Thursday 22 September 2016

एक अविस्मरणीय पश्चाताप

कभी-कभी कोई-कोई पश्चाताप जीवन भर पीछा करता रहता है। एक ऐसा ही वाकया मेरे भी अतीत का हिस्सा रहा है। दरअसल, कल एक मित्र 'पिंक' को सराहते हुए मुझे भी सिनेमाहाल खींच ले गए। लौटते समय 'वह वाकया' घुमड़ने लगा। साहित्य और सिनेमा पर दिमाग दौड़ते-दौड़ते पहुंच गया मुंशी प्रेमचंद से जुड़े एक पांडुलिपि प्रकरण पर।
उन दिनो मैं 'आज' अखबार आगरा में कार्यरत था। वहां के कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी पीठ में एक प्रोफेसर थे त्रिवेदीजी। उनके आकस्मिक देहावसान के बाद उनके चार बच्चों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया। सबसे बड़ी बेटी थी। मृत्यु के बाद नेपाल में कार्यरत रहे एक प्रोफेसर की निगाह त्रिवेदीजी के अथाह संग्रहालय पर जा टिकी। वह त्रिवेदीजी की बेटी से येन केन प्रकारेण पूरा संग्रहालय खरीदना चाहते थे। उस संग्रहालय में दुर्लभ पांडुलिपियां थीं। एक व्यक्ति त्रिवेदीजी के बेटे को नौकरी लगवाने के लिए आज अखबार के कार्यालय ले आया। उसे प्रशिक्षित करने के लिए मेरे हवाले कर दिया गया। उसने एक दिन बताया कि उसकी बहन पापा की सारी किताबें बेचने वाली है। फिर पूरा वाकया बताया। अगले दिन मैं उसके घर गया। उस घरेलू संग्रहालय में एक दुर्लभ पांडुलिपि मिली।
त्रिवेदीजी की बेटी ने बताया कि पापा को इसे कवि जयशंकर प्रसाद ने टाइप करवाकर छपवाने के लिए दिया था। आग्रहकर वह पांडुलिपि मैं इस उद्देश्य से ले आया कि अगर कहीं नेपाल वाला प्रोफेसर इसे ले गया तो इस दुर्लभ सामग्री का जाने क्या हाल हो। किसी तरह फोन नंबर प्राप्त कर पांडुलिपि के संबंध में मैंने दो-तीन बाद जयशंकर प्रसाद जी के परिजन से संपर्क किया। उन्होंने दो टूक कह दिया कि ऐसी कोई पांडुलिपि है ही नहीं।
उसके बाद मैंने वह पांडुलिपि आगरा विश्वविद्यालय के एक मित्र प्रोफेसर को देखने के लिए दी। उन्होंने उसे कुलपति को दिखाने के बहाने लापता कर दिया। लंबे समय तक लौटाने का आग्रह करता, पर मिली नहीं। अब तो वह प्रोफेसर भी इस दुनिया में नहीं रहे। उस पांडुलिपि में हिंदी के अनेकशः शीर्ष साहित्यकारों (प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, निरालाजी, नंददुलारे वाजपेयी, पंत आदि) के जयशंकर प्रसाद से हुए पत्राचार की मूल प्रतियां थीं। उसी में एक लंबा पत्र मुंशी प्रेमचंद का था, जो उन्होंने बंबई (मुंबई) की फिल्मी दुनिया से लौटने के बाद लिखा था। काश, वह पांडुलिपि प्रकाशित होकर हिंदी पाठकों को उपलब्ध हो सकी थी। वह दुख आज तक टीसता है।

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