Friday 1 May 2015

डराओ मत, उसे गुस्सा आ रहा है/जयप्रकाश त्रिपाठी

मजीठिया वेतनमान लागू करने के मसले पर कारपोरेट मीडिया ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की अवमानना करते हुए जिस तरह पत्रकारों के पेट पर लात मारा है, उससे लावा अंदर ही अंदर खदक रहा है। मीडिया कर्मियों की खामोशी तूफान से पहले के सन्नाटे जैसी है। यह पढ़ा-लिखा वर्ग है। सब समझ रहा है। जान रहा है कि मजीठिया मामले की पैरोकारी कर रहे अपने उन मददगारों से उसकी भेंट-मुलाकात तो दूर, उनसे बातचीत भी उसके जुर्म में शुमार हो सकती है, जो उसके हितों की हिफाजत के लिए देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था की शरण में हैं। 
इन दिनो उसे यह डर बार-बार परेशान कर रहा है, उसे ही क्यों, उसके घर-परिवार तक को, कि आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय से भी इंसाफ नहीं मिला तो फिर क्या होगा? क्या इतनी आसानी से उसके आर्थिक भविष्य का शिकार हो जाएगा? वह मजीठिया वेतनमान का मामला लड़ रहे अपने कानूनविदों, जुझारू पत्रकारों से मिले-न-मिले, उनके प्रति इस समय उसके मन गहरी आस्था है। अट्ठाईस अप्रैल के बाद से अब वह बड़ी बेचैनी से उन तीन महीनो की बाट जोह रहा है। सहमा हुआ अपने आसपास को चुपचाप पढ़ रहा है। सच पूछिए तो इस समय उसका ध्यान खबरों में कम, अपने भविष्य के खतरों पर ज्यादा है। वह जान रहा है कि उसने कोई जुर्म नहीं किया है, ऐसे अस्थिर हालात में उसने अपने लिए कोई मामूली सी भी ईमानदार पहल की तो उसका जुर्म बांचने वाले तुरंत हरकत में आजाएंगे।  
मैं तो कहता हूं, उसकी भूख को गुदगुदाओ नहीं। उसके भविष्य से मत खेलो। उसे इतनी बेरहमी से मत छेड़ो। चंद चाटुकारों के बूते उसके साथ कोई नामाकूल हरकत मत करो। उसका हक उसे दे दो। वरना जिस दिन उसने ठान लिया कि अब माफ नहीं करना है, इंसाफ चाहिए, चाहे किसी भी कीमत पर, तब कोई बिगड़ी बनाने वाला नहीं होगा। यह पूंजीपतियों की कोख से नहीं, कलम की तलवार चलाते हुए आया है। उसके वंशज गोरी तोपों से मुकाबले के लिए अखबार निकालते थे। विज्ञापन बाजार लूटने के लिए नहीं। याद करो कि उसकी कलम ने इस देश से उन गोरे शासकों को खदेड़ दिया था, जिनका दुनिया में कभी सूरज नहीं डूबता था। उसके पुरखे स्वतंत्रता संग्राम की सबसे मुखर आवाज थे। गांधी, सुभाष, भगत सिंह, नेहरू, अंबेडकर जैसे वीर स्वातंत्र्य सेनानी भी उसके शब्दों के कायल रहे हैं। उसे पूंजी की ताकत और कानून की उंगली से मत डराओ। उसके डर को अब और मत आजमाओ। उसके डर में एक अंतहीन गुस्से का इतिहास छिपा है। देखो, धीरे धीरे उसकी मुट्ठियां हरत में आ रही हैं। वह अब सुप्रीम कोर्ट तक आंखें तरेरने लगा है। मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधान मंत्री की दर तक दस्तक देना सीख रहा है।
समय से खतरा भांपने का शऊर है तो सावधान हो जाओ, उसके पांव अब तुम्हारी चौखट से बाहर जा रहे हैं। वह बड़ी बेचैनी से चुपचाप अपनी दिशा खोज रहा है। उसे अपने इस तरह के चौथे खंभे पर शक हो रहा है, जो उसके हक का, उसके काम का न हो। वह खुद से पूछ रहा है कि जब वह देश-काल के आचरण में इस तरह घुला हुआ है तो उसकी अस्मिता का खंभा चौथा क्यों? वह चौथे खंभे का तिजारती नहीं, सिर्फ अपना घर-परिवार चलाने भर की मजदूरी चाहता है। वह मजदूरी, जो इस देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था को भी जायज लगती है। उस एक-एक की बेचैनी, उस एक-एक के घर-परिवारों का एक-एक व्यक्ति