Tuesday 3 February 2015

मेरी पाठशाला (नौ) : जिनको, अक्सर पढ़ता रहता हूं

बहुत चुपचाप पांवों से चला आता है कोई दुख पलकें छूने के लिए,
सीने के भीतर आने वाले कुछ अकेले दिनों तक पैठ जाने के लिए,
मैं अकेला थका-हारा कवि कुछ भी नहीं हूं अकेला,
मेरी छोड़ी गयीं अधूरी लड़ाइयां मुझे और थका देंगी...।
हिंदी साहित्य की कहानी, कविता, निबंध, पटकथा आदि विधाओं में सिद्धहस्त उदय प्रकाश का एक संकलन है- सुनो कारीगर, जिनकी कविताएं मैं प्रायः पढ़ लिया करता हूं। साक्षात्कार के लिए उनसे दो-एक व्यक्तिगत मुलाकातें भी हो चुकी हैं। बातचीत में भी अपनी रचाओं की तरह इकहरे, लेकिन जनवादी कवि गोरख पांडेय और सांसद आदित्यनाथ को लेकर वह विवादों में भी रहे हैं। 'मोहनदास' पर भी उनसे एक बड़ी बहस को हवा मिली थी।
उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं - सुनो कारीगर, अबूतर-कबूतर, रात में हारमोनियम, एक भाषा हुआ करती है, कवि ने कहा । उनके चर्चित कहानी संग्रह हैं - दरियायी घोड़ा, तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, पॉल गोमरा का स्कूटर, पीली छतरी वाली लड़की, मेंगोसिल, दिल्ली की दीवार, अरेबा परेबा, दत्तात्रेय के दुःख, मोहनदास। उनके दो निबंध - ईश्वर की आँख, नई सदी का पंचतंत्र चर्चाओं में रहा है। उन्होंने - इंदिरा गांधी की आखिरी लड़ाई, कला अनुभव, लाल घास पर नीले घोड़े, रोम्यां रोलां का भारत, इतालो काल्विनो, नेरूदा, येहुदा अमिचाई, फर्नांदो पसोवा, कवाफ़ी, लोर्का, ताद्युश रोज़ेविच, ज़ेग्जेव्येस्की, अलेक्सांद्र ब्लाक आदि अनेक रचनाकारों के साहित्य के अनुवाद भी किये हैं।
उदय प्रकाश को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, ओमप्रकाश सम्मान, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, मुक्तिबोध सम्मान, वनमाली पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार,  साहित्यकार सम्मान, द्विजदेव सम्मान, पहल सम्मान,  अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान, सार्क राइटर्स अवार्ड, कृष्ण बलदेव वैद सम्मान, महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार आदि से सम्मानित किया जा चुका है।
उदय प्रकाश की ये बहुचर्चित पंक्तियां, जो दुष्यंत कुमार की गजल 'पीर पर्वत..' की तरह प्रायः दुहरायी जाती हैं -
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने से
आदमी मर जाता है। ('सुनो कारीगर' से )


