Tuesday 24 March 2015

अंग्रेजों के एजेंट विरासत को हड़पने की कोशिश में / संजय पराते

भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश वे हिन्दूवादी संगठन भी कर रहे हैं, जिनका आजादी के आंदोलन में कोई भी योगदान नहीं था और वास्तव में तो वे अंग्रेजों की चापलूसी में ही लगे थे।
भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को फांसी की सजा दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होंने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी। उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा।
मात्र 23 साल की उम्र में उन्होनें शहादत पाई, लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिको को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले। निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था। इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विषद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ। अपनी फांसी के चंद मिनट पहले वे “लेनिन की जीवनी” को पढ़ रहे थे और उनके ही शब्दों में एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा था।
उल्लेखनीय है कि लेनिन ही वह क्रांतिकारी थे, जिन्होंने रूस में वहां के राजा जार का तख्ता पलट कर दुनिया में पहली बार किसी देश में मजदूर-किसान राज की स्थापना की थी। सोवियत संघ का गठन किया था और मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर शोषणविहीन समाज के गठन की ओर कदम बढ़ाया था। लेनिन के नेतृत्व में यह कार्य वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने ही किया था। इसलिए वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम से ही पूरी दुनिया में जाना जाता है। स्पष्ट है कि भगतसिंह भी इस देश से अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भगाकर मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर ही ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे, जहां मनुष्य, मनुष्य का शोषण न कर सके। अपने वैज्ञानिक अध्ययन और क्रांतिकारी अनुभवों के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि यह काम कोई बुर्जुआ-पूंजीवादी दल नही कर सकता, बल्कि केवल और केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही समाज का ऐसा रूपान्तरण कर सकती है। इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी और उसके क्रांतिकारी जनसंगठनों का गठन, ऐसी पार्टी और जनसंगठनों के नेतृत्व में आम जनता के तमाम तबको की उनकी ज्वलंत मांगों और समस्याओं के इर्द-गिर्द जबरदस्त लामबंदी और क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यवाहियों का आयोजन बहुंत जरूरी है। व्यापक जनसंघर्षों के आयोजन के बिना और इन संघर्षों से प्राप्त अनुभवों से समाज की राजनैतिक चेतना को बदले बिना किसी बदलाव की उम्मीद नही की जानी चाहिये। “नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम” पत्र में भगत सिंह ने अपने इन विचारों का विस्तार से खुलासा किया है।
इस प्रकार, भगत सिंह हमारे देश की आजादी के आंदोलन के क्रांतिकारी-वैचारिक प्रतिनिधि बनकर उभरते हैं, जिन्होनें हमारे देश की आजादी की लड़ाई को केवल अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ाई से भी जोड़ा और पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता तथा पूंजीवादी-सामंती विचारों से मुक्ति की अवधारणा से भी जोड़ा। मानव समाज के लिए ऐसी मुक्ति तभी संभव है, जब उन्हें धार्मिक आधार पर बांटने वाली सांप्रदायिक ताकतों और विचारों को जड़ मूल से उखाड़ फेंका जाये, जातिवाद का समूल नाश हो, धर्म को पूरी तरह से निजी विश्वासों तक सीमित कर दिया जाय और आर्थिक न्याय को सामाजिक न्याय के साथ कड़ाई से जोड़ा जाय। ऐसा सामाजिक न्याय .. जो जाति प्रथा उन्मूलन की ओर बढ़े और जो स्त्री-पुरूष असमानता को खत्म करे, व्यापक भूमि सुधारों के बल पर सांमती विचारों की सभी अभिव्यक्तियों व प्रतीकों के खिलाफ लड़कर ही हासिल किया जा सकता है। भारतीय समाज बहुरंगी है, कई धर्म हैं, कई भाषाएं हैं, सांस्कृतिक रूप से धनी इस देश में सदियों से कई संस्कृतियां आकर घुलती-मिलती रही है। लोगों के पहनावे, खान-पान तथा आचार-व्यवहार भी अलग-अलग है। इसलिए भारतीय संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति है, हमारी विविधता में एकता यही है कि इतनी भिन्नताओं के बावजूद हमारी मानवीय समस्याएं, सुख-दुख, आशा-आकाक्षाएं एक है। हमारे देश की एकता और अखण्डता की रक्षा तभी की जा सकती है, जब हम इस विविधता का सम्मान करना सीखें और इसके बहुरंगीपन को खत्म कर एक रंगत्व में ढालने की कोशिशों को मात दी जाय। इसी विविधता में हमारा सामूहिक अस्तित्व और संप्रभुता सुरक्षित है। भगत सिंह का संघर्ष भारत की एकता के लिए इसी विविधता की रक्षा करने का संघर्ष था। इस संघर्ष के क्रम में वे सांप्रदायिक-जातिवादी संगठनों व उसके नेताओं की तीखी आलोचना भी करते है। भगत सिंह गांधीजी और और कांगेस की आलोचना भी इसी प्ररिप्रेक्ष्य में करते हैं कि उनकी नीतियां अंग्रेजी साम्राज्यवाद से समझौता करके गोरे शोषकों की जगह काले शोषकों को तो बैठा सकती है, लेकिन एक समतामूलक समाज की स्थापना नहीं कर सकती।
