक किया जाए....
इतना तो है हमें इस बाबत चिंता करने की ज़रुरत ज़रा कम है.
लड़खड़ाती चलती हूँ कविताओं के सहारे.
कवितायेँ समय के पदार्थ से क्रिस्टलों में बदलती हैं. क्षणों का एक गुच्छा, टंगा हुआ झूलता मधुमक्खी के  छत्ते के मुंह से.
तली तक बैठने में लम्बा वक़्त लेता है कविता का नमक.
हम सब के पास अपना अध्यात्म होता है, चाहे हमें इसका भान हो ही नहीं या हम ज़रा भी शंका न करें उसकी बाबत.
'' मेरे सपनों में एक बार फिर से पानी.साफ़, शफ्फाफ़, बालू पर बहता, इतना पारदर्शी कि आप तल पर तैर रही सर्पिल मछलियों तक को देख सकते हैं.
कविताओं की कतरनों और इस्तेमाल न किये गए विचारों से भरा एक घर. विचारों का एक घोंसला, शब्द के मेहनतकश बढ़ई की छीलनें. झाग की तरह उनकी प्रचुरता, मेरे अस्तित्व के चारों तरफ, ज़रुरत से ज़्यादा खौलता पानी. मुझे नहीं मालूम क्यों इस या उस कविता को मैंने सज़ा दे दी खामोश हो रहने, कुछ न होने की; मैंने इसे क्यों लिखा, उस विचार को क्यों नहीं. सब झाग है.
जब सब शांत हो जाता है
अनंत भी आराम करता है
और चीज़ें हमारे लिए और नहीं रोतीं
मैंने चांदी के मुखौटे पहने देखा अपने मृतकों को.
हम “इस संसार” और “अगले संसार” की बातें करते हैं. “आस्तिक” वे होते हैं जो कथित रूप से“अगले संसार” पर, उसकी वास्तविकता पर भरोसा करते हैं.    
मैं “अगले संसार” पर यकीन नहीं करती. संसार एक है. एक सच्चाई. मृत्यु अगले संसार में जाने का रास्ता नहीं है कोई, हो सकता है वह हो अंधी आँखों का खुल जाना.''
(कबाड़खाना से साभार उद्धृत)

महिला का अपने शरीर पर कितना अधिकार/उमा चक्रवर्ती

इस साल की शुरुआत में कुछ लोगों ने एक महिला के उस अधिकार पर कुछ देर के लिए सोचा जो विरोध जताने के लिए खाना नहीं खा रही हैं.
जीवन के हक़ के लिए लड़ रही मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता शर्मिला इरोम पिछले 14 साल से भूख हड़ताल पर हैं.
लेकिन खाने से इनकार कर एक महिला अपने समाज, देश और राज्य को क्या संदेश देना चाहती हैं?
इरोम शर्मिला ने पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में सशस्त्र सेनाओं के विशेषाधिकारों से संबंधित विवादास्पद क़ानून के ख़िलाफ़ वर्ष 2000 में भूख हड़ताल शुरू की थी.
इन अधिकारों के तहत सैन्यबल बग़ैर किसी वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकते हैं और कुछ विशेष हालात में तो उन्हें गोली मारने का भी अधिकार है.
मणिपुर लंबे समय से चरमपंथी हिंसा और अलगाववादियों से प्रभावित रहा है. अलगाववादी निश्चित तौर पर मौत के लिए ज़िम्मेदार हैं, लेकिन यह क़ानून भारत के एक हिस्से को युद्ध प्रभावित क्षेत्र की तरह दिखाता है.
भूख हड़ताल शुरू करने के साथ ही उन्हें गिरफ़्तार कर अस्पताल में ले जाया गया और पिछले 14 सालों से हिरासत में रखते हुए उन्हें नाक में पाइप के रास्ते तरल भोजन दिया जा रहा है.
पिछले साल अदालत ने उन पर लगे ‘ख़ुदकुशी की कोशिश के आरोपों’ को ख़ारिज़ कर दिया और उनकी रिहाई के आदेश दिए. लेकिन उन्हें कुछ ही देर बाद फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया.