मेरी पाठशाला (आठ) : जिनको, अक्सर पढ़ता रहता हूं

''वैसे तो यह संसार ही एक बहुत बड़ी चूहेदानी है। इसमें मनुष्य रूपी चूहा यदि एक बार फँस जाए तो परमपिता परमात्मा की इच्छा के बिना इससे बाहर नहीं निकल सकता। किंतु वास्तविक चूहेदानी में जब कोई चूहा फँसता है तो वह असहाय अवस्था में भी दाँत पीसता हुआ यह सोचता है कि बुरा हो इस पापी पेट की अग्नि का...! इस पातकी मनुष्य ने आज छल से मुझे फँसा दिया।'' झिलंगी खटिया पर पड़े-पड़े पंडित जी की व्याख्यानमाला चल रही थी। वह अर्धनिद्रा में निमग्न अपने नंगे पेट पर हाथ फेरते हुए बड़बड़ा रहे थे और इधर चटाई पर चावल बीनती हुई उनकी पंडिताइन मन ही मन कुढ़ रही थीं। पंडित जी कथा बाँचने की शैली में कहे जा रहे थे - ''मनुष्य चूहेदानी में फँसे चूहे को तीली कोंचकर छेड़ता है कि आज फँसे हैं बच्चू चूहेदानी में...! अरे, देखो तो... ससुरा कितना मोटा हो गया है मेरे ही घर का अन्न खा-खाकर। फिर सोचता है कि चलो अब इसको बिल्लो रानी को खिला दें...। किंतु अगले ही क्षण पुनः यह सोचने पर बाध्य होता है कि राम-राम! ... इस बेचारे को नाहक क्यों मारूँ? चूहा ही तो है। हल्दी की गाँठ-भर से संतुष्ट हो जाने वाला एक क्षुद्र प्राणी।.. अतः इसे किसी दूसरे के घर में छोड़ आता हूँ। बस...! इतना सुनते ही मूषकराज मस्त... टना-टन।''
ये हैं सुधाकर अदीब की कृति 'अथ मूषक उवाच' का अंश। मैंने सुधाकर अदीब को जितना भी पढ़ा है, पूरे अतीत-वर्तमान (आस्थापूर्वक यथार्थ और मिथक) पर गहरी दृष्टि रखते हुए लिखा जान पड़ता है। वह बड़ी कुशलता से अपने आसपास के वास्तविक चरित्रों को कल्पित पात्रों में ढालते हुए अपने सृजन को विस्तार देते हैं। मुझे खासतौर से 'मम अरण्य' को आद्योपांत पढ़ते हुए ऐसा लगा। उनकी औपन्यासिक कृतियां हैं - अथ मूषक उवाच, चींटे के पर, हमारा क्षितिज, मम अरण्य, शाने तारीख । उनका नया कहानी संग्रह है- पगडंडी। उनके अन्य चर्चित कहानी संग्रह हैं - मृगतृष्णा, देहयात्रा, उजाले अँधेरे और चर्चित कहानियां हैं नदी, नर वानर, परदा, पिल्ले। वह कविताएं भी लिखते हैं। उनके चार कविता संग्रह अब तक आ चुके हैं- अनुभूति, संवेदना, जानी जग की पीर, हथेली पर जान। 'हिंदी उपन्यासों में प्रशासन' पर उनका एक शोधग्रंथ भी है। फुर्सत के क्षणों में सुधाकर अदीब फेसबुक पर भी यदा-कदा सक्रिय रहते हैं।
सुधाकर अदीब को अमृतलाल नागर सर्जना पुरस्‍कार, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्‍मान, शारदा सम्‍मान, साहित्यिक संघ-वाराणसी सम्मान, माटी रतन सम्मान, विशिष्ट साहित्य सम्मान, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान आदि से सम्मानित किया जा चुका है।
(पहले चित्र में सपरिवार, दूसरा चित्र नये कहानी संग्रह 'पगडंडी' का)