इस प्रकार भगतसिंह देश की आजादी की लड़ाई को साम्राज्यवाद से मुक्ति, सांप्रदायिकता और जातिवाद से मुक्ति, वर्गीय शोषण से मुक्ति तथा देश की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता व विविधता की रक्षा के लिये संघर्ष से जोड़ते हैं और इसमें कमजोरी दिखाने के लिए आजादी के तत्कालीन नेतृत्व की आलोचना करते हैं। भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि कितनी सटीक थी, आज हम यह देख रहे हैं। अंग्रेजी साम्राज्यवाद चला गया, लेकिन वर्गीय शोषण बदस्तूर जारी है। हमने राजनैतिक आजादी तो हासिल कर ली, किन्तु गांधीजी के ही “अंतिम व्यक्ति” के आंसू पोंछने का काम ठप्प पड़ा हुआ है, क्योंकि इस राजनैतिक आजादी को अपने साथ आर्थिक आजादी तो लाना ही नहीं था। इस आर्थिक आजादी के बिना सामाजिक न्याय की लड़ाई भी आगे बढ़ नही सकती और हमारे राष्ट्रीय जीवन में सामाजिक अन्याय के विभिन्न रूपों का बोलबाला हो चुका है। आर्थिक-सामाजिक न्याय के अभाव में हमारे देश की विविधता भी खतरे में पड़ गई है और सांप्रदायिक-फासीवादी विचारधारा फल-फूल रही है, जिससे देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता ही खतरे में पड़ती जा रही है। स्पष्ट है कि कांग्रेस और गांधीजी के नेतृत्व में जो राजनैतिक आजादी हासिल की गई, उसने हमारे देश-समाज की समस्याओं को हल नहीं किया। इसे हल करने के लिए तो हमें भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि से ही जुड़ना होगा और इसी दृष्टि पर आधारित वैकल्पिक नीतियों के इर्द-गिर्द जनलामबंदी व संघर्षों को तेज करना होगा और पूंजीवादी-सांमती सत्ता को ही उखाड़ फेंकने की लड़ाई लड़ना होगा।
भगतसिंह की विचारधारा के बारे में इतनी लंबी टिप्पणी इसलिए कि आज जब राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की तस्वीरें लगातार धुंधली होती जा रही है और जब आजादी के आंदोलन के दूसरे नेता लोंगो की स्मृति से गायब होते जा रहे हैं, भारतीय जनमानस में और विशेषकर वर्तमान युवा पीढ़ी में आज भी भगतसिंह किंवदंती बनकर जिंदा हैं और उनकी शहादत से प्रेरणा ग्रहण करता है। यही कारण है कि आज देश में भगतसिंह को उनकी विचारधारा से काटकर पेश करने की कोशिश हो रही है। यह षड़यंत्र कितना गहरा है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिन लोगों का और जिन संगठनों और दलों का भी भगतसिंह की विचारधारा से दूर-दूर तक संबंध नही है, वे ही भगतसिंह की विरासत को हड़पने की कोशिश कर रहे हैं। इस क्रम में वे भगतसिंह को सिख समाज के नायक के रूप में पेश करते हैं, जबकि भगतसिंह पूरे देश के क्रांतिकारी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं और वास्तव में वे नास्तिक थे। इस क्रम में वो भगतसिंह को आंतकवादी के रूप में पेश करते हैं, जबकि आतंकवाद से उनका दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। कोर्ट में अपने मुकदमे के दौरान उन्होने स्पष्ट रूप से बयान दिया है .. “क्रांति के लिए खूनी लड़ाईयां अनिवार्य नहीं हैं और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है .. अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।“
स्पष्ट है कि भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत का “माओवादी” उग्र-वामपंथी विचारधारा से भी कोई संबंध नही है, जो सशस्त्र क्रांति के नाम पर केवल निरीह लोंगो की हत्या तक सीमित रह गया है।
भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश वे हिन्दूवादी संगठन भी कर रहे हैं, जिनका आजादी के आंदोलन में कोई भी योगदान नहीं था और वास्तव में तो वे अंग्रेजों की चापलूसी में ही लगे थे। ऐसे लोग उन्हें सावरकर के बराबर रखने की कोशिश करते हैं, जबकि भगतसिंह का धर्मनिरपेक्षता में अटूट विश्वास था और जिस नौजवान भारत सभा की उन्होंने स्थापना की थी, उसकी प्रमुख हिदायत ही यह थी कि सांप्रदायिक विचारों को फैलाने वाली संस्थाओं या पार्टियों के साथ कोई संबंध न रखा जाय और ऐसे आंदोलनों की मदद की जाय, जो सांप्रदायिक भावनाओं से मुक्त होने के कारण नौजवान सभा के आदर्शों के नजदीक हों। इस प्रकार शोषणमुक्त समाज की स्थापना में वे सांप्रदायिकता को सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। यदि सांप्रदायिक ताकतें आज भगतसिंह का गुणगान कर रही हैं, तो केवल इसलिए कि युवा समुदाय को दिग्भ्रमित कर शोषणमुक्त समाज की स्थापना के संघर्ष को कमजोर किया जा सके।
इस प्रकार भगतसिंह का जमीनी और वैचारिक संघर्ष देश की आजादी के लिए साम्राज्यवाद के खिलाफ तो था ही, वर्गीय शोषण से मुक्ति और समाजवाद की स्थापना के लिए सांप्रदायिकता, जातिवाद और असमानता के खिलाफ भी था और देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता की रक्षा के लिए आतंकवाद के खिलाफ भी था। देश के सुनहरे भविष्य के लिए भगतसिंह की यह सोच उन्हें अपने समकालीन स्वाधीनता संग्राम के नेताओं से अलग करती है तथा उन्हें उत्कृष्ट दर्जे पर रखती है। एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए उन्होंने जो वैचारिक जमीन तैयार की तथा इसके लिए जो संघर्ष किया, उसी के कारण भगतसिंह आज भी हिन्दुस्तानी भारतीय-पाकिस्तानी जनमानस में जिंदा है।
भगतसिंह ने मात्र 23 साल की उम्र में शहादत पायी, लेकिन शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए यह उनकी वैचारिक प्रखरता ही थी कि अंग्रेजी जेलों से मुक्त होने के बाद उनके साथ काम करने वाले अधिकांश साथी कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये। शिव वर्मा, किशोरीलाल, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा तथा जयदेव कपूर आदि इनमें शामिल थे। अजय घोष तो 1951-62 के दौरान संयुक्त सीपीआई के महासचिव भी बने। शिव वर्मा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रखर नेता बने। उन्होनें भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू आदि के बारें में उनकी मानवीय कमजोरियों, खूबियों के साथ बेहतरीन संस्मरण भी लिखे हैं। भगतसिंह और उनके साथियों की यह लड़ाई आज भी देश की प्रगतिशील जनवादी-वामपंथी ताकतें ही आगे बढ़ा रही है। वे ही आज भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत के सच्चे वाहक हैं।
भगतसिंह ने तीन प्रमुख नारें दिये .. इंकलाब जिंदाबाद! मजदूर वर्ग जिंदाबाद!! और साम्राज्यवाद का नाश हो!!! ये नारे आज भी देश के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख नारे हैं और “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा तो लोक प्रसिद्ध नारा बन चुका है। ये तीनों नारे उनके संघर्षों के सार सूत्र हैं। अपने मुकदमे में उन्होने अदालत से कहा ..