इन दिनो साझा कर रहा है। उसका हक उसे न देने की जिद उन सबमें एक साथ नफरत के बीज बो रही है। ऐसे विशाल, सशक्त और अतिजागरूक बौद्धिक समुदाय में सुलगती इतनी अधिक नफरत को हवा देकर भला कोई कैसे और कब तक सकुशल-सलामत रह सकता है। कानूनी दांव-पेंच से उसे जितना हांकने की कोशिश की जाएगी, अपनी सही सही दिशा खोज लेने के बाद वह उतना ज्यादा भड़क सकता है। गुस्से से लाल हो सकता है। वह सिर्फ अपने शब्दों और अपनी मेहनत पर भरोसा करना जानता है। सबके हित में होगा कि उसे उसके उसी ज्ञान और श्रम के भरोसे तक रहने दिया जाए। उसे और कुछ करने के लिए विवश करना समझदारी नहीं होगी।
मजीठिया वेतनमान पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कानूनी दांव-पेंच को माध्यम बनाकर उसे उलझाने और पछाड़ने की कोशिश की जा रही है। उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा है। उसे केवल खबरें बटोरने-बनाने में सुख मिलता है। वह रोजाना खबरें बटोर-बना कर चुपचाप अपने घर लौट जाना चाहता है। वह लड़ना नहीं चाहता है। उसे लड़ने के लिए उकसाया जा रहा है। वह तो केवल शब्दों के पेंच लड़ाता है। सूचनाओं के बहाने विचार, सरोकार और चेहरे गढ़ता है। ये सब करके वह बड़ा खुश नजर आता है। चाय की चुस्कियां, मसाले की जुगाली करते हुए उसे शब्दों, सूचनाओं, खबरों, शीर्षकों पर बतकही करने में ज्यादा मजा आता है। वो लड़ना-भिड़ना क्या जाने। उसका हक मारकर, उसके पेट पर लात मार कर उसे लड़ाकू बनाने की जिद भला कहां की समझदारी हो सकती है?
उसके बीच से कुछ गिनती भर उसकी ही बिरादरी के जिन लोगो से जो कुछ गलत-सही कराया जाता है, उनका भी दिल वह सब करना गंवारा नहीं करता है। उनमें से किसी एक को भी पूछ कर देख लीजिए। पत्रकारिता के ऐसे पतित तत्वों को भी थाना-पुलिस की दलाली करने के लिए मजबूर किया जाता है। खबर से पहले विज्ञापन बटोरने की विवशता उनके भी जमीर को तिलमिला देती है। वे किसी से जब अपना दुख साझा करते हैं, उन्हें अपने से ही घृणा होने लगती है क्योंकि पहले-पहले दिन वे भी जब इस पेशे में आए थे, पत्रकार होने के सपने देखते हुए आए थे। वे भी मीडिया हाउसों तक ऐसे कर्म करने का अनुमान लगाकर नहीं पहुंचे थे। अपने लंबे कार्यकाल में मैंने उनको अंदर-ही-अंदर कांपते-ठिठुरते हुए बहुत करीब से देखा है। उनको समझाया, संभाला है। मीडिया प्रबंधन के नाजायज आदेशों पर उनमें से कइयों को बार-बार रोते, गालियां देते हुए सुना है। जो सच्चे पत्रकार हैं, उनकी तो बात ही जाने दीजिए, पतित पत्रकारों से भी कभी अकेले में मिलिए तो वे भी अपने सिरहाने शानदार शीशे के चैंबर में बैठे समाचार के शीर्ष सौदागरों की कुंडली बांचने की बदपरहेजी कर जाते हैं। लेकिन तभी, जब सामने सुनने वाला उनके भरोसे का हो।  
मजीठिया मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना के बाद का यह दौर उन्हें खलनायक साबित कर रहा है, जो प्रबंधन के पक्ष में हैं। गुनहगार वे भी हैं, जो तटस्थ और चुप हैं। वह पत्रकार हों, साहित्यकार हों, राजनेता अथवा संगठनकर्ता। मीडिया के भीतर की यह लड़ाई सीधे सीधे शोषक और शोषित, शासक और शासित के बीच का संघर्ष है। इसमें एक तरफ मीडियाकर्मियों का पूरा समुदाय है, दूसरी तरफ मीडिया मालिक, संपादक- प्रबंधक वर्ग। तीसरा कोई पक्ष नहीं है। मालिक वेज बोर्ड से निर्धारित एवं सुप्रीम कोर्ट से आदेशित वेतनमान नहीं देना चाहता है। अपनी सुख-सुविधाओं, खेल-तमाशों, संपादक-प्रबंधक वर्ग पर करोड़ों रुपये फूंकने के लिए तो उनके पास अथाह धन है लेकिन मजीठिया वेतनमान के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं देंगे।
