Thursday 5 March 2015

जीवन जीने की कला / जयप्रकाश त्रिपाठी

महानता का उच्च आत्मालाप,
जहँ-तहँ अवसरवादी श्रद्धाभिभूति,
नामवर 'बड़ों' की चाटुकारिता
और अ-पठित, अ-घोर, अ-मनुष्यता 
है उसके जीवन जीने की कला ।

मैं उन्हें भला क्या जवाब देता

उन दिनो लखनऊ से 'सुकवि विनोद' पत्रिका प्रकाशित होती थी। संपादक थे डा. लक्ष्‍मीशंकर मिश्र 'निशंक'। उस पत्रिका के माध्यम से वह नये कवियों को प्रोत्साहित करते रहते थे। ज्यादातर रचनाएं ब्रजभाषा में होती थीं। रचनाएं कहिए या तुकबंदी। मैंने एक साथ भाषा और कविता, दोनो का तुक्का मारा और निशाने पर जा बैठा। सिर्फ चार पंक्तियां थीं ब्रजभाषा में। भावार्थ, होली में बरसात का रूपक......
पुन्य कौ पावस ऐसो भयो, बरसाने के अंबर भावन ह्वैगे
घेरिगे मेघ अबीर-गुलाल, झांझ-मजीरे सुहावन ह्वैगे
दामिनि की छवि अंग लिए वृषभानुजा के मन पावन ह्वैगे
फागुन की रसवंती फुहार में नंद के सांवरे सावन ह्वैगे...
कालेज में पढ़ाई के दौरान रचना सुकवि विनोद में प्रकाशित होने के काफी समय बाद जब एक दिन मंच से इसका पाठ कर मैं अपने घर लौट रहा था, पीछे-पीछे तेजी से आ रहे मेरे कक्षाध्यापक ने आवाज दी। मैं रुक गया। वह हांफ रहे थे। मैंने सोचा कुछ अप्रिय तो नहीं हो गया। वो छूटते ही पूछ बैठे- आप कहां के रहने वाले हो, मथुरा के.....अब मैं उन्हें भला क्या जवाब देता...