Monday 25 May 2015

नादानियों का सिला / जयप्रकाश त्रिपाठी

सोचा था जाने क्या मेरे नादान-से दिल ने,
नादानियों ने मुझको फिर वही सिला दिया।

कोई इस तरह से खेला मेरे दिल से बार-बार,
तो दिल ने कहा, खेलना उसने सिखा दिया।

दिल चीज क्या है, खेलने की चीज ही तो है,
खेलो न मेरे यार, और कितना खेलोगे ।

टूटा हुआ था और इसे तोड़ क्यों दिया,
इतना न टूटता तो बात और ही होती।

दिल ने तड़प-तड़प के कहा फिर से एक बार,
ऐसी तड़प नहीं है उधर, जैसी इधर है ।

दिल टूटने का सिलसिला जो आज तक रहा
अब और टूट जाने की हिम्मत नहीं रही ।

मैंने जिन्हें चाहा था अपने चांद की तरह
दिल में मेरे उन्होंने अंधेरा भर दिया ।

Sunday 17 May 2015

सोशल साइटों पर यौन उत्पीड़न

फेसबुक और ट्विटर मित्रों के लिए ये बड़े काम की जानकारी हो सकती है। जरा संभल संभल कर चलने की जरूरत है। सोशल साइट्स ट्विटर और फेसबुक निजी जीवन को दूषित भी कर रही हैं। एक अध्ययन में पता चला है कि ट्विटर पर उत्पीड़न के मामलों में बढ़ोत्तरी हो रही है। नारीवादी कार्यकर्ता समूह वूमैन, एक्शन एंड द मीडिया (वैम) के अध्ययन के मुताबिक लगभग एक चौथाई के आस-पास युवा पुरुषों और महिलाओं को शारीरिक रूप से ऑनलाइन धमकी दी जाती है और एक चौथाई युवा महिलाओं का यौन उत्पीड़न हो रहा है। फेसबुक पर दोस्ती कर गाजियाबाद के एक सिपाही के बेटे ने तो छात्रा से दुराचार किया। कल उसे गिरफ्तार कर लिया गया। सोशल मीडिया में जरायम किस्म के लोगों की भी बाढ़ आई हुई है।

