Monday 23 March 2015

शहीद पत्रकार भगत सिंह

शहीद भगतसिंह अमर क्रांतिकारी ही नहीं, पत्रकार भी थे। आजादी के आंदोलन के दौरान वह सांप्रदायिक तत्वों की ओर इशारा करते हुए लिखते हैं - ‘दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक, जिनका दिल और दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो, बहुत कम हैं।
'अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या?’
सामाजिक हालात पर उन्होंने लिखा - ‘समाज का वास्तविक पोषक श्रमजीवी है। जनता का प्रभुत्व मजदूरों का अंतिम भाग्य है। इन आदर्शों और विश्वास के लिए हम उन कष्टों का स्वागत करेंगे, जिनकी हमें सजा दी जाएगी। हम अपनी तरुणाई को इसी क्रांति की वेदी पर होम करने लाए हैं, क्योंकि इतने गौरवशाली उद्देश्य के लिए कोई भी बलिदान बहुत बड़ा नहीं है।…समाज का सबसे आवश्यक अंग होते हुए भी उत्पादन करने का या मजदूरों से शोषकगण उनकी मेहनत का फल लूट लेते हैं। एक ओर जहां सभी के लिए अनाज पैदा करने वाले किसानों के परिवार भूखों मरते हैं, वहीं सारे संसार को सूट जुटाने वाला बुनकर अपना और अपने बच्चों का तन ढकने के लिए पर्याप्त कपड़ा नहीं पाता, शानदार महल खड़ा करने वाले राजमिस्त्री, लेबर और बढ़ई, झोपड़ियों में ही बसर करते और मर जाते हैं। और दूसरी ओर पूंजीपति, शोषक अपनी सनक पर करोड़ों बहा देते हैं।’
उन्होंने साफ साफ लिखा -‘क्रांति से हमारा आशय यह है कि समाज में एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना की जाए, जिसमें इस प्रकार के हड़कम्प का भय न हो और जिसमें मजदूर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाए और उसके फलस्वरूप विश्व पूंजीवाद के बंधनों, दुखों तथा युद्धों से मानवता का उद्धार कर सकें।’...'यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमको बमों और पिस्तौलों से कुछ हासिल नहीं होगा। ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्रीय सेना’ के इतिहास से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। बम चलाना निरर्थक ही नहीं, अक्सर हानिकारक भी होता है, हालांकि कुछ परिस्थितियों में उसकी अनुमति दी जा सकती है जिसका मुख्य उद्देश्य मजदूरों और किसानों को संगठित करना ही होना चाहिए।’
आशीष दासोत्तर अपनी पुस्तक ‘समर में शब्द’ लिखते हैं- भगतसिंह ने अपने पत्रकारिता जीवन में कई मुद्दों पर अनेक लेख लिखे। वह ‘प्रताप’ में निरंतर लिखते रहे। काकोरी के अभियुक्तों को जेल से छुडाने की योजना के समय कानपुर आए, तब उन्होंने बबर अकाली आन्दोलन के शहीदों पर लेख ‘होली के दिन खून के छींटे’ शीर्षक से लिखा जो 15 मार्च 1926 के साप्ताहिक ‘प्रताप’ में प्रकाशित भी हुआ। यह लेख उन्होंने ‘एक पंजाबी युवक’ के नाम से लिखा था।
भगतसिंह अगर क्षणिक पत्रकार होते या सिर्फ क्रांतिकारी ही होते तो पत्रकारिता की राह को कभी का छोड़ देते। यह भी संभव था कि वे पत्रकारिता को समय मिलने पर महत्व देते। मगर ऐसा नहीं था। वे पत्रकारिता से जिस तरह प्रारंभ से जुडे थे आखिरी समय तक उसी सिद्दत से जुडे़ रहे। माडर्न रिव्यू के सम्पादक रामानन्द चटर्जी ने सम्पादकीय टिप्पणी में ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ नारे का मखौल उड़ाया। भगतसिंह को यह उचित नहीं लगा तो उन्होंने ‘सम्पादक के नाम पत्र’ का सहारा लिया। उन्होंने सम्पादक की टिप्पणी का माकूल जवाब इस पत्र में दिया जो बाद में 24 दिसम्बर 1929 के द ट्रिब्यून में छपा भी।
इस पत्र में उन्होंने लिखा दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऐसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है जो सम्भव है भाषा के नियमों एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्क सम्मत रूप में सिद्ध न हो पाये परन्तु इसके साथ ही इस नारे से उन विचारों को पृथक नहीं किया जा सकता जो इसके साथ जुडे हुए हैं। किसी अखबार में सम्पादक को उसकी टिप्पणी पर इस तरह की चुनौती वही दे सकता है जो न सिर्फ अपने मकसद के प्रति संकल्पित हो बल्कि वह अखबार की गरिमा सम्पादक के महत्व और सम्पादकीय टिप्पणी के परिणामों को बखूबी समझता हो। यदि भगतसिंह द्वारा इस तरह सम्पादक के नाम पत्र लिखकर अपनी बात नहीं रखी जाती तो सम्पादक की टिप्पणी को ही सच समझा जाता और ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के सही अर्थों को समझा ही नहीं जाता।

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