Monday 23 March 2015

शहीद दिवस के बहाने ‘भगत, गांधी, अंबेडकर और जिन्ना’ पर सुमंत भट्टाचार्य ने छेड़ी गंभीर बहस

'एक भी दलित चिंतक ने भगत की शहादत को याद नहीं किया', अपने इन शब्दों के साथ शहीद दिवस के बहाने संक्षिप्ततः अपनी बात रखकर वरिष्ठ पत्रकार सुमंत भट्टाचार्य ने फेसबुक पर ‘भगत, गांधी, अंबेडकर और जिन्ना’ संदर्भित एक गंभीर बहस को मुखर कर दिया। भगत सिंह की शहादत को याद न करने के उल्लेख के साथ उन्होंने लिखा- ''गोडसे को तब भी माफ किया जा सकता है..क्योंकि गांधी संभवतः अपनी पारी खेल चुके थे। पर गांधी को इस बिंदु पर माफ करना भारत के साथ अन्याय होगा। भगत सिंह पर उनकी चुप्पी ने नियति का काम आसान कर दिया, ताकि नियति भारत के भावी नायक को भारत से छीन ले। यहीं आकर मैं गांधी के प्रति दुराग्रह से भर उठता हूं। पर जिन्नाह और अंबेडकर तो हिंसावादी थे..एक मुंबई में गोलबंद होकर मारपीट करते थे, दूसरे डायरेक्ट एक्शन के प्रवर्तक। इनकी चुप्पी पर भी सवाल उठने चाहिए। शाम तक इंतजार के बाद अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है, एक भी दलित चिंतक ने भगत की शहादत को याद नहीं किया.....क्यों..?''

इसके जवाब में ब्रजभूषण प्रसाद सिन्हा ने लिखा कि 'बिल्कुल सही सोच है आपकी जैसा कि मैंने पढ़ा है। अगर गांधी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे पर उन्होंने उन्हें आतंकवादी करार देते हुए बचाने से मना कर दिया और गांधी बहुतों के चित्त से उतर गए। गाँधीवादी मित्र क्षमा करेंगे। गांधी ने नेहरू को गद्दी सौंप कर मेरे नजरिये में सबसे बड़ी गलती की। अगर पटेल जैसा कि अधिकांश मेम्बरों की चाहत थी, को बनाया होता तो आज जो देश की जो दुर्दशा है, वह नहीं होती।' मनीष शुक्ला का मानना था - 'गांधी ने हमेशा नेहरू के रास्ते के कांटे साफ़ किये, अब अन्ना अपनी आखिरी पारी में नया गांधी बनने की राह पर हैं ।'

वरुण कुमार जायसवाल ने लिखा - ‘कुछ भी लिखने से पहले ये स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि भगत सिंह की शहादत के प्रति मन में असीम सम्मान और श्रद्धा है. मुझे ऐसा लगता है कि यदि भगत सिंह को अपनी पारी खेलने का मौका मिलता तो वो पारी कैसी होती ? भगत सिंह स्पष्ट रूप से मार्क्सवाद से प्रभवित थे और उनका रुझान लिबरेशन की यूटोपियन समाज व्यवस्था की तरफ था जो 1931 के आगे की दुनिया में न सिर्फ़ ख़ूनी सिद्ध हुई बल्कि पूरी दुनिया को खतरे में डालने से पीछे भी न हटी. भगत सिंह की आड़ लेकर तो ऐसी ताकतों (कम्युनिस्ट) का सत्तारूढ़ होना संभव भी था क्योंकि तब संभवतया इसमें राष्ट्रवाद और देशभक्ति का फ्लेवर जुड़ चुका होता लेकिन आत्मा तो वाम ही रहती. क्या 1992 के बाद भारत की दशा भी पूर्वी यूरोप के सेटेलाइट मुल्कों जैसा ना हो जाता. भगत सिंह जिस राज्य की परिकल्पना में जीते थे वो हममें से अधिकांश को डरा देने के लिए काफी है.’