हर साल जनवरी में उनकी रिहाई और फिर गिरफ़्तारी का खेल खेला जाता है. इसी हफ़्ते एक बार फिर यही रस्म दोहराई गई.
ख़बरों में इसका ज़िक्र हुआ और फिर बहुत जल्द ही भुला भी दिया गया. लेकिन मैं इसे नहीं भूली, ख़ासकर नवंबर 2010 में शर्मिला की मां से मुलाक़ात के बाद.
शर्मिला की मां का दुख समझने के लिए उनके मुझसे कहे ये शब्द काफ़ी हैं, ‘‘एक दिन मैं बैठकर ख़बरें सुन रही थी और एक अधिकारी ने कहा कि वे सैन्यबल विशेषाधिकार क़ानून को कभी नहीं हटाएंगे. उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा और मैं बहुत निराश हुई. मैंने ख़ुद से कहा कि इसका मतलब हुआ कि मेरी बेटी कभी नहीं खा पाएगी.’’
मेरे लिए वो विशेष महिला हैं, जो अपनी बेटी से इसलिए नहीं मिलतीं, क्योंकि वो जानती हैं ऐसा करने पर शर्मिला रोएगी. और वो नहीं चाहतीं कि उनकी बेटी किसी तरह से कमज़ोर हो.
इरोम शर्मिला का विरोध उनके साहस का अविश्वसनीय नमूना है. उन्हें जीवन की मूलभूत चीजों से वंचित किया जा रहा है, लेकिन सरकार का मानना है कि कोई संकट नहीं है, क्योंकि वे उन्हें ज़बरन खाना दे रहे हैं और उन्हें ज़िंदा रखे हुए हैं.
लेकिन शर्मिला के शरीर को तरल भोजन के इंजेक्शनों के सहारे चलाया जा रहा है और हर कोई जानता है कि ज़िंदा रहने का ये कोई तरीक़ा नहीं है.
शर्मिला उन सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति बन गई हैं जिनके लिए वह संघर्ष कर रही हैं. शर्मिला का कहना है कि लोगों को सैन्य विशेषाधिकार क़ानून के तहत जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए.
सरकारों का ध्यान आकर्षित करने के लिए वह अपने शरीर का इस्तेमाल कर रही हैं. अगर आप इस तरह की व्यवस्था में रह रहे हैं तो आप वास्तव में अपने मानव होने का आधार खो देते हैं, अपने देश में स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार.
मीडिया में महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक़ दिए जाने पर ज़ोरदार बहस होती है. कहा जाता है कि सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के साथ पुरुषों जैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए, उनके अधिकार एक जैसे होने चाहिए.
लेकिन अगर महिलाओं को एक जैसी तवज्जो दी जाएगी तब किसी भी तरह की हिंसा बर्दाश्त नहीं होगी और बहस तक की ज़रूरत नहीं होगी.
महिला सुरक्षा में सरकार की भी अहम भूमिका है. सरकार का मतलब सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय समझौते और राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग करना ही नहीं है.
उसका उत्तरदायित्व घर के अंदर, बाहर, दफ़्तरों, फैक्ट्रियों, स्कूल और कॉलेज में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी होना चाहिए.
हाल ही में नसबंदी शिविरों में महिलाओं की मौत की घटना को ही लीजिए. बड़े पैमाने पर हुए नसबंदी ऑपरेशनों में कई महिलाओं की जान चली गई. वहाँ क्या ग़लत हुआ?
सरकार कह रही है कि दवाएं नकली थी या सवाल उठाए जा रहे हैं इतने ऑपरेशन एक दिन में कैसे किए गए.
लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं पर कोई बात नहीं कर रहा? कोई नहीं पूछ रहा कि आबादी नियंत्रण का एकमात्र हल नसबंदी ही क्यों है और वह भी सिर्फ़ महिलाओं के शरीर पर ही क्यों?
फिर से बहस शर्मिला के तर्क़ पर आकर ठहर गई. महिला का अपने शरीर पर अधिकार है या नहीं और क्या वह इसे विरोध प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल कर सकती है.
(बीबीसी से साभार)