Sunday 3 May 2015

मई में मौसम ही नहीं, मीडिया भी तपता है : जयप्रकाश त्रिपाठी

मई का मौसम ही नहीं, इतिहास भी तपता रहा है। मानो ये जमाने से सुलगता आ रहा है। इसके चार अध्याय-विशेष, जिनमें दो पत्रकारिता के। एक है आज तीन मई को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस। इसी महीने की 30 तारीख को हिंदी पत्रकारिता दिवस रहता है। बाकी दो में एक मई दिवस और 10 तारीख को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम दिवस। 1 मई 1886 को अमेरिका में काम के घंटे घटाने की मांग करते मजदूरों पर गोलीबारी के दुखद दिन को मई दिवस के रूप में याद किया जाता है।
'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' प्रेस की स्वतंत्रता का मूल्यांकन, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाहरी तत्वों के हमले से बचाव और प्रेस की सेवा करते हुए दिवंगत हुए संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का दिन है। 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' मनाने का निर्णय वर्ष 1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के 'जन सूचना विभाग' ने मिलकर किया था। इससे पहले नामीबिया में विन्डंहॉक में हुए एक सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि प्रेस की आज़ादी को मुख्य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आज़ादी की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। तब से हर साल '3 मई' को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
आज जबकि हिंदुस्तान के पत्रकार मजीठिया वेतनमान की लड़ाई लड़ रहे हों, ऐसे में इस दिन का महत्व और अधिक उल्लेखनीय हो जाता है। वह इसलिए कि, जब पत्रकार अपने घर में गुलामी के दिन बिता रहा हो, उसे घर मालिक ही मजदूर की तरह रपटाते हुए,उल्टे मजदूरी न देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों तक उल्लंघन कर रहे हों, फिर काहे की स्वतंत्रता। जब पत्रकार गुलाम हो तो प्रेस स्वतंत्र कैसे हो सकता है।
मीडिया की आज़ादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के 'अनुच्छेद 19' में किया गया है। भारत में संविधान के अनुच्‍छेद 19 (1 ए) में "भाषण और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार" का उल्‍लेख है, लेकिन उसमें शब्‍द 'प्रेस' का ज़िक्र नहीं है, किंतु उप-खंड (2) के अंतर्गत इस अधिकार पर पाबंदियां लगाई गई हैं। इसी क्रम में 'भारतीय संसद' द्वारा 2005 में पास किया गया 'सूचना का अधिकार क़ानून' भी गौरतलब हो जाता है। इस क़ानून में सरकारी सूचना के लिए नागरिक के अनुरोध का निश्चित समय के अंदर जवाब देना बहुत जरूरी है। संसद में 15 जून, 2005 को यह क़ानून पास कर दिया था, जो 13 अक्टूबर, 2005 से पूरी तरह लागू हो गया।
हिंदी पत्रकारिता दिवस 30 मई को मनाया जाता है। सन 1826 ई. में इसी दिन पंडित युगुल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन आरम्भ किया था। भारत में पत्रकारिता की शुरुआत पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने ही की थी। हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई थी, जिसका श्रेय राजा राममोहन राय को दिया जाता है। आज हिंदी पत्रकारिता को कारपोरेट मीडिया ने जिस हालत में पहुंचा दिया है, जग जाहिर है। 'उदन्त मार्तण्ड' के लिए गोरे शासकों से जैसा लोहा लेना पड़ा था, उसे तो ये पतित कारपोरेट मीडिया याद भी नहीं करना चाहता है।
इसी महीने पड़ने वाले प्रथम स्वाधीनता संग्राम दिवस को 1857 के भारतीय विद्रोह के रूप में जाना जाता है। 10 मई 1857 को ही ब्रितानी शासन के विरुद्ध पहला सशस्त्र विद्रोह हुआ था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जारी रहा। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था। बाद में उसने देशव्यापी आकार ले लिया था। इस विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ।
इस मई महीने में ही क्रांतिकारियों, साहित्यकारों, इतिहासकारों, कवियों, लेखकों की 18 जयंतियां पड़ती हैं और 17 स्मृति (निधन) दिवस।
इस माह के प्रमुख जयंती दिवस इस प्रकार हैं -
5 मई 1929 - अब्दुल हमीद कैसर (भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में से एक)।
7 मई 1861 - रबीन्द्रनाथ ठाकुर (नोबेल पुरस्कार प्राप्त बांग्ला कवि, कहानीकार, निबंधकार)।
7 मई 1889 - एन. एस. हार्डिकर (प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी)।
8 मई 1895 - गोपबन्धु चौधरी (उड़ीसा के प्रसिद्ध क्रांतिकारी तथा गाँधीवादी कार्यकर्ता)।
11 मई 1912 - सआदत हसन मंटो (कहानीकार, लेखक, पटकथा लेखक और पत्रकार)।
15 मई 1907 - महान क्रांतिकारी सुखदेव।
20 मई 1900 - सुमित्रानंदन पंत (प्रसिद्ध छायावादी कवि)
21 मई 1931 - शरद जोशी (प्रसिद्ध हिंदी व्यंग्यकार)।
22 मई 1774 - राजा राममोहन राय (अग्रणी धार्मिक-सामाजिक क्रांतिद्रष्टा)
23 मई 1923 - अन्नाराम सुदामा (प्रसिद्ध राजस्थानी साहित्यकार)।
27 मई 1894 - पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (ख्यातिप्राप्त आलोचक तथा निबन्धकार)।
27 मई 1928 - बिपिन चन्द्रा (प्रसिद्ध इतिहासकार)।
27 मई 1954 - हेमन्त जोशी (कवि-पत्रकार-प्राध्यापक)।
24 मई 1896 - करतार सिंह सराभा (प्रसिद्ध क्रान्तिकारी)।
25 मई 1831 - दाग़ देहलवी (प्रसिद्ध उर्दू शायर)।
29 मई 1906 - कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (जाने-माने निबंधकार)।
31 मई 1725 - अहिल्याबाई होल्कर - (प्रसिद्ध वीरांगना)।
31 मई 1843 - अण्णा साहेब किर्लोस्कर (मराठी रंगमंच के क्रांतिधर्मी नाटककार)।
इस माह में पड़ने वाले 17 स्मृति-दिवस (निधन) इस प्रकार हैं -
2 मई 1985 -बनारसीदास चतुर्वेदी (प्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार)।
9 मई 1995 - कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (हिन्दी के जाने-माने निबंधकार)।
10 मई 2002 - कैफ़ी आज़मी (फ़िल्म जगत के मशहूर उर्दू शायर)।
12 मई 1993 - शमशेर बहादुर सिंह (हिन्दी कवि)।
13 मई 2001 - आर. के. नारायण (भारत के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक)।
14 मई 1978 - प्रसिद्ध नाटककार जगदीशचन्द्र माथुर
19 मई 1979 - हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (प्रसिद्ध लेखक, उपन्यासकार)
20 मई 1932 - विपिन चन्द्र पाल (भारत में क्रान्तिकारी विचारों के जनक)
22 मई 1991 - श्रीपाद अमृत डांगे (भारत के प्रारम्भिक कम्युनिस्ट नेताओं में से एक)
23 मई 2010 - कानू सान्याल (नक्सली आंदोलन के जनक)।
 23 मई 2011 - चन्द्रबली सिंह (प्रसिद्ध लेखक, आलोचक, अनुवादक)।
24 मई 2000 - मजरूह सुल्तानपुरी (प्रसिद्ध गीतकार)
26 मई 1986 - श्रीकांत वर्मा (प्रसिद्ध कवि-कथाकार-समीक्षक)।
27 मई 1964 - जवाहरलाल नेहरू (भारत के प्रथम प्रधानमंत्री)।
28 मई 2005 - गोपाल प्रसाद व्यास (प्रसिद्ध कवि, लेखक)।
30 मई 2000 - रामविलास शर्मा (सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार एवं कवि)
31 मई 1988 - द्वारका प्रसाद मिश्रा (स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार)।
भड़ास4मीडिया से साभार