आर के गोपाल ने लिखा कि 'गांधी पारी खेल चुके थे? मतलब आजादी गाँधी ने दिलवायी...  फिर अच्छा विश्लेषण है!' इस टिप्पणी के जवाब में सुमंत भट्टाचार्य ने लिखा कि 'मेरा आशय उम्र से है..गांधी भारत को वो दे चुके थे जो देना चाह रहे ते..जिस वक्त गांधी गए, कांग्रेस उनको खारिज कर रही थी। भगत सिंह 23 साल की उम्र में गए..वो गांधी के भारत के समानांतर उस भारत की आवाज बन रहे थे जिसे कांग्रेस आवाज नहीं दे रहा था। फिर यह मेरा निजी नजरिया है, आपको अपनी बात रखने का पूरा हक है। मेरी असहमति का बिंदु गांधी की खामोशी है।'

हिमांशु कुमार घिल्डियाल की टिप्पणी थी - 'अहिंसा के पुजारी ने द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों को अंग्रजों का साथ देने को कहा था। युद्ध में गोलियों की बरसात होती है या लाशों की?' पुष्कर भट्ट ने लिखा - 'गांधी जी के अहिंसा सिद्धांत का प्रतिफल 1947 में दिख गया था.. बंटवारे के बाद की मार काट.. अहिंसा के पेड़ पर लगे हिंसा के फल..।’ सुमन वर्मा का कहना था कि ‘इतने वर्षों बाद ही सही, आज उनको सारा देश याद तो कर रहा है शहीद के रूप में।’

