Saturday 4 April 2015

झुण्ड बनाकर सोशल मीडिया पर औरत पर हमले करने वाले

स्त्री-विमर्श पर ढेर सारा लिखा जा चुका है, लिखा जा रहा है, किया जा रहा है आज भी। लेकिन ढोंग की उड़ती धज्जियों से रू-ब-रू होना हो, आधी आबादी के खाटी शब्दों से सामना करने की हिम्मत हो तो फेसबुक पर शिल्पी चौधरी के वॉल तक जाइए। उनकी ज्वलंत टिप्पणियों और उनमें उठाए जा रहे बेबाक सवालों ने बहुत सारे फेसबुकियों को तिलमिलाकर रख दिया है। लेकिन वह सामना कर रही हैं अपनी दो टूक हाजिरजवाबी से और फाड़-चीथ रही हैं छिपेरुस्तम दोमुंहों की नकाब। उनको पढ़ते हुए कोई उद्धरण याद करने की जरूरत नहीं। पढ़ते जाइए, सब समझ आता जाता है अपनेआप, कि किसके लिए कहा जा रहा है, वो सांप किस नस्ल के हैं और दुश्मन किस आबादी के।....उनकी कुछ-एक टिप्पणियां अविकल यहां प्रस्तुत हैं। फेसबुक पर बेलौस, अडिग एक स्त्री के शब्द। वह लिखती हैं - 
'लोगों को विकास या आधुनिकीकरण चाहिए मगर सिर्फ सुविधाओं में, बाकी पाखण्ड चलते रहें। सारा प्रोग्रेसिवनेस धरा रह जाता है, जब बात व्यक्तिगत आचरण की होती है। महिलाओं को आगे आना चाहिए लेकिन महिलाओं को अराजक तत्वों से उलझना नहीं चाहिए। क्या आपको नहीं पता कि ये तत्व ही महिलाओं को आगे नहीं आने देना चाहते?
'या चाहते भी हैं तो उनकी नियम शर्तों पर, वो महिलावादी बन कर माहवारी और क्लीवेज पर बात करते हैं और आप उनके प्रवचन भाव विभोर होकर सुनती हैं। पर बुर्के के सवाल पर वे औरतों को वेश्या ठहराते हैं। लिव इन की हिमायती महिलाएं भी क्या रिश्ता बिगड़ने के बाद वेश्या करार नहीं दे दी जातीं इन्हीं महिलावादियों द्वारा। एक का मुखौटा तो ऐसा उतरा कि बेचारा मनोहर कहानियाँ लिखने लगा।
'कई फ़ोन आये, जिन्होंने स्पष्ट कहा की आप को खुर्शीद अनवर की तरह ही टारगेट किया गया। फ़र्क़ ये कि खुर्शीद साहब भावुक व्यक्ति थे।और आक्षेप झेल नहीं पाये। कट्टरपंथियों ने तय कर लिया था की खुर्शीद को खत्म कर देंगे। यहाँ तो ये जुर्रत एक औरत ने वो भी हिन्दू ने की, फतवा निकलने की देर है। चलो देखेंगे, जहरीली बूंदे किसके गले उतरेंगी।
'प्रोग्रेसिव नहीं हैं तो नाटक न करें। ये लड़ाई किसी धर्म के प्रति नहीं। और ये आपको समझ नहीं आना। खैर अगर ईरान में महिलाएं ये लड़ाई लड़ सकती हैं तो भारत की महिलाएं निहायत डरपोक और दकियानूसी हैं, जिन्हें लगता है, झगड़ों से दूर रहने में भलाई है। हो चुका आपका सशक्तीकरण। सिर्फ नौकरी करने को ही सशक्तीकरण मानने वालियों आप धन्य हैं। आँखों पर काल चश्मा लगाओ और जिंदगी की धूप को मात दे देना।
'किस किस धर्म में लिव इन को मान्यता है? और किस धर्म के अनुसार इसे क्या दरज़ा दिया गया है? क्या है ये एक दुरुस्त आचरण? अगर नहीं, तो धर्मिक पाखण्डी इसमें क्यूँ लिप्त हैं। क्या ये महिलाओं का शोषण नहीं? जिम्मेदारियों से पलायन नहीं? क्या ये समाज को सही दिशा दे रहे हैं?
