Monday 25 May 2015

नादानियों का सिला / जयप्रकाश त्रिपाठी

सोचा था जाने क्या मेरे नादान-से दिल ने,
नादानियों ने मुझको फिर वही सिला दिया।

कोई इस तरह से खेला मेरे दिल से बार-बार,
तो दिल ने कहा, खेलना उसने सिखा दिया।

दिल चीज क्या है, खेलने की चीज ही तो है,
खेलो न मेरे यार, और कितना खेलोगे ।

टूटा हुआ था और इसे तोड़ क्यों दिया,
इतना न टूटता तो बात और ही होती।

दिल ने तड़प-तड़प के कहा फिर से एक बार,
ऐसी तड़प नहीं है उधर, जैसी इधर है ।

दिल टूटने का सिलसिला जो आज तक रहा
अब और टूट जाने की हिम्मत नहीं रही ।

मैंने जिन्हें चाहा था अपने चांद की तरह
दिल में मेरे उन्होंने अंधेरा भर दिया ।