मेरी पाठशाला-सात : जिनको, अक्सर पढ़ता रहता हूं

कवि एवं पत्रकार मंगलेश डबराल की ये पंक्तियां बार बार पढ़ने का मन करता है -
'' मुझे अपनी कविताओं से भय होता है, जैसे मुझे घर जाते हुए भय होता है।
''अच्छे आदमी बनो - रोज मैं सोचता हूँ। क्या सोच कर अच्छा आदमी हुआ जा सकता है? अच्छा आदमी क्या होता है? कैसा होता है? किसकी तरह?
''यथार्थ! यह संसार का सबसे कठिन शब्द है। करोड़ों जीवन यथार्थ को समझते-समझाते बीत गए। यह तब भी सबसे विकट, गूढ़ और रहस्यमय शब्द है। अतियथार्थ और अयथार्थ भी दरअसल यथार्थ हैं। मानसिक यथार्थ भी भौतिक यथार्थ है। भाषा इसके सामने अपर्याप्त है। क्या 'पेड़' शब्द लिख कर हम पेड़ को पूरी तरह, उसके समूचेपन में व्यक्त कर सकते हैं? इसलिए हर अभिव्यक्ति, हर वर्णन, हर कविता हद से हद यथार्थ को कहने का एक तरीका, एक प्रयत्न है। एक संभव प्रयत्न। इसलिए मेरी कविता अपरिवर्तनशील, अकाट्य, अनश्वर और अंतिम-नहीं है।
''पहले मैं हर चीज की, हर व्यक्ति की प्रशंसा करता था। सोचता था शमशेर की तरह मैं भी चीजों का उजला पहलू ही पहले देखूँगा। पर अब मैं ज्यादातर चीजों की आलोचना और भर्त्सना करने लगा हूँ। मुझे उनका खोट ही सबसे पहले दिखता है।
''यह सभी की समस्या रहती होगी कि हम मनुष्य के रूप में कैसे हैं। मेरा व्यक्तित्व कैसा है? मुझे कैसा होना चाहिए? क्या मुझे खामोश रहना चाहिए या वाचाल? खामोश होता हूँ तो वैसी कविता नहीं लिख सकता जैसी लिखना चाहता हूँ और बातूनी होने पर खराब आदमी होने का भय है। क्या मुझे मुस्कराते रहना चाहिए या उदास बने रहना चाहिए? इसी द्वंद्व में मैं खुश होता हूँ तो उदास दिखता हूँ और उदास होता हूँ तो हास्यास्पद लगता हूँ।
''आप अचानक किसी संकट में फँस गए हैं। आपकी चोट साफ दिखाई दे रही है। काफी खून बहा होगा। कुछ खून अब भी बह रहा है। पीड़ा भी हम समझ सकते हैं। यह चोट इस बात का प्रमाण है कि आदमी अगर समझदार न हो तो उसके साथ इस समाज में क्या होता है। लेकिन चोट आपको लगी क्यों? इसकी कोई वजह साफ नहीं दिखाई देती। बस चोट ही दिखाई देती है। क्या कोई गलती आप से हुई है? आपके जीवन में कोई गड़बड़ है? विचारों में कोई दोष है? कृपया हमें बताएँ? अरे, आप तो चोट ही दिखलाए चले जा रहे हैं। क्या आप उसकी वजह नहीं जानना चाहते? बार-बार चोट दिखाते हैं पर नहीं बताते कारण; अब इस संकट का हम कैसे करें निवारण!
''मैं ऐसे छोटे-छोटे झूठ बोलता हूँ जिनसे दूसरों को कोई नुकसान नहीं होता। लेकिन उनसे मेरा नुकसान जरूर होता है। मसलन, झूठ बोलना ही एक अपने आप में बड़ा नुकसान है।
''जाने क्या है कि धोखा खाने, ठगे जाने में मुझे एक अजब-सा संतोष मिलता है। शायद थोड़ी खुशी भी होती है। कोई चीज खो जाए तो कुछ देर को अच्छा लगता है। बाजार से कोई चीज खरीदता हूँ - मसलन कमीज, जूता, बैग या माचिस - और वह खराब या नकली निकलती है तो एक राहत महसूस होती है। अमेरिका में मैंने एक बड़ा-सा महँगा-सा बैग लिया था जिसका कंधे पर लटकनेवाला फीता घर लौटते-लौटते टूट गया तो मुझे प्रसन्नता हुई कि अमेरिका की चीजें हमारी निगाह में बहुत टिकाऊ मानी जाती हैं पर वे भी जल्दी टूटती हैं। कहीं रास्ता भटक जाता हूँ तो घबराहट जरूर होती है लेकिन यह भी लगता है कि अच्छा है इस रास्ते ने मुझे ठग लिया। यानी यह एहसास कि यह वह नहीं है या था जो वह सचमुच होता या होना चाहिए था। यह 'वह' भी नहीं हैं जो 'वह' की शक्ल में प्राप्त हुआ। वह कुछ और है और उसे पाने की कोशिश में ठगा जाता हूँ। यह ठीक भी है। कोई उधार लिए पैसा लौटाता है तो अचानक लगता है कि मैंने कुछ ठगी कर ली है।''

'पहाड़ पर लालटेन', 'घर का रास्ता', 'हम जो देखते हैं', 'आवाज़ भी एक जगह है', 'रेतघड़ी', 'कवि ने कहा' आदि मंगलेशजी के चर्चित कविता संग्रह हैं। 'लेखक की रोटी', 'कवि का अकेलापन', 'एक बार आयोवा' उनके प्रमुख गद्य संग्रह हैं। उन्हें ओमप्रकाश स्मृति सम्मान, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मान, कुमार विकल स्मृति सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। छठे-छमाही फेसबुक पर भी।