''(शिल्पी चौधरी की इस पोस्ट पर अजित पांडेय की प्रतिटिप्पणी - 'लिव इन रिलेशन भोगवादियों के मस्तिष्क की उपज है। भोग तक सभी मस्त परन्तु विवाह और तद्जनित परिणाम के सामने आते ही दोनों के होश (अधिकांशतः) फ़ाख़्ता होने लगते हैं। महिला/लड़की विवाह के लिये ज़ोर देने लगती है और पुरुष/लड़का अपने लम्पट स्वभाव के कारण इससे भागने लगता है। ईसाई धर्म में विवाह एग्रीमेंट नहीं है, सनातन धर्म की तरह पवित्र बन्धन ही माना गया है।' अमित सिंह लिखते हैं - 'सारे धर्मों में एक बात तो समान है और वह है स्त्री की कामुकता पर नियंत्रण। पुरुष चाहे जो करे, चाहे जितनी औरतें रखे, चाहे जितने विवाह कर ले। विवाह के भी दर्जनों प्रकार निर्मित किये गए, ताकि मर्दों की फौज को मौज मस्ती में कोई कमी नहीं हो, खुला खेल फर्रुखाबादी चलता रहे। बस औरतों पर काबू रखना जरूरी समझा गया। किसी ने नारी को नरक का द्वार कह कर गरियाया तो किसी ने सारे पापों की जन्मदाता कह कर तसल्ली की। मर्द ईश्वरों द्वारा रचे गए मरदाना संसार के तमाम सारे मर्दों ने मिलकर मर्दों को समस्त प्रकार की छूटें प्रदान कीं और महिलाओं पर सभी किस्म की बंदिशें लादी गयी। यह वही हम मर्दों का महान संसार है जिसमें धर्मभीरु स्त्रियों को देवदासी बना कर मंदिरों में उनका शोषण किया गया है। अल्लाह, ईश्वर, यहोवा और शास्ता के नाम पर कितना यौनाचार विश्व में हुआ है, इसकी चर्चा ही आज के इस नरभक्षी दौर में संभव नहीं है। मैं समझ नहीं पाता हूँ कि इस तरह की प्रथा का उल्लेख करने वाली किताब से घबराये हुए कथित धार्मिकों की भावनाएं इतनी कमजोर और कच्ची क्यों है, वह छोटी-छोटी बातों से क्यों आहत हो जाती है, सच्चाई क्यों नहीं स्वीकार पाती है ?')''
 'गांवों और शहरों कस्बों में औरत के कपड़े फाड़ने वाले, उनका बलात्कार करने वाले, इनबॉक्स की बातें बाहर आने पर अपने को नंगा पा रहे हैं, इसलिए तिलमिला रहे हैं, कमाल ये है, बुर्के पहनाते-पहनाते इनके कपड़े उतरते जा रहे हैं।'
'गांवों में 'डायन' पाई जाती है। वो स्त्री, जो आदमियों की मांगों को पूरा न करे, जो परम्परागत रूप से चली आ रही प्रथाओं का विरोध करे, जिसे कोई पुरुष नियंत्रित न कर पाये, उसे विरोधी 'डायन' घोषित करवा देते हैं। उसे झुण्ड बना कर घेरते हैं। उसके बाल काट दिए जाते हैं। उसे लोहे की सलाखों से दागा जाता है माथे पर या फिर सामूहिक बलात्कार। काबुल में मारी गयी फरखुन्दा याद है? जिसने पर्दा करने से मना किया और पत्थर मार-मार कर, फिर जला कर उसे मार दिया गया।
'तो झुण्ड बनाकर सोशल मीडिया पर औरत पर हमले करने वाले पशुओं को आप इन लोगों से अलग कर सकते हैं? उन्होंने भी उनके मन की न कहने वाली को डायन घोषित करने की कोशिश की है। वैसे हमेशा ये कोशिश तो औरत की जुबान बन्द करने की ही होती है। वो तो अनपढ़ और बर्बर होते होंगे। सोशल मीडिया के इन भेड़ियों को लोग कितनी आसानी से अपनों में गिने बैठे हैं।
