Monday 6 April 2015

बहुत जल्दी, वे धूप बेचेंगे और हम हंसकर लेंगे / भारत सिंह

पुराने लोगों के सपने से भी बाहर की बात थी कि एक दिन पानी बिकेगा, आज बिकता है। मार्च-अप्रैल से दिल्ली में सड़क किनारे एक-दो रुपए का 1 गिलास पानी बिकने लग जाता है। बोतलबंद पानी की कीमतों की बात करना तो बेमानी ही हो गया है। हाल ही में अमेरिका में एक मजेदार केस दर्ज हुआ, जब उसके एक एयरपोर्ट पर 1 लीटर पानी की बोतल 5 डॉलर यानी करीब 300 रुपए में बेची जाने लगी, वैसे इसकी कीमत 150 रुपए थी। अगर ये कीमत ज्यादा लग रही हो तो आपको बता दें कि दुनिया में सोने की धूल मिले पानी से लेकर, रंगत निखारने, हवा या जमीन तक आने से पहले बोतल में बंद होने वाले पानी, पतला-छरहरा और जवान बनाने, तनाव भगाने के नाम पर 50 लाख रुपए प्रति लीटर की कीमत तक का पानी बेचा जाता है।
 पानी के बहुमूल्य होने पर अब आपको यकीन हो गया तो हवा की सुन लें। चीन के प्रदूषित शहरों में साफ डिब्बाबंद हवा बिकने लगी है। यानी आप प्रदूषित हवा से परेशान हो गए हैं तो एक डिब्बा ऑक्सीजन खरीदिए, उसे अपने भीतर उड़ेलिए और कॉर्बनडाई ऑक्साइड बनाकर छोड़ दीजिए। अभी सन् 2015 चल रहा है, धरती की उम्र अरबों साल आंकी जाती है। तब तक इस दुनिया में क्या-क्या खरीदना पड़ेगा, अंदाजा लगाना मुश्किल है।
 इंसान ने अपने जीवन के लिए जरूरी पानी और हवा जैसी चीजों को बेचना क्यों शुरू किया होगा, यह सोचना और समझना अपने आप में बड़ा मजेदार हो सकता है। धरती पर मौजूद जीवों में से इंसान ने ही अपने दिमाग का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है और अब तक बाकी जीवों के खतरे से खुद को सुरक्षित भी कर लिया है। बाकी जीव भी अगर दिमाग इस्तेमाल कर रहे होते तो वे भी पानी और हवा बेच रहे होते और सभी जीवों में अपने-अपने हिस्से के पानी और हवा के लिए जंग छिड़ी होती। जंग अब सिर्फ इंसानों में बची है, इसी हवा, पानी, जमीन को अपने-अपने हिस्से का बताने और साबित करने की।
 अब बात करें धूप की। मौजूदा मानवीय व्यवस्था सभी चीजों को विकेंद्रित करने की है यानी सारी ताकत सीमित जगह पर जमा करने की। ऐसा हम जीवन के लगभग हर क्षेत्र में देख सकते हैं। हमने समय रहते इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को नहीं आंका तो खतरे और भी बढ़ेंगे। आज जिन शहरों में आबादी बढ़ रही है, वहां का हाल देखिए। घोंसलों जैसे घर बने हैं, जिनमें इंसान दुबक कर रहते हैं। वहां ठीक से हवा और धूप नहीं आती। इसलिए, ऐसा दिन दूर नहीं जब धूप बिकने लगे। सर्दियों के दिन हों और आपके घर में धूप का कतरा तक नहीं पहुंचता हो तो कोई आपका दरवाजा खटखटाएगा या आप ऑनलाइन बुकिंग करके धूप बेचने वालों को खुद बुलाएंगे। वे आपको घर से गाड़ी में बिठाकर एक साफ-सुथरी जगह पर ले जाएंगे। वहां, आपके जैसे अच्छे कपड़े पहने लोग धूप का मजा लेते मिलेंगे और सब मिलकर अपने वहां होने पर गर्व भी करेंगे।