वह कहते हैं - '' इस तरह जोड़कर रख पाता हूं कि सोचता रहता हूं अक्सर पहाड़ के बारे में। मैं खुद को इस तरह देखता हूं कि जैसे पहाड़ से एक पत्थर फिसलता है और जहां तक बहाव होता है वह वहां तक पहुंच जाता है। मैं भी पहाड़ से फिसल कर इसी तरह आ गया मैदान में। मैं भी वही पत्थर हूं जो कि निकला है पहाड़ से और आज भी पहाड़ का ही है। जहां से मैं निकला हूं जरूर आज भी वहां पहाड़ में एक खाली जगह होगी...। मेरे जीवन में काफी संघर्ष रहा है खासकर आजीविका के लिए। मेरी शिक्षा भी अधूरी ही छूट गई थी। यह जो विचारधाराओं के फ्रेम टूटने की बात है, तो हां बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण ऐसा हुआ है और पिछले कई वर्षों से कुछ अमेरिकी चिंतक ये ‘एंड ऑफ आइडियोलॉजी’ वाली बात रट रहे हैं। दरअसल वे लोग सिर्फ आइडियोलॉजी ही नहीं इसे ‘एंड ऑफ हिस्ट्री’ और ‘एंड ऑफ सिविलाइजेशन’ भी कह रहे हैं। उनका कहना है कि आने वाले समय में सिर्फ एक ही सभ्यता बची रहेगी। खासकर सोवियत संघ के पतन के बाद से यह बात और जोर-शोर से कही जाने लगी कि अमेरिका ही सब कुछ है और वही बचा रहेगा। लेकिन अमेरिकी विचारधारा क्या है यह सब जानते हैं कि वह बाजार है।''

मन पर छायी रहने वाली उस कविता 'बची हुई जगहें' की पंक्तियां.......

रोज़ कुछ भूलता कुछ खोता रहता हूँ
चश्मा कहाँ रख दिया है क़लम कहाँ खो गया है
अभी-अभी कहीं पर नीला रंग देखा था वह पता नहीं कहाँ चला गया
चिट्ठियों के जवाब देना क़र्ज़ की किस्तें चुकाना भूल जाता हूँ
दोस्तों को सलाम और विदा कहना याद नहीं रहता
अफ़सोस प्रकट करता हूँ कि मेरे हाथ ऐसे कामों में उलझे रहे
जिनका मेरे दिमाग़ से कोई मेल नहीं था
कभी ऐसा भी हुआ जो कुछ भूला था उसका याद न रहना भूल गया ।

माँ कहती थी उस जगह जाओ
जहाँ आख़िरी बार तुमने उन्हें देखा उतारा या रखा था
अमूमन मुझे वे चीज़ें फिर से मिल जाती थीं और मैं खुश हो उठता
माँ कहती थी चीज़ें जहाँ होती हैं
अपनी एक जगह बना लेती हैं और वह आसानी से मिटती नहीं
माँ अब नही है सिर्फ़ उसकी जगह बची हुई है ।

चीज़ें खो जाती हैं लेकिन जगहें बनी रहती हैं
जीवन भर साथ चलती रहती हैं
हम कहीं और चले जाते हैं अपने घरों लोगों अपने पानी और पेड़ों से दूर
मैं जहाँ से एक पत्थर की तरह खिसक कर चला आया
उस पहाड़ में भी एक छोटी सी जगह बची होगी
इस बीच मेरा शहर एक विशालकाय बांध के पानी में डूब गया
उसके बदले वैसा ही एक और शहर उठा दिया गया
लेकिन मैंने कहा यह वह नहीं है मेरा शहर एक खालीपन है ।

घटनाएँ विलीन हो जाती हैं
लेकिन जहां वे जगहें बनी रहती हैं जहां वे घटित हुई थीं
वे जमा होती जाती हैं साथ-साथ चलतीं हैं
याद दिलाती हुईं कि हम क्या भूल गया हैं और हमने क्या खो दिया है।