यह बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। इस कानूनी वाकये ने उस समुदाय को हाशिये पर पड़े वंचितों, शोषितों की तरह शायद पहली बार इतनी शिद्दत से सोचने पर विवश किया है। उसका मोहभंग हो रहा है। वह खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। वह एक ऐसे पेशे के विपरीत स्वभाव से टकरा रहा है, जो चौथा स्तंभ कहा जाता है। वह अब तक जिसका मान न्यायपालिका से कम नहीं मानता-जानता रहा है। यथार्थ के धरातल पर यह मोहभंग उसे वंचित-शोषित वर्ग के निकट ले जा रहा है। साफ कहें तो पेशे की गद्दारी, जनद्रोही चरित्र से टकराने के लिए वह तेजी से तैयार हो रहा है। वह ये भी देख रहा है कि जो साहित्यकार, लेखक, कवि उसके दर पर अपनी रचनाएं प्रकाशित कराने के लिए दिन-रात मिन्नतें करते रहते हैं, उनकी नैतिकता ढकोसला है क्या, वे सब भी शब्दफरोश हैं क्या। उनमें से एक भी उसके जीवन से जुड़े इतने गंभीर प्रश्न पर क्यों अपना पक्ष प्रकट नहीं कर रहा है। इस सबसे वह दीक्षित हो रहा है। वह यह भी देख रहा है कि जिन संगठनों, नेताओं, कार्यकर्ताओं की वह खबरों में रोज-रोज राजनीतिक छवियां गढ़ता है, अच्छे-अच्छे शीर्षक रचता है, वे सब भी चुप हैं। वह हैरान है कि यह सब क्या है? ये कौन लोग हैं? अनावश्यक आत्मीयता प्रकट करते रहने वाले ये लोग, और इनके आंदोलन सिर्फ हाथी दांत हैं? क्यों ??
ये कारपोरेट मीडिया घराने पत्रकारों का सम्मान तो करना चाहते हैं लेकिन उनका हक नहीं देना चाहते हैं। वह सोच रहा है कि अखबारों में अक्सर छपने वाली बाइलाइन स्टोरी, स्टिंग ऑपरेशन, खबरों की पड़ताल, एक्सक्लूसिव समाचार, लाइव रिपोर्ट, ह्यूमन एंगल स्टोरी, क्या यह सब फ्रॉड है? वह क्या जागती आंखों से अमंगल सपने देख रहा है? देश-समाज पर मनुष्यता की बातें करने वाले ये संपादक कौन हैं? उसके मसले पर इन्होंने रीढ़, जमीर जैसे शब्दों को अपनी डिक्शनरी से अचानक क्यों खदेड़ दिया है? मजीठिया वेतनाम मांगने पर ये प्रताड़ित क्यों कर रहे हैं? अचानक ये दुश्मन जैसा व्यवहार क्यों करने लगे हैं? इन सवालों के जवाब में उसके सामने संपादक का वर्ग चरित्र खुल रहा है। अपनी कार्यशालाओं में वह देख रहा है कि संपादक-प्रबंधक उसका मित्रवर्ग नहीं है। उनका पक्ष मालिक है। उनका उद्देश्य उसको कुचलते हुए केवल मालिक का हित साधना है। देश-दुनिया के सुख-दुख के बारे में ये अखबार के पन्ने से न्यूज चैनलों की टीवी स्क्रीन तक इसका सारा ज्ञान प्रदर्शन केवल धोखा है। मालिक का पक्ष, तो भी स्पष्ट और इकहरा है। ये सफेदपोश बिचौलिया तो उससे ज्यादा खतरनाक है। हमारे विरुद्ध हमे ही इस्तेमाल कर रहा है। हमारे बीच जहर बो रहा है। हमसे ही हमारी कानाफूसी, जासूसियां करा रहा है। हम से ही हमको लड़ा रहा है। यह हमे अलग-अलग हिस्सों में बांट कर हमे मारना चाहता है। यह एक साथ हमारे विवेक और शरीर (पेट-रोटी) दोनो पर हमला कर रहा है। हमले करने की योजनाएं बना रहा है। यह मालिक को बता रहा है कि वह किस तरह मारे तो हम मर जाएंगे, हार जाएंगे। यही है, जो मालिक को सिखा-पढ़ा रहा है कि वह न्यायपालिका की कमजोरियों का फायदा उठाए, राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के रिश्ते साधे, आवाज उठाने वालों के तबादले और निष्कासन करे। उसके घर का असली भेदी यही है। यही हमारे चेहरे पढ़ते हुए हमसे 'मजीठिया वेतनमान नहीं चाहिए', जैसे झूठे फॉर्मेट पर हस्ताक्षर करा रहा है।  