 ये बात अभी तो हाइपॉथेटिकल लग सकती है मगर इसके सच होने की पूरी आशंका है। हमने क्या किया? इंसानी जरूरतों की अहम चीजें बेचने के लिए कुछ लोगों के हाथों में दे दीं। उन्होंने क्या किया? मुनाफे के चश्मे से दुनिया को देखा। पानी बेचा, हवा बेची, जमीन बेची। इसके बाद दूसरे नंबर की जरूरी चीजों को भी हमने निजी हाथों में दिया। उन्होंने क्या किया? हमें सेहत बेची, घर बेचा, पढ़ाई बेची, एक जगह से दूसरी जगह तक आना-जाना बेचा। सिर्फ बेचा ही नहीं, इन चीजों के लिए हमारी पूरी जिंदगी को गिरवी रख लिया। आज इंसान बुढ़ापे तक नौकरी करे तो भी उसे खाने, पीने, छत के नीचे रहने, सेहतमंद रहने और अच्छा पढ़ने और अपनी अगली पीढ़ी को पढ़ाने की गारंटी प्राप्त नहीं है।
 हर क्षेत्र में निजीकरण का शोर है। आदिवासियों के जंगलों के बाद विकास के लिए किसानों की जमीनें लेने की बातें हो रही हैं। निजीकरण और इसकी वजहों को समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है, ये ऊपर बताया गया मुनाफे का चश्मा भर है। किसी भी काम से किसी को क्या हासिल होगा, ये सोचते ही आपको एक जंतर मिल जाएगा, गांधी के दिए 'आखिरी आदमी' वाले जंतर जैसा ही बड़ा काम का जंतर। निजीकरण किसलिए जरूरी बताया जाता है? विकास के लिए। विकास क्या होता है? इंसान को पानी-हवा-धूप खरीदने पर मजबूर करना विकास होता है। हां, साथ में उसे इन चीजों को खरीदने पर गर्व की अनुभूति कराना भी विकास होता है। इसके अलावा, धरती के किसी कोने में चमकती- रात में भी रोशन रहने वाली सड़कों, घर से नजदीक मॉल-सिनेमा हॉल के पास होना भी विकास होता है। यहां बने 2 कमरों में रहने के लिए किराए के बीसियों हजार रुपए देना भी विकास होता है।
 ऐसा नहीं है कि ऊपर बताई चीजें सरकार मुहैया नहीं करा सकती या नहीं कराती आई है। सरकार नाम की व्यवस्था होती ही इसलिए है कि एक प्रक्रिया के तहत अपने नागरिकों को जरूरी चीजें मुहैया कराए। मसलन- घर, पानी, भोजन, शिक्षा, सेहत, यात्रा की सुविधा आदि। हर इंसान, इन चीजों को अपने स्तर पर भी कर सकता था, पर अव्यवस्था न हो, इसलिए एक समझौते के तहत उसने अपने बीच से कुछ लोगों को चुना जो इन कामों को देखेंगे। इन कामों या व्यवस्था को चलाने के लिए उसने कुछ रकम (टैक्स के तौर पर) देनी भी मंजूर की। आज हो ये रहा है कि वह रकम तो ली जा रही है, पर खर्च कहीं और हो रही है। बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य सब निजी हाथों में देकर लोगों से एक ही चीज के लिए दो-दो बार पैसे लिए जा रहे हैं।
 अगर पशु-पक्षी भी इंसानी भाषा समझ सकते तो जानते हैं, उनकी सभी पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा चुटकुला क्या होता? यही कि अपने को बाकी जीवों से बेहतर मानने वाले इंसानों ने जिन मुट्ठी भर लोगों को अपना जीवन आराम से चलाने और कुछ काम करवाने के लिए चुना था, वे गिने-चुने लोग ही अब बाकी लोगों को ठोक-पीटकर सारे काम अपनी मर्जी से करते हैं और कुछ मुट्ठी भर लोगों के कहने पर करते हैं (ऐसा करने वालों में लोकतंत्रों के सारे स्तंभ शामिल हैं)।
 हमारे देश में भी रेलवे, रक्षा, व्यापार, कृषि सभी क्षेत्रों को देर-सबेर निजी हाथों में जाना है। इसका सबूत देने के लिए इतना काफी है कि इस देश के नए-नवेले पीएम ने बहुमत से सत्ता में आने के छह महीनों के भीतर ही मुंबई में मुकेश और नीता अंबानी के एक आलीशान अस्पताल का उद्घाटन किया था। उद्घाटन के दौरान उन्होंने एक बड़ी मजेदार चीज कही थी, 'इस अस्पताल के जीर्णोद्धार की तरह राष्ट्र का भी जीर्णोद्धार हो सकता है....।'

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