Monday 26 October 2015

मेरी पीड़ा के लोग / जयप्रकाश त्रिपाठी

मैंने जब-जब लिखना चाहा, कभी नहीं लिख पाया तुमको,
मैंने जब-जब पढ़ना चाहा, कभी नहीं पढ़ पाया तुमको, तुम इतने, क्यों ऐसे-ऐसे.....
लिखना-पढ़ना, कहना-सुनना, 
मिलना-जुलना रहा न संभव,
जन में तुम-सा, मन में तुम-सा, 
रचना के जीवन में तुम-सा,
सहज-सहज सा, सुंदर-सुंदर,
मुक्त-मुक्त सा, खुला-खुला सा,
ओर-छोर तक युगों-युगों से
आदिम बस्ती-बस्ती होकर,
शिशु की हंसी-हंसी में तिरते,
रण में भी क्षण-प्रतिक्षण घिरते,
मां के मुंह से लोरी-लोरी,
युद्ध समय में गगन-गूंज तक,
आर्तनाद से घिरे-घिरे वे
दस्यु न जाने अब तक तुमको
ठगने और लूटने वाले,
वे समस्त जाने-आनजाने,
संघर्षों का वह इतिहास अधूरा अब भी
रक्तबीज सा, धर्मराज सा
अथवा अब के राज-काज में
इस समाज में श्रम से, सीकर से, शोणित से सिंचित
जीवन के जंगल में
खिंची-खिंची प्रत्यंचाओं पर
उत्तर में भी, दक्षिण में भी, धरती से नभ तक अशेष
जग को रचते-रचते, ढोते-ढोते
थके न फिर भी, चले आ रहे,
चले आ रहे अंतहीन, अविरल,
अपराजित, ऐसे किसी समय की निर्णायक बेला को,
उन सब के गाढ़े-गाढ़े सब अंधेरों को ढंक देने को
उफन रहे आक्रोश लिये
अंतस में अपने रोष लिए
किलो, मठों के ढह जाने तक,
टूट-टूट कर, बिखर-बिखर कर उनका जीवन मिट जाने तक....
मैंने तुमको लिखना चाहा, पढ़ना चाहा,
कहना चाहा, सुनना चाहा,
क्योंकि तुम, बस तुम हो ऐसे
आओ-आओ, हम हैं इतने,
इतने हम हैं, इतने-इतने, हम हैं ऐसे,
आओ अभी अशेष समर है !