प्रेस फ्रीडम डे पर इन दो पत्रकारों की चीख क्या सुनी आप ने !

छह सौ दिन से जेल में कैद शौकन ने चिट्ठी में लिखा - मैं एक पत्रकार हूं, अपराधी नहीं. महमूद अबु जैद "शौकन" टाइम पत्रिका, डी त्साइट, बिल्ड, मीडिया ग्रुप और ऑनलाइन फोटो एजेंसी डेमोटिक्स जैसे कई प्रकाशकों के लिए सेवाएं दे चुके हैं. 2013 में शौकन मिस्र की राजधानी काहिरा के रबा स्क्वायर में हुई हिंसक झड़पों की रिपोर्टिंग कर रहे थे, जहां अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी के समर्थकों और सुरक्षा बलों के बीच चल रही मुठभेड़ के दौरान वह गिरफ्तार कर लिए गए. उन पर अब तक आधिकारिक रूप से कोई आरोप तय नहीं हुआ है. लेकिन मामले की सुनवाई से पहले उनकी हिरासत की अवधि को लगातार आगे बढ़ाया जाता रहा है और मुक्त किए जाने की उनकी अपील को खारिज किया जाता रहा है.
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर "शौकन" ने जेल से 'डीडब्ल्यू' को यह पत्र लिखा है -
"वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर, मैं मिस्र के उन पत्रकारों की दुर्दशा की बात आप तक पहुंचा रहा हूं, जो इस दिन को जेल की अंधेरी चारदीवारी में मना रहे हैं. प्रेस की आजादी के मायने हमसे कितने दूर मालूम पड़ते हैं, जब मैं खुद 600 दिन से भी अधिक जेल में बिता चुका हूं और मुझे नहीं पता की ये भयावह अनुभव कब खत्म होगा. और यह सब इसलिये हुआ क्योंकि मैं रबा अल-अदाविया प्रोटेस्ट कैंप को तितर बितर किए जाने की घटना को एक फोटो पत्रकार के तौर पर कवर कर रहा था. किसी वजह से मुझे "अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी का समर्थक" समझ लिया गया.
''मेरे देश में पत्रकारिता करना एक अपराध बन गया है, हर तरह से एक अपराध. मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ सहानुभूति रखने वाले 13 पत्रकारों को आजीवन कारावास की सजा मिली है और एक दूसरे पत्रकार को मौत की सजा सुनाई गई. आखिर विश्व के वे सभी नेता कहां हैं जिन्होंने शार्ली ऐब्दॉ के कार्टूनिस्टों की हत्या के विरूद्ध पेरिस में प्रदर्शन किया था, और लगातार यह मांग की थी कि अभिव्यक्ति एवं प्रेस की स्वतंत्रता को हर हाल में बचाया जाए??
''मैं बेहद कठिन परिस्थितियों में जेल की एक छोटी सी कोठरी में ऐसे रह रहा हूं जिसे कोई जानवर भी ना सहेगा. मुझ पर तमाम बेबुनियाद झूठे आरोप लग रहे हैं और मुझे गिरफ्तार हुए बाकी विरोध प्रदर्शनकारियों के साथ मिला के देखा जा रहा है. दुनिया भर के सभी मीडिया और पत्रकारों से मेरी यही मांग और अनुरोध है कि कृपया मेरी मदद कीजिए, मेरे साथ आइए और मिस्र की सरकार पर मुझे आजाद करने का दबाव बनाइए. मैं एक पत्रकार हूं कोई अपराधी नहीं...मेरी मदद कीजिए!!"
प्रेस फ्रीडम डे पर इसी तरह बांग्लादेशी फोटोग्राफर शाहिदुल आलम बता रहे हैं कि बिना आजादी के काम करने वाली प्रेस केवल अभिप्रचार है. दुर्भाग्य से बांग्लादेशी प्रेस कई तरह के राजनीतिक दबावों और आर्थिक नियंत्रणों में है.