“समाज का प्रमुख अंग होते हुये भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज है। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन को ढंकने को भी कपड़ा नही पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। इसके विपरित समाज में जोंक रूपी शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा न्यारा कर देते हैं।यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया गया भेदभाव दुनियां को एक बहुंत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नही रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक वर्ग एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है।
सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते संभाला नहीं गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें।
क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है, जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है।
इन आदर्शों और विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रांति की इस पूजा वेदी पर हम अपना यौवन नैवद्य के रूप में लाए हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।“
भगतसिंह के इस बयान से साफ है कि जनसाधारण और मेहनतकश मजदूर-किसानों के लिए जीवन स्थितियां और ज्यादा प्रतिकूल हुई हैं, क्योंकि साम्राज्यवादी शोषकों की जगह पूंजीवादी-सामंती शोषकों ने लिया है। ये काले शोषक अपनी तिजोरियां भरने के लिए साम्राज्यवादपरस्त उदारीकरण की नीतियों को बड़ी तेजी से लागू कर रहे हैं और हमारे देश का बाजार उनकी लूट के लिए खोल रहे हैं। अमीरों और गरीबों की बीच की असमानता, शोषक और शोषितों के बीच का संघर्ष भगतसिंह के बाद के 84 सालों में सैकड़ों गुना बढ़ गया है, इसलिए समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता और समानता के सिद्धान्त पर आधारित शोषणविहीन समाज की स्थापना की जरूरत पहले की अपेक्षा और ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। लेकिन समाज का यह पुनर्गठन मजदूर-किसानों और समाज के तमाम उत्पीड़ित-दलित तबकों की एकता के बिना और इसके बल पर व्यापक जनसंघर्षों को संगठित किये बिना संभव नही है। वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण ही इस एकता और संघर्ष को विकसित करने का हथियार बनेगा। लेकिन व्यवस्था में ऐसे आमूलचूल परिवर्तनों के लिए आवश्यक साधनों का संगठन आसान काम नहीं है और राजनैतिक कार्यकर्ताओं से बहुंत बड़ी कुर्बानियों की मांग करता है। ये रास्ता काटों भरा है, जिसमें यंत्रणा, उत्पीड़न, दमन और जेल है। लेकिन केवल इसी रास्ते से होकर क्रांति का रास्ता आगे बढ़ता है।
ऐसा क्यों, इसलिए कि भगतसिंह के समय में जो साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद के रूप में जिंदा था, आज वह वैश्वीकरण के रूप में फल-फूल रहा है। भगतसिंह के समय में विश्व स्तर पर समाजवाद की ताकतें आगे बढ़ रही थीं, सोवियत संघ के पतन के बाद आज वह कमजोर हो गया है। स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवादी मूल्यों ने जाति भेद की दीवारों ने कमजोर किया था और सांप्रदायिक ताकतों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया था, लेकिन आजादी के बाद सत्ताधारी पूंजीपति-सामंती वर्ग ने ठीक उन्हीं ताकतों से समझौता किया, नतीजन समाज में जाति आधारित उत्पीड़न और जातिवादी विचारों को फिर फलने-फूलने का मौका मिला और सांप्रदायिक-फासीवादी विचारों की वाहक ताकतें तो सीधे केन्द्र की सत्ता में ही है। विश्व स्तर समाजवाद की ताकतों के कमजोर होने और इस देश में वामपंथ की संसदीय ताकत में कमी आने के कारण कार्पोरेट मीडिया को पूंजीवाद के अमरत्व का प्रचार करने का मौका मिल गया। इस प्रकार आज के समय में भगतसिंह के विचारों और समाजवादी क्रांति की प्रासंगगिकता तो बढ़ी है, लेकिन इस रास्ते पर अमल की दुश्वारियां तो कई गुना ज्यादा बढ़ गई हैं।
