Sunday 1 February 2015

मेरी पाठशाला तीन : जिनको अक्सर पढ़ता रहता हूं

''रोज़ सुबह, मुँह-अंधेरे दूध बिलोने से पहले,
मां चक्की पीसती, और मैं घुमेड़े में आराम से सोता...''
रमेश शर्मा उर्फ दिविक रमेश, हिंदी साहित्य जगत का खूब जाना-पहचाना नाम। कवि, बाल-साहित्यकार, आलोचक, नाटककार, संपादक।
उनकी कृतियाँ अनेक, जैसेकि कविता संग्रह : गेहूँ घर आया है, खुली आँखों में आकाश, रास्ते के बीच, छोटा-सा हस्तक्षेप, हल्दी-चावल और अन्य कविताएँ, बाँचो लिखी इबारत, वह भी आदमी तो होता है, फूल तब भी खिला होता, काव्य नाटक : खण्ड-खण्ड अग्नि, बाल साहित्य : 101 बाल कविताएँ, समझदार हाथी : समझदार चींटी (136  कविताएँ), हँसे जानवर हो हो हो, कबूतरों की रेल, बोलती डिबिया, देशभक्त डाकू, बादलों के दरवाजे, शेर की पीठ पर, ओह पापा, गोपाल भांड के किस्से, त से तेनालीराम, ब से बीरबल, बल्लूहाथी का बालघर (बाल-नाटक), आलोचना : नए कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धांत, संवाद भी विवाद भी, कविता के बीच से, साक्षात त्रिलोचन और संपादन : निषेध के बाद, हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, आंसांबल, दिशाबोध, दूसरा दिविक।
फेसबुक पर भी कभी-कभार। अति संक्षिप्त। हिंदी साहित्य संस्थान उत्तर प्रदेश से हाल ही में सम्मानित। उससे पूर्व; गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, दिल्ली हिंदी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान बाल तथा साहित्य पुरस्कार,  एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल साहित्य पुरस्कार, बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य अवार्ड, इंडो-रशियन लिटरेरी क्लब, नई दिल्ली का सम्मान, अनुवाद के लिए भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली का द्विवागीश पुरस्कार, श्रीमती रतन शर्मा बाल-साहित्य पुरस्कार।
दिविक जी की कुछ यादगार पंक्तियां 'मां' को याद करते हुए.........
चाहता था आ बसे माँ भी यहाँ, इस शहर में।
पर माँ चाहती थी आए गाँव भी थोड़ा साथ में
जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही।
न आ सका गाँव, न आ सकी माँ ही शहर में।
और गाँव मैं क्या करता जाकर!
पर देखता हूँ कुछ गाँव तो आज भी जरूर है
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका।
माँ आती बिना किए घोषणा तो थोड़ा बहुत ही सही
गाँव तो आता ही न शहर में।
पर कैसे आता वह खुला खुला दालान, आँगन
जहाँ बैठ चारपाई पर माँ बतियाती है
भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं से।
करवाती है मालिश पड़ोस की रामवती से।
सुस्ता लेती हैं जहाँ धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़कर
किसी लोक गीत की ओट में।
आने को तो कहाँ आ पाती हैं
वे चर्चाएँ भी जिनमें आज भी मौजूद हैं
खेत, पैर, कुएँ और धान्ने।
बावजूद कट जाने के कॉलोनियाँ खड़ी हैं
जो कतार में अगले चुनाव की नियमित होने को।
और वे तमाम पेड़ भी जिनके पास आज भी इतिहास है
अपनी छायाओं के।

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