Saturday 28 March 2015

क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूं कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले?

आज 'गालियों' की बात पर याद आती है राही मासूम रजा की ये दोटूक टिप्पणी, चाहे भले उन्होंने अपने उपन्यास 'आधा गांव' के बहाने कही हो - '' बड़े-बूढ़ों ने कई बार कहा कि गालियां न लिखो, जो 'आधा गांव' में इतनी गालियां न होतीं तो तुम्हे साहित्य अकादमी पुरस्कार अवश्य मिल गया होता परंतु मैं यह सोचता हूं कि क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूं कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले? पुरस्कार मिलने में कोई नुकसान नहीं, फायदा ही है परंतु मैं साहित्यकार हूं। मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं श्लोक लिखूंगा और वह गालियां बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियां भी लिखूंगा। मैं कोई नाजी साहित्यकार नहीं हूं कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊं और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दूं कि जो एक भी शब्द अपनी तरफ से बोले, उसे गोली मार दो। कोई बड़ा-बूढ़ा यह बताए कि जहां मेरे पात्र गाली बकते हैं, वहां मैं गालियां हटाकर क्या लिखूं? डॉट डॉट डॉट ? तब तो लोग अपनी तरफ से गालियां गढ़ने लगेंगे! और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं है। गालियां मुझे भी अच्छी नहीं लगतीं। मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है परंतु लोग सड़कों पर गालियां बकते हैं। पड़ोस से गालियों की आवाज आती है और मैं अपने कान बंद नहीं करता। यही आप करते होंगे। फिर यदि मेरे पात्र गालियां बकते हैं, तो आप मुझे क्यों दौड़ा लेते हैं? वे पात्र अपने घरों में गालियां बक रहे हैं। वे न मेरे घर में हैं, न आपके घर में। इसलिए साहब, साहित्य अकादमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जुबान नहीं काट सकता।''

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