1990 के दशक में हमारे देश में वैश्वीकरण-उदारीकरण की जिन नीतियों को लागू किया गया जा रहा है, उसका चौतरफा दुष्प्रभाव समाज और अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में पड़ा है। ये ऐसे दुष्प्रभाव हैं कि एक-दूसरे के फलने-फूलने का कारण भी बनते हैं और हमारा सामाजिक-आर्थिक जीवन चौतरफा संकटों से घिरता जाता है। इससे उबरने, बाहर निकलने का कोई उपाय आसानी से नजर नही आता। हमारे देश की शासक पार्टियां विशेषकर कांग्रेस और भाजपा इन संकटों से उबरने का जो नुख्सा पेश करती है, उससे और एक नया संकट पैदा हो जाता है। वास्तव में उनकी नीतियां संकट को हल करने की नहीं, देश को संकटग्रस्त करने की ही होती हैं।
हमारा देश कृषि प्रधान देश है और इस देश के विकास की कोई भी परिकल्पना कृषि को दरकिनार करके नहीं की जा सकती। इस देश में कृषि और किसानों का विकास करना है, तो भूमिहीन व गरीब किसानों को खेती व आवास के लिए जमीन देना होगा। आज देश में तीन-चौथाई भूमि का स्वामित्व केवल एक तिहाई संपन्न किसानों के हाथों में है। आजादी के बाद भूमि सुधार कानून बनाए गये, लेकिन लागू नहीं किए गए। इसलिए गरीबों को देने के लिए जमीन की कोई कमी नहीं है। इसी प्रकार लगभग दो करोड़ आदिवासी परिवारों का वनभूमि पर कब्जा है। आदिवासी वनाधिकार कानून तो बनाए लेकिन इसका भी सही तरीके से क्रियान्वयन नहीं किया गया और आज भी वे जंगलों से बेदखल किये जा रहे हैं। इन गरीबों को जमीन दिये जाने के साथ ही उन्हें खेती करने की सुविधाएं यथा सस्ती दरों पर बैंक कर्ज, बीज, खाद, दवाई, बिजली, पानी देना चाहिये। खेती किसानी के मौसम के बाद इन्हें मनरेगा में गांव में ही काम मिलना चाहिये। इसके लिए ग्रामीण विकास के कार्यो में सरकार को निवेश करना होगा। किसानों की पूरी फसल को लाभकारी दामों पर खरीदने की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिये। इस अनाज को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ते दामों पर देश के सभी नागरिकों को वितरित करना चाहिये, ताकि गरीब लोग बाजार के उतार-चढ़ाव के झटकों तथा कालाबाजारी व महंगाई से बच सके।
इन उपायों से कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा और उसका वितरण भी सुनिश्चित हो सकेगा। इससे ग्रामीण जनता की आय में वृद्धि होगी और बाजार में उनके खरीदने की ताकत बढ़ेगी। इससे औद्योगिक मालों की मांग बढ़ेगी, नये कारखाने खुलेंगे तथा बेरोजगारों को काम मिलेगा। शहरी बेरोजगारों को काम मिलने से और पुनः उनकी भी क्रय शक्ति बढ़ने से अर्थव्यवस्था को और गति मिलेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का यही सीधा-सरल सूत्र है।
लेकिन आजादी के बाद और खासकर वैश्वीकरण-उदारीकरण के इस जमाने में हो उल्टा रहा है। किसानों को जमीन नही दी गई और जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन है, उसे कानून बदलकर या षड़यंत्र रचकर पूंजीपतियों के लिए छीना जा रहा है। आदिवासी, दलितों व आर्थिक रूप से वंचितों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है। कृषि सामग्रियों पर सब्सिडी खत्म की जा रही है, जिससे फसल का लागत मूल्य बढ़ रहा है। सरकार न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए तैयार और न ही उसका अनाज खरीदने के लिए। बाजार में लुटने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं है। मनरेगा कानून को भी खत्म कर उन्हें ग्रामीण रोजगार से वंचित किया जा रहा है। सस्ते राशन की प्रणाली से सभी गरीब व जरूरतमंद धीरे-धीरे बाहर किये जा रहे हैं और उन्हें बाजार में महंगे दरों पर खाद्यान्न खरीदने के लिए बाध्य किया जा रहा है। इससे ग्रामीण जनता की क्रय शक्ति में भंयकर गिरावट आ रही है, वे कर्ज के मकड़जाल में फंस रहे हैं, खेती-किसानी छोड़ रहे हैं और पलायन करने या आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। जब 75 प्रतिशत जनता की खरीदने की शक्ति कमजोर होगी, तो मांग भी घटेगी। मांग घटने से कारखाने बंद होंगे और जिन लोगों के पास काम है, वे भी बेरोजगारी की दलदल में ढकेले जायेंगे। इससे पूरे देश की अर्थव्यवस्था मंदी फंस जायेगी। और वास्तव में यही हो रहा है। खेती-किसानी भी बर्बाद हो रही है और कारखाने भी बच नही रहे हैं।
