Monday 6 April 2015

क्षमा करें वे जो मेरी इस आलोचना मे जाने अंजाने आ गए हो / स्वाति तिवारी

कुछ युवा आलोचक केवल मित्रों या मात्र एक मित्र की ही किताबों पर एसी एसी आलोचना लिखते है की उन्हे सदी का महान साहित्यकार सिद्ध करने मे लगे रहते है , कुछ प्रकाशक भी फेवरेट फोबिया के शिकार होते है जो बार बार उन्ही उन्ही पुस्तकों की समीक्षा यहाँ वहाँ करवाते रहते है , कुछ एक हाथ दे एक हाथ ले वाले समीक्षक है मै तेरी पुस्तक यशगान लिखता हूँ तू मेरी का गीत गा देना । कुछ खुद ही सधी सटीक कहने लगते है । तो मेरी समझ से समीक्षा अपना महत्व खो चुकी है , लेखक को इन आलोचको से बाहर निकल कर कुछ नागरिक पत्रकारिता की तर्ज पर नागरिक आलोचको को खोजना चाहिए युवा पाठकों मे जाना चाहिए ,आम पाठक को रचना कैसी लगी मूल्यांकन की दृष्टि को इस बदलाव की जरूरत है ।आलोचना के प्रचलित नाम समय अभाव या लाभ हानी के गणित मे उलझे होते है किताबें सालो रखे रहते इस विडम्बना के चलते अच्छी कितबे केवल अलमारी मे रहा जाते है ,आलोचना को अपने नए मान दंड खोजना होंगे ---------उन्हे कितबे भेजनी बंद करदेनी चाहिए जो केवल किताबों का संग्रह करने के लिए समीक्षा के नाम पर लेलेते है -----क्षमा करें वे जो मेरी इस आलोचना मे जाने अंजाने आ गए हो ----------व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण केͧलए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि सेतभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे. वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।कितने आलोचक इन सिद्धांतों को ध्यान मे रखते है यह देखा जाना चाहिए आलोचना करते समय जिन मान्यताओं और पद्धतियों को स्वीकार किया जाता है, उनके अनुसार आलोचना केप्रकार विकसित हो जाते हैं। सामान्यत: समीक्षा के चार प्रकारों को स्वीकार किया गया है:-
सैद्धान्तिक आलोचना
निर्णयात्मक आलोचना
प्रभावाभिव्यजंक आलोचना
व्याख्यात्मक आलोचना
कुंवर नारायण : आलोचना संबधी कुछ शब्दों और `पदों` पर गहराई से विचार करना चाहिए, जैसे `आलोचना`, `समीक्षा', `विवेचना', `मूल्यांकन`, 'अध्ययन`, `व्याख्या`, `आकलन', `विश्लेषण', `रिव्यू` आदि जो एक कृति या रचना पर सोच विचार से जुड़े पद हैं । इनके अभिप्राय और आशय एक से लगते हुए भी एक से नहीं हैं। एक कृति के गुण-दोष निर्धारण में इन पदों के बीच फर्क का आभास मिलते रहना चाहिए । `पदों` को लेकर असावधानी और थोकपन की वजह से भी अनेक भ्रांतियां उत्पन्न होती है । किसी भी कृति को केवल एक ही दृष्टि से और एक ही तरफ से देखना भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि एक रचना के स्वभाव में ही बहुलता और अनेकता होती है । उसे कई तरह से जांचना परखना जरुरी होता है । अपने पूर्वाग्रह अपनी जगह लेकिन समीक्षा की जाँच पड़ताल में अगर भरसक निष्पक्षता और तटस्थता हो तो शायद वह मानक समीक्षा के आदर्श के ज्यादा नजदीक मानीजा सकती है। रचना जीवन-सापेक्ष होती है। वह जीवन की सच्चाइयों से हमारा सामना कराती है।
स्वाति तिवारी के फेसबुक वॉल से

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