Wednesday 4 February 2015

मेरी पाठशाला (दस) : जिनको, अक्सर पढ़ता रहता हूं

कोई ऐसा कहे कि 'मैं इस दुनिया को चिड़िया की आँख से देखना चाहती हूँ...' या कुछ यूं कि - 'जाने क्यों महँगी चप्पलें गिरतीं नहीं कभी सड़क पर, वे छूटती भी नहीं हैं और किसी दूसरे के पाँव में आती भी नहीं आसानी से, सस्ती चप्पलें सस्तेपन को साथ लिए यहाँ-वहाँ छूटती हैं और उनका मिलना अशुभ भी नहीं होता ।'....और फिर इन प्रश्नों से रू-ब-रू कराते हुए कि- 'घृणा आततायी को जन्म देती है, आततायी निरंकुशता को, प्रेम किसको जन्म देता है...?'
तो ऐसे रचनाकार को पढ़ते हुए, कई एक बार लगता है कि दुनिया कितनी तरह से दिखायी देती है अपने आसपास की, दूर-सुदूर तक.... और ऐसी दुनिया तक ले जाती हैं कविता, उपन्यास, नाटक, पटकथा विधाओं में रचनारत नीलेश रघुवंशी की पंक्तियां। उनकी प्रमुख कृतियों में, कविता संग्रह हैं- घर-निकासी, पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में । उपन्यास है- एक कस्बे के नोट्स । उनके नाट्य आलेख हैं- छूटी हुई जगह (स्त्री कविता पर नाट्य आलेख), अभी ना होगा मेरा अंत, ए क्रिएटिव लीजेंड आदि। उन्होंने कई एक बाल नाटक भी लिखे हैं- एलिस इन वंडरलैंड,  डॉन क्विगजोट,  झाँसी की रानी आदि।
नीलेश रघुवंशी को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान, केदार सम्मान, शीला स्मृति पुरस्कार, युवा लेखन पुरस्कार, डी. डी. अवार्ड 2003, डी. डी. अवार्ड 2004,  शैलप्रिया स्मृति सम्मान आदि से समादृत किया जा चुका है।

उनकी कुछ यादगार पंक्तियां -

जब भी बहनें आतीं ससुराल से
वे दो चार दिनों तक सोती रहतीं
उलाँकते हुए उनके कान में जोर की कूँक मारते
एक बार तो लँगड़ी भी खेली हमने उन पर
वे हमें मारने दौड़ीं
हम भागकर पिता से चिपक गए
नींद से भरी वे फिर सो गईं वहीं पिता के पास...!
पिता के न होने पर
नहीं सोईं एक भी भरी दोपहरी में
क्या उनकी नींद जाग गई पिता के सोते ही...?
सब घेरकर बैठी रहीं उसी जगह को
जहाँ अक्सर बैठते थे पिता और लेटे थे अपने अंतिम दिनों में...!
पिता का तकिया जिस पर सर रखने को लेकर
पूरे तेरह दिन रुआँसे हुए हम सब कई बार
बाँटते भी कैसे
एक दो तीन नहीं हम तो पूरे नौ हैं...!
इसी बीच सबकी आँख बचाकर
मैंने पिता की छड़ी पार कर दी
उन्होंने देख लिया शायद मुझे
मारे डर के वैसे ही लिपटी छड़ी से
लिपटी थी जैसे पहली बार
पिता की सुपारी चुराने पर पिता से...!