जो प्रेस खुद को बंधनों में जकड़ा पाती है, वह जनमानस का भरोसा जीतने और जनाधार बनाने के सर्वोपरि लक्ष्य को हासिल करने से चूक जाती है. जाहिर है कि एक जिम्मेदार पत्रकारिता में कई तरह के नैतिक बंधनों का तो वैसे भी ध्यान रखना होता है. आजकल जनता समाचार पाने के लिए किसी एक संस्था या स्रोत तक सीमित नहीं रह गई है. सुनी सुनाई बातों से लेकर, दुनिया में घट रही तमाम गलत बातों पर लिखे जा रहे ब्लॉग्स तक, कई ऐसी चीजें हो रही हैं जो बड़े, रसूखदार लोगों को भी जिम्मेदारी के दायरे में रखने का काम करती हैं.
हो सकता है कि प्रेस की आजादी से कुछ चीजें और उलझती दिखें और ऐसे कई लोग भी हैं जो प्रेस को उत्पाती समझते हैं. लेकिन प्रेस को सिर्फ उसी स्थिति में नियंश्रित करने की जरूरत है जब वह नैतिकता की सीमाएं पार करे या उसकी किसी हरकत से जनहानि पहुंचने का खतरा हो. यह अपने आप में एक जटिल मुद्दा है कि असल में प्रेस इन सीमाओं को कब पार कर रही है यह कौन तय करे. ज्यादातर विवाद तो इतने दूर तक पहुंचते भी नहीं है. प्रेस और जनता दोनों ही के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा विषय है जिसे सरकारों, कॉर्पोरेशनों, राजनैतिक एवं धार्मिक समूहों जैसी शक्तिशाली ईकाइयों के तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खतरों का सामना करना पड़ता है. ऐसा पूरी दुनिया में होता है, लेकिन बांग्लादेश जैसे राष्ट्र में जहां धोखाधड़ी के साये में हुए चुनावों से बनी सरकार की खुद की वैधानिकता पर सवालिया निशान लगा है, वहां विचारों की आजादी का शमन करना न्यायोचित असहमति का गला घोंटने और कट्टरपंथी कार्रवाई को सही ठहराने का एक बड़ा ही सुविधाजनक तरीका लगता है.
जाहिर है, बांग्लादेशी मीडिया में हमेशा से ही कई तरह की वर्जनाएं रही हैं. सेना तो सीमा से बाहर रही ही है, सबसे बड़े विज्ञापनदाता होने के कारण बड़े बड़े टेलीकॉम कॉर्पोरेशनों को मीडिया छेड़ती नहीं है. इसके अलावा भी कई दानदाता समुदाय हैं जिनका ध्यान रखा जाता है. हाल कि दिनों में तो सरकारी मीडिया चैनल भी ढाका सरकार के लिए प्रचार का साधन बन गए लगते हैं. कड़े आलोचकों को टॉक शो में आमंत्रित नहीं किया जाता. एंकरों का इस तरह घुमाकर सवाल पूछना आम है जिससे शासन की बेहतर छवि दिखे.
यह सारे मुद्दे काफी चिंताजनक हैं. मगर, मीडिया कंपनियों, 'संदिग्ध संपादकों' को सीधी धमकी मिलना और पत्रकारों, ब्लॉगरों पर हमले करवाना कहीं ज्यादा बड़ी परेशानी है. प्रशासन ने हाल के दिनों में असाधारण तौर पर बहुत बड़ी तादाद में 'कोर्ट की अवहेलना' के आरोप लगाए हैं जिससे भी भय का माहौल बन गया है. असहिष्णुता की इस संस्कृति के कारण ही स्वतंत्र विचारों वाले कई लोगों का बेहद हिंसक अंत हुआ है. विवेचनात्मक सोच रखने वालों की सबसे ज्यादा जरूरत आज से ज्यादा कभी महसूस नहीं हुई. और ऐसी सोच रखने वालों के लिए अब से ज्यादा खतरनाक समय भी कभी नहीं रहा.
1955 में बांग्लादेश के ढाका में जन्मे शाहिदुल आलम एक फोटोग्राफर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो अपनी कला का इस्तेमाल गरीबी और आपदाओं से घिरे देश के तमाम सामाजिक और कलात्मक संघर्षों को दर्ज करने के लिए करते हैं.
भड़ास4मीडिया से साभार

