Saturday 31 January 2015

मेरी पाठशाला दो : जिनको अक्सर पढ़ता रहता हूं


 
मँजी हुई शर्म का जनतंत्र, आलोचना : साहित्य, समाज और जनतंत्र, बाजारवाद और जनतंत्र, आजादी और राष्ट्रीयता का मतलब, छूटे हुए क्षण, बुधराम, नवोन्मेष की चुनौती के सामने हिंदी समाज और साहित्य आदि के सुपरिचित कवि-आलोचक प्रफुल्ल कोलख्यान के शब्दों में हाशिये का वंचित जनजीवन धड़कता है। वह तो इसे पूरी साफगोई और बेबाकी से स्वीकारते भी हैं कि 'जी हाँ, मैं लिखता हूँ... दुख पर काबू पाने के लिए। मेरा जन्म न तो महानता की किसी चोटी पर हुआ और न विकास ही किसी महर्षि के अशीर्वाद के कोमल, सुरक्षित, हितकारी प्रकाशवलय की दिव्य परिधि में हुआ। दुख यह नहीं है कि आज भी जिधर अन्याय है, उधर ही शक्ति है; बल्कि यह है कि जहाँ शक्ति है वहीं अन्याय है। दुख है कि जीवन शक्ति के बिना चल नहीं सकता और अन्याय को झेल नहीं पाता। दुख है कि आज भी अंधेरे में ब्रह्मराक्षस दनदनाता हुआ अपने विकास की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है।' प्रफुल्ल कोलख्यान फेसबुक पर भी सक्रिय रहते हैं। उनका हिंदी ब्लॉग भी है - prafullakolkhyan.blogspot.in. तरह तरह की सुपठनीय टिप्पणियों और साहित्यिकी से भरा-पूरा। उनकी कुछ पंक्तियां-
सूरज चाँद तारे हैं बुझा-बुझा-सा आसमान क्यों है?
फसलें लहराई बहुत फिर! उदास खलिहान क्यों है?
भूख, अ-भाव से इतनी गहरी हमारी पहचान क्यों है?
आदमी का मन, मन का कोना अब सुसान क्यों है?
कहा, सुना तो बहुत पर बेमानी हर बयान क्यों है!
देवता मुस्कुरा रहे, पूजा का फूल लहुलुहान क्यों है?
यह कौन-सी हवा, आदमी से सभी परेशान क्यों है!

मेरी पाठशाला एक : जिनको पढ़ता रहता हूं

एक है दुनिया रंग-विरंगी, द्वारिका प्रसाद अग्रवाल की। जैसा लिखते हैं, बोल-चाल में भी उतने ही स्वादिष्ट। फेसबुक पर तो प्रतिदिन रहते ही हैं, उनका एक सुपठनीय ब्लॉग भी है - atmkatha3.blogspot.in, जिसे अक्सर पढ़ता रहता हूं, भले अपनी कोई टिप्पणी करूं-न-करूं। इन दिनो वह 'प्यारी दुल्हनियाँ चली' की कड़ियां बुन रहे हैं। उससे पहले चार कड़ियों वाली श्रृंखला ('ये क्या हुआ') 'स्वस्थ होने की कीमत बीमार होने पर ही समझ में आती है' वाक्य से प्रारंभ कर, 'सब जानते हैं कि यदि जेब भरी हो तो 'सब सम्भव हो जाता..' पर पूरी पठनीयता के साथ सम्पन्न कर चुके हैं। उससे पूर्व वर्ष 2014 से प्रारंभ 'ये जीवन है' की पांच कड़ियां वर्ष 2015 में पांचवें सोपान तक आ गयीं। ... लेकिन 'समझो इशारे' के वे चोखे-चौपदे पढ़ने की बात ही कुछ और थी। उनकी रचनाओं के प्रिय पाठक अमित कुमार नेमा लिखते हैं- आपको पढ़ना हमेशा ही रोचक होता है, इसलिए मैं भी उनको अक्सर पढ़ता रहता हूं। फोटो : बनारस में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ  के ज्येष्ठ पुत्र नय्यर हुसैन खां के साथ उनका एक चित्र, और दूसरे चित्र में अपनी धर्मपत्नी माधुरीजी के साथ।
(क्रमशः)