इस मंदी और संकट के लिए जिम्मेदार कौन है, निश्चित ही वे पूंजीवादी पार्टियां, जिन्होंने आजादी के बाद इस देश पर राज किया है और लम्बे समय तक राज करने वाली क्रांग्रेस और भाजपा भी इसमें शामिल हैं। इन्हीं के राज में विश्व व्यापार संगठन से समझौता किया गया था कि हमारे देश के बाजार में विदेशी जितना चाहे, जो चाहें, बेच सकते हैं और यहां के अनाज मगरमच्छों को भारी सब्सिडी देकर। इसलिए इस देश के किसानों का अनाज खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं है। इन्हीं के राज में मांग घटने पर सरकारी कारखानें बंद किये जा रहे हैं, ताकि पूंजीपतियों के कारखाने चलते रहे और वे भारी मुनाफा बटोरते रहें। बेरोजगारी बढ़ने का फायदा वे उठाते हैं मजदूरी में और कमी कर, ज्यादा मुनाफा बटोरने के लिए। वे इसी कारण से स्थानीय मजदूरों को जानबूझकर काम नहीं देते, बल्कि बाहर से मजदूर मंगाते हैं और ठेकेदारों के जरिए काम करवाते हैं। ये पूंजीपति विदेशी पूंजीपतियों से सांठगाठ करते हैं और इनके जरिये बाजार में निवेश करते हैं, जिसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कहते हैं। खुदरा व्यापार में ये निवेश कर रहे हैं और 4 करोड़ खुदरा व्यापारियों, जिनमें ठेले वाले से लेकर सड़क पर बैठने वाले खुदरा कारोबारी और छोटे-मोटे दुकानदार शामिल हैं, की रोजी-रोटी संकट में है। विदेशी पैसो की ताकत इन सबको तबाह करने में पर तुली है। वे इस देश के बीमा क्षेत्र को, बैंक को, रेल को, रक्षा क्षेत्र को .. अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को .. हड़पनें में लगे हैं। जनता तबाह हो जाए, लेकिन इनका मुनाफा बढ़ता रहे, यही इन सरकारों की नीति है।
इस संकट का एक और आयाम है। ये कारखाना बनाने के नाम पर केवल किसानों की जमीन ही नहीं, इस देश की प्राकृतिक संपदा को छीन रहे हैं। बिजली, सीमेंट या इस्पात कारखाना बनाने के लिए कोयला खदानों की मांग वे करते हैं। कोयला खोदने के लिए जंगलों को उजाड़ते हैं और वहां बसे आदिवासियों को भगाते हैं। कोयला खदानों के स्वामित्व के बल पर वे अपनी कंपनियों के शेयरों के भाव बढ़ाकर जमकर मुनाफा कमाते है। बिजली, सीमेंट इस्पात आदि बने या ना बने, कोयला खोदकर मुनाफा कमाते हैं। यदि कारखाने शुरू हो जाये, तो इसे चलाने के लिए नदियों पर कब्जा करते हैं और समाज को नदियों के जल के उपयोग तक से वंचित करते हैं। और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए वे पूरा औद्योगिक कचरा नदियों में बहाते हैं, पर्यावरण व जैव-पारिस्थितिकी को बर्बाद करते हैं। इस कारखाने को चलाने के लिए वे बैंको से कर्ज लेते हैं, जहां हमारा ही पैसा जमा होता है। यानी, इन पूंजीपतियों की गांठ से कुछ नही जाता, वे हमारे ही पैसे से हमको उजाड़ने का खेल खेलते हैं और मुनाफा, मुनाफा… और मुनाफा ही कमाते हैं। इस सबके बावजूद, इस मुनाफे पर वे कानूनी टैक्स भी नही देते और कांग्रेस-भाजपा की सरकारें हर साल 6 लाख करोड़ रूपयों का टैक्स वसूलना छोड़ देने की घोषणा करती हैं। जन साधारण के लिए समाज कल्याण के कार्यो के लिए इन सरकारों के पास फंड नही होते, लेकिन पूंजीपतियों को लुटाने के लिए पूरा बजट है। इस लूट को और तेज करने के लिए आम जनता के हित में बनाये गये तमाम कानूनों को वो खत्म कर रहे हैं, तोड़.मरोड़ रहे हैं, या कमजोर कर रहे हैं। इनमें तमाम श्रम कानून शामिल हैं, भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून है, मनरेगा कानून है, आदिवासी वनाधिकार कानून, पेसा कानून आदि सभी शामिल है। प्राकृतिक संपदा की हड़प नीति को इस सरकार का संरक्षण मिला हुआ है, जिसने लाखों करोड़ों रूपयों के 2.जी, कोल घोटाला जैसे घोटालों को जन्म दिया है।
(हस्तक्षेप से साभार)

अभिव्यक्ति की आजादी चाहिए तो इस भुतहे समय में उठाने ही होंगे खतरे

इंटरनेट स्वतंत्रता बेहद ज़रूरी है क्योंकि सिर्फ़ एक बटन दबाकर ही हम जानकारी लाखों लोगों के साथ शेयर कर सकते हैं. इंटरनेट युग में दुनिया सिकुड़ गई है. हमें ये स्वीकार करना होगा कि इंटरनेट ऐसा माध्यम है जो हमें जोड़ता है और ये स्वतंत्र होना चाहिए क्योंकि बड़ी आबादी इसका इस्तेमाल करती है. यहाँ उम्र, जेंडर या धर्म का बंधन नहीं है.