Friday 1 May 2015

डराओ मत, उसे गुस्सा आ रहा है/जयप्रकाश त्रिपाठी

मजीठिया वेतनमान लागू करने के मसले पर कारपोरेट मीडिया ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की अवमानना करते हुए जिस तरह पत्रकारों के पेट पर लात मारा है, उससे लावा अंदर ही अंदर खदक रहा है। मीडिया कर्मियों की खामोशी तूफान से पहले के सन्नाटे जैसी है। यह पढ़ा-लिखा वर्ग है। सब समझ रहा है। जान रहा है कि मजीठिया मामले की पैरोकारी कर रहे अपने उन मददगारों से उसकी भेंट-मुलाकात तो दूर, उनसे बातचीत भी उसके जुर्म में शुमार हो सकती है, जो उसके हितों की हिफाजत के लिए देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था की शरण में हैं। 
इन दिनो उसे यह डर बार-बार परेशान कर रहा है, उसे ही क्यों, उसके घर-परिवार तक को, कि आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय से भी इंसाफ नहीं मिला तो फिर क्या होगा? क्या इतनी आसानी से उसके आर्थिक भविष्य का शिकार हो जाएगा? वह मजीठिया वेतनमान का मामला लड़ रहे अपने कानूनविदों, जुझारू पत्रकारों से मिले-न-मिले, उनके प्रति इस समय उसके मन गहरी आस्था है। अट्ठाईस अप्रैल के बाद से अब वह बड़ी बेचैनी से उन तीन महीनो की बाट जोह रहा है। सहमा हुआ अपने आसपास को चुपचाप पढ़ रहा है। सच पूछिए तो इस समय उसका ध्यान खबरों में कम, अपने भविष्य के खतरों पर ज्यादा है। वह जान रहा है कि उसने कोई जुर्म नहीं किया है, ऐसे अस्थिर हालात में उसने अपने लिए कोई मामूली सी भी ईमानदार पहल की तो उसका जुर्म बांचने वाले तुरंत हरकत में आजाएंगे।  
मैं तो कहता हूं, उसकी भूख को गुदगुदाओ नहीं। उसके भविष्य से मत खेलो। उसे इतनी बेरहमी से मत छेड़ो। चंद चाटुकारों के बूते उसके साथ कोई नामाकूल हरकत मत करो। उसका हक उसे दे दो। वरना जिस दिन उसने ठान लिया कि अब माफ नहीं करना है, इंसाफ चाहिए, चाहे किसी भी कीमत पर, तब कोई बिगड़ी बनाने वाला नहीं होगा। यह पूंजीपतियों की कोख से नहीं, कलम की तलवार चलाते हुए आया है। उसके वंशज गोरी तोपों से मुकाबले के लिए अखबार निकालते थे। विज्ञापन बाजार लूटने के लिए नहीं। याद करो कि उसकी कलम ने इस देश से उन गोरे शासकों को खदेड़ दिया था, जिनका दुनिया में कभी सूरज नहीं डूबता था। उसके पुरखे स्वतंत्रता संग्राम की सबसे मुखर आवाज थे। गांधी, सुभाष, भगत सिंह, नेहरू, अंबेडकर जैसे वीर स्वातंत्र्य सेनानी भी उसके शब्दों के कायल रहे हैं। उसे पूंजी की ताकत और कानून की उंगली से मत डराओ। उसके डर को अब और मत आजमाओ। उसके डर में एक अंतहीन गुस्से का इतिहास छिपा है। देखो, धीरे धीरे उसकी मुट्ठियां हरत में आ रही हैं। वह अब सुप्रीम कोर्ट तक आंखें तरेरने लगा है। मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधान मंत्री की दर तक दस्तक देना सीख रहा है।
समय से खतरा भांपने का शऊर है तो सावधान हो जाओ, उसके पांव अब तुम्हारी चौखट से बाहर जा रहे हैं। वह बड़ी बेचैनी से चुपचाप अपनी दिशा खोज रहा है। उसे अपने इस तरह के चौथे खंभे पर शक हो रहा है, जो उसके हक का, उसके काम का न हो। वह खुद से पूछ रहा है कि जब वह देश-काल के आचरण में इस तरह घुला हुआ है तो उसकी अस्मिता का खंभा चौथा क्यों? वह चौथे खंभे का तिजारती नहीं, सिर्फ अपना घर-परिवार चलाने भर की मजदूरी चाहता है। वह मजदूरी, जो इस देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था को भी जायज लगती है। उस एक-एक की बेचैनी, उस एक-एक के घर-परिवारों का एक-एक व्यक्ति