'नंदिता दास ने बिलकुल गलत नहीं कहा - Every man is a potential rapist. जी हाँ, सिर्फ मौका मिलने की देर है। ये जो बर्ताव था, क्या ये तेज़ाबी हमलों और बलात्कारों के समय नही होता? बदले की भावना। नशे और गुस्से में ही असलियत सामने होती है। बाकी समय आप तस्बीह लेकर बैठे रहे। हैं तो आप शैतान ही।'
'अच्छा है, साफ़ दिख गया, आओ, कितने दीनी हैं भाईचारा, माय फुट । आप अपने पाखण्ड दूर करना तो दूर, मुझ पर तिलमिला कर साबित कर रहे हैं कि सेक्युलर होना बेवक़ूफ़ी है। वो कहते हैं न आदमी और "......" में कोई फ़र्क़ नहीं। बुर्के के बगैर हर औरत ऐसी दिखती है। नज़र गन्दी तेरी, मज़बूरी में बुर्का मैं पहनूं। नहीं तो तू मुझे ऐसे ही नंगा करेगा। वैसे नंगा कौन है? मैं या तू? अपनी माँ कैसी लगी थी, जब उसकी छातियों से दूध पिया था? इसी नज़र से देखा था क्या उस बेचारी माँ को? आज उसे शर्म तो जरूर आती होगी तुझ पर। और इस बार नाम समेत क्योंकि कल एक भाई का कहना था की बन्दे को जलील किया जाना चाहिए। ये मेरी नहीं, पब्लिक की डिमांड पर भाई। भाई जान रात के 11 :30 के बाद इनबॉक्स में पर्दे पर चर्चा करने क्यों आये, ये बाद में समझ आया।
छिप-छिपकर अप्रिय टिप्पणियां करने वाले बेशर्म फेसबुकियों को वह इस तरह फटकारती हैं -
'मुखन्नस। नया शब्द मेरे लिए पर किरदार पुराने। मुखन्नसों की कोई कमी नहीं। इंसान ने उन्हें मज़ाक का विषय बना दिया। इंसान, जो खुद को 'अहम् ब्रह्मास्मि' मानता है। खैर, मुखन्नसों की जन्मजात विशेषता के चलते उन्हें एक ख़ास लिंग की सुरक्षा में राजे-महाराजे नियुक्त करते रहे। दुर्भाग्य से वे हँसी के पात्र बनाये गए। आज राजे नहीं बचे लेकिन मुखन्नस खत्म नहीं हुए। ताली बजा-बजा कर खुलेआम तमाशा करते सड़कों पर दर-दर की ठोकरें खातें हैं। बात-बात में कपड़े खोल कर खड़े हो जाते हैं। एक लिंग के प्रति इनकी आसक्ति आज भी है। फेसबुक पर मुखन्नसों की बाढ़ आई हुई है। ब्लॉक करिये या अनफ्रेण्ड। घाघरों में घुस आंसू बहाते हैं, दूसरों के साथ खुद के कपड़े उतारने में झिझक नहीं।
'और पूरे हक़ से ताली बजाते हैं। इसने अनफ्रेण्ड किया, इसने ब्लॉक। बचे हुए कथाएं गढ़ने में लग जाते हैं क्योंकि तस्वीरों से ही उनका वो अंग स्खलन का शिकार हो जाता है। खैर, भाई तुम्हारे दुःख से हम दुखी ही हैं। अब ईश्वर ने तुम्हारे साथ ज्यादती की। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। नई आईडी बनाओ। उस जन्म में तुम्हारे पाप कटेंगे और फिर से जुड़ोगे गन्दगी फ़ैलाने तक। कोई नहीं, ये जीवन चक्र है। आईडी बदलो। योनियों की तरह किसी जनम तो तारण हो ही जाएगा।

1 comment:

  1. शिल्पी जी बहादुर महिला हैं.. झुण्ड उन का कुछ बिगाड़ न पायेगा.. सामाजिक कार्यों में आगे बढ़ती रहें..
    हमारी शुभकामनायें..

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