Sunday 15 March 2015

पाश्‍चात्‍य सार्वभौमिकता को भारतीय चुनौती

लेखक-राजीव मल्‍होत्रा, 
अनुवादक- देवेन्‍द्र सिंह, हिन्‍दी यूएसए, सुरेश चपिलूनकर. 
हार्परकॉलिंस पब्‍लिशर्स इंडिया से प्रकाशित. 
पश्‍चिमी सार्वभौमिकता भारतीय धार्मिक संस्‍कृति से क्‍यों मेल नहीं खाती? अपनी अद्वितीय धार्मिक संस्‍कृति को सुरक्षित रखना क्‍यों आवश्‍यक है? सन्‍निहित एकता बनावटी एकता से अधिक चिरस्‍थाई क्‍यों है? भारत की विविधता और सतही अव्‍यवस्‍था को पश्‍चिम में गलत क्‍यों दिखाया जाता है? संस्‍कृत शब्‍दों को बचाए रखना क्‍यों आवश्‍यक है? इन सभी प्रश्‍नों के उत्‍तर पढिए इस पुस्‍तक में.
इस पुस्‍तक में चिन्‍तक और विचारक राजीव मल्‍होत्रा विभिन्‍न्‍ताओं के सीधे और सच्‍चे मुकाबले में आने वाली चुनौतियों के बारे में बताते है। वे ऐसा भारत के प्रति किए जाने वाले अवलोकन को उलट कर अवलोकन करने वाले की तरह स्‍थापित करके और पश्‍चिम को धार्मिक दृष्‍टिकोण से देख कर करते है। वे विशिष्‍ट रूप से दर्शाते है कि जहॉं अद्वितीय ऐतिहासिक रहस्‍योदघाटन पश्‍चिम मतों का आधार है वहीं भारतीय धर्म शरीर में यहीं और इसी समय आत्‍मबोध प्राप्‍त करने पर देते है। वे भारतीय धर्म की तत्‍वमीमांसा को थामने वाली अभिन्‍न एकता की ओर भी इंगित करते हैं और इसकी तुलना कृत्रिम एकता वाले पश्‍चिम विचार और इतिहास से करते हैं।
‘विभिन्‍नता’ एक विदुषी एवं आकर्षक पुस्‍तक है जो प्रचलित न्‍यूनकारी रूपान्‍तरणों की समीक्षा करती है ओर भिन्‍न के प्रति पश्‍चिम की व्‍यग्रता तथा व्‍यवस्‍था से असाधारण आसक्‍ति का विश्‍लेषण करती है। यह विविध-सभ्‍यता के विश्‍वदर्शन कीवकालत कर पश्‍चिम सार्वभौमिकता के दावे का खण्‍डन करके समाप्‍त होती है।
(manushi.in)

No comments:

Post a Comment