इन दिनो साझा कर रहा है। उसका हक उसे न देने की जिद उन सबमें एक साथ नफरत के बीज बो रही है। ऐसे विशाल, सशक्त और अतिजागरूक बौद्धिक समुदाय में सुलगती इतनी अधिक नफरत को हवा देकर भला कोई कैसे और कब तक सकुशल-सलामत रह सकता है। कानूनी दांव-पेंच से उसे जितना हांकने की कोशिश की जाएगी, अपनी सही सही दिशा खोज लेने के बाद वह उतना ज्यादा भड़क सकता है। गुस्से से लाल हो सकता है। वह सिर्फ अपने शब्दों और अपनी मेहनत पर भरोसा करना जानता है। सबके हित में होगा कि उसे उसके उसी ज्ञान और श्रम के भरोसे तक रहने दिया जाए। उसे और कुछ करने के लिए विवश करना समझदारी नहीं होगी।
मजीठिया वेतनमान पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कानूनी दांव-पेंच को माध्यम बनाकर उसे उलझाने और पछाड़ने की कोशिश की जा रही है। उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा है। उसे केवल खबरें बटोरने-बनाने में सुख मिलता है। वह रोजाना खबरें बटोर-बना कर चुपचाप अपने घर लौट जाना चाहता है। वह लड़ना नहीं चाहता है। उसे लड़ने के लिए उकसाया जा रहा है। वह तो केवल शब्दों के पेंच लड़ाता है। सूचनाओं के बहाने विचार, सरोकार और चेहरे गढ़ता है। ये सब करके वह बड़ा खुश नजर आता है। चाय की चुस्कियां, मसाले की जुगाली करते हुए उसे शब्दों, सूचनाओं, खबरों, शीर्षकों पर बतकही करने में ज्यादा मजा आता है। वो लड़ना-भिड़ना क्या जाने। उसका हक मारकर, उसके पेट पर लात मार कर उसे लड़ाकू बनाने की जिद भला कहां की समझदारी हो सकती है?
उसके बीच से कुछ गिनती भर उसकी ही बिरादरी के जिन लोगो से जो कुछ गलत-सही कराया जाता है, उनका भी दिल वह सब करना गंवारा नहीं करता है। उनमें से किसी एक को भी पूछ कर देख लीजिए। पत्रकारिता के ऐसे पतित तत्वों को भी थाना-पुलिस की दलाली करने के लिए मजबूर किया जाता है। खबर से पहले विज्ञापन बटोरने की विवशता उनके भी जमीर को तिलमिला देती है। वे किसी से जब अपना दुख साझा करते हैं, उन्हें अपने से ही घृणा होने लगती है क्योंकि पहले-पहले दिन वे भी जब इस पेशे में आए थे, पत्रकार होने के सपने देखते हुए आए थे। वे भी मीडिया हाउसों तक ऐसे कर्म करने का अनुमान लगाकर नहीं पहुंचे थे। अपने लंबे कार्यकाल में मैंने उनको अंदर-ही-अंदर कांपते-ठिठुरते हुए बहुत करीब से देखा है। उनको समझाया, संभाला है। मीडिया प्रबंधन के नाजायज आदेशों पर उनमें से कइयों को बार-बार रोते, गालियां देते हुए सुना है। जो सच्चे पत्रकार हैं, उनकी तो बात ही जाने दीजिए, पतित पत्रकारों से भी कभी अकेले में मिलिए तो वे भी अपने सिरहाने शानदार शीशे के चैंबर में बैठे समाचार के शीर्ष सौदागरों की कुंडली बांचने की बदपरहेजी कर जाते हैं। लेकिन तभी, जब सामने सुनने वाला उनके भरोसे का हो।  
मजीठिया मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना के बाद का यह दौर उन्हें खलनायक साबित कर रहा है, जो प्रबंधन के पक्ष में हैं। गुनहगार वे भी हैं, जो तटस्थ और चुप हैं। वह पत्रकार हों, साहित्यकार हों, राजनेता अथवा संगठनकर्ता। मीडिया के भीतर की यह लड़ाई सीधे सीधे शोषक और शोषित, शासक और शासित के बीच का संघर्ष है। इसमें एक तरफ मीडियाकर्मियों का पूरा समुदाय है, दूसरी तरफ मीडिया मालिक, संपादक- प्रबंधक वर्ग। तीसरा कोई पक्ष नहीं है। मालिक वेज बोर्ड से निर्धारित एवं सुप्रीम कोर्ट से आदेशित वेतनमान नहीं देना चाहता है। अपनी सुख-सुविधाओं, खेल-तमाशों, संपादक-प्रबंधक वर्ग पर करोड़ों रुपये फूंकने के लिए तो उनके पास अथाह धन है लेकिन मजीठिया वेतनमान के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं देंगे।
