Tuesday 31 March 2015

'मजीठिया समय' में कहां दुबके हैं जमा-जुबानी गरिष्ठ-वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार / जयप्रकाश त्रिपाठी

क्षमा करें कि एक चलताऊ मुहावरे के बहाने इतनी गंभीर बात कहनी पड़ रही है, लेकिन जनभाषा में सधती इसी तरह से लगी ये बात - जो डर गया, सो मर गया। भारतीय मीडिया के लिए हम अपने दौर को 'मजीठिया समय' नाम दें तो इससे बड़ा अर्थ निकलता है। 'मजीठिया समय' के हीरो वे हैं, जो डरे नहीं हैं, जो सुप्रीम कोर्ट तक देश भर के श्रमजीवी पत्रकारों के हित के लिए आज अपना सब कुछ दांव पर लगाकर जूझ रहे हैं, न्याय दिलाने के लिए अपने संकल्प पर अडिग हैं। बाकी वे सब डरपोक हैं, जो मजीठिया का लाभ तो लेना चाहते हैं लेकिन चुपचाप, नियोक्ता कहीं उन्हें जान-पहचान न जाए।
इसलिए और साफगोई से कहें तो 'मजीठिया समय' एक विभाजक रेखा है हिम्मतवर और डरपोक पत्रकारों के बीच। 'मजीठिया समय' उन लेखकों-साहित्यकारों-कवियों और गरिष्ठ-वरिष्ठ पत्रकारों को भी माफ नहीं करेगा, जो अखबार के पन्नों और टीवी स्क्रीन पर छाए रहने की गंदी (छपासी) लालसा में 'मजीठिया समय' पर अपना पक्ष चुराए पड़े हैं। और वे संगठन भी, जो पत्रकार-हितों के नाम पर तरह तरह की गोलबंदियां कर अपनी कमाई-धमाई में जुटे रहते हुए मालिकानों, अधिकारियों और सरकारों के गुर्गे हो चुके हैं।
कुछ मित्रों का कहना है कि भूखे भजन न होइ गोपाला। मेरा सोचना है कि भूख तो उन्हें भी लगती है, उनका भी घर परिवार है, जो 'मजीठिया समय' में शोषितों के साथ हैं और जिनमें से कइयों की नौकरी चली गई, कइयों की दांव पर लगी है, लेकिन जो कत्तई कदम पीछे लौटाने को तैयार नहीं हैं। सबसे बड़ी दिक्कत क्या है कि सुंदर-सुंदर साहित्य लिखने वाले, क्रांतिकारी बहस-राग सुनाने वाले, समाज के दुख-दर्द पर जमा-जुबानी हमदर्दी लुटाने वाले पत्रकारों ही नहीं, किसी भी वर्ग के संघर्ष के समय कुतर्कों की आड़ में मुंह छिपा लेते हैं क्योंकि किसी न किसी के हिस्से की उन्हें मलाई सरपोटनी होती है, किसी न किसी (कारपोरेट मीडिया आदि) के भरोसे उन्हें अपनी छद्म महानता का सार्वजनिक प्रदर्शन करना होता है, मंच से अथवा मुंह-मुंह मिट्ठुओं की तरह। साहित्य और सूचना के नाम पर गोबर थापने वाले ऐसे बात बहादुरों की बड़ी लंबी-लंबी कतारें हैं।
 इस 'मजीठिया समय' में उस कारपोरेट मीडिया का चरित्र देखिए कि हर दिन वह सौ रंग इसलिए बदल रहा है ताकि पत्रकारों का शोषण जारी रहे। एक अखबार (हिंदुस्तान) ने तो अपने यहां एडिटर शब्द पर ही स्याही फेर दी है क्योंकि एडिटर कहलाएगा तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उसे संपादकनामा कर्मियों को वेजबोर्ड के अनुसार वेतन देना पड़ जाएगा। एक अखबार (भास्कर) ने मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे मीडियाकर्मियों को तो श्रम न्यायालय में चोर करार दिया है। एक अखबार (अमर उजाला) अपनी कंपनी की सभी यूनिटों को अलग अलग दर्शाने का नाटक कर रहा है। एक अखबार (दैनिक जागरण) ने तो सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया सिफारिशों और अदालती आदेशों को ही चैलेंज कर दिया है। यद्यपि सा-साफ ये सब के सब उच्चतम न्यायालय के मजीठिया संबंधी आदेश का अनुपालन न कर मानहानि के गुनहगार हैं। और हमारे राज्य की नीयत देखिए कि वह न्यायपालिका में कितनी आस्था रखता है। मजीठिया मामले पर उसने गंभीर चुप्पी साध रखी है क्योंकि वर्तमान या भविष्य के (पेड-सेट न्यूज वाला) चुनावी सर्कस खेलने में कारपोरेट मीडिया की पक्षधरता उसके लिए अपरिहार्य है।
अखबार, न्जूज चैनल और फिल्मों वाला ये वही धन-मीडिया है, जिसने अपसंकृति को कलेजे से लगा रखा है। सत्ता का पत्ता-पत्ता चाटने के लिए। प्रकट-अप्रकट तौर पर इस 'मजीठिया समय' में जो भी धन-मीडिया के साथ हैं, वे सभी हमारे वक्त में शोषित पत्रकारों और न्यायपालिका, दोनों के गुनहगार हैं। समय ये सन्नाटा भी तोड़ेगा, साथ ही उन गुनहगारों की शिनाख्त कर उनके खोखले विचारों और गतिविधियों पर सवाल भी जरूर जड़ेगा।  

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