अपनी प्रतिटिप्पणी में शरद श्रीवास्तव लिखते हैं- ‘गांधी जी के नेतृत्व को असली चुनौती भगत सिंह से नहीं, लेफ्ट से थी, कांग्रेस में सुभाष बाबू और नेहरू जी से थी। सन 31 से पहले मेरठ मे कम्युनिस्टों पर मुक़द्दमा चला था, जिसमें उन्हे देश द्रोह के लिए सजा सुनाई गयी थी। अगर गांधी जी को कोसना है तो उन क्षणों के लिए पहले कोसिए जब भगत सिंह भूख हड़ताल पर थे, और उसी में जतिन दास की मृत्यु हो गयी थी। सुनते हैं जतिन दास का शव जब कलकत्ता लाया गया था, तब उनके अंतिम संस्कार मे भाग लेने 6 लाख लोग जुटे थे। जतिन बाबू की मौत पर वो भी अनशन से हुई मौत पर कांग्रेस और गांधी जी का क्या रोल था। ये तो अहिंसा के लिए हुई मौत थी। कांग्रेस ने इसे रोकने का कोई उपाय किया या नहीं या अपनी चुप्पी बनाए रखी।’
तेजेंद्र सिंह का कहना था कि गाँधी जी की ये सोच केवल भगत सिंह के लिए नहीं थी, उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर भी यही रवैया अपनाया था। अंततः बोस ने त्यागपत्र दे दिया था। शिखा गुप्ता का मानना है कि गाँधी जी के बहुत से कृत्य ऐसे हैं जिन पर प्रश्न उठने चाहिए और चर्चा होनी चाहिए। रीता सिन्हा ने लिखा - ‘भगत सिंह और सु.चन्द्र.वोस की कसक बनी रहती है। आपसे सहमत हूँ।’
पुष्प जैन ने तो 'बापू की हजामत और पुन्नीलाल का उस्तरा' शीर्षक से मधु धामा लिखित पुस्तक का सचित्र एक अंश ही प्रस्तुत कर दिया कुछ इस तरह.... ‘‘बापू कल मैंने हरिजन पढा।’’ पुन्नीलाल ने गांधीजी की हजामत बनाते हुए कहा। ‘‘क्या शिक्षा ली!’’ ‘‘माफ करें तो कह दूं।’’ ‘‘ठीक है माफ किया!’’ ‘‘जी चाहता है गर्दन पर उस्तरा चला दूं।’’ ‘‘क्या बकते हो?’’ ‘‘बापू आपकी नहीं, बकरी की!’’ ‘‘मतलब!’’ ‘‘वह मेरा हरिजन अखबार खा गई, उसमें कितनी सुंदर बात आपने लिखी थी।’’ ‘‘भई कौनसे अंक की बात है।’’ ‘‘बापू आपने लिखा था कि छल से बाली का वध करने वाले राम को भगवान तो क्या मैं इनसान भी मानने को तैयार नहीं हूं और आगे लिखा था सत्यार्थ प्रकाश जैसी घटिया पुस्तक पर बैन होना चाहिए, ऐसे ही जैसे शिवा बावनी पर लगवा दिया है मैंने।’’ आंखें लाल हो गई थी पुन्नीलाल की। ‘‘तो क्या बकरी को यह बात बुरी लगी।’’ ‘‘नहीं बापू अगले पन्ने पर लिखा था सभी हिन्दुओं को घर में कुरान रखनी चाहिए, बकरी तो इसलिए अखबार खा गई। हिन्दू की बकरी थी ना, सोचा हिन्दू के घर में कुरान होगी तो कहीं मेरी संतान को ये हिन्दू भी बकरीद के मौके पर काट कर न खा जाएं।’’ अंत में उन्होंने ये नोट भी लिख दिया कि कोई आपत्ति करने का साहस न करें, मूल पुस्तक में गांधी जी की टिप्पणी के मूल प्रमाण दिए गए हैं।
प्रियदर्शन शास्त्री ने लिखा - ‘सुमन्त भाई ! गोडसे को कैसे माफ कर सकते हैं ? रावण भी बहुत गुणी था शायद गोडसे भी परन्तु उनके कृत्यों से उन्हें क़तई माफ नहीं किया जा सकता .... माना कि भगतसिंह, सुखदेव एवं राजगुरु की शहादत आजादी की लड़ाई की एक महान घटना है परन्तु हम उन सबको क्यों भूल जाते हैं जो ऑफ द रिकॉर्ड थे..... कुछ लोग महात्मा गाँधी की आलोचना इस तरह करते हैं जैसे क्रिकेट की कर रहे हों ..... जैसे उन्होने सम्पूर्ण गाँधी को समझ लिया हो .... हम ये भूल जाते हैं कि जिस शख़्स ने भी आजादी की लड़ाई लड़ी है वो उन अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी है जिनका पूरे विश्व के एक चौथाई भाग पर राज था .... मुझे नहीं लगता कि वर्तमान पीढ़ी में दुबारा से आज़ादी की लड़ाई लड़ने का माद्दा है । यहाँ वर्तमान आलोचकों का ये हाल है कि अंग्रेजों की तो छोड़ो शहर के भ्रष्ट विधायक या सांसद के विरुद्ध तो आवाज़ तक नहीं निकलती ... और बात करते हैं महात्मा गाँधी की।’