यह बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। इस कानूनी वाकये ने उस समुदाय को हाशिये पर पड़े वंचितों, शोषितों की तरह शायद पहली बार इतनी शिद्दत से सोचने पर विवश किया है। उसका मोहभंग हो रहा है। वह खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। वह एक ऐसे पेशे के विपरीत स्वभाव से टकरा रहा है, जो चौथा स्तंभ कहा जाता है। वह अब तक जिसका मान न्यायपालिका से कम नहीं मानता-जानता रहा है। यथार्थ के धरातल पर यह मोहभंग उसे वंचित-शोषित वर्ग के निकट ले जा रहा है। साफ कहें तो पेशे की गद्दारी, जनद्रोही चरित्र से टकराने के लिए वह तेजी से तैयार हो रहा है। वह ये भी देख रहा है कि जो साहित्यकार, लेखक, कवि उसके दर पर अपनी रचनाएं प्रकाशित कराने के लिए दिन-रात मिन्नतें करते रहते हैं, उनकी नैतिकता ढकोसला है क्या, वे सब भी शब्दफरोश हैं क्या। उनमें से एक भी उसके जीवन से जुड़े इतने गंभीर प्रश्न पर क्यों अपना पक्ष प्रकट नहीं कर रहा है। इस सबसे वह दीक्षित हो रहा है। वह यह भी देख रहा है कि जिन संगठनों, नेताओं, कार्यकर्ताओं की वह खबरों में रोज-रोज राजनीतिक छवियां गढ़ता है, अच्छे-अच्छे शीर्षक रचता है, वे सब भी चुप हैं। वह हैरान है कि यह सब क्या है? ये कौन लोग हैं? अनावश्यक आत्मीयता प्रकट करते रहने वाले ये लोग, और इनके आंदोलन सिर्फ हाथी दांत हैं? क्यों ??
ये कारपोरेट मीडिया घराने पत्रकारों का सम्मान तो करना चाहते हैं लेकिन उनका हक नहीं देना चाहते हैं। वह सोच रहा है कि अखबारों में अक्सर छपने वाली बाइलाइन स्टोरी, स्टिंग ऑपरेशन, खबरों की पड़ताल, एक्सक्लूसिव समाचार, लाइव रिपोर्ट, ह्यूमन एंगल स्टोरी, क्या यह सब फ्रॉड है? वह क्या जागती आंखों से अमंगल सपने देख रहा है? देश-समाज पर मनुष्यता की बातें करने वाले ये संपादक कौन हैं? उसके मसले पर इन्होंने रीढ़, जमीर जैसे शब्दों को अपनी डिक्शनरी से अचानक क्यों खदेड़ दिया है? मजीठिया वेतनाम मांगने पर ये प्रताड़ित क्यों कर रहे हैं? अचानक ये दुश्मन जैसा व्यवहार क्यों करने लगे हैं? इन सवालों के जवाब में उसके सामने संपादक का वर्ग चरित्र खुल रहा है। अपनी कार्यशालाओं में वह देख रहा है कि संपादक-प्रबंधक उसका मित्रवर्ग नहीं है। उनका पक्ष मालिक है। उनका उद्देश्य उसको कुचलते हुए केवल मालिक का हित साधना है। देश-दुनिया के सुख-दुख के बारे में ये अखबार के पन्ने से न्यूज चैनलों की टीवी स्क्रीन तक इसका सारा ज्ञान प्रदर्शन केवल धोखा है। मालिक का पक्ष, तो भी स्पष्ट और इकहरा है। ये सफेदपोश बिचौलिया तो उससे ज्यादा खतरनाक है। हमारे विरुद्ध हमे ही इस्तेमाल कर रहा है। हमारे बीच जहर बो रहा है। हमसे ही हमारी कानाफूसी, जासूसियां करा रहा है। हम से ही हमको लड़ा रहा है। यह हमे अलग-अलग हिस्सों में बांट कर हमे मारना चाहता है। यह एक साथ हमारे विवेक और शरीर (पेट-रोटी) दोनो पर हमला कर रहा है। हमले करने की योजनाएं बना रहा है। यह मालिक को बता रहा है कि वह किस तरह मारे तो हम मर जाएंगे, हार जाएंगे। यही है, जो मालिक को सिखा-पढ़ा रहा है कि वह न्यायपालिका की कमजोरियों का फायदा उठाए, राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के रिश्ते साधे, आवाज उठाने वालों के तबादले और निष्कासन करे। उसके घर का असली भेदी यही है। यही हमारे चेहरे पढ़ते हुए हमसे 'मजीठिया वेतनमान नहीं चाहिए', जैसे झूठे फॉर्मेट पर हस्ताक्षर करा रहा है।  