रामजी राय लिखते हैं -
'' मुक्तिबोध खुद को ‘क्षुब्ध अंधकार की सियाह आग’ कहते हैं। वे एक ही साथ मुश्किल कवि हैं और सहज भी, आत्मग्रस्त-से तनाव भरे और ताकतवर भी? मुक्तिबोध की मुश्किल और ताकत इस बात में निहित है कि वे अपने समय के रोग लक्षणों की शिनाख्त करते हैं, आजादी मिलने के बाद स्थापित हो रहे अपने देश में उस उदार जनतंत्र के रोग लक्षणों की भी। और पाते हैं कि यह जो उदार जनतंत्र है ‘वह अपनी सामंती परंपरा से विछिन्न होकर भी, सामंती-शासकवर्गीय प्रवृत्तियो की तानाशाहियत को अपने खून में लिये हुए है।’ अर्थात् हम जिस उदार जनतंत्र के वासी हैं, उसकी नसों में सामंती खून बह रहा है। उसकी जनतांत्रिक जड़ें बेहद कमजोर हैं। वह एक अलिखित तानाशाही पर आधारित है। जिस क्षण भी कोई इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होगा उसे उसका जवाब तानाशाही दमन से दिया जायेगा।
''आज इस उदार जनतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब है: वर्चस्वशाली मौजूदा उदार जनतंत्र को, ‘‘उत्तर-विचारधारात्मक’’ सर्वसहमति को सिर झुका कर स्वीकार कर लेना। जबकि अभिव्यक्ति की वास्तविक आजादी का मतलब है: वर्चस्वशाली सर्वसहमति को सवालों के घेरे में खड़ा करना। इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होना। ‘‘वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।’’ इसलिये ‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/ उठाने ही होंगे/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।’’ अन्यथा इस अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं है।
''क्रमशः मुक्तिबोध आजाद भारत की सत्ता-समाज संरचना के प्रतिनिधि चरित्र-लक्षणों की गहन जांच करते, पहचानते और उसके बुनियादी अंतरविरोधों व जिस भुतहे वास्तव के रूप में अपने को वह अभिव्यक्त कर रहा था, उसका विश्लेषण-संश्लेषण-चित्रण करते हुए, उसके खिलाफ ‘‘हर संभव तरीके से’’ युद्ध की घोषण तक पहुंचते हैं, उन स्थितियों के खिलाफ जिसमें मनुष्य गुलाम, लांक्षित, रुद्ध और तिरष्कृत, घृणित जीव-सा बना दिया गया है।
''मुक्तिबोध के काव्य में समय लहरीला है, उड़ता हुआ। मुक्तिबोध जैसे उस ‘‘ उस त्वरा-लहर का पीछा कर रहे होते हैं।’’ यहां कविता काल-यात्री है। उसका कोई कर्ता नहीं, पिता नहीं, वह किसी की बेटी नहीं। वह परमस्वाधीन है, विश्वशास्त्री है। आगमिष्यत की गहन-गंभीर छाया लिए वह जनचरित्री है।
''वहां रोजमर्रे के जीवन की घटनाएं हैं, भुतहे वस्तव की तस्वीरें हैं, उससे कहीं अधिक विस्मयकारी, रोमांचक और रहस्यमय और भुतही जितना की अब तक हम देखते-समझते-जानते रहे हैं। वहां आत्मालोचना के रूप में हमारी अपनी कमजोरियों-गलतियों की गहरी व तीखी लेकिन आत्मीय भर्त्सना-आलोचना है, जिससे हम बचकर निकल जाने में ही अपनी भलाई देखते हैं।
''वहां देश-देशांतर के अनुभवों से भरी देश-देशांतर को पार करती, हम तक आती ताजी-ताजी हजार-हजार हवाएं हैं, हमसे हमारी कमियों-खूबियों पर बतियाती बहस करती, भविष्य के नक्शे सुझाती-बनाती हुई।
''वहां गतिमय अनंत संसार है, उसे जानने और उसे संभव संपूर्णता में अभिव्यक्ति करने के नये-नये गणितिक, वैज्ञानिक प्रयोग से लेकर प्राविधिक-तकनीकी अनुसंधान हैं, उनकी बाधाएं हैं, भूलें और मुश्किलें हैं, सफलताएं और संभावनाएं हैं- (कलाकार से वैज्ञानिक फिर वैज्ञानिक से कलाकार/ तुम बनो यहां पर बार-बार)। और चूंकि यह सब परिवर्तनकारी हैं इसलिए वहां दमनकारी सत्ताएं और उनके षडयंत्र भी अपने पूरे वजूद में हैं- ‘‘मेरा क्या था दोष?/ यही कि तुम्हारे मस्तक की बिजलियां/ अरे, सूरज गुल होने की प्रक्रिया/ बता दी मैंने/ सूत्रों द्वारा’’
''कुल मिला कर वहां एक परिवर्तनकारी यथार्थवादी नई समझ और नया संघर्ष है, जिसमें आगामी कई हविष्यों के आसाधारण संकेत हैं - जिससे होता पट परिवर्तन/ यवनिका पतन/ मन में जग में।
''एक वाक्य में वहां हमारे समय के भुतहे, जटिल यथार्थ की जटिल अभिव्यक्ति है और जटिल (कॉम्प्लेक्स) का अर्थ दुरूह (कॉम्प्लीकेटेड) नहीं होता। मुक्तिबोध की कविताएं हमारी मित्र कविताएं हैं। मेरे लिए तो गुरु कविताएं भी।