जयप्रकाश त्रिपाठी ने लिखा - ‘अलग से मुस्लिम मोरचा, अलग से दलित मोरचा, अलग से स्त्री मोरचा, आजादी के आंदोलन के समय से या बाद में इस तरह की सारी कवायदें पूंजीवादी-साम्राज्यवादी मोरचे पर जन-एकजुटता कमजोर करने के लिए ही तो जारी हैं। हमारे एक सुपरिचित दलित-एनजीओ चिंतक महोदय तो कूद कूद कर नेपाल तक हो आते हैं, वहां के दलितों को ये बताने के लिए कि तुम्हारा मोरचा दूसरा है। और बीच बीच में महीनो के लिए रहस्यमय तरीके से लापता हो जाते हैं। कोई बता रहा था कि लापता होने के दिनो में वे अपने अर्थगुरुओं से दीक्षित होने विदेश भाग जाते हैं, वहां पता नहीं क्या क्या करके लौटते हैं। मैंने ज्यादातर दलित-चिंतक महोदयों को इसी रूप में देखा है। अमीर दलित और गरीब दलित .... हाहाहाहा। एक बात और, कुछ बातें हमारे उन भारतीय पुरखों और मौजूदा लालसलामियों को लेकर भी विचलित करती हैं.... आज के हालात के पीछे सारा किया धरा उन्हीं का है, मुझे ये भी अच्छी तरह से मालूम है कि एक नेशनल फेम के कामरेड की पत्नी भी विदेशों में जाकर दाता एजेंसियों के तलवे चाटती रहती हैं .... जहां तक एक भी दलित चिंतक के भगत की शहादत को याद नहीं करने का प्रश्न है, जानीबूझी इस अक्षम्य कारस्तानी के पीछे इसी तरह की ढेर सारी ऐतिहासिक गलतियां और साजिशें हैं।’
कुमार सौवीर का मानना था कि सार्थक विरोध को कभी भी किसी निंदापरक विरोध की बैसाखी की जरूरत नहीं होती है। शरद श्रीवास्तव ने पुनः लिखा कि भारत की आजादी के आंदोलन में ब्रिटेन की दो पार्टियों की आपसी राजनीति और उनकी भारत के प्रति नीति का भी अच्छा खासा रोल रहा है। कंजरवेटिव पार्टी हमेशा भारत के खिलाफ रही, लेबर पार्टी भारत को अधिक अधिकार दिये जाने की पक्षधर रही। 1931 मे लेबर पार्टी की सरकार थी। इससे पहले 1890 मे लेबर पार्टी की सरकार थी और तब भी भारत के लिए उसने कई महत्वपूर्ण निर्णय किए थे। लेबर पार्टी की सरकार ने लार्ड इरविन को भारत मे चल रहे आंदोलन से बात चीत करने के लिए कहा और लार्ड इरविन ही पहले वायसराय थे जिनहोने पहली बार बाकायदा घोषणापत्र जारी करके कांग्रेस को भारत का नुमाइंदा कहा और गोल मेज सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया जिसमे भारत को अधिक अधिकार दिये जाने की बात होनी थी। लॉर्ड इरविन ने बातचीत का माहौल तैयार करने के लिए गांधी जी की कई शर्ते भी मानी। यहाँ तक कहा जाता है की लार्ड इरविन ने लिखित मे कांग्रेस से समझौता करके अंग्रेज़ो के ताबूत मे पहली कील ठोकी और कांग्रेस को एक अधिकृत पार्टी होने का भारत की आवाज होने का प्रमाणपत्र दे दिया। ऐसे हालात मे जब वायसराय बातचीत का इच्छुक था, सरकार अनुकूल थी, तब भी गांधी जी ने बातचीत करने से पहले रखी गयी शर्तों मे भगत सिंह एवं उनके साथियों की फांसी रोकने की मांग क्यों नहीं की इस पर अचरज होता है।’
उमाशंकर राय ने लिखा कि यह ऐतिहासिक तथ्य है..भगत सिंह खुद भी नहीं चाहते थे कि गांधी या कोई उनके लिए अंग्रेजी हुकूमत से गुहार लगाए..लेकिन तमाम नेता गांधी से गुजारिश कर रहे थे कि रिहाई नहीं तो कम से कम उम कैद में बदलवाने के लिए वायसराय से बात करें..इसी बिंदू पर बात अटकी रही। शादाब खान ने लिखा - ‘मैं तो जिन्नाह को माफ कर देता डायरेक्ट एक्शन के लिए...पर कमबख्त भारत रुका ही नहीं। निकल गया हत्थे से।’ इस पर सुमंत भट्टाचार्य ने लिखा- सवाल का दूसरा हिस्सा जिन्नाह और अंबेडकर की खामोशी पर है। इतिहास का कोई अछूता दस्तावेज हो तो सामने लाइए मित्र।’

10वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का समापन

मीडिया कॉरपोरेट के कब्जे में, अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे

गोरखपुर : 10वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में प्रसिद्ध लेखिया अरुंधति राय ने देश में अभिव्यक्ति के खतरों की ओर इशारा करते हुए सरकारी सेंसरशिप को जरविरोधी करार दिया। उन्होंने महात्मा गांधी संबंधी अपने बयान के समर्थन में डॉ.अंबेडकर की किताब के कुछ अंश पढ़े। उन्होंने कहा कि गांधी हिंदुस्तान के पहले कॉरपोरेट एनजीओ थे।
सोमवार को पत्रकारों से बातचीत करते हुए अरुंधति रॉय ने कहा कि प्रतिरोध के लिए स्ट्रिट सेंसरशिप चिंता का विषय है। इंडियाज डॉटर तो विदेशी ने प्रसारित किया। कोई भारतीय होता तो उसके ठिकाने पर अब तक गुंडे भेज दिए गये होते। मैं तो घृणित से घृणित फिल्म भी दिखाने के पक्ष में हूं क्योंकि उससे ही समस्या के समाधान का रास्ता मिल सकेगा।

उन्होंने कहा कि इस समय मीडिया और सरकार, दोनो कॉरपोरेट के कब्जे में हैं और संसद में मजबूत विपक्ष नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कॉरपोरेट जगत की कठपुतली हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भी पूंजीपतियों के हाथों में खेलते हैं। केंद्र सरकार स्वच्छता की बात तो करती है लेकिन जो कीचड़ में रहकर कीचड़ की सफाई करते हैं, उन पर पहले ध्यान देने की जरूरत है। आज अच्छे दिन उन लोगों के हैं, जो किसानों की जमीन हड़प रहे हैं। अब तो महाभ्रष्ट भी भ्रष्टाचार हटाने की बात करने लगा है।

सोमवार की शाम 10वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का समापन हो गया। उत्सव के अंतिम दिन पांच फिल्मों दस्तावेजी फिल्म 'समथिंग लाइक अ वार', पंजाबी फिल्म 'मिलागे बाबे रतन ते मेले ते', फीचर फिल्म 'हमारे घर', फिल्म 'सेवा' और नकुल सिंह साहनी की फिल्म 'मुजफ्फरनगर बाकी हैं', के प्रदर्शन के अलावा जनचिंतकों के बीच मीडिया और सिनेमा में लोकतंत्र और सेंसरशिप चर्चा के केंद्र में रही।
इससे एक दिन पूर्व फिल्मोत्सव में अजय टीजी की दस्तावेजी फिल्म 'पहली आवाज', विक्रमजीत गुप्ता की फिल्म 'अचल', पवन कुमार श्रीवास्तव की भोजपुरी फिल्म 'नया पता' का रविवार को प्रदर्शन किया गया था। उसी दिन फिल्मोत्सव में एक सत्र बच्चों के लिए था। प्रो. बीरेन दास शर्मा ने दृश्यों और ध्वनियों के जरिए बाइस्कोप से लेकर सिनेमा के विकास की कहानी से बच्चों को अवगत कराया। इसके बाद संजय मट्टू की किस्सागोई ने बच्चों का मनोरंजन किया। 'भाग गई पूड़ी' व 'राक्षस' कहानी के जरिए उन्होंने बच्चों को मनोरंजन के साथ शिक्षा देने की कोशिश की। जिस नाटकीयता, बातचीत और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करते हुए संजय मट्टू ने बच्चों को कहानी सुनाई, उससे उन्हें खूब मजा आया।
समन हबीब और संजय मट्टू की प्रस्तुति 'आसमान हिलता है जब गाते हैं हम' के जरिए प्रगतिशील-लोकतात्रिक रचनाओं की साझी विरासत बड़े ही प्रभावशाली तरीके से सामने आई। इस प्रस्तुति ने न सिर्फ प्रगतिशील रचनाकारों की रचनात्मक प्रतिभा, उनके सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से बावस्ता कराया, बल्कि इसका भी अहसास कराया कि उस दौर में सवाल उठाए गए थे, वे आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। संगीत संकलन अमित मिश्र ने किया था।