तो यह भारतीय लोकतंत्र में पहली बार हो रहा है। मजीठिया वेजबोर्ड से पहले भी मणिसाना आदि के वेतनमान घोषित हुए थे लेकिन तब ऐसी मोरचेबंदी होते-होते रह गई थी। यह गुस्सा तात्कालिक नहीं। यह किसी को बख्शने वाली भी नहीं। उनको भी नहीं, जो न्यायपालिका तक उसके हितों की वकालत करने पहुंच चुके हैं। यदि उन्होंने उसके हितों के साथ कोई गलत समझौता किया तो। यह गुस्सा किसी ऐसे समुदाय का नहीं, जिसे शोषण की बारीकियां समझने में किताबों और रैलियों से दीक्षित होना पड़े। ये समुदाय उन सभी अनुभवों से पहले से लैस है। इसलिए इसका गुस्सा अधिक बेकाबू और ज्यादा खतरनाक हो सकता है। यह सब समझ रहा है। इसे कुछ भी समझाना नहीं है। ये जान रहा है कि इसकी ही समझदारी और मेहनत-मशक्कत के बूते बड़े-बड़े मीडिया घराने करोड़ो-अरबों में खेल रहे हैं और उनके चारण लाखों के पैकेज पर जिंदगी की मस्तियां लूट रहे हैं। इसे अच्छी तरह पता है कि मीडिया हाउस में मालिक का सिर्फ पैसा लगा है, विवेक और मेहनत तो उसकी है, जो मालिकों को मंत्रियों-प्रधानमंत्रियों, उच्चाधिकारियों के साथ उठने-बैठने का अवसर उपलब्ध कराती है। वे न हों, तो कोई मीडिया हाउस न हो। मालिक इसीलिए उसे आपस में लड़ाना चाहता है कि उसका रास्ता सुरक्षित रहे, उसके विज्ञापनों के बाजार और ऐशो-आराम, उसकी अथाह पूंजी के अभेद्य दुर्ग और सामाजिक प्रतिष्ठा को उसके घर के भीतर से  कोई चुनौती न दे सके।
इस सूचना-समय में उसे यह भी पता है कि आजकल के नेता-मंत्री अपने कर्मों के बूते नहीं, उसकी कलम की ताकत से राज भोग रहे हैं। यही है, जो मौके-दर-मौके उन सभी की छवियां बनाता-बिगाड़ता है। उनकी ही क्यों, बड़े बड़े लेखक-पत्राकारों, साहित्यकारों पर वह कलम न चलाए तो उनको भी सिर्फ उनकी रचनाओं और किताबों के बूते उन्हें कोई न जाने-पूछे। इसलिए उसे अपनी ताकत का अच्छी तरह अता-पता है। उसका भीतर से खौलना, नाराज होना, उबलना और संघर्ष की दिशा में दौड़ जाना, उन सबके लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। असली नायक मालिक और उसके पिट्ठू नहीं। वह है कलम का महानायक। वही है इमेज बिल्डर। वही बनाता है और बिगाड़ भी देता है। वह बिगड़ा तो सब कुछ बिगड़ जाएगा। चौथाखंभा ढह जाएगा।
सिर्फ वही है, जिसे सबकी जात-बिरादरी, नस्लीयत और नब्ज पता है। वह न मालिक है, न मीडिया मैनेजर। वह पत्रकार है। वह सूचनाओं का जादूगर है। वह अपनी कार्यशाला में दिन-रात जुटा हुआ शब्दों से नब्ज टटोलता है और समाज का मिजाज रचता है। उसे इतना हल्के में न लेना। उसके पूरे समुदाय के पेट पर लात मार रहे हो तो उसके उठे हाथ-लात झेल नहीं पाओगे। पलट कर उसका वार करना बहुत भारी पड़ जाएगा। वह मोरचा कानून का हो या आंदोलन का।
सिर्फ मालिकानों और उनके चाटुकारों के लिए नहीं, बल्कि पूरे सूचनात्मक सिस्टम और सामाजिक ताने बाने के लिए वह आज हमारे सामने ऐसे ज्वलंत प्रश्न की तरह आ खड़ा हुआ है, जिसे अनसुना करना भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा। चुप्पियां टूटने से पहले का ये वही सन्नाटा है। अब भी वह अपने भीतर उमड़ते दर्द और गुस्से पर काबू पाना चाहता है। यह अन्याय वह शायद ही बर्दाश्त कर पाए। सोच लो, समय है। अभी तीन महीने के तीन दिन ही गुजरे हैं। सुनो, 28 अप्रैल 2015 के बाद से वह बिहार से मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल तक पहले से ज्यादा मुखर हो रहा है। वह पत्रकार है।