Sunday 1 May 2016

मेरा समय / जयप्रकाश

मेरा समय चरमरा रहा है। अंदर खामोशी से टूट-फूट रहा है....चरर-मरर, चट्ट-चट्ट। जैसे श्मशान पर पसलियां चटकती हैं। हवाओं में असहनीय चिरायंध है। उलट-पुलट कर नया आकार लेता हुआ कोई अपार संभावनाओं वाला विराट निर्माण अपनी ताजा संरचना से पहले ढह रहा है। फिलवक्त ऊबड़-खाबड़, अदम्य जीजिविषा के युद्ध स्थल पर, भुतहा, भयावह, चिथड़ा-चिथड़ा सच रू-ब-रू है।
मेरे समय में हर दिन यादगार होता है। उस दिन खाली जेब खंगालते, झुझलाते हुए जब घर लौट रहा था, दिनभर का खून सोखकर शाम खिल रही थी। सड़क से सटे नाले के पार नंग-धड़ंग ढेर सारे बच्चे कनस्तर बजा रहे थे। झप्प से आसपास की सारी बत्तियां एक साथ जल उठी थीं। अंधेरा लादे रात उतर रही थी। धीरे-धीरे सारा ताप बुझ रहा था। मुखौटों वाले सुर्ख चेहरे देखकर बेवजह खुश हो लेने के इंतजार में अपने आखिरी दिन गिनते हुए एक और दिसंबर बूढ़ा हो रहा था।
मेरे समय में जहां तक पृथ्वी, आकाश, आग-पानी, हवा है, अंधेरे को चीरते हुए जहां तक रोज सुबह होती है, सूरज उगता है, दिन खिलखिला उठते हैं, थिर-स्थिर होकर भी दिशाएं बतियाती-चहचहाती हैं, पक्षी उड़ान भरते हैं, जीवन जोर-जोर से चल पड़ता है, रंग-विरंगे सुर गूंजते हैं, जहां तक विविध भाषा-बोलियों में, हंसते-विहसते शामें थक जाती हैं, रातें थपकियाती हैं, आदमी जहां तक सुनहरे सपने देखता है, सब ओर-छोर तक शब्द हैं वहां। तृण-तृण, बूंद-बूंद में।
मेरा समय, मेरे शब्दों का समय है। मेरे समय में हत्यारा निःशब्द हंसी हंस रहा है। उसकी हंसी में बड़ी ताजगी है।  स्वाद है। पूरी मिठास और असह शीतोष्णता भी है। उसे एक-एक मानुस-वन-मानुस की चिंता है। हत्यारे के सिर पर न सींग है, न पूंछ। मुंह पर मूंछ हो भी सकती है, नहीं भी। वह शव-साधना में अत्यंत निष्णात है। हत्यारा अपनी जान और उड़ान के लिए जिंदा पंछियों के पंख पर सोता है। वह सबके लिए परम 'सम्माननीय-श्रद्धेय' होता है।
मेरे समय में प्रायः वह मंच-प्रपंच, राज्याभिषेक से, पुस्तक प्रकाशनोत्सवों तक विराजता है। उसके चौखट पखारती दूध की नदी, दरोदीवार पर उसके खुदी खूनी इबारतें, पढ़-पढ़ कर एक पूरी-की-पूरी पीढ़ी अब अपनी सांसें गिनने भर रह गई है किंतु आज तक हत्यारे की हंसी नहीं थमी है। उस हंसी में हर सुर-लय-ताल और समस्त प्रकार के बेताल हैं। अपने बच्चों से उसे अनकह प्यार है, जो पौ फटते ही न आदमी होने, न होने देने की किताब के अक्षर-अक्षर रटने लगते हैं। जन्म से पिता की आदतों पर गये बच्चे भी वैसी ही लाल-लाल होठों वाली कुलीन हंसी हंसते हैं और सुनहली ड्यौढ़ियों के पार से उस पर मुग्ध-मोहित स्त्रियां बार-बार बलैया लेती हैं। मुनादी है कि भूल से भी, हत्यारे की हंसी की शान में गुस्ताखी न हो। जो ऐसा करेगा, बेमौत मरेगा। आज तक हत्यारे को किसी ने रोते नहीं देखा है। फिर भी न जाने क्यों अक्सर, उसे अपनी हंसी से, बड़ा डर लगता है! मेरे समय का हत्यारा अपने पुरखों से ज्यादा डरपोक है।
मेरे समय में आज तक हत्यारे को किसी ने रोते हुए नहीं देखा। फिर भी उसे अपनी हंसी से बहुत डर लगता है। नुमायशें हत्यारे का पेशा हैं। उसके मुर्दा होठो पर शोहदे-'शब्द' अ-श्लील सरोकारों और नशीले इशारों से तर रहते हैं। एक दिन हत्यारे ने लिखा - रूह में डूब चुके हो, तो एक काम करो, लफ्ज बदनाम करो। शर्म से ऊब चुके हो, तो एक काम करो,  जिस्म आबाद करो। शब्द नीलाम करो। रोटियां सेंक चुके हो, तो एक काम करो, रेत पी रहीं घुच्ची आंखों की बात करो। निर्वसन रोटियां लूट चुके हो, तो एक काम करो, काई-जलाशयों में उतरो, रक्त-स्नान करो। और आखिरी दिन हत्यारे ने लिखा - प्यार एक जिंदा शब्द है, मैं भोगते-भोगते उसे मार डालूंगा।
मेरे समय के पेट में आग लगी है। हमारे मुंह में गोलियां नहीं, गालियां भरी हैं। आखिर कब तक उनसब पर हम यकीन करें और अपने हाथों की लकीरें, पांवों के छाले गिनते रहें, गिनते रहें। अपने-अपने अभयारण्य के लिए हमारे बच्चों को वे फुसलाते-टहलाते रहें, और उदास-उदास, निहत्थे हमारे घर-गांवों को उनकी नख-दंतुल वाहिनियां नोचती रहें। हम थानो-कचहरियों के चक्कर लगाते रहें और वे कुर्सियों के। देश, सम्प्रदाय, जातियों की मथानी से वे हमे मथते रहें, कबीलों में बांटते रहें, रोज रोज हम अखबारों में दाल, सब्जी, पेट्रोल के भाव पढ़ते रहें और वे पत्रकारों, कलमकारों को नशाते-नचाते  रहें। वे वोट और और हम दिन गिनते रहें। हम अपने बच्चों को फीस, औरतों को दवा और वे झूठ की गठरी जुटाते रहें। आखिर कब तक। अब वे ही हमे ऐसे आखिरी दिन अपनी अंतिम इच्छा बता दें। समय आने पर हमे उनकी अंतिम इच्छा भी नहीं जानना।

जयप्रकाश

आंख क्यों फिर से छलक आई है, 
सूख जाती क्यों रोशनाई है,
कोई मेरा लिखा पढ़े-न-पढ़े, 
मैंने लिखने की कसम खाई है।