Sunday 22 March 2015

अब ब्राह्मणों-बनियों के मीडिया की भूमिका तय होनी चाहिए

गोरखपुर : फिल्म फेस्टिवल में भारतीय मीडिया पर उठे सवालों ने पहली बार इतनी गंभीरता से लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है। पहले दिन अरुंधति रॉय ने भारतीय मीडिया को ब्राह्मणों और बनियों का मीडिया कहा तो दूसरे दिन सेंसरशिप और मीडिया पर गंभीर बहस में कई नामचीन फिल्मकारों, पत्रकारों  का कहना था कि आधुनिक मीडिया हमसे बहुत कुछ छिपा रहा है। इसमें सरकारें भी शामिल हैं। सच कहने से रोका जा रहा है। सजा दी जा रही है। दूसरे देशों की तरह भारतीय मीडिया की भूमिका तय होनी चाहिए। 
फेस्टिवल के पहले दिन लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय का कहना था कि इस देश के पहले कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ मोहनदास करमचंद गाँधी थे और वो कॉरपोरेट बिरला थे. कॉरपोरेट घरानों की इस देश की राजनीति, समाज और कला साहित्य को प्रभावित करने की कोशिश कोई नयी बात नहीं है. जो काम आज अंबानी, वेदान्ता, जिंदल या अडानी कर रहे हैं, वो पहले भी बिरला या टाटा जैसे घराने करते ही थे.
गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को संबोधित करते हुए लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय ने मीडिया, साहित्य और कला के क्षेत्र में कॉरपोरेट की बढ़ती घुसपैठ पर जम कर हमला बोला. उन्होंने कहा कि जो काम बरसों से फ़ोर्ड और रॉकफ़ेलर फ़ाउंडेशन कर रहे थे, वही काम अब भारतीय कॉरपोरेट घराने करने लगे हैं. जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल में सलमान रश्दी की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बहुत बहस होती है लेकिन छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के अधिकारों पर कोई बात नहीं होती क्योंकि ऐसे उत्सवों के प्रायोजक यही कॉरपोरेट हैं, जो उन ग़रीबों के हितों पर डाका डाल रहे हैं.
अरुंधति ने जातिवाद को पूंजीवाद जितना ही ख़तरनाक बताते हुए कहा की 90 प्रतिशत कॉरपोरेट बनियों के नियंत्रण में हैं और मीडिया में ब्राह्मणों और बनियों का ही वर्चस्व है. गाँधी को ‘जातिवादी’ बताने वाले अपने पुराने बयान को फिर से दोहराते हुए कहा कि किसी व्यक्ति की अंध भक्ति ठीक नहीं. उन्होंने कहा की उनके ये विचार 1909 से 1946 तक के ख़ुद गाँधी जी के लेखन के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष हैं. समाज से लेकर राजनीति तक हर कहीं ऐसे ही जाति समूह दिखाई देते हैं. समाज को विभाजित करने वाली इस ताक़त के ख़िलाफ़ भी प्रतिरोध की लड़ाई लड़नी होगी.
प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने कहा कि जिन सच्चाइयों को कॉरपोरेट और उसका समर्थक सूचना तंत्र दबाने और छिपाने में लगा है, उसे प्रतिरोध के सिनेमा ने मंच दिया है. फ़िल्मकार संजय काक ने कहा कि डॉ़क्यूमेंट्री फ़िल्मों के लिए ये बेहतर दौर है. इस फ़ेस्टिवल ने साबित किया है कि बेहतर फ़िल्मों के लिए एक पब्लिक स्फ़ेयर मौजूद है जो पब्लिक डोनेशन की ताक़त से कामयाब भी हो सकता है.
दस साल पहले एक प्रयोग के तौर पर शुरू हुआ गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल अब राष्ट्रीय स्तर पर एक अभियान बन चुका है. हालांकि शुरुआत से ही नियमित तौर पर शिरकत कर रहे एक दर्शक वर्ग का ये भी मानना है की जन संस्कृति मंच के जुड़ाव के साथ जबसे इस फ़िल्म फ़ेस्टिवल की तासीर बदली तबसे आम लोगों की दिलचस्पी घटी है. 
फिल्म फेस्टिवल के दूसरे दिन सेंसरशिप और मीडिया पर गंभीर बहस में फिल्मकार संजय काक, अजय टीजी, तरुण भारतीय, बिक्रमजित गुप्ता, पंकज श्रीवास्तव, नकुल सिंह साहनी आदि ने विचारोत्तेजक बातों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर केंद्रित रखा। उनका कहना था कि आज के दौर का मीडिया हमसे बहुत कुछ छिपा रहा है। जो दिखाया, बताया जा रहा है, वह पूरा सच नहीं है। इसमें सभी सरकारें भी शामिल हैं। हमे सच कहने से रोका जा रहा है, सजा दी जा रही है। क्या सच बोलना गुनाह है। दूसरे देशों की तरह भारत में भी मीडिया की भूमिका तय होनी चाहिए। सरकारें अपने हिसाब से राय तय करने के लिए मजबूर कर रही हैं। साम्राज्यवाद के इस दौर में नाम रखने में भी सोचना पड़ रहा है। यह असहनीय है। रविवार को बच्चों को पवन श्रीवास्तव द्वारा निर्देशित भोजपुरी फिल्म 'नया पता' दिखाई गई। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा पर बनी अजय टीजी की 'पहली आवाज' को दर्शकों ने खूब सराहा। 

1 comment:

  1. चौथा खम्बा कहे जाने वाला मीडिया सच में इक तरफ़ा है, बेलगाम है और इसकी भूमिका तय होनी जरूरी है समाज में ...

    ReplyDelete