Sunday 1 February 2015

मेरी पाठशाला चार : जिनको अक्सर पढ़ता रहता हूं

आज-दिन जबकि रात-रात भर नींद नहीं आती, आंखें खुली-खुली, जाने अंधे कमरे के आरपार क्या ढूंढती रहती हैं, तब.....''अच्छे बच्चे, आधा चाँद माँगता है पूरी रात, ईंटें, उसे ले गए, कौवे 1-2, गुजरात 1-2, छह दिसंबर, जूते, तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो, देखता हूँ अँधेरे में अँधेरा, दिमाग खाली पेट में, पानी क्या कर रहा है, पीछे छूटी हुई चीजें, मढ़ी प्राइमरी स्कूल के बच्चे, लालटेनें 1-2, समुद्र पर हो रही है बारिश, साँकल खनकाएगा कौन'', जैसी कविताओं के रचनाकार नरेश सक्सेना को बांचते हुए मन कुछ पल के लिए हल्का हो लेता है कभी-कभार। नागार्जुन, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, दुष्यंत, धूमिल, गोरख पांडेय, मुक्तिबोध, उदय प्रकाश, अदम गोंडवी आदि की तरह नरेश सक्सेना भी मेरे अत्यंत प्रिय कवि हैं।
उनके कविता संग्रह - समुद्र पर हो रही है बारिश, सुनो चारुशीला, नाटक - आदमी का आ के अलावा हर क्षण विदा है, दसवीं दौड़, जौनसार बावर, रसखान, एक हती मनू आदि से साहित्य जगत सुपरिचित है। उन्होंने संबंध, जल से ज्योति, समाधान, नन्हें कदम आदि लघु फिल्मों का निर्देशन भी किया है।
आज से लगभग पांच साल पहले ज्योत्स्ना पाण्डेय के प्रश्न - 'आजकल आप क्या कर रहे हैं?', पर उनका यह उत्तर बार-बार पढ़ लिया करता हूं- 'एक लम्बी कविता है  लड़कियों और नदियों के नामों को लेकर उसे पूरी करने बैठता हूँ तो वह और लम्बी हो जाती है. वैसे मैं छोटी कविताएँ ही लिखता हूँ. अब इसे पूरा करना है बस. इस कविता के साथ ही मेरा नया  कविता  संग्रह भी पूरा हो जाएगा. मेरा एक बहुत पुराना नाटक है प्रेत नवम्बर में उसका शो मुंबई में National Council Of Performing Arts में प्रस्तावित है. उसमें कुछ अतिरिक्त संवाद लिखने मैं मुंबई जा रहा हूँ. इसके अलावा मुक्तिबोध पर एक पुस्तक भी अधूरी है, उसका काम भी पूरा करना है. अपने समय की श्रेष्ठ रचनाओं का चयन करना चाहता हूँ . पिछले वर्ष कथा क्रम  पत्रिका में कविता का स्तम्भ लेखन करता था, जिसमें हर प्रकाशित रचना पर (काव्य चयन ) के साथ मैं अपनी टिप्पणी  भी देता था  उसे भी पुस्तक रूप में छपवाना है. और भी बहुत काम हैं. इच्छाएँ बहुत हैं और साथी कम. फिर भी जितना काम हो सकेगा, करूँगा.' नरेश सक्सेना की कुछ सुपठनीय पंक्तियां, जो हमारे समय को कुछ इस तरह बांचती समझाती हैं -
'' चीजों के गिरने के नियम होते हैं मनुष्यों के गिरने के
कोई नियम नहीं होते
लेकिन चीजें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं

बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफाफे में बचे रहो, यानी
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो

यही सोच कर गिरा भीतर
कि औसत कद का मैं
साढ़े पाँच फीट से ज्यादा क्या गिरूँगा
लेकिन कितनी ऊँचाई थी वह
कि गिरना मेरा खत्म ही नहीं हो रहा

चीजों के गिरने की असलियत का पर्दाफाश हुआ
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,
जहाँ, पीसा की टेढ़ी मीनार की आखिरी सीढ़ी
चढ़ता है गैलीलियो, और चिल्ला कर कहता है -
'इटली के लोगो,
अरस्तू का कथन है कि, भारी चीजें तेजी से गिरती हैं
और हल्की चीजें धीरे धीरे
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को
गिरता हुआ देखेंगे
गिरते हुए देखेंगे, लोहे के भारी गोलों
और चिड़ियों के हल्के पंखों, और कागजों और
कपड़ों की कतरनों को
एक साथ, एक गति से, एक दिशा में
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा,'
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया

चार सौ बरस बाद
किसी को कुतुबमीनार से चिल्ला कर कहने की जरूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप
कि चीजों के गिरने के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए है

और लोग
हर कद और हर वजन के लोग
खाये पिये और अघाये लोग
हम लोग और तुम लोग
एक साथ
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नजर आ रहे हैं

इसीलिए कहता हूँ कि गौर से देखो, अपने चारों तरफ
चीजों का गिरना
और गिरो

गिरो जैसे गिरती है बर्फ
ऊँची चोटियों पर
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ

गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए

गिरो आँसू की एक बूँद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच

गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिए जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
'कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसंत नहीं आता'

गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए
गिरो जलप्रपात की तरह
टरबाइन के पंखे घुमाते हुए
अँधेरे पर रोशनी की तरह गिरो

गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष रचते हुए

लेकिन रुको
आज तक सिर्फ इंद्रधनुष ही रचे गए हैं
उसका कोई तीर नहीं रचा गया
तो गिरो, उससे छूटे तीर की तरह
बंजर जमीन को
वनस्पतियों और फूलों से रंगीन बनाते हुए
बारिश की तरह गिरो, सूखी धरती पर
पके हुए फल की तरह
धरती को अपने बीज सौंपते हुए
गिरो
गिर गए बाल
दाँत गिर गए
गिर गई नजर और
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीखें, और शहर और चेहरे...
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है खून में निकदार होमो ग्लोबीन की

खड़े क्या हो बिजूके से नरेश
इससे पहले कि गिर जाए समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वजह और वक्त
और गिरो किसी दुश्मन पर

गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूँ
गिरो  । ''

5 comments:

  1. गिरना भी कितने अर्थ रखता है ! नरेश जी को बीकानेर संस्कृति और साहित्य महोत्सव में सुनने का सुअवसर मिला था, ऐसे समर्थ कवि से मिलना मेरा अहोभाग्य था...आप लिखते रहें, हम पढ़ते रहें....

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  2. गिरना भी कितने अर्थ रखता है ! नरेश जी को बीकानेर संस्कृति और साहित्य महोत्सव में सुनने का सुअवसर मिला था, ऐसे समर्थ कवि से मिलना मेरा अहोभाग्य था...आप लिखते रहें, हम पढ़ते रहें....

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  3. संबल जैसी पंक्तियां..........आप लिखते रहें, हम पढ़ते रहें....

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  4. संबल जैसी पंक्तियां..........आप लिखते रहें, हम पढ़ते रहें....

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  5. संबल जैसी पंक्तियां..........आप लिखते रहें, हम पढ़ते रहें....

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