''बकौल मुक्तिबोध -‘‘आज की जिंदगी में वही दृश्य दिखाई देते हैं जो महाभारत काल में थे।.....दोनों पक्षों (यानी आधुनिक कौरव और पांडव) में आंतरिक उद्देश्यों और सवभावों के भेद के साथ ही साथ एक बात सामान्य है, और वह यह है कि समाज की ह्रासकालीन स्थिति और व्यक्तित्व की ह्रास-ग्रस्त मति के दृश्य दोनों की परिस्थिति बन गए हैं।........ अभी भी बहुत से महापुरुष कौरवों की चाकरी करते हुए पांडवों से प्रेम करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। किंतु द्रोण, भीष्म और कर्ण-जैसे प्रचंड व्यक्तित्वों की ऐतिहासिक पराजय जैसी महाभारत काल में हुई थी, वैसी आज भी होने वाली है।
''अंतर इतना ही है कि इस संघर्ष में (जो आगे चलकर आज नहीं तो पच्चीस साल बाद तुमुल युद्ध का रूप लेगा) कौन किस स्वभाव-धर्म और समाज-धर्म के आदर्शों से प्रेरित होकर ऐतिहासिक विकास के क्षेत्र में अपना-अपना रोल अदा करेगा, इसकी प्रारंभिक दृश्यावली अभी से तैयार है।’’ (प्रगतिशीलता और मानव सत्य नामक निबंध पेज 78, मुक्तिबोध रचनावली खण्ड 5)। यह तैयार दृश्यावली देखिए:
''भई वाह !! कहां से ये फोटो उतरे / उन महत्-जनों के मुझ पर छा जाते चेहरे / पीले, भूरे, चौकोर और श्यामल / गठियल दुहरे!! / वे स्निग्ध, सुपोषित, संस्कृत मुख / अपने झूठे प्रतिबिंम्ब गिराते हैं।/ लाखों आंखों से उन्हें देखता रहता हूं।/उनके स्वप्नों में घुस कर मुझे स्वप्न आते। हैं बंधे खड़े,/ ये महत्, बृहत,/ उनके मुंह से प्रज्ज्वलित गैस-सी सांस-आग/ वे इस जमीन में गड़े खड़े/मशहूर करिश्मों वाले गहरे स्याह तिलस्मी तेज बैल/ तगड़े-तगड़े/ अपने-अपने खूंटों से सारे बंधे खड़े/ यह खूंटा स्वर्ण-धातु का है/रत्नाभ दीप्ति का है/ आत्मैक ज्योति का है/स्वार्थैक प्रीति का है।.......वे बड़े-बड़े पर्वत अंधियारे कुंए बन गए/ जो कल थे कपिला गाय आज तेंदुए बन गए।/ हाय हाय, यह श्याम कथानक है/ आदमी बदल जाने की यह प्रक्रिया भयानक है।/..............नैतिक शब्दावलि?/ मंदिर-अंतराल में भी श्वानों का सम्मेलन/ तो आत्मा के संगम का प्रश्न नहीं उठता/ यह है यथार्थ की चित्रावलि।....... वह दुष्ट ब्रह्म कर रहा जबरदस्ती वसूल/ हमसे तुमसे/यह मांस-किराया/कष्ट-रक्त-भाड़ा/ धरती पर रहने का/......वह उषःकाल का जगन्मनोहर/ हिरन मार आया/ पर ठीक सामने/ दुबला श्यामल जन-समाज-सम्मर्द देखकर/ एक सौ दस डिग्री/ उसको बुखार आया/ उसकी सारी उंगलियां खून से रंगी/कपड़ों पर लाल-लाल धब्बे/ उसके बचाव के लिए मुसकरा/ कलाकार आया। चुप रहो मुझे सब कहने दो/ फिर नहीं मिलेगा वक्त/जमाना और-और नाजुक होता है/ और-और वह सख्त।/.............उसके दासों के अनुदासों के उपदासों ने ही/अपने दासों को उपदासों को अनुदासों को भी/ देश-देश में इस स्वदेश में, आसमान में भी/मानव मस्तक की राहों में छांहों के जरिए/मनानुशासन, जीवन-शोषण, समय-निरोधन के/सब कार्यों में लगा दिया है सभी अनुचरों को।/ .... बेचैन वेदना को/ श्रृण-एक राशि के वर्गमूल में डलवा-गलवा कर/ उनको शून्यों से शून्यों ही में विभाजिता करवा/ चलवा डाला है स्याह स्टीमरोलर/ इस जीवन पर/ वह कौन?/ अरे वह लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता का/ विकराल राष्ट्रपति है!!/ जिसके बंगले की छाया में तुम बैठो हो।/ हां, यहां, यहां!! (चुप रहो मुझे सब कहने दो, मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2, पृष्ठ 389)
''जब समस्याएं, स्थितियां महाभारत जैसी हों तो उसका समाधान भी महाभारत से कम क्यों कर होनेवाला। फिर तो- ‘‘वह कल होने वाली घटनाओं की कविता जी में उमगी।’’
उसके बाद नक्सलबाड़ी का विद्रोह, 74 का आंदोलन और आपात्काल तो जैसे सामाजिक-प्रयोगशाला में मुक्तिबोध की चिंताओं, क्रांति-स्वप्न और खोजे गये सत्ता के मस्तिष्क की बिजली और सूरज गुल होने के सूत्रों के सत्यापन हों। आज जगह-जगह कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़-झारखंड में एएफएसपीए, ऑपरेशन ग्रीनहंट और देश भर में भी काले कानूनों का आपात्काल-सरीखा जाल क्या जनांदोलनों के दमन निमित्त लगाये जा रहे या एक दिन पूरे देश में ही मार्शल लॉ लगा दिये जाने के खंड-चित्र जैसे नहीं हैं?'' 