तो यह भारतीय लोकतंत्र में पहली बार हो रहा है। मजीठिया वेजबोर्ड से पहले भी मणिसाना आदि के वेतनमान घोषित हुए थे लेकिन तब ऐसी मोरचेबंदी होते-होते रह गई थी। यह गुस्सा तात्कालिक नहीं। यह किसी को बख्शने वाली भी नहीं। उनको भी नहीं, जो न्यायपालिका तक उसके हितों की वकालत करने पहुंच चुके हैं। यदि उन्होंने उसके हितों के साथ कोई गलत समझौता किया तो। यह गुस्सा किसी ऐसे समुदाय का नहीं, जिसे शोषण की बारीकियां समझने में किताबों और रैलियों से दीक्षित होना पड़े। ये समुदाय उन सभी अनुभवों से पहले से लैस है। इसलिए इसका गुस्सा अधिक बेकाबू और ज्यादा खतरनाक हो सकता है। यह सब समझ रहा है। इसे कुछ भी समझाना नहीं है। ये जान रहा है कि इसकी ही समझदारी और मेहनत-मशक्कत के बूते बड़े-बड़े मीडिया घराने करोड़ो-अरबों में खेल रहे हैं और उनके चारण लाखों के पैकेज पर जिंदगी की मस्तियां लूट रहे हैं। इसे अच्छी तरह पता है कि मीडिया हाउस में मालिक का सिर्फ पैसा लगा है, विवेक और मेहनत तो उसकी है, जो मालिकों को मंत्रियों-प्रधानमंत्रियों, उच्चाधिकारियों के साथ उठने-बैठने का अवसर उपलब्ध कराती है। वे न हों, तो कोई मीडिया हाउस न हो। मालिक इसीलिए उसे आपस में लड़ाना चाहता है कि उसका रास्ता सुरक्षित रहे, उसके विज्ञापनों के बाजार और ऐशो-आराम, उसकी अथाह पूंजी के अभेद्य दुर्ग और सामाजिक प्रतिष्ठा को उसके घर के भीतर से  कोई चुनौती न दे सके।
इस सूचना-समय में उसे यह भी पता है कि आजकल के नेता-मंत्री अपने कर्मों के बूते नहीं, उसकी कलम की ताकत से राज भोग रहे हैं। यही है, जो मौके-दर-मौके उन सभी की छवियां बनाता-बिगाड़ता है। उनकी ही क्यों, बड़े बड़े लेखक-पत्राकारों, साहित्यकारों पर वह कलम न चलाए तो उनको भी सिर्फ उनकी रचनाओं और किताबों के बूते उन्हें कोई न जाने-पूछे। इसलिए उसे अपनी ताकत का अच्छी तरह अता-पता है। उसका भीतर से खौलना, नाराज होना, उबलना और संघर्ष की दिशा में दौड़ जाना, उन सबके लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। असली नायक मालिक और उसके पिट्ठू नहीं। वह है कलम का महानायक। वही है इमेज बिल्डर। वही बनाता है और बिगाड़ भी देता है। वह बिगड़ा तो सब कुछ बिगड़ जाएगा। चौथाखंभा ढह जाएगा।
सिर्फ वही है, जिसे सबकी जात-बिरादरी, नस्लीयत और नब्ज पता है। वह न मालिक है, न मीडिया मैनेजर। वह पत्रकार है। वह सूचनाओं का जादूगर है। वह अपनी कार्यशाला में दिन-रात जुटा हुआ शब्दों से नब्ज टटोलता है और समाज का मिजाज रचता है। उसे इतना हल्के में न लेना। उसके पूरे समुदाय के पेट पर लात मार रहे हो तो उसके उठे हाथ-लात झेल नहीं पाओगे। पलट कर उसका वार करना बहुत भारी पड़ जाएगा। वह मोरचा कानून का हो या आंदोलन का।
सिर्फ मालिकानों और उनके चाटुकारों के लिए नहीं, बल्कि पूरे सूचनात्मक सिस्टम और सामाजिक ताने बाने के लिए वह आज हमारे सामने ऐसे ज्वलंत प्रश्न की तरह आ खड़ा हुआ है, जिसे अनसुना करना भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा। चुप्पियां टूटने से पहले का ये वही सन्नाटा है। अब भी वह अपने भीतर उमड़ते दर्द और गुस्से पर काबू पाना चाहता है। यह अन्याय वह शायद ही बर्दाश्त कर पाए। सोच लो, समय है। अभी तीन महीने के तीन दिन ही गुजरे हैं। सुनो, 28 अप्रैल 2015 के बाद से वह बिहार से मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल तक पहले से ज्यादा मुखर हो रहा है। वह पत्रकार है।