शहीद पत्रकार भगत सिंह

शहीद भगतसिंह अमर क्रांतिकारी ही नहीं, पत्रकार भी थे। आजादी के आंदोलन के दौरान वह सांप्रदायिक तत्वों की ओर इशारा करते हुए लिखते हैं - ‘दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक, जिनका दिल और दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो, बहुत कम हैं।
'अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या?’
सामाजिक हालात पर उन्होंने लिखा - ‘समाज का वास्तविक पोषक श्रमजीवी है। जनता का प्रभुत्व मजदूरों का अंतिम भाग्य है। इन आदर्शों और विश्वास के लिए हम उन कष्टों का स्वागत करेंगे, जिनकी हमें सजा दी जाएगी। हम अपनी तरुणाई को इसी क्रांति की वेदी पर होम करने लाए हैं, क्योंकि इतने गौरवशाली उद्देश्य के लिए कोई भी बलिदान बहुत बड़ा नहीं है।…समाज का सबसे आवश्यक अंग होते हुए भी उत्पादन करने का या मजदूरों से शोषकगण उनकी मेहनत का फल लूट लेते हैं। एक ओर जहां सभी के लिए अनाज पैदा करने वाले किसानों के परिवार भूखों मरते हैं, वहीं सारे संसार को सूट जुटाने वाला बुनकर अपना और अपने बच्चों का तन ढकने के लिए पर्याप्त कपड़ा नहीं पाता, शानदार महल खड़ा करने वाले राजमिस्त्री, लेबर और बढ़ई, झोपड़ियों में ही बसर करते और मर जाते हैं। और दूसरी ओर पूंजीपति, शोषक अपनी सनक पर करोड़ों बहा देते हैं।’
उन्होंने साफ साफ लिखा -‘क्रांति से हमारा आशय यह है कि समाज में एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना की जाए, जिसमें इस प्रकार के हड़कम्प का भय न हो और जिसमें मजदूर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाए और उसके फलस्वरूप विश्व पूंजीवाद के बंधनों, दुखों तथा युद्धों से मानवता का उद्धार कर सकें।’...'यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमको बमों और पिस्तौलों से कुछ हासिल नहीं होगा। ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्रीय सेना’ के इतिहास से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। बम चलाना निरर्थक ही नहीं, अक्सर हानिकारक भी होता है, हालांकि कुछ परिस्थितियों में उसकी अनुमति दी जा सकती है जिसका मुख्य उद्देश्य मजदूरों और किसानों को संगठित करना ही होना चाहिए।’
आशीष दासोत्तर अपनी पुस्तक ‘समर में शब्द’ लिखते हैं- भगतसिंह ने अपने पत्रकारिता जीवन में कई मुद्दों पर अनेक लेख लिखे। वह ‘प्रताप’ में निरंतर लिखते रहे। काकोरी के अभियुक्तों को जेल से छुडाने की योजना के समय कानपुर आए, तब उन्होंने बबर अकाली आन्दोलन के शहीदों पर लेख ‘होली के दिन खून के छींटे’ शीर्षक से लिखा जो 15 मार्च 1926 के साप्ताहिक ‘प्रताप’ में प्रकाशित भी हुआ। यह लेख उन्होंने ‘एक पंजाबी युवक’ के नाम से लिखा था।
भगतसिंह अगर क्षणिक पत्रकार होते या सिर्फ क्रांतिकारी ही होते तो पत्रकारिता की राह को कभी का छोड़ देते। यह भी संभव था कि वे पत्रकारिता को समय मिलने पर महत्व देते। मगर ऐसा नहीं था। वे पत्रकारिता से जिस तरह प्रारंभ से जुडे थे आखिरी समय तक उसी सिद्दत से जुडे़ रहे। माडर्न रिव्यू के सम्पादक रामानन्द चटर्जी ने सम्पादकीय टिप्पणी में ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ नारे का मखौल उड़ाया। भगतसिंह को यह उचित नहीं लगा तो उन्होंने ‘सम्पादक के नाम पत्र’ का सहारा लिया। उन्होंने सम्पादक की टिप्पणी का माकूल जवाब इस पत्र में दिया जो बाद में 24 दिसम्बर 1929 के द ट्रिब्यून में छपा भी।
इस पत्र में उन्होंने लिखा दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऐसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है जो सम्भव है भाषा के नियमों एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्क सम्मत रूप में सिद्ध न हो पाये परन्तु इसके साथ ही इस नारे से उन विचारों को पृथक नहीं किया जा सकता जो इसके साथ जुडे हुए हैं। किसी अखबार में सम्पादक को उसकी टिप्पणी पर इस तरह की चुनौती वही दे सकता है जो न सिर्फ अपने मकसद के प्रति संकल्पित हो बल्कि वह अखबार की गरिमा सम्पादक के महत्व और सम्पादकीय टिप्पणी के परिणामों को बखूबी समझता हो। यदि भगतसिंह द्वारा इस तरह सम्पादक के नाम पत्र लिखकर अपनी बात नहीं रखी जाती तो सम्पादक की टिप्पणी को ही सच समझा जाता और ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के सही अर्थों को समझा ही नहीं जाता।