ये हैं दिल्ली की श्रेया सिंघल


वो कौन हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए उठ खड़ी हुईं? कौन हैं श्रेया सिंघल? वह श्रेया सिंघल हैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में क़ानून की पढ़ाई कर रहीं एक छात्रा। उन्होंने वर्ष 2012 में सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून के सैक्शन 66ए के ख़िलाफ़ याचिका दायर की थी। उन्हीं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरे से सोशल मीडिया को बचाया है।
एक मीडिया प्रतिनिधि से बात करते हुए चौबीस वर्षीय श्रेया कहती हैं - ''कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखा है और ये उनकी ही नहीं बल्कि इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले हर व्यक्ति की जीत है। मैंने ये याचिका 2012 में दाख़िल की थी। महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में गिरफ़्तारियों से मुझे झटका लगा था। मैं ख़ुद से सवाल पूछ रही थी कि ये गिरफ़्तारियों क्यों हुईं? उन लोगों ने जो पोस्ट किए थे, उनसे किसी को कोई ख़तरा तो था नहीं। पश्चिम बंगाल में तो मुख्यमंत्री के बारे में व्यंग्यात्मक कार्टून पोस्ट करने पर ही गिरफ़्तारी हो गई, जबकि पुडुचेरी में एक नेता पर टिप्पणी करने पर एक व्यापारी को गिरफ़्तार कर लिया गया। जिन वजहों से उन लोगों को गिरफ़्तार किया गया, वही वजह बताकर किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था।
''मुझे या मेरे दोस्तों को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था। आप सोचिए कि सिर्फ़ फ़ेसबुक पर पोस्ट लाइक करने के लिए गिरफ़्तारियाँ हुई थीं। ऐसे चार मामले हुए थे जिनसे साफ़ था कि क़ानूनी प्रावधान का दुरुपयोग किया जा रहा था। मुझे लगा कि किसी को तो कुछ करना चाहिए। सिर्फ़ ये कहना काफ़ी नहीं था कि बहुत बुरा हुआ। कुछ करने की ज़रूरत थी।
''सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून के ये प्रावधान बिलकुल अस्पष्ट है और इन्हें आधार बनाकर किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था। यदि सोशल मीडिया पर आपकी टिप्पणी से किसी को नाराज़गी या कष्ट हुआ हो तो 66ए के तहत सिर्फ़ इसीलिए तीन साल तक की जेल हो सकती थी। संविधान में अनुच्छेद 32 के तहत ये प्रावधान है कि यदि आपके मूल अधिकार का उल्लंघन किया जाता है तो भारत का कोई भी नागरिक सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है। इसलिए मैंने सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। तीन साल सुनवाई के बाद इस याचिका पर फ़ैसला आया है। ''
इस बीच भारत के जाने-माने क़ानूनविद सोली सोराबजी ने आईटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ये कहते हुए सराहा कि ये प्रावधान अनिश्चितता से भरा था और इसका मतलब कोई भी अपने मुताबिक निकाल सकता था।

इसी कार्टून पर गिरफ्तार हुए थे असीम त्रिवेदी

अन्ना आंदोलन से जुड़े असीम त्रिवेदी को फेसबुक पर यूपीए सरकार के घोटालों को लेकर एक कार्टून पोस्ट करने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। 'भ्रष्टमेव जयते' शीर्षक वाले इस कार्टून में संसद और राष्ट्रीय प्रतीक का मजाक उड़ाया गया था। असीम के खिलाफ पुलिस ने देशद्रोह का मामला भी दर्ज किया था। इस धारा के तहत गिरफ्तारी पर सबसे पहले विवाद 2012 में हुआ था, जब महाराष्ट्र के पालघर की रहने वाली शाहीन नाम की एक फेसबुक यूजर्स ने बाला साहेब ठाकरे की अंतिम यात्रा पर कमेंट किया था और उसे उसकी सहेली रीनू ने इसे लाइक किया था। दोनों को इस मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था। बाद में दोनों को जमानत मिल गई।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ एक कार्टून बनाने पर पुलिस ने अंबिकेश महापात्रा नाम के एक प्रोफेसर को गिरफ्तार कर लिया था। जाधवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने यह कार्टून उस वक्त फेसबुक पर पोस्ट किया था, जब रेलमंत्री और अपनी पार्टी के सांसद दिनेश त्रिवेदी को ममता बनर्जी ने पद से हटा दिया था।
उत्तर प्रदेश के मंत्री आजम खान पर के खिलाफ विवादास्पद कमेंट करने पर पिछले दिनों बरेली में 11वीं के एक छात्र को गिरफ्तार कर लिया गया था। न्यायिक हिरासत के बाद कोर्ट ने आरोपी छात्र विक्की खान को जमानत दे दी थी। मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने पर सुप्रीम कोर्ट ने यूपी पुलिस से छात्र की गिरफ्तारी को लेकर जवाब मांगा है। आईटी एक्ट की धारा 66ए खत्म होने के बाद विक्की ने कहा,'' इस धारा के खत्म होने से इंटरनेट पर अपनी बात कहने की आजादी मिलेगी। इस धारा के खत्म होने से मैं खुश हूं।''
यूपीए सरकार में मंत्री रहे पी. चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम के खिलाफ साल 2012 में ट्वीट करने पर पुडुचेरी के बिजनेसमैन रवि श्रीनिवासन की गिरफ्तारी हुई थी। कार्ति चिदंबरम द्वारा पुलिस से शिकायत किए जाने के बाद श्रीनिवासन को उनके घर से गिरफ्तार किया गया था। उनके खिलाफ भी धारा 66ए के तहत मामला चलाया गया था। बाद में वह जमानत पर रिहा हुए थे। इधर, धारा खत्म किए जाने पर कार्ति चिदंबरम ने नाराजगी व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि कोई धारा खत्म होने का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि आपको सड़क पर किसी को गाली देने का हक मिल गया है। उन्होंने कहा, ''मैं फ्री स्पीच का समर्थन करता हूं लेकिन इसकी कोई सीमा होनी चाहिए। ''
कवि और लेखक कंवल भारती को साल 2013 में फेसबुक पर एक मेसेज डालने पर अरेस्ट कर लिया था। कंवल ने रेत माफिया पर नकेल कसने वाली आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को सस्पेंड करने के लिए यूपी में सपा सरकार की आलोचना की थी।